स्वामी अग्निवेश गांधी की परंपरा के हिंदू थे, जो मुसलमान, सिख, ईसाई या आदिवासी को अपने रंग में ढालना नहीं चाहता और उनके लिए अपना खून बहाने को तत्पर खड़ा मिलता है. वे मुसलमानों और ईसाइयों के सच्चे मित्र थे और इसीलिए खरे हिंदू थे.
81 साल पूरे होने में कुछ रोज़ रह गए थे कि स्वामी अग्निवेश ने इस संसार से विदा ली. वे गृहस्थ नहीं थे, लेकिन संसार से उनका नाता प्रगाढ़ था. वे विरक्त कतई नहीं थे.
राग हर अर्थ में उनके व्यक्तित्व को परिभाषित करता था. प्रेम, घृणा और क्रोध, ये तीनों ही भाव उनमें प्रचुरता से थे. इसलिए वे उन धार्मिकों की आख़िरी याद थे जिन्होंने धर्म के प्रति आस्था के कारण समाज को अधार्मिकता से उबारने का प्रयास किया.
वे चाहे स्वामी दयानंद हों या स्वामी विवेकानंद. यह एक सांसारिक धार्मिकता थी जो समाज को उदार, मानवीय, प्रेमिल बनाना चाहती थी.
स्वामी और प्रेम? मुझे एक प्रसंग याद आता है. मेरी एक छात्रा का अनुराग जिस युवक से था, घर वालों को उससे उसका वैवाहिक संबंध पसंद न था. उन दोनों ने विवाह की ठानी.
विशेष विवाह अधिनियम के तहत विवाह के पंजीकरण को जिस कदर मुश्किल बना दिया जाता है, उसके कारण ढेर सारे युगल वह मार्ग नहीं अपना पाते. हमने स्वामी अग्निवेश को फोन किया.
उन्होंने लाजपत नगर के आर्य समाज मंदिर में बात करके उनके लिए व्यवस्था की. वे खुद विवाह के आयोजन में आए और पूरे समय मौजूद रहे. उनके चेहरे पर प्रसन्न तोष का भाव था.
एक संन्यासी दो प्राणियों को एक नए सांसारिक बंधन से विरत करना तो दूर, उसके लिए उन्हें आशीर्वाद देने अपना वक्त निकाल कर आया था. उनके साथ वेद प्रताप वैदिक भी खुश-खुश वहां थे.
इससे मेरी छात्रा को ही नहीं, हम सबको कितना संबल मिला, क्या कहना होगा? मैं जानता हूं, यह अकेले मेरा अनुभव नहीं होगा. हम जैसे कई लोगों ने इस तरह स्वामी के आशीष का प्रसाद मिला ही होगा.
धर्म संसार में कैसे दखल दे? ईश्वरीय सृष्टि में मनुष्य ने जो विकृति पैदा की है उसे ठीक करना ही धार्मिक उत्तरदायित्व है. यह करने में संसार से जूझना पड़ता है.
मानवीय विकृतियों को ईश्वरीय योजना का परिणाम बताकर उन्हें जारी रखना दरअसल ताकतवर लोगों का धर्मद्रोह है. उनकी अधार्मिकता से संघर्ष का अर्थ है उनका कोप झेलना.
इसलिए यह जानते हुए भी यह ईश्वरीय विधान नहीं है, संन्यासी इसे हरिइच्छा कहकर उसके भजन में लग जाते हैं. जिसने भी किसी रूप में मनुष्य को चुनौती दी कि वह ईश्वर की जगह नहीं ले सकता, उस पर चौतरफा वार हुए.
स्वामी अग्निवेश का जीवन इसी द्वंद्व में गुजरा. बंधुआ मजदूरी और बाल श्रम उनके पहले भी था. धर्म, प्रत्येक धर्म उसके रहते निर्विकार धर्म बना हुआ था.
अग्निवेश ने इसे अपना आध्यात्मिक कर्तव्य माना कि मनुष्य को मनुष्य का दास बनने से रोकें. बच्चों को, जिन्हें भगवान का रूप माना जाता है, किसी का गुलाम नहीं बनाया जा सकता.
उनका मुकाबला उनसे हुआ जो खुद को धार्मिक ही कहते थे. नैतिक विजय स्वामी अग्निवेश की हुई.
घृणा उपयोगी भाव है. प्रेमचंद के अनुसार बिना अनाचार, अन्याय, असमानता से सच्ची घृणा के आप इनसे लड़ भी नहीं सकते.
अगर यह घृणा नहीं है, तो आप इनसे उदासीन जीवन जीने का तर्क खोज लेंगे. ऐसी घृणा न्याय के लिए संघर्ष को आवेग प्रदान करती है. अग्निवेश में यह प्रचुर थी.
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने सात्विक क्रोध को वरेण्य माना है. जॉन दयाल ने फिलीस्तीन और जॉर्डन के एक सफर की याद की है जिसमें स्वामी और वे साथ थे.
सीमा पर इस्राइल के सरहदी गार्ड ने उन्हें रोक दिया. उनके पासपोर्ट भी ले लिए. स्वामी वहीं धरने पर बैठ गए और इस्राइली गार्ड पर गुस्से से चीखने लगे. वहां इकट्ठा फिलीस्तीनियों, इस्राइलियों और शरणार्थियों के एक जमावड़े को भाषण भी दिया.
इससे बौखलाकर इस्राइली अधिकारियों को दुभाषियों को बुलाना पड़ा. दूतावास से भी लोग आए और पासपोर्ट वापस दिए गए. फिर सब बस पर सवार होकर जॉर्डन गए.
धार्मिक जन की पहचान लेकिन सबसे ज्यादा हिम्मत या वीरता से होती है. कौन है जो आग में कूद पड़ने की हिमाकत कर सकता है या दरिया में छलांग लगा देता है अगर वह किसी को संकट में पड़ा देखे.
उपदेश सहज है, क्रियात्मकता कठिन. संन्यास का बहाना लेकर उसके जोखिम से बचा जा सकता है. स्वामी अग्निवेश ऐसे कायर न थे.
दिल्ली के सामाजिक कार्यकर्ताओं को याद है कि 1984 में अग्निवेश ने किस तरह हिंदू हिंसक भीड़ का सामना किया था. वे अकेले न थे.
अमनदीप संधू ने 2005 में ‘रीडिफ’ को दिए गए इंटरव्यू से पूनम मुटरेजा को उद्धृत किया है,
‘हिंसा रोकने के लिए हमें लोगों की ज़रूरत थी. तब हम स्वामी अग्निवेश के पास गए… वे हमारे साथ आए. लूटमार फैल रही थी. एक कोने पर हम भीड़ से घिर गए. स्वामी अग्निवेश एक स्टूल पर खड़े हो गए. उन्होंने लोगों से संयम बरतने को कहा क्योंकि वे सब हिंदू थे. उन्होंने कहा कि उस हिंदू धर्म के सच्चे अनुयायियों की तरह, जो सहिष्णुता सिखाता है, हमें हत्या और लूटपाट नहीं करनी चाहिए. एक भगवाधारी साधु का उस भीड़ पर जादुई असर हुआ.’
स्वामी ने बाद में भी खुद को मुश्किल में डाला. हिमांशु कुमार ने छत्तीसगढ़ में माओवादियों और सरकार के हिंसा के बीच उनके हस्तक्षेप को याद किया है. लेकिन इसके साथ और भी. सबसे अधिक उनकी हिम्मत को:
‘स्वामी जी बहुत साहसी थे. वह बिल्कुल डरते नहीं थे. छत्तीसगढ़ में सलवा जुडूम के दौरान और उसके बाद बड़े-बड़े आदिवासी संहार सरकार के द्वारा किए गए. स्वामी अग्निवेश उनके खिलाफ आवाज उठाने में हमेशा आगे आ जाते थे. एक बार माओवादियों ने पांच सिपाहियों का अपहरण कर लिया था. स्वामी अग्निवेश उन्हें छुड़ाने के लिए अबूझमाड़ गए और सफलतापूर्वक सिपाहियों को छुड़ाकर लाए.
छत्तीसगढ़ के ताड़मेटला में जब आदिवासियों के 300 घरों को पुलिस ने जलाया था तो मेरे सूचना देने पर स्वामी अग्निवेश तुरंत छत्तीसगढ़ गए जहां पुलिस अधिकारी कल्लूरी के नेतृत्व में स्वामी अग्निवेश पर भयानक हमला हुआ, जिसमें स्वामी अग्निवेश की जान बाल बाल बची थी.
जब सारकेगुडा गांव में सीआरपीएफ ने सत्रह आदिवासियों को मार डाला, जिनमें नौ बच्चे भी थे, हमने दिल्ली में इंडिया गेट पर विरोध प्रदर्शन किया और सभा की. स्वामी अग्निवेश ने आगे बढ़कर इस मुद्दे पर आदिवासियों के पक्ष में बात रखी.’
इसके बाद का प्रसंग दिलचस्प है,
‘स्वामी जी का टीवी शो राज्यसभा चैनल पर आता था. पी. चिदंबरम गृहमंत्री थे .स्वामी जी ने मुझे उस कार्यक्रम में बोलने के लिए बुलाया. मैंने स्वामी जी को चेतावनी दी कि यदि आपने मुझे कार्यक्रम में बुलाया तो अगले हफ्ते से आप का कार्यक्रम सरकार बंद कर देगी.
स्वामी जी ने कहा कोई बात नहीं आप आइए. मेरी बातों का जवाब देने के लिए गृह मंत्रालय से एक संयुक्त सचिव भी आए थे. लेकिन सच्चाई का मुकाबला कौन कर सकता है.
मेरी बातों में जमीनी सच्चाई थी सरकार के प्रतिनिधि जवाब नहीं दे पाए. 2 दिन बाद स्वामी जी को पत्र आ गया कि अगले हफ्ते से आप का कार्यक्रम प्रसारित नहीं किया जाएगा.’
अग्निवेश राजनीति में कई अवतारों में आए. राजनीति की क्षुद्रता के छींटे उन पर पड़े. इससे भी वे डरे नहीं. सांसारिकता से जूझे बिना आध्यात्मिकता की परीक्षा कैसे हो?
असल बात यह है कि आज के जमाने की आध्यात्मिकता का आधार तलाश करने में उन्होंने अपनी ओर से कोताही नहीं की. उसकी एक ईंट थी अल्पसंख्यकों के अधिकार के लिए निष्कंप खड़े रहना.
वे खुद हिंदू रहे, लेकिन गांधी की परंपरा के हिंदू जो मुसलमान या सिख या ईसाई या आदिवासी को अपने रंग में ढालना नहीं चाहता और उनके लिए अपना खून बहाने को तत्पर खड़ा मिलता है. वे मुसलमानों और ईसाइयों के सच्चे मित्र थे और इसीलिए खरे हिंदू थे.
भारतीयता पर भी स्वामी अग्निवेश का किसी के मुकाबले अधिकार कहीं अधिक था. वेपा श्याम राव, एक तेलुगू ने छत्तीसगढ़, बंगाल, हरियाणा और दिल्ली में अपनी भारतीयता गढ़ी.
वे बहुभाषी थे. उनकी सुष्ठु हिंदी सुनकर आप अनुमान नहीं कर सकते थे कि यह उनकी अर्जित भाषा है. वे इसीलिए जैसे हिंदू धर्म का सतहीकरण बर्दाश्त नहीं कर सकते थे वैसे ही भारतीयता का स्वांग भी उन्हें सह्य नहीं था क्योंकि ये दोनों ही उन्होंने श्रमपूर्वक कमाए थे.
अपना पसीना और खून भी इसे गढ़ने में लगाया था, उसे सड़क पर पड़े उठाभर नहीं लिया था. इसकी कीमत को वे जानते थे , इसलिए इसे भ्रष्ट होते देख इस संन्यासी का क्रोध प्रज्वलित हो उठता था.
यह हिंदुओं के लिए अफ़सोस की बात है कि उन्होंने स्वामी को अपना दोस्त और हितू नहीं माना. स्वामी अग्निवेश पर आख़िरी हमला झारखंड में तत्कालीन शासक दल भारतीय जनता पार्टी की शह पर हुआ. फिर दिल्ली में उसी दल के लोगों द्वारा जब वे अटल बिहारी वाजपेयी को श्रद्धांजलि देने जा रहे थे.
इससे स्वामी अग्निवेश को शारीरिक क्षति हुई. लेकिन स्वामी अग्निवेश जैसों से खुद को दूर करके हिंदू अपनी आत्मा का कितना नुकसान कर रहे हैं, क्या कभी उन्हें इसका भान हो पाएगा?
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)