ग्राउंड रिपोर्ट: सिलिकोसिस बीमारी की रोकथाम के लिए अक्टूबर 2019 में राजस्थान सरकार ने नीति बनाई थी. इस तहत इस बीमारी से पीड़ित लोगों को मिलने वाली सहायता राशि इनके लिए नाकाफ़ी साबित हो रही है. इलाज के दौरान इससे कहीं ज़्यादा की राशि का इन पर क़र्ज़ हो गया है.
जयपुर: खाट पर लेटे हुए इस शख्स का नाम श्रवण कुमार है. 42 साल के श्रवण 8 साल से बीमार हैं, लेकिन बीते तीन महीने से चारपाई पर आ गए हैं. क्योंकि इन्होंने अपनी आधी उम्र घर से 250 किमी दूर बूंदी जिले के डाबी कस्बे की खदानों में पत्थर तोड़ते हुए बिताई है.
21 साल पत्थर तोड़ते हुए जो धूल इनकी सांसों के जरिये फेंफड़ों में बैठी है वो 8 साल पहले सिलिकोसिस बीमारी के रूप में सामने आई.
2016 में जब राज्य सरकार ने सिलिकोसिस मरीजों का ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन शुरू किया तब श्रवण का नाम भी सरकारी फाइलों में सिलिकोसिस मरीज के तौर पर दर्ज हो गया. उस समय के नियम के मुताबिक उन्हें एक लाख रुपये की सहायता राशि मिल गई.
भीलवाड़ा जिले की बदनोर पंचायत समिति के प्रतापपुरा गांव में रहने श्रवण कहते हैं, ‘जब मुझे ये पैसे मिले तब तक मैं ढाई लाख रुपये इलाज में खर्च कर चुका था. 2012 से मैं बेरोजगार हूं. पत्नी सुखी (40) दिहाड़ी मजदूरी कर 150-200 रुपये रोजाना कमाती हैं. इन्हें महीने में 10-12 दिन ही काम मिलता है. बेटे भगवान (23) और अर्जुन सिंह (20) बिजली के खंभे लगाने और उनमें तार कसने का काम करते हैं. बेटों का काम सिर्फ सर्दियों के सीजन का है. उसके बाद ये भी बेरोजगार रहते हैं.’
एक 19 साल की बेटी निरमा है, जिसकी शादी की फिक्र बीमार पिता को सता रही है. खेती के नाम पर दो बीघा जमीन है जो बारिश पर निर्भर है. इस रबी सीजन में सुखी ने गेहूं बोया हुआ है. एक बकरी और एक भैंस भी पाल रखी है.
श्रवण की पत्नी सुखी बताती हैं, ‘अब तक इलाज में 6 लाख रुपये से ज्यादा का खर्च हो चुके हैं. पैसे नहीं हैं, लेकिन कर्ज लेकर इलाज करा रहे हैं. दो रुपये सैकड़ा की ब्याज दर पर गांव के एक साहूकार से डेढ़ लाख रुपये कर्ज लिया हुआ है.’
खनन से जुड़े मजदूरों में हो रही सिलिकोसिस बीमारी की रोकथाम के लिए अक्टूबर 2019 में राजस्थान सरकार ने न्यूमोकोनियोसिस (फेफड़ों से जुड़ीं बीमारियां) नीति बनाई थी. इसमें मजदूरों में होने वाली बीमारियों की पहचान-रोकथाम, निवारण और पुनर्वास की बात की गई थी.
इस नीति का सबसे ज्यादा लाभ सिलिकोसिस मरीजों को ही मिल रहा है, क्योंकि राजस्थान के 19 जिलों में करीब 18 हजार सेंड स्टोन माइंस हैं. जहां सिलिकोसिस का सीधा खतरा खनन श्रमिकों को रहता है.
नीति में मरीजों के मुफ्त इलाज, न्यूमोकोनियोसिस बीमारी से जूझ रहे लोगों के लिए स्किल डेवलपमेंट और आजीविका के लिए विशेष ट्रेनिंग, खनन प्रभावित इलाकों में मेडिकल सुविधाओं को बढ़ाने के साथ-साथ खान मालिकों को धूल नियंत्रण के लिए बाध्य करने की पुरजोर वकालत की गई है.
हालांकि श्रवण को इस नीति के हिसाब से सिर्फ आर्थिक सहायता ही मिल पाई है. राजस्थान में सही इलाज नहीं हो पाने की वजह से वे गुजरात के हिम्मतनगर में अपना इलाज करा रहे हैं.
कहते हैं, ‘पहले इलाज के लिए अजमेर के ब्यावर शहर गया. वहां डॉक्टरों ने मेरा टीबी का इलाज किया. आराम नहीं मिला तो भीलवाड़ा के आसींद में कुछ महीने इलाज कराया, लेकिन तबीयत ज्यादा खराब होती गई. जयपुर भी गया, लेकिन आराम कहीं नहीं मिला. आखिरकार बाकी मजदूरों की तरह मैं भी डेढ़ लाख रुपये कर्ज लेकर गुजरात के हिम्मतनगर गया. पिछले तीन महीने से वहीं का इलाज चल रहा है. इतना आराम है कि अपने नित्य कर्म खुद कर रहा हूं.’
एसोसिएशन फॉर रूरल एडवांसमेंट थ्रू वॉलेंट्री एक्शन एंड लोकल इन्वॉल्वमेंट में प्रोग्राम डायरेक्टर वरुण शर्मा नीति के जमीन पर ठीक से पालन नहीं होने की बात कहते हैं.
वे कहते हैं, ‘नीति के अनुसार श्रवण या उसके आश्रित को कोई वैकल्पिक रोजगार मिलना चाहिए था, लेकिन नहीं मिला. गांव में एक स्वास्थ्य केंद्र तक नहीं है. जो भी पीएचसी या सीएचसी यहां आसपास होगा, वहां का स्टाफ ये जानता ही नहीं है कि सिलिकोसिस के मरीजों का इलाज कैसे करना है. जबकि नीति में साफ कहा गया है कि सीएचसी-पीएचसी के डॉक्टरों को विशेष ट्रेनिंग दी जाएगी. डॉक्टर ट्रेंड नहीं हैं तभी मरीज गुजरात इलाज के लिए जा रहे हैं.’
वरुण आगे जोड़ते हैं, ‘पुनर्वास के नाम पर सिर्फ सहायता राशि देकर सरकार अपनी जिम्मेदारी पूरी समझ रही है, जबकि नीति के हिसाब से ऐसा नहीं है. खदानों में काम करने वाले मजदूरों में सिलिकोसिस बीमारी हो ही न पाए, इस पर सरकार काम नहीं कर रही है. इसके अलावा खनन व्यवसाइयों को भी इस मसले पर संवेदनशील होने की जरूरत है.’
उन्होंने कहा, ‘वेट ड्रिलिंग अनिवार्य है, लेकिन उसका पालन किया जाना सुनिश्चित होनी चाहिए. इस सब के साथ-साथ पंचायत या गांव के स्तर पर खान मजदूरों की समस्या सुनवाई के लिए एक निगरानी समिति का गठन होना चाहिए, जिसमें मजदूरों का समूह भी शामिल रहे. कुल मिलाकर नीति के तीनों पहलुओं की जमीन पर पालना सुनिश्चित होनी चाहिए. फिलहाल सिर्फ पुनर्वास पर सरकार का पूरा ध्यान है.’
खान मजदूर सुरक्षा अभियान के मैनेजिंग ट्रस्टी राणा सेनगुप्ता सिलिकोसिस को लेकर एक दूसरी समस्या की ओर इशारा करते हैं.
राणा कहते हैं, ‘सिलिकोसिस की जांच के लिए आ रहे मजदूरों का सिस्टम पर काफी दबाव है. जांच के लिए अलग-अलग जिलों में 1.04 लाख से ज्यादा मजदूरों ने रजिस्ट्रेशन कराया हुआ है. दबाव इतना है कि महीनों तक इनकी जांच का नंबर नहीं आ रहा.’
वे कहते हैं, ‘हमारा अनुभव है कि जिन मजदूरों को सिलिकोसिस बीमारी निकल रही है, लगभग सभी टीबी का इलाज भी करा चुके हैं. इसीलिए सरकार को खनन प्रभावित क्षेत्रों में टीबी जांच के साथ-साथ सिलिकोसिस की जांच भी करनी चाहिए ताकि पेंडेंसी कम हो.’
बता दें कि अभी अजमेर में 6824, भरतपुर 8093, भीलवाड़ा 5422, धौलपुर 12,511 जोधपुर 24,324, करौली 15,742, सिरोही 5576 और उदयपुर में 10,723 लोगों ने सिलिकोसिस की जांच के लिए रजिस्ट्रेशन कराया हुआ है. जबकि सिलिकोसिस के मरीजों की संख्या सिर्फ 19,591 है.
नीति बनने के एक साल बाद सेंट्रल फंड की प्रक्रिया आगे बढ़ी
नीति के अनुसार सिलिकोसिस की पहचान-रोकथाम, निवारण और पुनर्वास के लिए बनाई गई नोडल एजेंसी को एक फंड बनाना था. इस नोडल एजेंसी में स्वास्थ्य विभाग, खनन विभाग, सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता विभाग शामिल हैं.
सिलिकोसिस की नीति बने एक साल हो गया, लेकिन करीब एक हफ्ते पहले ही एक सेंट्रल फंड की फाइल वित्त विभाग के पास भेजी गई है.
राजस्थान सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता विभाग की सचिव गायत्री राठौड़ ने बताया कि कुछ समय पहले ही हमने वित्त विभाग को सिलिकोसिस फंड के लिए फाइल भेजी है. आने वाले 8-10 दिन में इसे मंजूरी मिल जाएगी.
वहीं, मजदूर किसान संगठन के निखिल डे का कहना है कि नीति बनने के बाद जमीन पर उसे लागू होने में परेशानियां आ रही थीं. पिछले एक महीने में दो बड़े सुधार नीति में हुए हैं. एक पीड़ितों को सीधे बैंक अकाउंट में पेंशन पहुंचेगी. ऑफलाइन सिस्टम में जो लोग थे, उन्हें ऑनलाइन लाया जाएगा और उन्हें एरियर भी दिया जाएगा. अब राज्य सरकार का दायित्व है कि जो लोग ऑनलाइन सिस्टम में नहीं हैं, उन्हें जल्द से जल्द यहां रजिस्टर किया जाए. ये काम अभी तक पेंडिंग है.
उन्होंने बताया कि दूसरा बड़ा बदलाव सिलिकोसिस बोर्ड को हटाकर किया गया है. पीड़ित का एक्सरे ई-रेडियोलॉजिस्ट के पास जाएगा और एक ही दिन में उसे पास या फेल किया जाएगा. हालांकि इसे लागू होने में अभी थोड़ा वक्त लगेगा, सरकार को इसे जल्दी करना चाहिए.
कोरोना काल में भी सरकार ने कुछ किया ही नहीं
न्यूमोकोनियोसिस बीमारी राजस्थान एपिडेमिक्स एक्ट 1957 में शामिल है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार एपिडेमिक्स बीमारियां एक क्षेत्र विशेष में, विशेष वर्ग में होती हैं.
महामारी एक्ट में शामिल होने के बाद भी राज्य सरकार ने कोरोना काल में खान श्रमिकों के सबसे कमजोर वर्ग के लिए कोई राहत पैकेज तक नहीं दिया. प्रदेश के करीब 30 लाख खान मजदूर लाचार-बेसहारा रहे. जबकि खनन से राजस्थान सरकार को पांच हजार करोड़ रुपये से ज्यादा की आय होती है.
राणा सेनगुप्ता कहते हैं, ‘एपिडेमिक्स एक्ट में शामिल होने के बावजूद इनके लिए विशेष तौर पर कोई योजना जारी नहीं की गई और न ही इनके स्वास्थ्य जांच की कोई अतिरिक्त व्यवस्था अब तक की गई है. लॉकडाउन में सैकड़ों मरीजों को ऑक्सीजन की जरूरत हुई, लाखों परिवार खाने और इलाज के लिए तरसे थे. ये हालात तब थे जब पूरी दुनिया में पैनडेमिक या पब्लिक हेल्थ इमरजेंसी लगी हुई है.’
पीड़ितों को हर तरह की मदद उपलब्ध कराना सरकार की जिम्मेदारी है, लेकिन सरकार इन मरीजों को सर्टिफिकेट मिलने पर तीन लाख और मृत्यु पर दो लाख रुपये की आर्थिक सहायता देकर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर रही है.
सिलिकोसिस मरीजों की विधवाओं पर कर्ज, पीढ़ियों तक पहुंच रहा दंश
खनन सिर्फ उसमें काम करने वाले मजदूरों को ही बीमारी नहीं देता पूरे परिवार को बड़े आर्थिक संकट का दंश भी देकर जाता है. ब्याज पर लाखों रुपये कर्ज लेकर पीड़ित का इलाज कराया जाता है, मृत्यु के बाद कर्ज का जाल ये पूरे परिवार को सालों तक परेशान करता है. कई मामलों में तो यह अगली पीढ़ी तक को चुकाना पड़ रहा है.
भीलवाड़ा की पंचायत समिति बदनोर की पंचायत मोगर के बिछुदड़ा गांव में 30 सिलिकोसिस मरीज हैं. इनके अलावा यहां 15 ऐसी विधवाएं हैं, जिनके पति की मौत सिलिकोसिस से हुई है.
इन सभी महिलाओं पर एक लाख से लेकर पांच लाख रुपये तक का कर्ज है जो इन्होंने गांव या आसपास के किसी साहूकार से ब्याज पर लिया है. इनके पास न तो बहुत अधिक खेती है और न ही जीवनयापन के लिए ज्यादा संसाधन हैं.
इन्हीं विधवाओं में से एक राधा देवी हैं. 65 साल की राधा के पति गोकल की 2017 में सिलिकोसिस से मृत्यु हुई.
बकौल राधा, ‘मेरे पति 15 साल तक बीमार रहे. मृत्यु से तीन साल पहले जब तबीयत ज्यादा खराब हुई तो इलाज के लिए साहूकार से दो रुपये प्रति सैकड़ा की दर से पैसा उधार लिया. गोकल की मौत तक यह राशि चार लाख रुपये हो गई. सरकार ने एक लाख रुपये दिए जो नाकाफी साबित हुए.’
नीति बनने से पहले सिलिकोसिस प्रमाणित होने पर इलाज के लिए एक लाख रुपये और मृत्यु के बाद एक लाख रुपये की सहायता राशि दी जाती थी.
राधा ने बताया कि लॉकडाउन के वक्त घर खर्च के लिए उन्होंने अपनी तीन बीघा खेती गिरवी रखकर 20 हजार रुपये का कर्ज लिया है. इस पर भी वे दो रुपये प्रति सैकड़ा का ब्याज भी दे रही हैं. ये चक्रवृद्धि ब्याज होता है. चार लाख रुपये का कर्ज पहले से उनके सिर पर है. ब्याज मिलाकर कर्ज की राशि पांच लाख से ज्यादा हो चुकी है, जिसे चुकाने में राधा असमर्थ हैं.
750 रुपये महीने पेंशन पाने वाली राधा कच्चे घर में रहती हैं. आवेदन करने के बाद भी न तो प्रधानमंत्री आवास योजना में घर बना और न ही स्वच्छ भारत अभियान के तहत शौचालय बना है.
रोजाना के खर्च चलाने के लिए राधा बेलदारी करती हैं और 150 रुपये मजदूरी पाती हैं. मनरेगा में भी राधा मजदूरी करती हैं. 13 दिन की मजदूरी पर उन्हें लगभग 1400 रुपये मिलते हैं.
राधा देवी के पांच बच्चे हैं. मंगलाराम (45), गोवर्धन (40), मंजू (37), कैलाश चंद्र (30), मुकेश (23). मंजू की कई साल पहले शादी हो गई तो बाकी बेटे भी मजदूरी करते हैं. इनमें से गोवर्धन शारीरिक रूप से अक्षम हैं, जिसकी आर्थिक मदद राधा देवी को ही करनी होती है.
राधा की तरह राजस्थान के उन 19 जिलों के हर एक गांव में सिलिकोसिस मरीजों की विधवाओं की यही हालत है, जहां सेंड स्टोन माइनिंग होती है. इन महिलाओं के पतियों को जिंदा रहते न तो सही इलाज मिल पा रहा है और न ही उनकी मौत के बाद इन विधवाओं का पूरा पुनर्वास हो रहा है. नीति में दिए स्किल ट्रेंनिंग जैसे शब्द बेमानी साबित हो रहे हैं. बुजुर्ग महिलाएं भी मनरेगा में मजदूरी के लिए मजबूर हो रही हैं.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)