‘अस्पताल की गाड़ी मोहल्ले में ऐलान कर रही थी कि टीका लगवा लो पैसे मिलेंगे, सो हम चले गए’

विशेष रिपोर्ट: भोपाल के पीपुल्स अस्पताल पर आरोप है कि उसने गैस त्रासदी के पीड़ितों समेत कई लोगों पर बिना जानकारी दिए कोरोना की वैक्सीन के ट्रायल किए, जिसके बाद तबियत बिगड़ने पर उनका निशुल्क इलाज भी नहीं किया गया. अस्पताल और स्वास्थ्य मंत्री ने ऐसा होने से इनकार किया है.

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(प्रतीकात्मक फोटो: पीटीआई)

विशेष रिपोर्ट: भोपाल के पीपुल्स अस्पताल पर आरोप है कि उसने गैस त्रासदी के पीड़ितों समेत कई लोगों पर बिना जानकारी दिए कोरोना की वैक्सीन के ट्रायल किए, जिसके बाद तबियत बिगड़ने पर उनका निशुल्क इलाज भी नहीं किया गया. अस्पताल और स्वास्थ्य मंत्री ने ऐसा होने से इनकार किया है.

भोपाल का पीपुल्स अस्पताल. (फोटो साभार: फेसबुक/@peopleshospitalbpl)
भोपाल का पीपुल्स अस्पताल. (फोटो साभार: फेसबुक/@peopleshospitalbpl)

भोपाल के टिंबर मार्केट में रहने वाले 37 वर्षीय जितेंद्र नरवरिया मंगलवार 5 जनवरी से भोपाल के ही पीपुल्स अस्पताल में भर्ती हैं. उन्हें पीलिया की शिकायत है और अस्पताल में उनकी लगातार जांचें चल रही हैं.

गौरतलब है कि जितेंद्र को कोरोना महामारी की वैक्सीन ट्रायल के तीसरे चरण के तहत दस दिसंबर को वैक्सीन की पहली खुराक दी गई थी. उसके बाद से ही उनकी सेहत लगातार बिगड़ती चली गई.

कोरोना महामारी से लड़ने के लिए भारत बायोटेक द्वारा विकसित की गई स्वदेशी वैक्सीन ‘कोवैक्सीन’ का तीसरे चरण का ट्रायल देश भर में चल रहा है. मध्य प्रदेश में भोपाल के पीपुल्स अस्पताल को भी ‘कोवैक्सीन’ का ट्रायल कराने की जिम्मेदारी दी गई है.

इसी कड़ी में जितेंद्र को कोरोना की वैक्सीन दी गई थी, लेकिन इसके लिए जो प्रक्रिया अपनाई गई उस पर सवाल खड़े हो रहे हैं.

जितेंद्र, तीन दशक पहले हुई भोपाल गैस त्रासदी के गैस पीड़ितों में से एक हैं और खास बात यह है कि दो दिन पहले तक तो जितेंद्र को पता ही नहीं था कि वे कोरोना की वैक्सीन के ट्रायल का हिस्सा बन चुके हैं.

यह बात उन्हें तब पता लगी जब भोपाल गैस कांड के पीड़ितों के लिए काम कर रहे गैस पीड़ित संगठनों ने इस मामले का खुलासा किया.

गैर-सरकारी संस्था भोपाल ग्रुप ऑफ इंफोर्मेशन एंड एक्शन से जुड़ी रचना ढींगरा बताती हैं, ‘दिसंबर के मध्य में हमें पता लगना शुरू हुआ कि पीपुल्स नाम का निजी अस्पताल और मेडिकल कॉलेज के लोग गैस पीड़ित इलाकों में गाड़ियां लेकर गए और ऐलान किया कि जो कोरोना का टीका लगवाएगा, उसे 750 रुपये दिए जाएंगे.’

वे आगे बताती हैं, ‘लेकिन ये कोरोना का टीका नहीं है, ये तो वैक्सीन का ट्रायल है. टीका तो इसके बाद आएगा. गरीब और अशिक्षित बस्तियों के लोग इससे अनजान थे और पैसे के लालच में उनके साथ चले गए. मजदूरी करके कमाने खाने वाले गरीब के लिए 750 रुपये बहुत होते हैं, इसलिए पूरी की पूरी बस्तियां साथ चली गईं.’

रचना के मुताबिक, क्लीनिकल ट्रायल में शामिल होने वालों से एक इंफॉर्म्ड कंसेंट (वॉलिंटियर को ट्रायल संबंधी सूचना दिए जाने का सहमति-पत्र) लिया जाता है. जिसमें उन्हें बताया जाता है कि यह एक प्रयोग है और इसमें शामिल होने पर यह फायदे हैं और यह समस्याएं हो सकती हैं.

रचना बताती हैं, ‘अस्पताल प्रबंधन ने किसी को भी नहीं बताया कि वे ट्रायल का हिस्सा हैं. लोगों को लग रहा था कि कोरोना का टीका लग रहा है. यहां तक कि नियमानुसार लोगों को ‘सहमति-पत्र’ की प्रति उपलब्ध नहीं कराई गई. फिर जब कुछ लोगों की तबीयत खराब होने लगी तो मामले का खुलासा हुआ.’

अस्पताल प्रबंधन पर आरोप हैं कि पहले तो उसने लोगों को अंधेरे में रखकर वैक्सीन का ट्रायल कर दिया, फिर जब उनकी तबीयत बिगड़ी तो निशुल्क इलाज देने से मना कर दिया गया. जितेंद्र इसका उदाहरण हैं.

अपनी आपबीती वे द वायर  को बताते हैं, ‘वैक्सीन लगाने के बाद मुझे पीलिया हो गया. मैं दो बार अस्पताल गया तो उन्होंने बाहर से जांच कराकर लाने का बोल दिया. पैसा ही नहीं था तो जांच कैसे कराता?’

अस्पताल में भर्ती जितेंद्र. (फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट)
अस्पताल में भर्ती जितेंद्र. (फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट)

जितेंद्र मजदूरी करके परिवार का पेट पालते हैं. घर में उनकी पत्नी नहीं है, बस दो मासूम बच्चे और बूढ़ी मां है. वैक्सीन लगने के बाद से वे बीमार हैं और काम पर नहीं गए हैं. वे बताते हैं कि उनके घर में खाने के लिए अब दाना तक नहीं बचा है.

मामले के मीडिया में उछलने के बाद अस्पताल प्रबंधन स्वयं जितेंद्र के घर पहुंचा और उन्हें अस्पताल लाकर इलाज देना शुरू कर दिया है, लेकिन जितेंद्र को अब चिंता अपनी मां और बच्चों की है.

जब जितेंद्र बीमार हुए तो इलाके के अन्य लोगों में वैक्सीन को लेकर दहशत फैल गई थी. नतीजतन, उन्होंने पैसों के प्रलोभन में टीका लगवाने के लिए जाना बंद कर दिया.

जितेंद्र की तरह ही शंकर नगर में रहने वाले छोटू दास बैरागी को भी तीन दिसंबर को टीका लगा था. इसके बावजूद भी वे बाद में संक्रमित पाए गए.

वे कहते हैं, ‘शंकर नगर से करीब डेढ़-दो सौ लोग गए और सभी को कुछ न कुछ परेशानी है. कई लोगों को उल्टी हो रही है. मेरे कुछ दोस्त हैं उन्हें रीढ़ की हड्डी में दर्द हो रहा है. मुझे भी दर्द की शिकायत है जिसका इलाज वे नहीं कर रहे हैं. टीका लगवाने के पहले हम सबको पहले कभी ये दिक्कतें नहीं थीं, लेकिन उसके बाद हल्का बुखार भी आया और बार-बार तबीयत भी खराब हो जाती थी.’

छोटू का भी कहना है कि जब वे अस्पताल में इलाज के लिए गए तो उन्हें बाहर से दवाएं खरीदने बोला गया.

जितेंद्र की शिकायत यह भी है कि उन्हें वैक्सीन की डोज देते समय बताया ही नहीं गया था कि उसका कोरोना से कोई संबंध है. वे कहते हैं, ‘मोहल्ले में अस्पताल की गाड़ी आई थी. दूसरे लोग जा रहे थे तो पैसों के लालच में मैं भी चला गया. मुझे बताया गया कि हमारी इस वैक्सीन से तुम्हारे सभी पुराने रोग ठीक हो जाएंगे. कोरोना की तो कोई बात ही नहीं हुई थी. साथ ही उन्होंने कहा था कि यदि मुझे कुछ होता है तो मैं जितना सालभर में नहीं कमाता, उससे ज्यादा पैसा दिया जाएगा.’

शंकर नगर के रहने वाले हरि सिंह को 4 दिसंबर को पहला तो 4 जनवरी को दूसरा टीका भी लग चुका है. फिलहाल उन्हें कोई स्वास्थ्य संबंधी समस्या तो नहीं है लेकिन उनकी शिकायत है कि अस्पताल प्रबंधन ने उन्हें अंधेरे में रखा और यह नहीं बताया कि उन्हें ट्रायल में शामिल किया जा रहा है.

वे बताते हैं, ‘अस्पताल की गाड़ी मोहल्ले में आकर ऐलान करती हुई घूम रही थी कि टीका लगवा लो, 750 रुपये मिलेंगे. अभी नहीं लगवाओगे तो बाद में सबको लगवाना ही पड़ेगा.’

हरि सिंह आगे कहते हैं, ‘मतलब जब सबको लगवाना जरूरी ही था, तो मैं भी चला गया. पैसे भी मिल रहे थे और अस्पताल वालों ने बोला भी था कि अगर दिक्कत होगी तो मुफ्त इलाज करेंगे.’

हालांकि, जितेंद्र के उलट हरि सिंह का कहना है कि टीके के दो हफ्ते बाद जब उन्हें दस्त लगे तो वे अस्पताल पहुंचे तो डॉक्टरों ने उनकी जांच भी की और मुफ्त में दवा भी दी. साथ ही, हर दो-चार दिन में अस्पताल से फॉलोअप के लिए फोन पर उनके स्वास्थ्य की जानकारी भी ली जाती थी.

ऐसा अनुमान है कि पीपुल्स अस्पताल के आस-पास के गैस कांड प्रभावित इलाकों और उसके चलते हुए प्रदूषित भूजल प्रभावित गरीब बस्तियों (शंकर नगर, गरीब नगर, टिंबर मार्केट आदि) में करीब 600-700 लोगों को वैक्सीन के ट्रायल में शामिल किया गया है.

हरि सिंह. (फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट)
हरि सिंह. (फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट)

ट्रायल के हिस्सा बने लोगों की अलग-अलग शिकायतें हैं. मंजू बाई कहती हैं, ‘अस्पताल की गाड़ी आई थी और सबको ले गई. हमसे कुछ नहीं पूछा. बस ब्लड प्रेशर, खून और कोरोना की जांच की. फिर इंजेक्शन लगा दिया और 750 रुपये का चैक दे दिया. बहुत जगह साइन कराए लेकिन कोई रसीद नहीं दी. वे बोले कि कागज का क्या करोगी? भूल जाओ अब कोरोना को.’

हालांकि, जिन्हें पता है कि वे ट्रायल में शामिल थे और उन्हें रसीद-कागज भी मिले हैं, उन्हें यह नहीं पता कि ट्रायल होता क्या है औरउन्हें मिले रसीद-कागजों में लिखा क्या है?

रमेश सेन ऐसे ही लोगों में से एक हैं. आठ दिसंबर को अन्य लोगों के साथ अस्पताल की गाड़ी में बैठकर वे भी ट्रायल में शामिल होने चले गए थे. 5 जनवरी को उन्हें ट्रायल का दूसरा टीका भी लग चुका है.

रमेश बताते हैं, ‘उन्होंने हमें बताया था कि ट्रायल का टीका है. अब हमें ये नहीं पता कि ट्रायल क्या होता है? उन्होंने कई जगह हस्ताक्षर कराए हैं, लेकिन हमें नहीं पता कि वो क्या था और किस पर हमने हस्ताक्षर किए, बस ये पता है कि हमें कोरोना का टीका लगा है.’

पीपुल्स अस्पताल के कुलपति डॉ. राजेश कपूर नेद वायर  से बातचीत करते हुए सभी आरोपों को बेबुनियाद और आधारहीन बताया है.

उन्होंने कहा, ‘बिना तथ्यों की पुष्टि किए कोई कुछ भी आरोप लगा सकता है. हमारे अस्पताल में ट्रायल संबंधी बोर्ड लगे हैं. जब ट्रायल शुरू हुआ तो हर अखबार में छपा कि यह ट्रायल है. ट्रायल की यह जानकारी भी हर जगह दी गई है कि हमें भी नहीं मालूम कि वैक्सीन का क्या असर सामने आएगा? हमने काउंसलिंग में भी सबको इस संबंध में बताया था.’

वहीं, ट्रायल में शामिल हुए लोग ये भी बताते हैं कि वैक्सीन देने के बाद अस्पताल प्रबंधन की ओर से उन्हें एक फॉर्म भी दिया गया था और कहा गया था कि जो भी आपको तकलीफ हो या महसूस हो इसमें लिख देना और निशान लगा देना.

छोटू दास कहते हैं, ‘हमें लिखना-पढ़ना ही नहीं आता तो कैसे लिखते? बस तकलीफ हुई तो अस्पताल चले गए. उन्होंने दवा लिख दी कि बाहर से खरीदकर ये खा लेना. ठीक हो जाओगे. दूसरा टीका लगवाने गए तो उन्होंने लगाया नहीं और कह दिया कि आपको कोरोना संक्रमण है.’

जितेंद्र के साथ भी यही समस्या रही कि वे पढ़े-लिखे न होने के कारण अस्पताल से मिले फॉर्म में वैक्सीन लगने के बाद की परिस्थितियों को बताने में असमर्थ रहे.

इसी के चलते मामले का खुलासा करने वाले गैस पीड़ित संगठनों की चिंता है कि इसका असर वैक्सीन की प्रभावशीलता पर भी पड़ेगा और ट्रायल के माध्यम से वैक्सीन के जो प्रभाव-दुष्प्रभावों का पता लगाने की कोशिश है, वह प्रभावित होगी क्योंकि जब ट्रायल में शामिल लोग वैक्सीन लगने के बाद पैदा हुई परिस्थितियों को लिख ही नहीं पा रहे हैं तो वैक्सीन कितनी प्रभावी है, ये कैसे साबित होगा?

रचना कहती हैं, ‘ड्रग ट्रायल का नियम है कि जब किसी को तकलीफ होती है तो उस तकलीफ को दर्ज करना जरूरी होता है. ये कानून है. अगर कोई वैक्सीन बाजार में ला रहे हो तो आप बताओगे न कि इस वैक्सीन से पांच लोगों को बुखार आया, दो लोगों को उल्टियां हुईं. ट्रायल में शामिल अनपढ़ लोग जब स्वयं इसे दर्ज नहीं कर पा रहे हैं, तो वे इलाज के लिए अस्पताल आते हैं, तब अस्पताल इसे दर्ज करे. लेकिन, अस्पताल तो उन्हें भगा देता है कि जाओ बाहर से इलाज कराओ. इसका दुष्प्रभाव तो वैक्सीन के नतीजों पर पड़ेगा कि वह कारगर है या नहीं?’

इस पर डॉ. कपूर कहते हैं, ‘गाइडलाइन के हिसाब से हमारे क्लीनिकल ट्रायल प्रोटोकॉल में कहा गया है कि हम अस्पताल परिसर के पड़ोस की कॉलोनीज को ट्रायल में शामिल करें जिससे कि वॉलिटियर्स के फॉलोअप में आसानी हो. बात सिर्फ वैक्सीन का इंजेक्शन लगाने तक की नहीं है. बात फॉलोअप की भी है. ये कहना गलत है कि हमने सिर्फ गरीबों को शामिल किया है. जो भी स्वेच्छा से आता है, उसे शामिल करते हैं. इसमें पढ़े-लिखे, गरीब, मजदूर सब शामिल हैं.’

इस बीच एक मसला यह भी है कि गैस पीड़ित जो कि पहले से ही अनेक गंभीर बीमारियों से ग्रस्त हैं, उन पर कोरोना के वैक्सीन का ट्रायल करना कितना सही है?

रचना कहती हैं, ‘गैस पीड़ित लोग स्वास्थ्य के मामले में कमजोर हैं और उनके बीमार होने की संभावना पहले से ही अधिक होती है. अगर उन्हें ट्रायल में शामिल भी किया जा रहा है तो आपको उन्हें ज्यादा समय देने की जरूरत है. इसी तरह गरीब और अनपढ़ों के मामले में भी आपको चीजों को अधिक विस्तार से समझाने की जरूरत है, लेकिन किसी को ट्रायल के संबंध में कुछ समझाया या बताया ही नहीं गया. बस आओ, टीका लगवाओ और 750 रुपये पाओ.’

गैस पीड़ितों पर ट्रायल वाली बात पर डॉ. कपूर कहते हैं, ‘हमने भारत सरकार की गाइडलाइन का पालन किया है. ट्रायल प्रोटोकॉल के तहत दो चीजें हैं कि हमारे आस-पास के लोग ट्रायल के लिए वॉलिंटियर बन सकते हैं या फिर कोई भी आ सकता है. अब सामान्य-सी बात है कि हमारे पड़ोस की कॉलोनी के लोग पहले आएंगे. हमने किसी गैस पीड़ितों की कॉलोनी को जान-बूझकर टारगेट थोड़ी किया है, लोग स्वेच्छा से आए हैं. जो लोग भारत सरकार के ट्रायल संबंधी एक्सलूजन और इनक्लूज़न क्राइटेरिया में सही बैठते हैं. हमने उसके तहत ही काम किया है.’

साथ ही उनका दावा है कि वैक्सीन लगाने से पहले सभी वॉलिंटियर्स की आधा-आधा घंटा काउंसलिंग की गई थी.

गौरतलब है कि 2010 में भी गैस पीड़ितों पर ड्रग ट्रायल संबंधी एक मामला सामने आया था. भोपाल मेमोरियल हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर (बीएमएचआरसी) में गैस पीड़ितों पर गैरक़ानूनी तरीके से ड्रग ट्रायल किए गए थे. यह मामला सुप्रीट कोर्ट तक पहुंचा.

इसलिए रचना कहती हैं, ‘तब ड्रग ट्रायल में 13 लोगों की मौत हुई थी. उनको मारने वालों पर कोई कार्रवाई नहीं हुई. भोपाल गैस कांड में 25,000 लोग मरे, उन पर भी कोई कार्रवाई नहीं हुई थी. इससे तो यही संदेश जाता है कि गरीबों और गैस पीड़ितों को मार दो. पहले मारने पर जेल नहीं हुई तो अब भी नहीं होगी.’

इस संबंध में मध्य प्रदेश के गैस राहत और चिकित्सा शिक्षा मंत्री विश्वास सारंग से बात की, तो उन्होंने मामले की जानकारी होने से ही इनकार कर दिया.

उन्होंने कहा, ‘गैस पीड़ितों पर गलत तरीके से कोरोना वैक्सीन के ट्रायल की हमारे पास कोई जानकारी नहीं है. न ही ऐसी कोई जानकारी है कि लोगों को पैसे का लालच देकर टीका लगाया गया है.’

(प्रतीकात्मक फोटो: पीटीआई)
(प्रतीकात्मक फोटो: पीटीआई)

उन्होंने आगे कहा, ‘मेरा ऐसा मानना है कि वैक्सीन को लेकर कोई विवाद खड़ा नहीं करना चाहिए. वैज्ञानिकों ने बहुत मेहनत करके वैश्विक महामारी के खिलाफ ये वैक्सीन बनाई है. बिना जांच या स्टडी के कुछ कह नहीं सकते. अगर उसके बाद भी कहीं कोई बात सामने आती है तो हम उसको संज्ञान में लेंगे.’

वहीं, एक दिन पहले ही विश्वास सारंग एनडीटीवी से बात करते हुए कहते नजर आ रहे थे कि टुकड़े-टुकड़े गैंग के सदस्यों की यह वैक्सीन के खिलाफ दुष्प्रचार की साजिश है. वे लोग इसका विरोध कर रहे हैं जो पाकिस्तान का समर्थन करते हैं.

सभी आरोपों को हैल्थ वर्कर्स का मनोबल गिराने वाला बताते हुए वैक्सीन के खिलाफ दुष्प्रचार की संभावनाओं की तरफ डॉ. कपूर भी इशारा करते हैं.

वे कहते हैं, ‘27 नवंबर को पीपुल्स अस्पताल में कोवैक्सीन का ट्रायल शुरू हुआ. 38 दिनों तक किसी ने कुछ नहीं कहा. सब हमारी तारीफ कर रहे थे. दो जनवरी को जब कोवैक्सीन और कोविशील्ड, दोनों वैक्सीन को आपातकालीन इस्तेमाल की अनुमति मिली, आरोपों का सिलसिला तब शुरू हुआ. इस पर मुझे ताज्जुब होता है.’

जब उनसे पूछा गया कि आप इसके पीछे किसी लॉबी का कोई षड्यंत्र देखते हैं, तो इस सवाल को वे टाल गए.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)