हमें राजनीतिक आज़ादी तो मिल गई, लेकिन सामाजिक और आर्थिक आज़ादी कब मिलेगी?

आज़ादी के 71 साल: सरकार यह महसूस नहीं करती है कि शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण और सामाजिक सुरक्षा पर किया गया सरकारी ख़र्च वास्तव में बट्टे-खाते का ख़र्च नहीं, बल्कि बेहतर भविष्य के लिए किया गया निवेश है.

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आज़ादी के 71 साल: सरकार यह महसूस नहीं करती है कि शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण और सामाजिक सुरक्षा पर किया गया सरकारी ख़र्च वास्तव में बट्टे-खाते का ख़र्च नहीं, बल्कि बेहतर भविष्य के लिए किया गया निवेश है.

Studio/22.8.50, A22bb The first meeting of the planning Commission Advisory, Board was inaugurated by the Hon'ble Pandit Jawaharlal Nehru Prime Minister in New Delhi on August 22, 1950. General view of the Meeting. Shri G.L. Mehta is seen addressing the meeting. Appearing at his left are: the Hon'ble Shri Chintamani Deshmukh, Finance Minister; the Hon'ble Pandit Jawaharlal Nehru Chairman of the Commission; R.K. Patil and Shri N.R. Pillai, Secretary to the Commission. Appearing t extreme left is Mr. S.A. Venketaraman, Secretary Ministry of Industry and Supply Govt. of India.
22 अगस्त, 1950 को योजना आयोग के एडवाइजरी बोर्ड की पहली मीटिंग का उद्घाटन करते देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू व अन्य. (फोटो डिवीजन, भारत सरकार)
  • वर्ष 1951 में प्रति व्यक्ति शुद्ध राष्ट्रीय आय थी 274 रुपये. वर्ष 2016 में यह बढ़ कर 1.03 लाख रुपये हो गई. यानी 376 गुना वृद्धि.
  • सकल घरेलू उत्पाद इस अवधि में 10.4 हज़ार करोड़ रुपये से बढ़ कर 152510 अरब रुपये हो गया. यानी 1466 गुना वृद्धि.
  • वर्ष 1951 में भारत सरकार का ऋण 3059 करोड़ रुपये था. जो वर्ष 2016 में 74.40 लाख करोड़ रुपये हो गया. यानी 2432 गुना वृद्धि.
  • इसी अवधि में भारत सरकार द्वारा चुकाया जाने वाला सालाना ब्याज 39 करोड़ रुपये से बढ़कर 4.83 लाख करोड़ रुपये हो गया. यानी 12386 गुना वृद्धि.

जब सरकार यह कहती है कि विकास के लिए कठोर क़दम उठाने होंगे, तब उसका पहला मतलब यह नहीं होता है कि लोगों की बेहतरी के लिए कठोर क़दम उठाना है. वास्तव में सरकार आर्थिक विकास नीति के जाल में जब गहरे तक फंस जाती है, तब कठोर क़दम उठाती है.

हर साल उद्योगों के लगभग चार लाख करोड़ रुपये की शुल्क छूट, अंतरराष्ट्रीय व्यापार मंचों/समझौतों के दबाव में स्थानीय बाज़ार को बदहाल बनाने, बैकों के ज़रिये बड़े व्यापारिक समूहों को क़र्ज़ देने के बाद वसूल न कर पाने और फिर भारी भरकम क़र्ज़ (लोक ऋण) का बोझ बढ़ जाने के कारण जनता को चुभने वाले क़दम उठाए जाते हैं.

बार-बार अपन सुनते हैं कि 1947 में हमें राजनीतिक आज़ादी तो मिल गई थी, किन्तु सामाजिक और आर्थिक आज़ादी के लिए देशज स्वतंत्रता आंदोलन की रूपरेखा हम गढ़ नहीं पाए. उपनिवेशवाद ने हमारी आंखों में केंद्रीकृत अर्थव्यवस्था और मशीनी विकास की दृष्टि डाल दी थी. हम उसे बदलने का जोखिम उठा नहीं पाए.

पता नहीं कहां से हमें “सबसे बड़ा बनाने, सबसे विशाल निर्माण, विश्वगुरु, महागुरु, महाशक्ति” बनने का भ्रम-विष वाला कीड़ा काट गया. इस विष ने हमसे अपनी ख़ुद की स्वाभाविक क्षमताओं को पहचानने के ताक़त छीन ली.

हमने यह दावा नहीं किया कि विश्वयुद्धों और इसके बाद लगातार बने रहे युद्धों के माहौल में भारत दुनिया को इंसानियत का व्यवहार सिखा सकता है. यह बता सकता है कि समान और गरिमामय समाज बना पाना संभव है. भारत अपने ऐतिहासिक अनुभवों और सीखों के आधार पर इस सिद्धांत को बदल सकता था कि युद्धों से ही शांति और अमन हासिल किया जा सकता है.

भारत विकास की अपनी ख़ुद की परिभाषा गढ़ सकता था, पर इस मामले में वह अब तक पूर्ण रूप से असफल साबित हुआ है. हम बाह्य उपनिवेश से आज़ादी की 70वीं वर्षगांठ मना रहे हैं. इस मौक़े पर ज़रूरी है कि हम अपनी आर्थिक आज़ादी के हालातों की पड़ताल करें. इस विश्लेषण का संदर्भ है- सरकार पर चढ़ा हुआ क़र्ज़ और उसके बढ़ते जाने की गति.

आर्थिक उदारीकरण, निजीकरण और खुले बाज़ार की नीतियों में क़र्ज़ को बुरा नहीं माना जाता है, किंतु मूल्य आधारित विकास की परिभाषा में क़र्ज़ पर निर्भरता ग़ुलामी की प्रतीक होती है.

स्वंत्रत भारत में क़र्ज़ की रफ़्तार

स्वतंत्रता के बाद वर्ष 1950 में भारत की सरकार पर कुल 3059 करोड़ रुपये का क़र्ज़ था. क्या आप जानते हैं कि 2017 के बजट के मुताबिक भारत सरकार पर कुल कितना क़र्ज़ है? यह राशि है 79.63 लाख करोड़ रुपये; सरकार पर अपने बजट से साढ़े तीन गुना ज़्यादा क़र्ज़ है.

10 अगस्त, 2017 को संसद में वित्त मंत्री द्वारा मध्यावधि खर्चों का ढांचा प्रस्तुत किया गया. इसमें बताया गया है कि अभी भी कई वर्षों तक भारत सरकार के कुल बजट का सबसे बड़ा हिस्सा सरकार द्वारा लिए गए क़र्ज़ों के ब्याज के भुगतान के लिए ख़र्च होता रहेगा.

भारत सरकार के 2017 के कुल बजट (21.47 लाख करोड़ रुपये) में से 24 प्रतिशत से ज़्यादा हिस्सा ब्याज में जा रहा है. अगले दो वर्षों में यह अनुपात 23.69 प्रतिशत आएगा. वित्त मंत्री के अनुसार वर्ष 2017 में भारत सरकार 5.23 लाख करोड़ रुपये का ब्याज देगी, अगले दो सालों में यह राशि बढ़ती (2018 में 5.64 लाख करोड़ और 2019 में 6.15 लाख करोड़ रुपये) जाने वाली है.

विकास के महत्वपूर्ण क्षेत्र बनाम क़र्ज़

हमारा वित्तीय प्रबंधन बाज़ार केंद्रित है, समाज केंद्रित नहीं. पांच सितारा सड़कों और बुलेट ट्रेन अभी भारत की प्राथमिकताएं नहीं हैं, किंतु भारत सरकार की यही प्राथमिकताएं हैं. इन कामों के लिए लगभग 5 लाख करोड़ रुपये ख़र्च किए जाएंगे. जो फिर सरकार के क़र्ज़े में वृद्धि करेंगे.

सरकार मानव पूंजी में निवेश नहीं करना चाहती है. ज़रा सोचिए कि शिक्षा (63.5 हज़ार करोड़ रुपये), स्वास्थ्य (41.7 हज़ार करोड़ रुपये), सामाजिक कल्याण (38.3 हज़ार करोड़ रुपये), कृषि (52.9 हज़ार करोड़ रुपये) और ग्रामीण विकास (1.28 लाख करोड़ रुपये) के कुल योग से डेढ़ गुना ज़्यादा बजट ब्याज पर खर्च किया जाता है.

जीडीपी और लोक ऋण

भारत सरकार का मानना है कि भारत सरकार का क़र्ज़ सकल घरेलू उत्पाद का 65 प्रतिशत के आसपास है, जबकि अमेरिका में सरकार का क़र्ज़ उनके जीडीपी का 75 प्रतिशत तक है. इसका मतलब यह है कि क़र्ज़-जीडीपी का अनुपात अभी गंभीर स्थिति में नहीं है.

यह तर्क देते समय सरकारी नीति निर्धारक यह बिंदु भूल जाते हैं कि अमेरिका जो क़र्ज़ लेता है उसमें ब्याज दर 1 से 3 प्रतिशत होती है, जबकि भारत लगभग 7 से 9 प्रतिशत की ब्याज दर से क़र्ज़ लेता है.

अमेरिका अपने बजट का केवल 6 प्रतिशत हिस्सा ब्याज के भुगतान में ख़र्च करता है, जबकि भारत में सरकार के कुल व्यय का 24 प्रतिशत हिस्सा ब्याज के भुगतान में चला जाता है. ऐसे में वास्तविक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए ज़्यादा संसाधन बचते ही नहीं हैं. महत्वपूर्ण बात यह है कि हम अमेरिका के भक्त क्यों होना चाहते हैं?

क़र्ज़ सरकार को ही नहीं, लोगों को भी प्रभावित करता है

हमें यह समझना होगा कि यह क़र्ज़ सरकार लेती ज़रूर है, किंतु उसकी क़ीमत, मूलधन और ब्याज; ये तीनों उस देश के लोगों को चुकाने होते हैं. हम यह नहीं मान सकते हैं कि यह तो सरकार का लिया हुआ क़र्ज़ा है, इससे हमें क्या? थोड़ा सोचिए कि ऐसे में स्वास्थ्य, शिक्षा, किसान, सामाजिक सुरक्षा आदि के लिए धन बचता कहां है!

पिछले 67 सालों में भारत की सरकार पर जमे हुए क़र्ज़ में 2432 गुना वृद्धि हुई है. और यह लगातार बढ़ता गया है. हमें यह भी सोचना चाहिए कि यह क़र्ज़ आगे न बढ़े और इसका चुकतान भी किया जाना शुरू किया जाए.

जिस स्तर पर यह राशि पंहुच गई है, वहां से इसमें कमी लाने के लिए देश के लोगों को कांटे का ताज पहनना पड़ेगा. सवाल यह है कि जब इतनी बड़ी मात्रा में क़र्ज़ बढ़ा है, तो क्या लोगों की ज़िंदगी में उतना ही सुधार आया?

पिछले 70 साल का आर्थिक नीतियों का अनुभव बताता है कि भारत की प्रति व्यक्ति शुद्ध राष्ट्रीय आय 376 गुना बढ़ी है, किंतु लोक ऋण के ब्याज के भुगतान में 12386 गुना वृद्धि हुई है. कहीं न कहीं यह देखने की ज़रूरत है कि लोक ऋण का उपयोग संविधान के जनकल्याणकारी राज्य के सिद्धांत को मज़बूत करने के लिए हो रहा है या नहीं? यह पहलू तब महत्वपूर्ण हो जाता है जब देश में 3.30 लाख से ज़्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हों और 20 करोड़ लोग हर रोज भूखे रहते हों;

सबसे ताज़ा 21 सालों की स्थिति

वर्ष 1997 में सरकार पर सभी देनदारियों समेत देश के भीतर से और देश के बाहर से लिए गए ऋण की कुल राशि 7.78 लाख करोड़ रुपये थी. अब भी सरकार की इस क़र्ज़दारी में सालाना लगभग 12 प्रतिशत के दर से बढ़ोत्तरी होती रही और यह क़र्ज़ इस चालू वित्तीय वर्ष (वर्ष 2017) में दस गुने से ज़्यादा बढ़ कर 79.63 लाख करोड़ रुपये तक जा पंहुचा है.

इस साल (मार्च 2018) के अंत तक भारत इक्कीस सालों की अवधि में भारत सरकार ब्याज के रूप में कुल 47.14 लाख करोड़ रुपये का भुगतान कर चुकी होगी. यह राशि चालू वित्त वर्ष के कुल बजट (21.46 लाख करोड़) के दो गुने से भी ज़्यादा है. वित्त मंत्री का आंकलन है कि अगले दो सालों में यह राशि 57 लाख करोड़ रुपये तक पंहुच जाएगा.

आर्थिक विकास हो रहा है, किंतु आर्थिक ग़ुलामी बढ़ रही है. भारत के आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक वर्ष 1950 में चालू क़ीमतों के आधार पर प्रतिव्यक्ति शुद्ध राष्ट्रीय आय 274 रुपये थी. जो वर्ष 2015 में बढ़कर 1.03 लाख रुपये हो गई. यह वृद्धि 376 गुने की है.

क्या इसका मतलब यह है कि जितना क़र्ज़ सरकारों ने लिया, उसने बहुत उत्पादक भूमिका नहीं निभाई है. सरकार का पक्ष है कि देश में अधोसंरचनात्मक ढांचे के विकास, परिवहन, औद्योगिकीकरण, स्वास्थ्य, क़ीमतों को स्थिर रखने और विकास-हितग्राहीमूलक योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए उसे क़र्ज़ लेना पड़ता है.

“वृद्धि दर को विकास दर” मानने वाले नज़रिये ये यह तर्क ठीक हो सकता है, किंतु जनकल्याणकारी और स्थायी विकास के नज़रिये से इस तर्क की उम्र बहुत ज़्यादा नहीं होती है क्योंकि क़र्ज़ लेकर शुरू किया गया विकास एक दलदल की तरह होता है, जिसमें एक बार आप गलती से या अपनी उत्सुकता को शांत करने के लिए उतरते हैं, और फिर उसमें डूबते ही जाते हैं.

More than 100,000 employees of a company attempt to create a new world record by singing the national anthem together in the northern Indian city of Lucknow on May 6, 2013. Pawan Kumar / Reuters
(फोटो: रॉयटर्स)

हमारी अर्थव्यवस्था की विकास दर कोई 6 से 8 प्रतिशत के बीच रहती है, किंतु लोकऋण (केंद्र सरकार द्वारा लिए जाने वाला क़र्ज़) की वृद्धि दर औसतन 12 प्रतिशत है. यह बात दिखाती है कि एक तरफ तो प्राकृतिक संसाधनों का जो दोहन हो रहा है, वह समाज-मानवता के लिए दीर्घावधि के संकट पैदा कर रहा है, उस पर भी उसका लाभ समाज और देश को नहीं हो रहा है.

उस दोहन से देश के 100 बड़े घराने अपनी हैसियत ऐसी बना रहे हैं कि वे समाज को अपना आर्थिक उपनिवेश बना सकें. इसमें एक हद तक वे सफल भी रहे हैं. इसका दूसरा पहलू यह है कि आर्थिक उपनिवेश बनते समाज को विकास होने का अहसास करवाने के लिए सरकार द्वारा और ज़्यादा क़र्ज़े लिए जा रहे हैं.

हमें इस विरोधाभास को जल्दी से जल्दी समझना होगा और विकास की ऐसी परिभाषा गढ़नी होगी, जिसे समझने के लिए सरकार और विशेषज्ञों की आवशयकता न पड़े. लोगों का विकास होना है तो लोगों को अपने विकास की परिभाषा क्यों नहीं गढ़ने दी जाती है?

आर्थिक विकास की मौजूदा परिभाषा बहुत गहरे तक फंसाती है. यह पहले उम्मीद और अपेक्षाएं बढ़ाती है, फिर उन्हें पूरा करने के लिए समाज के बुनियादी आर्थिक ढांचे पर समझौते करवाती है, शर्तें रखती है और समाज के संसाधनों पर एकाधिकार मांगती है.

इसके बाद भी मंदी आती है और उस मंदी से निपटने के लिए और रियायतें मांगती है; तब तक राज्य और समाज इसमें इतना फंस चुका होता है कि वह बाज़ार की तमाम शर्तें मानने के लिए मजबूर हो जाता है क्योंकि तब तक उत्पादन, ज़मीन, बुनियादी सेवाओं से जुड़े क्षेत्रों पर निजी ताक़तों का क़ब्ज़ा हो चुका होता है.

मूल बात यहां से शुरू होती है कि यदि आर्थिक विकास हो रहा है, तो ग़रीबी कम होना चाहिए, पर कम हो रही नहीं है. यदि देश का सकल घरेलू उत्पाद बढ़ रहा है, तो देश, सरकार और समाज पर से क़र्ज़ कम होना चाहिए, पर यह तो सैंकड़ों गुना बढ़ गया. यह कैसा विकास है? हमें जीडीपी के भ्रम से बाहर आना होगा, क्योंकि यह क़र्ज़ और पूंजीपतियों को करों में छूट देकर खड़ा किया गया भ्रम जाल है.

बड़े वाले क़र्ज़ लेते हैं और खा जाते हैं

ज़रा इस उदाहरण को देखिए. वर्ष 2008 में, जब वैश्विक मंदी का दौर आया तब भारत के बैंकों के खाते में 53917 हज़ार करोड़ रुपये की “अनुत्पादक परिसंपत्तियां” (नान परफार्मिंग असेट) दर्ज थीं. ये वही क़र्ज़ होता है, जिसे चुकाया नहीं जा रहा होता है या समय पर नहीं चुकाया जाता है.

तब यह नीति बहुत तेज़ी से आगे बढ़ी कि मंदी से निपटने के लिए बैंकों से ज़्यादा से ज़्यादा ऋण दिए जाएं. यह कभी नहीं देखा गया कि जो ऋण दिया जा रहा है, वह कितना उत्पादक, उपयोगी और सुरक्षित होगा. वर्ष 2011 से जो ऋण बंटे, उनमें से बहुत सारे अनुत्पादक साबित हुए.

दिसंबर 2016 की स्थिति में सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के बैंकों के खाते में 6.975 लाख करोड़ रुपये की “अनुत्पादक परिसंपत्तियां” दर्ज हो गईं. अब इस खाते की राशि, यानी जो ऋण वापस नहीं आ रहा है, को सरकारी बजट से मदद लेकर बट्टे खाते में डालने की प्रक्रिया शुरू हो गई या उन पर समझौते किए जा रहे हैं. इस तरह की नीतियों ने भारत सरकार के आर्थिक संसाधनों के दुरुपयोग की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया. इनके कारण भी सरकार ने नया क़र्ज़ लेने की प्रक्रिया जारी रखी.

अक्सर यह देखा गया कि बजट आने के समय चहुंओर ध्यान केवल एक बिंदु पर रहता है कि व्यक्तिगत आयकर की सीमा में क्या बदलाव हुआ? वास्तव में व्यक्तिगत करों में दी जाने वाली छूट सरकार द्वारा दी जाने वाली छूटों का एक छोटा हिस्सा भर होती है.

वर्ष 2007 से भारत सरकार ने अपने बजट विधेयक के साथ यह बताना शुरू किया कि वह किन क्षेत्रों और उत्पादों के लिए छूट दे रही है. तब से लेकर 2015 तक सरकार ने 41.20 लाख करोड़ रुपये के बराबर शुल्कों, कटौतियों और करों में रियायत या छूट दी है. इन में से 4.52 लाख करोड़ रुपये की छूट कच्चे तेल और 4.18 लाख करोड़ रुपये की छूट हीरा और बहुमूल्य आभूषणों के व्यापार के लिए दी गई.

समाज के सामने ख़तरे

पिछले 26 सालों में हमारी आर्थिक नीति का एक महत्वपूर्ण पहलू यह रहा है कि सरकार सकल घरेलू उत्पाद के मुक़ाबले ब्याज भुगतान की राशि/अनुपात में कमी लाए. स्वाभाविक है कि इसके लिए सरकार को अपने ख़र्चों में कटौती करनी होगी.

इस मामले में वह सबसे पहले सामाजिक क्षेत्रों पर होने वाले व्यय में कटौती की रणनीति अपनाती है. स्वास्थ्य, शिक्षा, सामाजिक सुरक्षा, महिलाओं-बच्चों के कल्याण पर उसका व्यय उतना नहीं होता, जितना कि होना चाहिए.

आप देखिए कि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना, आईसीडीएस, मातृत्व हक योजना, लोक स्वास्थ्य व्यवस्था और समान शिक्षा प्रणाली को लागू न करने के पीछे के सबसे बड़े कारण ही यही हैं कि इन क्षेत्रों का आंशिक या पूर्ण निजीकरण किया जाए ताकि सरकार के संसाधन बचें.

सरकार यह महसूस नहीं करती है कि शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण और सामाजिक सुरक्षा पर किया गया सरकारी ख़र्च़ वास्तव में बट्टे-खाते का ख़र्च नहीं, बल्कि बेहतर भविष्य के लिए किया गया निवेश है. यह सही है कि सरकार भी लोक ऋण (सरकार पर चढ़ा क़र्ज़ और देनदारियां) के बारे में चिंतित है और उस चिंता को दूर करके के लिए वह सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण, प्राकृतिक संसाधनों की नीलामी और सामाजिक क्षेत्रों से सरकारी आवंटन को कम करने सरीखे क़दम उठाती है.

ऐसे में इस विषय पर लोक-बहस होना और नीतिगत नज़रिये में बदलाव लाने की ज़रूरत होगी. हमें यह याद रखना है कि आख़िर में यह ऋण बच्चों, महिलाओं, मज़दूरों, किसानों, फुटकर व्यवसायियों, छात्रों और आम लोगों को ही मिलकर चुकाना होगा.

आर्थिक आज़ादी के लिए भारत को क़र्ज़ से मुक्ति की पहल करनी चाहिए. इसके लिए हमें अपनी शिक्षा, जीवन व्यवहार और विकास की परिभाषा को बदलना होगा. क्या यह संभव है?

(लेखक सामाजिक शोधकर्ता, कार्यकर्ता और अशोका फेलो हैं.)