जैसे आर्थिक नीतियों को देशवासियों के बजाय कॉरपोरेट के लिए उदार बनाने की प्रक्रिया को उदारवाद का नाम दिया गया और देश के संसाधनों की लूट की खुली छूट देने को विकास के लिए सुधार कहा जाता है, क्या वैसे ही अब सारी अलोकतांत्रिकताओं को लोकतंत्र कहा जाने लगेगा?
अगर आप भी उन करोड़ों देशवासियों में शामिल हैं, जिन्हें लगता है कि देश का लोकतंत्र उसके सत्ताधीशों की बुरी नजर का शिकार है और इस कारण लगातार हाशिये में जा रहा है तो आपके लिए एक इससे भी बुरी खबर है.
यह कि नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा योजना आयोग की जगह बनाए गए नीति आयोग को अब इस बुरी नजर से बचा थोड़ा बहुत लोकतांत्रिक स्पेस भी बर्दाश्त नहीं हो रहा. आयोग के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) अमिताभ कांत इस स्पेस को भी सरकारी रीति-नीति की राह के रोड़े की तरह देख रहे हैं.
अन्यथा गत मंगलवार को एक ऑनलाइन कार्यक्रम में उनके यह कहने का कोई कारण नहीं था कि ‘हमारे देश में बहुत ज्यादा लोकतंत्र है’, जिससे सरकारों के स्तर पर प्रस्तावित कई ‘कड़े सुधारों’ पर अमल नहीं हो पा रहा.
हालांकि कई कड़े एतराजों के बाद वे अपने द्वारा दो बार कही गई इस बात से मुकर गए, लेकिन तब तक वह इतनी दूर जा चुकी थी कि उसके पीछे छिपी उनकी मंशा को उजागर होने से नहीं रोक सकी.
देश के भविष्य के मद्देनजर उनकी इस मंशा के मायने इतने गहरे हैं कि उसे उनकी निजी बताकर भी छुट्टी नहीं की जा सकती. इसके दो कारण हैं.
पहला यह कि वे एक ऐसे संस्थान के सीईओ हैं, जो सरकार के थिंक टैंक की भूमिका निभाता और उसको नीति के प्रमुख कारकों के संबंध में प्रासंगिक परामर्श उपलब्ध कराता है.
दूसरा यह कि वे ‘अधिक लोकतंत्र’ के कारण संभव नहीं हो पा रहे उक्त कड़े सुधारों के लिए पर्याप्त ‘राजनीतिक इच्छाशक्ति, साहस और दृढ़ता’ के पक्ष में हैं. खुश हैं कि नरेंद्र मोदी सरकार ने सारी असहमतियों व विरोधों की अनसुनी करके कोयला, श्रम और कृषि क्षेत्र में सुधारों का साहस दिखाया है और अन्य सेक्टरों में उनके लिए साहस और प्रतिबद्धता के साथ आगे बढ़ रही है.
यहां समझना कठिन नहीं है कि यह ‘अधिक लोकतंत्र’ रहे या जाए, उन्हें उक्त कड़े सुधार हर हाल में अभीष्ट हैं. कई प्रेक्षक तो यह भी कह रहे हैं कि जब वे ‘अधिक लोकतंत्र’ की बात कर रहे थे तो प्रकारांतर से कृषि सुधार कानूनों के खिलाफ आंदोलित किसानों से निपटने में उसके कारण सरकार को पेश आ रही ‘दिक्कतों’ को अभिव्यक्ति प्रदान कर रहे थे.
अगर वास्तव में ऐसा है तो आसानी से समझा जा सकता कि उनकी मंशा के साथ किस तरह के और कितने अलोकतांत्रिक मंसूबे नत्थी हैं-खासकर जब यह विश्वास करने के कारण भी हैं कि वे सरकार को अपने नीतिगत परामर्श में इस ‘अधिक’ लोकतंत्र को कम करने की वकालत कर सकते हैं.
फिलहाल, यह साफ नहीं है कि अधिक लोकतंत्र की शिकायत करते वक्त उनके जेहन में लोकतंत्र की कौन-सी परिभाषा थी.
लेकिन जो भी रही हो, उसका हमारे संविधान के उस संकल्प से कोई मेल नहीं दिखता, जिसमें लोकतंत्र को देश के समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने तथा उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के पवित्र उद्देश्य से जोड़ा गया था.
इस उद्देश्य के आईने में देखें, तो पिछले दिनों देश के विभिन्न हिस्सों में हुई कई घटनाएं न सिर्फ शर्मसार बल्कि बहुत निराश करती हैं.
मसलन, मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले के गौरीहार थाना क्षेत्र के एक गांव में कुछ लोगों ने एक 25 वर्षीय दलित युवक को इसलिए पीटकर मार डाला कि उनका खाना गलती से उससे छू गया था.
इसी तरह गुजरात में एक दलित युवक को इसलिए मानसिक व शारीरिक प्रताड़ना सहनी पड़ी, क्योंकि उसका सरनेम ‘ऊंची जातियों जैसा’ था.
काश, कोई अस्पृश्यता व ऊंच-नीच के उन्मूलन की सारी कोशिशों को मुंह चिढ़ाने वाली इन दो घटनाओं के हवाले से अमिताभ कांत से पूछता कि ये ‘अधिक लोकतंत्र’ की परिचायक हैं या कम की?
अल्पसंख्यक समुदायों के नौजवानों को कभी विजातीय प्रेम प्रकरण के कारण तो कभी पहनावे और खान-पान को लेकर प्रताड़ित किए जाने में भी क्या अधिक लोकतंत्र होता है?
अगर उनके ‘अधिक’ लोकतंत्र में भी सरकार के खिलाफ आवाज उठाने या अलग विचार रखने वालों को देशद्रोही ठहरा दिया जाता है और उनसे देशभक्ति का सबूत मांगा जाता है, तो जब वह कम किया जाएगा तो क्या होगा?
उसके बाद देश के संविधान की वे इबारतें कैसी नजर आएंगी, नजर आएंगी भी या नहीं, जिन्हें धुंधली करने की अभी भी कुछ कम कवायदें नहीं हो रहीं?
फिर महाराष्ट्र की उस जेल में लोकतंत्र को अधिक कहेंगे या अनुपस्थित, जिसके अधिकारियों ने वहां बंद मानवाधिकार कार्यकर्ता गौतम नवलखा के पुराने चश्मे के चोरी हो जाने पर परिजनों द्वारा भेजा नया चश्मा भी उन तक नहीं पहुंचने दिया?
इसी तरह 83 बरस के सामाजिक कार्यकर्ता फादर स्टेन स्वामी को गंभीर बीमारियों के बावजूद स्ट्रॉ और सिपर की मंजूरी में देरी किए जाने में कितना लोकतंत्र बरता गया?
साथ ही, राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर धरना दे रहे किसानों को आतंकवादी व खालिस्तानी वगैरह कहकर अपमानित करने की कुचेष्टा में कितना?
किसानों के समर्थन में देश-विदेश में उठ रही आवाजों को दबाने, उनके आंदोलन को राजनीतिक लाभ-हानि के नजरिये से देखने और इससे हो रहे देश के नुकसान की ओर से आंखें फेर लेने में कितना?
यहां यह सवाल भी कुछ कम मौजूं नहीं कि क्या अमिताभ कांत का कथन इस बात का संकेत है कि जैसे आर्थिक नीतियों को देशवासियों के बजाय कॉरपोरेट के लिए उदार बनाने की प्रक्रिया को उदारवाद का नाम दिया जाता और देश के संसाधनों की लूट की खुली छूट देने को विकास के लिए सुधार कहा जाता है, वैसे ही अब सारी अलोकतांत्रिकताओं को लोकतंत्र कहा जाने लगेगा?
साथ ही, नागरिकों के अधिकारों पर निवेशकों को तरजीह के दौर में जो भी कुछ लोगों के विकास के इंतजाम पर आवाज उठाएगा और उसे समावेशी बनाने की बात करेगा, उसे ‘टू मच’ यानी ‘बहुत अधिक’ कहकर हाशिये में धकेल दिया जाएगा?
अगर हां, तो वह कैसा लोकतंत्र होगा? सच कहें तो आज की तारीख में इन सवालों के संभावित उत्तरों की बाबत सोच कर भी अंदेशा होता है. उनके अनुत्तरित रहने से भी होता ही है.
इसलिए कि नरेंद्र मोदी सरकार जनता के हित का ढिंढोरा पीटती हुई अब तक देश के लोकतंत्र से कई प्रयोग कर चुकी है, लेकिन इस बीच उसने एक बार भी यह बताना गवारा नहीं किया है कि फिर भी कभी मजदूरों, कभी किसानों, कभी महिलाओं, तो कभी अल्पसंख्यकों की शक्ल में जनता बार-बार अपने अधिकारों के लिए सड़क पर क्यों उतरना पड़ रही है?
आखिरकार यह उसका कैसा ‘लोकतंत्र’ है, जिसकी अधिकता में भी इस जनता के लिए कोई जगह नहीं है?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)