स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत नोटिस का अनिवार्य प्रकाशन निजता के अधिकार का उल्लंघन: हाईकोर्ट

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि विशेष विवाह अधिनियम के तहत शादी के लिए 30 दिन पहले नोटिस का अनिवार्य प्रकाशन कराना स्वतंत्रता और निजता के मूल अधिकार का उल्लंघन है. अब से नोटिस का प्रकाशन विवाह के इच्छुक पक्षों के लिए वैकल्पिक होगा.

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इलाहाबाद हाईकोर्ट परिसर. (फाइल फोटो: पीटीआई)

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि विशेष विवाह अधिनियम के तहत शादी के लिए 30 दिन पहले नोटिस का अनिवार्य प्रकाशन कराना स्वतंत्रता और निजता के मूल अधिकार का उल्लंघन है. अब से नोटिस का प्रकाशन विवाह के इच्छुक पक्षों के लिए वैकल्पिक होगा.

Prayagraj: People undergo thermal screening outside Allahabad High Court, during the fifth phase of COVID-19 lockdown, in Prayagraj, Monday, June 8, 2020. (PTI Photo)  (PTI08-06-2020_000147B)
इलाहाबाद हाईकोर्ट. (फाइल फोटो: पीटीआई)

नई दिल्ली: इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने बीते बुधवार को अपने एक अहम आदेश में विशेष विवाह अधिनियम के तहत शादी के लिए संबंधित नोटिस को अनिवार्य रूप से प्रकाशित कराने को निजता के अधिकार का उल्लंघन मानते हुए इसे वैकल्पिक करार दिया है.

जस्टिस विवेक चौधरी की अदालत ने अभिषेक कुमार पांडे द्वारा दाखिल एक बंदी प्रत्यक्षीकरण (हीबियस कॉर्पस) याचिका पर सुनवाई करने के बाद कहा कि विशेष विवाह अधिनियम के तहत शादी के लिए 30 दिन पहले नोटिस का अनिवार्य प्रकाशन कराना स्वतंत्रता और निजता के मूल अधिकार का उल्लंघन है.

उन्होंने अपने आदेश में कहा कि नोटिस के अनिवार्य प्रकाशन से राज्य सरकार या अन्य किसी पक्ष के हस्तक्षेप के बगैर आवेदनकर्ता जोड़े की अपने जीवनसाथी के चुनाव करने की स्वतंत्रता प्रभावित होगी.

पीठ ने कहा कि अब से विवाह के इच्छुक पक्षों के लिए यह वैकल्पिक होगा. उन्हें विवाह अधिकारी को यह लिखकर अनुरोध करना होगा कि वह अपने विवाह संबंधी नोटिस को प्रकाशित कराना चाहते हैं या नहीं.

अदालत ने कहा कि अगर आवेदनकर्ता पक्ष नोटिस का प्रकाशन नहीं कराना चाहता तो विवाह अधिकारी को 30 दिन के अंदर विवाह संपन्न कराना होगा.

उच्च न्यायालय का यह आदेश उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा गैरकानूनी धर्मांतरण रोधी अध्यादेश 2020 लागू किए जाने के बाद आया है, जिसमें अंतर धार्मिक विवाह के मामले में जिलाधिकारी से अनुमति समेत कई कड़े नियम और शर्तें लागू की गई हैं.

इस अध्यादेश के तहत व्यवस्था है कि अगर केवल विवाह के लिए धर्मांतरण कराया जाता है तो उस शादी को निष्प्रभावी भी घोषित किया जा सकता है.

अध्यादेश के तहत धर्मांतरण जबरन नहीं कराया गया है, इसके निर्धारण का दारोमदार मामले के अभियुक्त और धर्म परिवर्तन किए व्यक्ति पर होगा.

अदालत ने याचिका पर सुनवाई करते हुए यह स्पष्ट किया के विवाह करने के इच्छुक दोनों पक्षों की पहचान उनकी आयु और सहमति की वैधता प्रमाणित करना विवाह अधिकारी के हाथ में होगा, अगर अधिकारी को किसी तरह का संदेह होगा तो वह अपने सवालों के जवाब में साक्ष्य मांग सकता है.

मामले के वादी अभिषेक कुमार पांडे ने आरोप लगाया कि उनकी पत्नी सूफिया सुल्ताना ने हिंदू रीति रिवाज से उनके साथ विवाह किया है और अपना नाम बदलकर सिमरन कर लिया है, मगर उनकी पत्नी के पिता उन्हें अवैध तरीके से अपने साथ जबरन रख रहे हैं.

हालांकि दोनों पक्षों के बीच विवाद समाप्त हो गया, लेकिन अदालत ने विशेष विवाह अधिनियम 1954 के तहत शादी के लिए 30 दिन पहले नोटिस प्रकाशित कराने की अनिवार्यता का संज्ञान लिया.

विशेष विवाह अधिनियम 1954 के तहत अंतर धार्मिक विवाह करने के इच्छुक युगल को जिला विवाह अधिकारी के समक्ष एक लिखित नोटिस देना होता है. अदालत ने कहा कि किसी भी कानून के तहत ऐसी किसी भी नोटिस की अनिवार्यता की आवश्यकता नहीं है.

उत्तर प्रदेश में धर्मांतरण विरोधी कानून के लागू होने के बाद से अब तक कम से कम 16 मामले दर्ज किए जा चुके हैं.

पिछले साल 24 नवंबर को उत्तर प्रदेश सरकार तथाकथित ‘लव जिहाद’ को रोकने के लिए शादी के लिए धर्म परिवर्तन पर लगाम लगाने के लिए ‘उत्‍तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपविर्तन प्रतिषेध अध्‍यादेश, 2020’ ले आई थी.

इसमें विवाह के लिए छल-कपट, प्रलोभन देने या बलपूर्वक धर्मांतरण कराए जाने पर विभिन्न श्रेणियों के तहत अधिकतम 10 वर्ष कारावास और 50 हजार तक जुर्माने का प्रावधान किया गया है.

उत्तर प्रदेश पहला ऐसा राज्य है, जहां लव जिहाद को लेकर इस तरह का कानून लाया गया है.

आगामी 15 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट एक जनहित याचिका पर सुनवाई करेगा जिसमें उत्तर प्रदेश में लागू किए गए नए धर्मांतरण कानून की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई है.

(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)