पिछले पांच-छह सालों में दिनकर का कीर्तन वैसे लोगों ने किया है, जिन्हें शायद वे अपनी चौखट न लांघने देते. उनकी ओजस्विता से इस भ्रम में नहीं पड़ जाना चाहिए कि वे हुंकारवादी राष्ट्रवाद के प्रवक्ता थे. वे राष्ट्रवादी थे, लेकिन ऐसा राष्ट्रवादी जो अपने राष्ट्र को नित नया हासिल करता था और कृतज्ञ होता था.
रामधारी सिंह दिनकर का आज (23 सितंबर) जन्मदिन है. अभी भी उन्हें सिर्फ कवि, सिर्फ लेखक होने के कारण याद करनेवाले हैं. वे जो न उनकी जाति का होने के कारण और न उन्हें किसी राष्ट्रवादी उपयोगिता के कारण याद कर रहे हैं.
हालांकि भारत चीन सीमा पर तनाव के समय उनका इस्तेमाल किया गया है. लेकिन हमारी एक मित्र ने उनकी प्रसिद्ध पंक्तियों के माध्यम से उनको याद किया:
…सिंहासन खाली करो कि जनता आती है.
जनता? हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही,
जाड़े-पाले की कसक सदा सहने वाली,
जब अंग-अंग में लगे सांप हों चूस रहे
तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहने वाली.
लेकिन, होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढ़ाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है.
जनता का अपना कोई दिमाग नहीं होता कि उसे बरगलाकर विद्रोह के लिए उकसाया जाता है, कि कुछ दिमागदार उसे गुमराह करते हैं: इस ख्याल की धज्जी यह कविता उड़ा देती है.
जनता जब सत्ता को चुनौती देती है तो वह सत्ता के लिए कोई मधुर क्षण नहीं होता. कोपाकुल, चढ़ी हुई भृकुटि, रथ का घर्घर नाद, भूडोल, बवंडर: ये सारे ख़ास दिनकरी शब्द हैं.
लेकिन जनता का उठना, उस जनता का जो लंबे वक्त तक मुंह खोलकर दर्द नहीं कहती है, सत्ता के लिए कभी भी सुखद नहीं होता. जनता का उठ खड़ा होना सत्ता को हमेशा आतंकित करता है.
दिनकर से एकदम अलग मिजाज़ के कवि शमशेर ने भी तो इसी जनता के बारे में लिखा कि जब जब वह दर्द से करवट लेती है, सरकारें बदल जाया करती हैं.
जनता का विद्रोह का अधिकार उसके अस्तित्व के साथ अविच्छिन्न है और उसे जो सत्ता नाजायज़ ठहराना चाहती है, उसे धूलिसात होना ही पड़ता है.
यह जनता कौन है? क्या यह खुद सोच सकती है? क्या यह जनतंत्र में सिर्फ उसका नामजाप किया जाएगा?
जनता? हां! लंबी-बड़ी जीभ की वही कसम,
‘जनता, सचमुच ही बड़ी वेदना सहती है.’
‘सो ठीक, मगर, आखिर इस पर जनमत क्या है?’
‘है प्रश्न गूढ़; जनता इस पर क्या कहती है?’
जनता क्या सजावट की चीज़ है या वह खुदमुख्तार है?
मानो, जनता हो फूल जिसे अहसास नहीं,
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में,
अथवा कोई दुधमुंही जिसे बहलाने के
जंतर-मंतर सीमित हों चार खिलौनों में.
जनता कौन है? वह मुश्किल शै है. ‘जनता’ शीर्षक कविता में वे सावधान करते हैं:
मत खेलो यों बेखबरी में, जनता फूल नहीं है
और नहीं वह हिंदू-कुल की सतवंती नारी,
आगे
जनसमुद्र यह नहीं, सिंधु है अमोघ ज्वाला का
जिसमें पड़कर बड़े-बड़े कंगूरे पिघल चुके हैं.
लील चुका है यह समुद्र जाने कितने देशों में
राजाओं के मुकुट और सपने नेताओं के भी.
जनता को चिकनी-चुपड़ी सुनाकर बहलानेवालों को मालूम हो कि एक न एक वक्त यह मन का पाप समझ जाती है.
पिछले पांच-छह सालों में दिनकर का कीर्तन वैसे लोगों ने किया है, जिन्हें शायद वे अपनी चौखट न लांघने देते. उनकी ओजस्विता से इस भ्रम में न पड़ जाना चाहिए कि वे हुंकारवादी राष्ट्रवाद के प्रवक्ता थे.
राष्ट्रवादी वे थे, लेकिन दिनकर को चिंतनशील राष्ट्रवादी कहा जा सकता है. ऐसा राष्ट्रवादी जो अपने राष्ट्र को नित नया हासिल करता था और कृतज्ञ होता था.
राष्ट्रवाद पर पिछले 6 साल से ख़ास चर्चा चल रही है. इस संदर्भ में मित्र दुष्यंत ने दिनकर के राष्ट्रवाद याद दिलाई,
‘भारत में राष्ट्रीयता इसलिए पनपी कि यहां के लोग विदेशी शासन से घृणा करने लगे थे. किंतु घृणा में भी रचनात्मक शक्ति होती है…’
लेकिन दिनकर सावधान करते हैं,
‘… सभी देशों के स्वाधीन हो जाने के बाद भी राष्ट्रीयता अगर बनी रही, तो फिर विश्वबंधुत्व और विश्वशांति का सपना केवल सपना रह जाएगा.’
कुछ है जिसे परंपरा कहते हैं. राष्ट्रवाद को लेकर शंका की एक परंपरा है. टैगोर, प्रेमचंद की तरह ही दिनकर भी राष्ट्रवाद में निहित संकीर्णता, क्षुद्रता और हिंसा को लेकर सावधान हैं और एक समय उसके अंत की कल्पना करते हैं.
दिनकर ने अपने एक छोटे निबंध ‘जननी जन्मभूमि…’ में इस बात को और आगे बढ़ाया,
‘जब कवि यह कहता है कि: अपनी भाषा है भली, भलो आपुनो देस./ जो कुछ अपुनो है भलो, यही राष्ट्र संदेस.’ तब हमें यह बात अच्छी लगती है और लगनी भी चाहिए.
लेकिन उसके बाद ही दिनकर लिखते हैं,
‘…जब कोई कवि यह कहने लगे कि देशन में भारत भलो, हिन्दी भाषन माहिं/ जातिन में हिंदू भलो, और भलो कुछ नाहिं’ तब हमें सावधान हो जाना चाहिए.’
आश्चर्य नहीं कि गांधी के बाद उनके सबसे प्रिय राजनेता नेहरू हैं, जिन्हें वे प्यार से ‘लोकदेव’ कहते हैं और कवियों में उनके प्रिय टैगोर हैं.
आज जब हर किसी को यह कहा जा रहा है कि वह राष्ट्र के आगे समर्पण करता है या नहीं, इससे उसकी जांच होगी, दिनकर ने टैगोर के बारे में जो लिखा, उसे फिर से और ध्यान से पढ़ने की ज़रूरत है,
‘संस्कृति के सोपान पर चढ़ते हुए वे जीवन के जिस शिखर पर जा पहुंचे थे, वहां देशभक्ति के लिए जीवन की पूर्णता का बलिदान असंभव था. रवीन्द्रनाथ भली-भांति जानते थे कि जो देशभक्ति उन गुणों के बलिदान पर जीना चाहती है, जो देशभक्ति से भी बड़े हैं, वह भक्ति नहीं, तिरस्कार की पात्री है.
और यहीं वे उन सभी कवियों और सांस्कृतिक नेताओं से महान दीखते हैं, जो परिस्थितियों के तकाजों पर अपनी पूर्णता का एक अंश काटकर, समय के चरणों पर उपहार चढ़ाने में, बहुत अधिक नहीं हिचकिचाते.
जो देशभक्ति के नाम पर जीवन की पूर्णता को भूखों नहीं मारता, वह उस मनुष्य से महान है, जिसका एकमात्र गुण उसकी संकीर्ण देशभक्ति है.’
वास्तव है जीवन और मनुष्य की यह पूर्णता जिसे संकीर्ण देशभक्ति की बलिवेदी पर कुर्बान नहीं किया जा सकता.
भारत की संस्कृति क्या है, उसका स्वरूप कैसे बना है? ‘संस्कृति के चार अध्याय’ नामक किताब के सिलसिले में वे लिखते हैं,
‘मेरी पुस्तक का विषय भारत की सामासिक संस्कृति का विकास जन्म और विकास है. मेरी धारणा यह है कि भारत में जब आर्य और आर्येतर जातियों का मिलन हुआ, तब वही मिश्रित जनता भारत की बुनियादी जनता हुई और उसका मिश्रित संस्कार ही भारत का बुनियादी संस्कार हुआ.
इस बुनियादी संस्कृति में पहली क्रांति महावीर और बुद्ध ने की. फिर, जब मुसलमान आए तब उस संस्कृति में नई सामासिकता उत्पन्न हुई और जब यूरोप भारत पहुंचा तब हमारी संस्कृति फिर से नवीन हो गई.’
मुसलमान आए तो भारतीय संस्कृति में नई सामासिकता पैदा हुई. यहां तक कि कि वे यूरोप के भी कृतज्ञ हैं क्योंकि उसके संसर्ग में हम नए हुए!
दिनकर का स्वर उस दौर में पक्का हुआ जब राष्ट्रवाद असुरक्षित न था, जब वह अंतर्मुखी न था. वे नेहरू-गांधी की तरह अपने भारत को अपने और सबके लिए खोज रहे थे.
उस खोज में रूमान का रोमांच था, उल्लास था. वह दूसरों को अपनाने वाला राष्ट्रवाद था, धोखेबाज, निर्बुद्धि और हिंसक न था जो दूसरों को पैदा करे और उनका अपमान करे. वह आत्मालोचना की नींव पर टिका राष्ट्रवाद था, आत्मरति में लीन नहीं.
इस दिनकर को पढ़ना कठिन है. वह आपसे पूछता है कि क्या आपमें कुछ नया पैदा करने की सकत और कुव्वत है? ‘आत्मा की आंखें’ शीर्षक कविता की ये पंक्तियां पढ़िए,
‘…मुझे प्यारे विचार हैं
पर, वे नहीं,
जो कहे जा चुके,
फिर भी कहे जाते बार-बार हैं.
तोड़-मरोड़ से नवीन बनने वाली चीज़ों से घृणा करता हूं.
मैं तो सिर्फ उन विचारों पर मरता हूं,
जो बिल्कुल नए सिरों के समान उगते हैं,
पक्षी जो केवल उन दानों को चुगते हैं,
जिन्हें पहले किसी ने नहीं खाया था.
यानी वह भाव जो भाषा में पहले कभी नहीं आया था.’
और आगे की इन पंक्तियों से अगर मुक्तिबोध की शिखरों की यात्रा की चुनौती की याद आ जाए तो क्या ताज्जुब?
‘ज़िंदगी के चेहरे पर टकटकी लगाना
और पढ़ना वह बात, जो पढ़ी जा सकती हो,
करना ऊंची चोटियों का ध्यान,
और चढ़ना, जहां तक, वह चढ़ी जा सकती हो.’
तो किसे अधिकार है दिनकर की याद करने का? उन्हीं को जो नया सोचने का श्रम कर सकते हों और जो ऊंची चोटियों का ध्यान कर उन पर चढ़ने का साहस और जीवट रखते हों.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)