कंंपनियों की खिंचाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ये लोग पैसा बनाना जानते हैं लेकिन भारतीय कानूनों का सम्मान करना नहीं जानते.
शीर्ष अदालत ने तीनों सर्च इंजनों को निर्देश दिया है कि वे तुरंत विशेषज्ञों की समिति का गठन करें और सुनिश्चित करें कि प्रसव पूर्व लिंग परीक्षण निषेध करने वाले भारतीय कानूनों को तोड़ने वाली सभी सामग्री को मिटाया जाए.
गिरते लिंगानुपात पर चिंता जताते हुए सुप्रीम कोर्ट ने हालांकि, बहुराष्ट्रीय साइबर कंपनियों के भारतीय कार्यालयों को आश्वासन दिया कि वह उनके (कंपनियों) खिलाफ अवमानना की कोई कार्यवाही शुरू नहीं करेगा क्योंकि इस कदम का लक्ष्य उन्हें स्थानीय कानूनों और चिंताओं के प्रति जिम्मेदार बनाना है.
जस्टिस दीपक मिश्रा और जस्टिस आर. भानुमति की पीठ ने कहा कि किसी प्रकार के संदेह की स्थिति में इन कंपनियों की आंतरिक विशेषज्ञ समितियां केंद्र की ओर से दिशा-निर्देश और ज़रूरी कार्यवाही के लिए नियुक्त नोडल एजेंसी से संपर्क कर सकती हैं.
पीठ ने कहा, हम 19 सितंबर, 2016 को दिए गए अपने निर्देशों को दोहराते हैं और कहते हैं कि प्रतिवादी संख्या तीन और पांच (गूगल इंडिया प्राइवेट लिमिटेड, याहू इंडिया और माइक्रोसॉफ्ट कॉरपोरेशन इंडिया प्राइवेट लिमिटेड) विशेषज्ञों की आंतरिक समिति गठित करेंगे, जो पीसीपीएनडीटी अधिनियम 1994 के प्रावधान-22 के विरुद्ध जाने की क्षमता रखने वाले, इंटरनेट पर दिखने वाले ऐसे शब्दों या की-वर्ड को तुरंत मिटाने की दिशा में कदम उठाएंगे.
पीसीपीएनडीटी अधिनियम के प्रावधान-22 में प्रसव पूर्व लिंग निर्धारण से जुड़े विज्ञापनों पर रोक लगाने और ऐसा करने वालों के खिलाफ सजा की बात है. सुनवाई के दौरान कंंपनियों की खिंचाई करते हुए कोर्ट ने कहा कि ये लोग पैसा बनाना जानते हैं लेकिन भारतीय कानूनों का सम्मान करना नहीं जानते.
पीठ ने कहा, पूरी समस्या यह है कि इनमें (सर्च इंजन) देश के कानूनों के प्रति सम्मान नहीं है. सुनवाई में शामिल गूगल इंडिया के प्रतिनिधियों ने दावा किया कि कंपनी ने अदालत के फैसले का पालन किया है.
क्या है मामला
ये मामला सर्च इंजनों पर लिंग परीक्षण संबंधी विज्ञापन दिखाए जाने से जुड़ा है. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इन सर्च इंजनों पर ऐसे विज्ञापन मौजूद हैं. भारत जैसे देश में जहां पहले ही लड़कियों की संख्या कम है और लिंग परीक्षण कराना अपराध है, में भी ये जानकारियां उपलब्ध हैं.
भारत में गिरते लिंग अनुपात और कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के मक़सद से गर्भाधान व प्रसव पूर्व निदान तकनीक यानी पीसीपीएनडीटी अधिनियम लागू है, जिसमें जन्म पूर्व लिंग जांच पर प्रतिबंध है.
इसे देखते हुए लिंग जांच संबंधी विज्ञापनों के खिलाफ साल 2008 में डॉ. साबू जॉर्ज ने याचिका दायर की थी. जॉर्ज का आरोप था कि ऑनलाइन सर्च इंजन कंपनियां इस तरह के विज्ञापन दिखाकर पीसीपीएनडीटी अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन कर रही हैं.
पिछले साल सितंबर में हुई सुनवाई के दौरान कंपनियों ने शीर्ष अदालत को जानकारी दी थी कि उन्होंने लिंग जांच संबंधी 22 शब्दों यानी की-वर्ड की पहचान की है, जिन्हें इंटरनेट पर खोजने पर इनसे जुड़ी जानकारी नहीं मिलेगी. कंपनियों ने कोर्ट को साथ ही ये भी बताया कि इन 22 की-वर्ड्स के अलावा भी कुछ नए शब्द सुझाए जाते हैं, तो वे उन्हें अपने ऑटो ब्लॉक सिस्टम में शामिल करने को तैयार हैं.
फिर पिछले साल 16 नवंबर को कोर्ट ने केंद्र को ऐसे विज्ञापनों की शिकायत दर्ज करने के लिए नोडल एजेंसी का गठन करने का आदेश भी दिया. यह एजेंसी शिकायतों को सर्च इंजनों को देगी और फिर सर्च इंजन ऐसी सूचनाओं और विज्ञापनों को 36 घंटे में हटाएंगे.
इस दिन सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे विज्ञापनों पर कड़ी नाराजगी ज़ाहिर की थी. सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, ऐसे हालात हो गए हैं कि लड़कों को शादी के लिए लड़कियां नहीं मिल रही हैं. लड़का कैसे होगा और लड़की कैसे होगी? इसलिए ऐसी जानकारी की देश में कोई जरूरत नहीं. हमें कोई फर्क नहीं पड़ता कि वेबसाइट पैसा कमाएं या ना कमाएं, लेकिन ऐसे विज्ञापनों को अनुमति नहीं दी जा सकती जो देश में लिंगानुपात को प्रभावित करें. इन विज्ञापनों को वेबसाइटों के कॉरीडोर से देश में आने की मंजूरी नहीं देंगे. ये विज्ञापन सीधे-सीधे पीसीपीएनडीटी एक्ट का उल्लंघन हैं.
(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)