मध्यकालीन यूरोप में स्त्रियों को जादूगरनी बताकर ‘विच ट्रायल’ हुआ करते थे, जिनके बाद पचासों हज़ार स्त्रियों को खंभे से बांधकर जीवित जला दिया गया था. उस समय यंत्रणा देकर सभी स्त्रियों से अपराध स्वीकृति करवा ली जाती थी. रिया का भी ‘मीडिया ट्रायल’ नहीं हुआ है, ‘विच ट्रायल’ हुआ है.
रिया चक्रवर्ती गिरफ्तार हो गईं. पिछले 85 दिनों से अनेक टीवी चैनल जिस तरह से एक लड़की पर टूटे पड़े थे, उससे तो ऐसा प्रतीत होता था कि रिया के ऊपर आरोप लगाया जाना और अंत में उनका गिरफ्तार होना वर्ष 2020 की सबसे महत्वपूर्ण घटनाएं थीं.
क्या कोविड-19, क्या लॉकडाउन, क्या प्रवासी मजदूरों की भुखमरी की विकट समस्या, क्या देश की अर्थव्यवस्था का अभूतपूर्व रूप से लड़खड़ा जाना, क्या चीन का लद्दाख में अतिक्रमण, एक अकेली रिया सब पर भारी थीं.
क्या ख़ास बात थी इस गिरफ़्तारी में? क्या ये देश की पहली गिरफ़्तारी थी? क्या ये देश का पहला ड्रग्स का केस था? नहीं!
नवीनतम सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 2018 में एनडीपीएस एक्ट के तहत 49,450 केस दर्ज़ हुए थे, जिनमें कुल 60,156 गिरफ्तारियां हुई थीं. सो इस एक गिरफ्तारी को लेकर इतना हंगामा क्यों?
लेकिन कुछ चैनलों के मत से देश में ‘बिहार के बेटे’ को न्याय दिलाने से ज़्यादा कुछ भी ज़रूरी नहीं था और इसके लिए रिया का गिरफ्तार होना आवश्यक था.
लिहाजा मेरा सुझाव है कि सरकार के ‘कोरोना वॉरियर्स’ की भांति जब इन ‘रिया वॉरियर्स’ ने भी उसे गिरफ्तार कराने के लिए इतना घोर श्रम किया है तो समस्त देशवासी एक शाम अपनी बालकनी में खड़े होकर थालियां बजाकर और बेमौसम दिये जलाकर उनके प्रति अपना हार्दिक आभार व्यक्त करें.
चैनलों के एंकर ऐसा व्यवहार कर रहे थे कि लगता था कि उन्हें स्टूडियो में ही हिस्टीरिया का दौरा पड़ गया है- एक प्राणी तो ‘मुझे ड्रग्स दो, मुझे ड्रग्स दो’ का नारा लगाने लग गया.
छोटी से छोटी बात भी इस धमाके से पेश की जा रही थी गोया पूरा देश रेलवे स्टेशनों के बुक स्टालों पर बिकने वाले सस्ते जासूसी उपन्यास पढ़ रहा हो और अब एंकर-रूपधारी जासूस महोदय केस का खुलासा करने ही वाले हों.
सच ये है कि एक एक्टर की अस्वाभाविक मृत्यु या उसकी पूर्व गर्लफ्रेंड की उसमें कथित भूमिका मुख्य मुद्दे नहीं थे.
असल में जनता का इस प्रकरण में इतनी जुगुप्सापूर्वक रुचि लेना जनमानस के सामूहिक अवचेतन में छिपी विकृतियों (Perversions) और मिसोजिनी (स्त्री द्वेष) का प्रमाण और परिणाम दोनों था.
करोड़ों दर्शक इस तरह रिया के खून के प्यासे हो रहे थे जैसे ‘मृत्यु का नृत्य’ चल रहा हो.
ये देश सामाजिक प्रगति के जितने भी झूठे दावे करे, जब स्त्री की बात आती है तो बहुसंख्य लोगों को सास-बहू टाइप के टीवी सीरियलों में दिखाई जाने वाली डेढ़ किलो जेवर से लदी, मांग में डेढ़ सौ ग्राम सिंदूर लगाए, पूरा दिन कोई काम करने के बजाय खुद षड्यंत्र करने या सास के षड्यंत्रों से संघर्ष करने में समय बिताने वाली और रात को बिस्तर पर भी कांजीवरम साड़ी पहनकर सोने वाली ‘आदर्श’ स्त्रियां ही पसंद आती हैं.
एक ऐसी लड़की, जो ज़िंदगी अपने तरीके से जीना चाहती थी, जो बिना शादी किए किसी लड़के के साथ रहने में सहज थी और जिसने अपनी मर्जी से उससे संबंध तोड़ भी लिया, लोगों को बेहद नागवार गुज़री.
उसे ‘सेक्स का चारा’, विषकन्या, डायन आदि क्या-क्या नहीं कहा गया. जो लोग घर की चारदीवारी में क़ैद औरत को ही आदर्श स्त्री मानते हैं, उनके लिए रिया की जीवनशैली ही उसके अपराधी होने का प्रमाण थी.
चैनलों ने जनता को सीधी कहानी पिलाई. एक चालू लड़की ने एक भोले-भाले ‘राजा बेटा’ टाइप के लड़के को गोलियां खिलाकर या बंगाल के काले जादू से अपने वश में करके उसका सारा पैसा हड़प लिया और फिर उसे ठिकाने लगा दिया.
लोगों ने कहानी को वेद वाक्य मानकर अच्छी तरह समझ में बिठा भी लिया. अब जनता को ये तो पूछना नहीं कि ऐसी कौन-सी गुप्त दवा है जो एक 34 साल के हट्टे-कट्टे इंजीनियर को महीनों तक यूं दी जा सकती है कि उसे पता भी न चले और वह किसी के वश में आ जाए.
मिसोजिनी या स्त्रियों को निकृष्ट श्रेणी का मनुष्य मानना हमारे देश की अत्यंत प्राचीन सामाजिक-सांस्कृतिक-धार्मिक परंपरा रही है.
आदि शंकराचार्य ने अपनी ‘प्रश्नोत्तरी मणिरत्नमाला’ में स्त्री को नरक का प्रधान द्वार कहा है. ‘भज गोविन्दम’ में उन्होंने पुरुषों को स्त्री के स्तनों और नाभि से मोहाविष्ट हो जाने से सावधान किया है.
हमारा पूरा प्राचीन साहित्य इस बात से भरा पड़ा है कि स्त्री पुरुष को पतन के मार्ग पर ले जाएगी और उसे उस आध्यात्मिक उन्नति को प्राप्त नहीं करने देगी, जो वो स्त्री का संपूर्ण त्याग करके प्राप्त कर सकता था.
हम सभी अप्सराओं की उन कथाओं से परिचित हैं, जो ऋषि-मुनियों को लुभाकर उनकी तपस्या भंग कर देती थीं. इन सभी मान्यताओं का परिणाम यह हुआ कि पुरुषों के अवचेतन में स्त्री के लिए सम्मान समाप्त हो गया और उनके मन में ग्रंथियां उत्पन्न हो गईं.
अगर समस्त स्त्रियां ‘मोहिनी’ हैं, जिनके जीवन का मुख्य उद्देश्य पुरुष को लुभाना है, तो तर्क के अनुसार वे यह मानने को बाध्य थे कि उनकी माताएं भी वही रही होंगी जिन्होंने उनके पिताओं का धर्म भ्रष्ट कर दिया.
जो लोग अपनी माताओं के विषय में ऐसा सोच सकते थे, वे दूसरी स्त्रियों का क्या सम्मान करते?
इस पूरे प्रकरण में लोग एक मामूली कानूनी बात नहीं समझ रहे. मान लीजिए रिया पर सुशांत के लिए ड्रग्स लाने के आरोप साबित हो जाते हैं और सज़ा हो जाती है, उसका मतलब यह होगा कि सुशांत भी तो अपराध में बराबर का भागीदार थे.
हमारे समाज की मिसोजिनी को आप दूसरी तरह से भी समझ सकते हैं. मान लीजिए ऐसा ही कोई लिव-इन रिलेशनशिप का जोड़ा होता जो ड्रग्स लेता था और जिनके संबंध बाद में टूट गए थे.
अब अगर लड़के की जगह लड़की ने आत्महत्या की होती, तो भी लोग उसे ही नशेड़ी बताकर दोष देते और लड़के को शाबाशी देते कि वह समय रहते ‘उस टाइप की लड़की’ से बच निकला!
रिया केवल गिरफ्तार हुई हैं. अभी उस मामले में उन पर चार्जशीट भी पेश नहीं हुई है, फिर उनका सज़ा पाना तो दूर की बात है.
बावजूद इसके अनेक चैनलों पर रिया की सामूहिक निंदा और उन्हें बेशर्मी से खलनायिका के रूप में प्रस्तुत किया जाना सदियों पुरानी इन्हीं मान्यताओं का परिणाम था.
अब आप समझ सकते हैं कि महाभारत में भरी राजसभा में द्रौपदी का अपमान किया जाना कोई विरले घटना नहीं थी. दुर्योधन और दुशासन अब भी जीवित हैं और टीवी स्टूडियो में पाए जाते हैं.
आपने गौर किया होगा कि इन लोगों ने दर्शकों को उत्तेजित करने की नीयत से रिया की निजी तस्वीरें और वीडियो भी खूब दिखाए, जिनमें वो बिकिनी या वैसे अन्य कपड़ों में थी. यह ‘सामूहिक वर्चुअल मोलेस्टेशन’ नहीं तो और क्या है?
इन चैनलों ने जनता के कानून संबंधी अज्ञान का भरपूर लाभ उठाया. नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो ने दावा किया कि रिया ने उनके समक्ष अपराध की स्वीकृति कर ली है. मात्र इस आधार पर सबने रिया को दोषी मान लिया.
किसी ने एक बार भी नहीं बताया कि इंडियन एविडेंस एक्ट के सेक्शन 25 के तहत पुलिस के समक्ष की गई अपराध स्वीकृति अदालत में मान्य नहीं होती. पुलिस के सामने मार या यंत्रणा के डर से कोई भी कुछ भी बोल दे, उसका कोई महत्व नहीं होता.
आपको याद दिला दें कि मध्यकालीन यूरोप में स्त्रियों को जादूगरनी बताकर ऐसे ही ‘विच ट्रायल’ होते थे, जिनके बाद पचासों हज़ार स्त्रियों को खंभे से बांधकर जीवित जला दिया गया था. उस समय भी यंत्रणा देकर सभी स्त्रियों से अपराध स्वीकृति करवा ली जाती थी.
रिया का भी ‘मीडिया ट्रायल’ नहीं हुआ है, ‘विच ट्रायल’ हुआ है. इस पूरे प्रकरण में चैनलों ने और उन पर आकर बढ़-चढ़कर बयान देने वाले पुलिस अधिकारियों ने सुप्रीम कोर्ट के तीन और केरल हाईकोर्ट के एक आदेश का सरासर उल्लंघन किया है.
सुप्रीम कोर्ट ने अगस्त 2014, फरवरी 2017, और सितंबर 2018 में तथा केरल हाईकोर्ट ने अगस्त 2020 में स्पष्ट आदेश दिए हैं कि जांच के दौरान मीडिया को ब्रीफिंग न की जाए.
कोर्ट ने यह भी कहा है कि गिरफ्तार व्यक्ति आगे चलकर रिहा भी हो सकता है और इसलिए उसका चेहरा टीवी पर दिखाया जाना उसकी प्रतिष्ठा को हमेशा के लिए आघात पहुंचा सकता है. पर यहां तो चैनलों का बस चलता तो रिया के बेडरूम में ही पहुंच जाते!
आपने यह भी गौर किया होगा कि रिपोर्टर्स के झुंड रिया के गिर्द किस क़दर भीड़ लगाए रहते थे और धक्कामुक्की कर रहे होते थे.
कोरोना के समय जब हर जगह सोशल डिस्टेंसिंग का उपदेश दिया जा रहा है, ऐसे समय में अगर उस भीड़भाड़ के कारण रिया को कोरोना हो गया, तो उसके लिए किसको ज़िम्मेदार ठहराया जाएगा?
रिया के साथ जो कुछ हुआ है उसके लिए केवल चैनल ही ज़िम्मेदार नहीं हैं, उनके दर्शक भी उतने ही ज़िम्मेदार हैं.
आप जानते ही हैं कि टीआरपी के अलावा इन चैनलों का अपना राजनीतिक एजेंडा भी है. लेकिन वे मीडिया के सामाजिक दायित्व को धता बताकर, जान-बूझकर दर्शकों के अवचेतन में छिपे स्त्री द्वेष और विकृतियों को भुना रहे थे.
वे जान रहे थे कि एक लड़की को इस प्रकार से सामूहिक रूप से प्रताड़ित होता देखने में दर्शकों को उसी आनंद की अनुभूति हो रही है जो कभी अमेरिका और इंग्लैंड में लोगों को सार्वजनिक रूप से फांसियां देखने में होती थी, जिसके लिए वे मेलों की तरह जुटा करते थे.
पाठकों, ध्यान रखें कि रिया सिर्फ एक व्यक्ति है. समाज के ऊपर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह दोषी पाई जाती है या दोषमुक्त हो जाती है.
लेकिन जहां करोड़ों लोग टीवी पर आंखें गड़ाए रिया के साथ हो रहे एक-एक ‘अत्याचार’ का जुगुप्सापूर्वक रस ले रहे थे और वो भी उस समय जब देश कोरोना, बेरोजगारी, लुढ़कती अर्थव्यवस्था और चीन के अतिक्रमण जैसी समस्याओं से घिरा था, तो हमारे राष्ट्रीय चरित्र की यह कमज़ोरी निश्चित रूप से चिंता का विषय है.
रिया के साथ जो कुछ हुआ उसने, रिया का उतना पर्दाफाश नहीं किया, जितना भारतीय समाज की छिपी विकृतियों और स्त्री द्वेष को बेनक़ाब करके रख दिया है.
(लेखक रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी हैं और केरल के पुलिस महानिदेशक और बीएसएफ व सीआरपीएफ में अतिरिक्त महानिदेशक रहे हैं.)