निराला ने वीणावादिनी से ‘नव गति, नव लय, ताल-छंद नव, नवल कंठ’ मांगे थे, लेकिन आज जिन पैरों में नई गति है, उन्हें बेड़ियों से बांध दिया गया है. कंठ पर ताला है और नएपन की जगह कारागार है. जब मेरा स्वर नहीं तो क्या मैं सरकारी कंठ से प्रार्थना करूं? क्या यह देवी का अपमान नहीं?
भूल गया था कि आज वसंत पंचमी है. वसंत पंचमी अर्थात सरस्वती पूजा. याद दिलाई दादरा नगर हवेली केंद्र शासित प्रदेश के प्रशासन ने.
उसने सारे स्कूलों को आदेश दिया है कि वे न सिर्फ सरस्वती पूजन का आयोजन करें बल्कि उसके हर चरण का ब्योरा भी दिया है कि वह पूजा कैसे की जानी है, प्रार्थना किस प्रकार की जाएगी. मूर्तियों को प्रवेश द्वार पर प्रतिष्ठित करना है, सरस्वती वंदना की जानी है, पारंपरिक सरस्वती पूजा, सज्जा की जानी चाहिए.
बच्चों को इस उत्सव के महत्त्व के बारे में बताया जाए, सरस्वतीमंत्र जाप समूहों में किया जाए, देवी सरस्वती से आशीर्वाद की याचना की जाए, संस्कृत श्लोक प्रतियोगिता, ओम और स्वस्तिक जैसे पवित्र प्रतीकों को लेकर रेखांकन प्रतियोगिता की जाए. स्कूल को विशेषकर पीले रंग से सजाया जाए. प्रसाद वितरण किया जाए.
आदेश है यह सुझाव नहीं है, यह पत्र के अंत में स्पष्ट किया गया है. इन आदेशों के पालन के प्रमाण रूप में तस्वीरें आदि हर स्कूल को जमा करनी हैं.
अपने आदेश में प्रशासन ने कहा है कि सब जानते हैं कि वसंत पंचमी देवी सरस्वती का जन्मदिन है जो ज्ञान, बुद्धि या विवेक, पवित्रता और सत्य की प्रतीक हैं. लेकिन विवेक, बुद्धि का जाप करते हुए दादरा नगर हवेली और दमन और दीव प्रशासन ने इस परिपत्र को जारी करके अपनी विवेकहीनता का परिचय दिया. या भारत के संवैधानिक विवेक से अपने अपरिचय का.
राजकीय तौर पर कैसी भी एक धार्मिक अवसर या उपासना को अनिवार्य नहीं बनाया जा सकता. उसे किसी पर आरोपित नहीं किया जा सकता. जो ऐसा करता है वह भारत के सामाजिक जीवन के संचालन के लिए बने दस्तूर या संविधान का उल्लंघन करता है, यह बात प्रशासकों को बताने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए.
वे हर स्कूल के लिए, यहां तक कि हर छात्र छात्रा के लिए इसे अनिवार्य नहीं कर सकते. लेकिन भारत का दुर्भाग्य कि उसका शासन अब उनके हाथों है जो बेधड़क संविधान की धज्जी उड़ा रहे हैं.
यह आदेश लेकिन इस प्रशासन की तरफ़ से पहली कोशिश नहीं है एक विशेष धर्म को सब पर थोपने की. अभी कुछ साल पहले इसने गुड फ्राइडे का अवकाश समाप्त करने का आदेश जारी किया था. सार्वजनिक आलोचना के बाद उसे वापस लेना पड़ा.
लेकिन वह चूंकि विचारधारात्मक फ़ितरत है, इस साल वह इस रूप में प्रकट हुई.
धार्मिक स्वातंत्र्य धर्मनिरपेक्षता की बुनियाद है. इसीलिए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अगर किसी धार्मिक परंपरा से ध्वज वंदना या राष्ट्रगान असंगत हो तो उस परंपरा लोगों को राष्ट्रगान के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता.
सुबह शाम जो गांधी का नामजाप करते हैं, उन्हें याद दिलाना ज़रूरी है कि जो गीता उन्हें सबसे प्रिय थी, उसके बारे में जीवन की संध्या में उन्होंने कहा था कि अगर कनपट्टी पर बंदूक रखकर गीता पढ़ने को कहा जाएगा, मैं इनकार कर दूंगा.
फिर दादरा प्रशासन यह ग़ैर कानूनी जबरदस्ती क्यों कर पा रहा है? क्योंकि हमारे समाज से न सिर्फ संवैधानिक विवेक का लोप हो गया है बल्कि अपनी धार्मिक परंपराओं से भी दूर जा पड़े हैं.
एक तो यह बात ही अपने धर्म के लिए अपमानजनक होनी चाहिए कि उसे मनाने के लिए हम बल या अधिकार का प्रयोग करें. संभव है, कमजोर होने के कारण दूसरे मजबूर हो जाएं लेकिन इससे तो हमारे धर्म के प्रति उनमें वितृष्णा ही बढ़ेगी.
जो भी यह कर रहा है वह हिंदू धर्म और सरस्वती के प्रति सद्भाव नहीं दुराव पैदा कर रहा है. जो हिंदू और सरस्वती उपासक नहीं हैं, उनके लिए सरस्वती विद्या, विवेक की नहीं ज़ोर-जबरदस्ती की प्रतीक हो जाएंगी.
बचपन याद आया, किशोरावस्था भी. वसंत पंचमी सरस्वती की अभ्यर्थना का दिन भी है, यह मालूम था. इस तिथि की प्रतीक्षा होती थी. मौसम के बदल जाने की आधिकारिक सूचना जैसे प्रकृति की तरफ से दी जा रही हो.
रूखी डाल भी वसन वासंती लेगी. बसंती रंग के परिधान धारण किए किशोरियां और किशोर आज के दिन फिरते दिखलाई पड़ते थे.’वैलेंटाइन दिवस’ तब नहीं था प्रचलन में. जिनको याद हो, वे जानते हैं कि यह किशोर प्रेमी जोड़ों के लिए बहुप्रतीक्षित दिन हुआ करता था.
‘सरस्वती पूजा’ का आयोजन एक अवसर था. अलग-अलग छात्रावासों में लड़के-लड़कियां उस दिन बेधड़क घूम सकते थे.लड़कों के हॉस्टल में लड़कियों का झुंड आम दिनों में दिखलाई पढ़ना संभव न था.
किशोरियों के लिए विशेष दिन हुआ करता था. वे साड़ी पहनती थीं. स्कूल की वर्दी से आज मुक्ति मिलती थी विद्या की देवी वे प्रत्यक्षतः थीं.वह तो था उपलक्ष्य. लक्ष्य तो राग था. अनुराग.
अनुराग, जो स्वतंत्रता के बिना संभव नहीं और स्वयं स्वतंत्र करता है. बिना स्वाधीन हुए मेरे मन में किसी के प्रति राग कैसे उत्पन्न हो सकता है
संभवतः यह कारण रहा हो कि निराला, कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने इस दिन को अपना जन्मदिन चुन लिया. चुनाव, विकल्प, स्वतंत्रता, ये भाव हैं जो इस तिथि से जुड़े हुए चले आते हैं.
आज के दिन को साहित्यवाले निराला जयंती के रूप में ही मनाते हैं. ठीक ही तो है. लेखक, कलाकार को कल्पना का अधिकार न हो, यहां तक कि अगर वह अपने जन्म के क्षण की कल्पना भी न कर सके तो फिर वह दूसरा प्रजापति कैसे है.
तो सरस्वती जितनी विद्या की देवी हैं उतनी ही अनुराग की, प्रेम और कलाओं की. कला जो सांसारिक प्रयोजनों से संबद्ध होकर भी उनसे परे का व्यापार है. जो इस संसार को आमंत्रण देती है किसी अन्य लोक का.
निराला भी सरस्वती को सरस्वती कहकर नहीं बुलाते. उनके लिए वे हैं वीणावादिनी. तो प्रार्थना भी स्वर के लिए है:
वर दे, वीणावादिनी वर दे!
ध्यान रहे, हैं वे वीणावादिनी. यहां संबोधन विद्यादायिनी नहीं है. लेकिन क्या कला भी विद्या नहीं है? क्या वह भी संसार को देखने, समझने का एक तरीका नहीं.
लेकिन वरदान किसका या क्या?
प्रिय स्वतंत्र-रव, अमृत-मंत्र नव
भारत में भर दे!
स्वर ही तो है अमर्त्य. किंतु मांग है स्वतंत्र रव की. मात्र स्वतंत्र नहीं, प्रिय स्वतंत्र रव की. रव वही प्रिय है जो स्वतंत्र है. वही हमें अमर्त्य भी बना सकता है.जो स्वंतत्र-रव है वही अमृत मंत्र है. जिसे भारत में भरना है.
स्वतंत्र तो वही है जो प्रत्येक को स्वतंत्र करता है.जो मुझे प्रिय है वह औरों को भी हो, इसके लिए उनका स्वतंत्र होना अनिवार्य है.
यह रव निजी है. आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने साहित्य को निजी वाणी कहा है. निजता का पारावार या निजता का अधिकार सबको मिले तब उसकी सार्थकता है. इसलिए स्वतंत्र रव से भारत को भर देना है. उसकी रग-रग में यह समा जाए, कवि की यही प्रार्थना है.
और क्या किया जाना है?
काट अंध-उर के बंधन स्तर
बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर;
कलुष-भेद-तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे!
अंध उर, यानी अंधेरे आंतरिक प्रदेश के बंधनों को काटना है, कलुष को भेदना है और अंधेरे को समाप्त करके संसार को जगमग कर देना है.
स्वतंत्रता, आज़ादी और वह सिर्फ अंग्रेजों से आज़ादी की मांग नहीं. अंध उर और कलुष मात्र औपनिवेशिक राज के कारण न थे.
अंतिम अंश में स्वतंत्रता और कलुष हरण के बाद आकांक्षा किसकी है?
नव गति, नव लय, ताल-छंद नव,
नवल कंठ, नव जलद मंद्र रव;
नव नभ के नव विहग वृंद को
नव पर, नव स्वर दे!
स्वतंत्र रव ही नया स्वर होगा? गति भी नई होनी चाहिए, लय, ताल छंद भी नए, कंठ भी नया. आसमान नया और पंछी भी नए. नए डैने, नये स्वर.
पुरातन की कहीं दुहाई नहीं, परंपरा का पूजन नहीं. लेकिन आज जिन पैरों में नई गति है, उन्हें बेड़ियों से बांध दिया गया है, कंठ पर ताला है और आसमान में जासूसी ड्रोन उड़ रहे हैं.
नएपन की जगह कारागार है. कल गुलफ़िशा थी, आज दिशा रवि है, कल अमूल्या थी, आज निकिता है, कल देवांगना थी, आज नवदीप कौर है.
स्वर पर पहरा है. गति ज़ंजीर में बंधी है, पर काटे जा रहे हैं. फिर किस सरस्वती की आराधना की जानी है? जब मेरा स्वर नहीं तो क्या मैं सरकारी कंठ से प्रार्थना करूं? क्या यह देवी का अपमान नहीं?
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)