दिल्ली के शाहीन बाग में सीएए के ख़िलाफ़ सौ दिन तक चले प्रदर्शन के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि लोकतंत्र और असहमति साथ-साथ चलते हैं, विरोध और असहमति व्यक्त करने का अधिकार संविधान से मिलता है लेकिन कुछ कर्तव्यों के प्रति ज़िम्मेदारी के साथ.
नई दिल्ली: शाहीन बाग में सौ दिन तक चले धरना प्रदर्शन से उत्पन्न स्थिति के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को अपने फैसले में कहा कि सार्वजनिक स्थलों पर अनिश्चितकाल के लिए कब्जा नहीं किया जा सकता और असहमति व्यक्त करने के लिए निर्धारित स्थानों पर ही प्रदर्शन होने चाहिए.
अदालत ने कहा कि संशोधित नागरिकता कानून (सीएए) के विरोध में शाहीन बाग में धरना प्रदर्शन के लिए सार्वजनिक रास्तों पर कब्जा ‘स्वीकार्य नहीं’ है.
जस्टिस संजय किशन कौल, जस्टिस अनिरुद्ध बोस और जस्टिस कृष्ण मुरारी की पीठ ने कहा कि लोकतंत्र और असहमति साथ-साथ चलते हैं और विरोध और असहमति व्यक्त करने का अधिकार संवैधानिक योजना से मिलता है लेकिन कुछ कर्तव्यों के प्रति जिम्मेदारी के साथ.
पीठ ने कहा कि ब्रिटिश हुकूमत के दौरान असहमति व्यक्त करने के पुराने तरीकों को स्वशासित लोकतंत्र में असहमति के समकक्ष नहीं रखा जा सकता.
पीठ ने कहा, ‘हालांकि, किसी कानून के खिलाफ शांतिपूर्ण प्रदर्शन का अधिकार है. हमें यह भी एकदम स्पष्ट करना होगा कि सार्वजनिक रास्तों और सार्वजनिक स्थलों पर इस तरह, वह भी अनिश्चिकाल के लिए, कब्जा नहीं किया जा सकता.’
न्यायालय ने संशोधित नागरिकता कानून के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के दौरान पिछले साल दिसंबर से शाहीन बाग की सड़क को प्रदर्शनकारियों द्वारा अवरुद्ध किए जाने को लेकर दायर याचिका पर यह फैसला सुनाया.
न्यायालय ने कहा कि सार्वजनिक मार्ग को अवरुद्ध करके शाहीन बाग में धरना प्रदर्शन ने आने-जाने वालों के लिए बहुत ही असुविधा पैदा की थी.
पीठ ने कहा, ‘अत: हमें यह निष्कर्ष निकालने में कोई संकोच नहीं है कि सार्वजनिक रास्तों पर इस तरह का कब्जा, चाहे इस प्रकरण का स्थल या विरोध के लिए किसी अन्य स्थान पर यह स्वीकार्य नहीं है और प्रशासन को इस तरह का अतिक्रमण या बाधाओं से रास्ता साफ करने के लिए कार्रवाई करनी चाहिए थी.’
पीठ ने कहा, ‘लोकतंत्र और असहमति साथ-साथ चलते हैं लेकिन असहमति व्यक्त करने वाले विरोध प्रदर्शन सिर्फ निर्धारित स्थानों पर ही होने चाहिए. हम आवेदकों की इस दलील को स्वीकार नहीं कर सकते कि विरोध करने का रास्ता चुनने पर बड़ी संख्या में लोग कहीं पर भी एकत्र हो सकते हैं.’
अदालत ने कहा कि काफी समय बीतने के बावजूद न तो कोई बातचीत हो रही थी और न ही प्रशासन ने कार्रवाई की, इसी वजह से इस मामले में न्यायालय के हस्तक्षेप की जरूरत पड़ी.
न्यायालय ने कहा, ‘प्रशासन को किस तरह से कार्रवाई करनी चाहिए, यह उसकी जिम्मेदारी है और उन्हें अदालत के आदेश की आड़ नहीं लेनी चाहिए और न ही अपने प्रशासनिक कार्यों के लिए उसका सहयोग मांगना चाहिए. अदालतें कार्रवाई की वैधता का परीक्षण करती हैं और उनका काम प्रशासन को बंदूक चलाने के लिए अपना कंधा देना नहीं है.’
पीठ ने कहा, ‘हालांकि, यह ध्यान में रखना होगा कि ब्रिटिश हुकूमत के दौरान असहमति या विरोध प्रकट करने के लिए अपनाए जाने वाले तरीकों को स्वशासित लोकतंत्र में असहमति के समकक्ष नहीं रखा जा सकता.’
पीठ ने कहा, ‘संविधान का अनुच्छेद 19 नागरिकों को बेशकीमती अधिकार प्रदान करता है. वे हैं- अनुच्छेद 19 (1) (ए) के अंतर्गत बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी और अनुच्छेद 19 (1) (बी) के अंतर्गत शासन की कार्रवाई या निष्क्रियता के खिलाफ बगैर हथियार के शांतिपूर्ण तरीके से एकत्र होने का अधिकार. शासन को हमारे जैसे लोकतंत्र को सुदृढ़ करने के लिए इसका सम्मान करना चाहिए और इसे प्रोत्साहित करना चाहिए.’
पीठ ने कहा, ‘हम सिर्फ आशा कर सकते हैं कि भविष्य में इस तरह की स्थिति उत्पन्न नहीं हो जिसमें विरोध प्रदर्शनों को सहानुभूति और बातचीत के साथ इस तरह की कानूनी स्थिति का सामना करना पड़े लेकिन इन्हें नियंत्रण से बाहर नहीं जाने दिया जाए.’
न्यायालय ने कहा कि इस समय लोग प्रौद्योगिकी और इंटरनेट के युग में हैं, जहां दुनिया भर में सामाजिक आंदोलन संगठन, प्रचार या प्रभावी संचार के लिए डिजिटल कनेक्टिविटी के साथ अपने टूलकिट से जुड़ जाते हैं.
बता दें कि दक्षिण पूर्वी दिल्ली के शाहीन बाग में सीएए का विरोध 15 दिसंबर से शुरू हुआ था, जिसका नेतृत्व 300 अधिक महिलाएं कर रही थीं.
देशभर के कई शहरों में भी इसी तरह के कई अन्य प्रदर्शन आयोजित हुए. इस विरोध प्रदर्शन में कई 80 साल से अधिक बुजुर्ग महिलाएं भी शामिल थीं.
धरना प्रदर्शन के दौरान फरवरी में एक 25 वर्षीय व्यक्ति ने मंच से 50 मीटर दूर हवा में गोलीबारी की थी लेकिन इसके बाद भी प्रदर्शनकारी पीछे नहीं हटे थे.
फरवरी में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि आम रास्ते पर अनिश्चितकालीन प्रदर्शन नहीं हो सकता है. प्रदर्शनकारियों ने दिल्ली को उत्तर प्रदेश के नोएडा से जोड़ने वाली सड़क जीडी बिड़ला मार्ग को अवरुद्ध कर दिया था.
स्क्रॉल की रिपोर्ट में बताया गया था कि दिल्ली और यूपी पुलिस ने दो वैकल्पिक मार्गों को बैरिकेड से बंद दिया था जो आने-जाने के लिए इस्तेमाल किए जा सकते थे. पुलिस ने इसके लिए केवल सुरक्षा कारणों का हवाला दिया लेकिन बैरिकेडिंग का कोई ठोस कारण नहीं बता पाई थी.
हालांकि, कोविड-19 महामारी की आशंका और इस वजह से निर्धारित मानदंडों के पालन के दौरान प्रदर्शन के 101वें दिन 24 मार्च को शाहीन बाग क्षेत्र को खाली कराया गया था और तब स्थिति सामान्य हुई थी.
हालांकि, लोगों के प्रदर्शन करने और लोगों के स्वतंत्र रूप से आवागमन के अधिकार में संतुलन के बड़े परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट मामले की सुनवाई करती रही.
शाहीन बाग की सड़क से अवरोध हटाने और यातायात सुचारू करने के लिए अधिवक्ता अमित साहनी ने याचिका दायर की थी. शीर्ष अदालत ने इस याचिका पर 21 सितंबर को सुनवाई पूरी की थी.
कोर्ट ने उस समय टिप्पणी की थी कि विरोध के अधिकार के लिए कोई एक समान नीति नहीं हो सकती है.
साहनी ने कालिन्दी कुंज-शाहीन बाग खंड पर यातायात सुगम बनाने का दिल्ली पुलिस को निर्देश देने के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी.
उच्च न्यायालय ने स्थानीय प्राधिकारियों को कानून व्यवस्था की स्थिति को ध्यान में रखते हुए इस स्थिति से निबटने का निर्देश दिया था. इसके बाद साहनी ने शीर्ष अदालत में याचिका दायर की थी.
साहनी ने कहा कि व्यापक जनहित को ध्यान में रखते हुए इस तरह के विरोध प्रदर्शनों की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए.
उन्होंने कहा, ‘इसे 100 दिन से भी ज्यादा दिन तक चलने दिया गया और लोगों को इससे बहुत तकलीफें हुईं. इस तरह की घटना नहीं होनी चाहिए.’
भाजपा के पूर्व विधायक नंद किशोर गर्ग ने अलग से अपनी याचिका दायर की थी, जिसमें प्रदर्शनकारियों को शाहीन बाग से हटाने का अनुरोध किया गया था.
(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)