पद्मश्री से सम्मानित 85 वर्षीय शमसुर रहमान फ़ारूक़ी हाल ही में कोरोना वायरस संक्रमण से उबरे थे. उन्हें 16वीं सदी में विकसित हुई उर्दू में कहानी सुनाने की कला ‘दास्तानगोई’ को पुनर्जीवित करने के लिए भी जाना जाता है.
नई दिल्ली: प्रख्यात लेखक, शायर और आलोचक शमसुर रहमान फ़ारूक़ी का इलाहाबाद स्थित उनके आवास पर शुक्रवार को निधन हो गया. वह 85 वर्ष के थे.
एक महीना पहले ही वह कोरोना वायरस के संक्रमण से उबरे थे.
फ़ारूक़ी के भतीजे और लेखक महमूद फ़ारूक़ी ने बताया, ‘वह इलाहाबाद स्थित अपने घर वापस जाने की जिद कर रहे थे. हम यहां आज सुबह (शुक्रवार) ही पहुंचे और आधे घंटे में लगभग 11 बजे वह गुजर गए.’
कोरोना वायरस संक्रमण से ठीक होने के बाद शमसुर रहमान फ़ारूक़ी को दिल्ली स्थित अस्पताल से 23 नवंबर को छुट्टी दे दी गई थी.
महमूद ने कहा, ‘स्टेरॉयड के कारण उन्हें फंगल संक्रमण माइकोसिस हो गया था, जिससे उनकी हालत और खराब हो गई थी.’
शमसुर रहमान फ़ारूक़ी के पार्थिव शरीर को इलाहाबाद में शुक्रवार शाम को अशोक नगर स्थित कब्रिस्तान में सुपुर्द-ए-खाक किया गया.
साल 2009 में पद्मश्री से सम्मानित शायर का जन्म उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ में 30 सितंबर 1935 को हुआ था. उन्हें 16वीं सदी में विकसित हुई उर्दू में कहानी सुनाने की कला ‘दास्तानगोई’ को पुनर्जीवित करने के लिए जाना जाता है.
पांच दशक लंबे अपने साहित्यिक सफर में उन्होंने ‘कई चांद थे सर-ए-आसमां’, ‘ग़ालिब अफ़साने की हिमायत में’ और ‘द सन दैट रोज़ फ्रॉम द अर्थ’ जैसी किताबें लिखीं.
वर्ष 1996 में उन्हें ‘शेर-ए-शोर-अंगेज़’ लिखने के लिए सरस्वती सम्मान दिया गया था. यह 18वीं सदी के शायर मीर तकी मीर पर चार खंडों में प्रकाशित एक अध्ययन है.
फ़ारूक़ी न केवल एक प्रसिद्ध लेखक और शायर थे, बल्कि एक आलोचक भी थे, जिन्होंने उर्दू साहित्य के मूल्यांकन के लिए एक आधुनिक रूपरेखा तैयार की थी.
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, 1982 में आई उनकी किताब ‘तनक़ीदी अफ़्क़ार’ में शायरी के आधुनिक साहित्यिक और आलोचनात्मक सिद्धांतों पर परिलक्षित किया था. इसके लिए उन्हें 1986 में साहित्य अकादमी सम्मान से नवाजा गया था.
साल 2006 में प्रकाशित उनके उपन्यास ‘कई चांद थे सर-ए-आसमां’ 19वीं सदी के दिल्ली पर आधारित है, जिसने उर्दू उपन्यास की दुनिया में नए प्रतिमान स्थापित किया. फ़ारूक़ी ने साल 2013 में इसका अंग्रेजी अनुवाद किया था, जिसका नाम ‘द मिरर ऑफ ब्यूटी’ था.
1966 में उन्होंने ‘शबख़ून’ नाम से एक पत्रिका की शुरुआत की थी और चार दशक तक इसका संपादन किया था. इस पत्रिका ने उन लेखकों की जगह दी, जिन्हें जो मुख्यधारा के प्रगतिशील लेखकों के आंदोलन से सहमत नहीं थे. हालांकि इस पत्रिका में अली सरदार जाफ़री, इस्मत चुगताई और राजिंदर सिंह बेदी जैसे प्रगतिशील लेखकों को भी जगह दी गई.
मशहूर लेखक विलियम डेलरिम्पल ने ट्विटर पर शमसुर रहमान फ़ारूक़ी को श्रद्धांजलि दी.
उन्होंने लिखा, ‘अलविदा जनाब शमसुर रहमान फ़ारूक़ी साहब, उर्दू साहित्यिक दुनिया के अंतिम महान बादशाह. यह दुखद खबर है.’
फिल्मकार मुज़फ़्फ़र अली ने कहा, ‘वह कल्पना और कोमल विनोद से भरे हुए व्यक्ति थे. उन्हें इतिहास के बारे में गहरी समझ थी. वे अन्य लोगों के काम की बहुत सराहना करते थे और यही उन्हें एक महान लेखक बनाता था. फ़ारूक़ी साहब ने अपने ज्ञान के माध्यम से शिष्टता और संस्कार की एक अमिट निशान छोड़ी है, जिसे दुनिया खुद के लिए खोजने की कोशिश कर रही है.’
दिल्ली स्थित जामिया मिलिया इस्लामिया में उर्दू के प्रोफेसर अहमद महफ़ूज़ फ़ारूक़ी कहते हैं, ‘फ़ारूक़ी साहब ने उर्दू भाषा, साहित्य और आलोचना को विश्व पटल पर पहुंचाया. उन्होंने उर्दू में आधुनिकता की प्रवृत्ति की शुरुआत की और इसके तहत लेखकों और शायरों की तमाम पीढ़ियों को उड़ान भरने का मौका दिया.’
अहमद ने 1994 में शम्सुर रहमान की ज़िंदगी और कार्यों पर पहली किताब ‘शम्सुर रहमान फ़ारूक़ीः शख़्सियत और अदबी ख़िदमत’ लिखी है.
उर्दू महोत्सव जश्न-ए-रेख्ता के संस्थापक संजीव सर्राफ ने भी ‘उर्दू में सदी की सबसे बड़ी शख्सियत’ को श्रद्धांजलि दी. सर्राफ ने कहा, ‘उनके निधन से साहित्य जगत की एक पूरी पीढ़ी गमगीन है. मैं उनके परिजनों के प्रति संवेदना प्रकट करता हूं.’
(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)