हिंदी साहित्य ने विभाजन को कैसे देखा

जहां हिंदी लेखकों ने विभाजन पर बार-बार लिखा, हिंदी कवि इस पर तटस्थ बने रहे. कइयों ने आज़ादी मिलने के जश्न की कविताएं तो लिखीं, लेकिन देश बंटने के पीड़ादायी अनुभव पर उनकी चुप्पी बनी रही.

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जहां हिंदी लेखकों ने विभाजन पर बार-बार लिखा, हिंदी कवि इस पर तटस्थ बने रहे. कइयों ने आज़ादी मिलने के जश्न की कविताएं तो लिखीं, लेकिन देश बंटने के पीड़ादायी अनुभव पर उनकी चुप्पी बनी रही.

पाकिस्तानी इतिहासकर आयेशा जलाल के शब्दों में अगर भारतीय उपमहाद्वीप के बंटवारे को समझें तो ये ‘20वीं सदी में दक्षिण एशिया में हुई प्रमुख घटना थी.’ ये एक निर्णायक क्षण था, जिसने दुनिया के इस क्षेत्र में रहने वालों की ज़िंदगियों को आकार दिया और अब भी दे रहा है. विभाजन 20वीं सदी की सबसे विध्वंसकारी घटनाओं में से एक है क्योंकि इतिहास में किसी भी समय इतनी बड़ी संख्या में मानव आबादी का सरहदों के पार ऐसा विस्थापन नहीं हुआ, न ही लोगों को ऐसे दुखों का सामना करना पड़ा जिनके बारे में उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था.

इस बारे में कोई निश्चित आंकड़ा तो उपलब्ध नहीं है पर ऐसा माना जाता है कि तकरीबन डेढ़ करोड़ लोग अपनी जड़ों से उजड़ गए, महिला, पुरुष और बच्चों सहित करीब 10 से 20 लाख लोग मारे गए. हज़ारों-सैंकड़ों लोगों को शरीर के घावों के साथ भावनात्मक ठेस भी मिलीं, जिनसे वे कभी उबर नहीं पाए.

इस घटना ने विस्थापित मानव आबादी की बर्बरता के सबसे आदिम रूप को निकालकर रख दिया. विभाजन ने केवल उपमहाद्वीप के टुकड़े नहीं किए, बल्कि जिस समावेशी संस्कृति को पाने में सदियां लगी थीं, उसके टुकड़े-टुकड़े करते हुए लोगों के दिलों में भी खाई बना दी. इन बचे हुए लोगों के लिए विभाजन कोई घटना नहीं है बल्कि एक संघर्ष है, जो अब तक जारी है.

हिंदी साहित्य की सशक्त हस्ताक्षर कृष्णा सोबती का विभाजन की पृष्ठभूमि पर लिखा हुआ उपन्यास ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान’  आत्मकथात्मक शैली में है. इस उपन्यास में उनकी अपनी ज़िंदगी के वो अनुभव दर्ज हैं, जो उन्हें विभाजन के बाद एक ‘रिफ्यूजी’ के रूप में दिल्ली आने से लेकर सिरोही (गुजरात) के राजपरिवार के इकलौते वारिस की गवर्नेस बनने के दौरान हुए.

उपन्यास की शुरुआत दो नक्शों से होती है, जो विभाजन के पहले और बाद के हिंदुस्तान को दिखाते हैं. इसके बाद एक लंबा, मर्मभेदी आत्मभाषण है, जिसमें असीम दर्द, दुख और पीड़ा दर्ज है.

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गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान: कृष्णा सोबती/राजकमल प्रकाशन

सोबती, इन घटनाओं, जिनकी तुलना केवल होलोकॉस्ट से की जा सकती है, की चश्मदीद रही थीं. अपनी अनूठी शैली में उन्होंने अपने अनुभव की गहराई से उन सालों के सार को बताने की कोशिश की. उन जैसे लाखों लोगों को एक आज़ाद देश बनने की खुशी अपने घर, ज़िंदगी, इज्ज़त, मान और खुद को खोने की कीमत पर मिली.

सोबती ने बताया, ‘उस वक़्त घर पागलखाने में तब्दील हो गए थे.’ फिर उन्होंने विभाजन के समय मायूस हो चुके सिकंदर लाल के इन शब्दों को दोहराया, ‘जिन्ना ने अपने इस्लामी घोड़े खुले छोड़ दिए और गांधी और जवाहर उनके मुकाबले के लिए पोरस के हाथी ले आए.’

जहां एक तरफ अधिकतर उपन्यास इस डिसक्लेमर के साथ शुरू होते हैं कि सभी पात्र और घटनाएं काल्पनिक हैं, लेकिन ये उपन्यास एक अनोखे दावे से शुरू होता है कि इस उपन्यास के सभी पात्र और घटनाएं सच और ऐतिहासिक हैं. यहां कृष्णा सोबती और उनके संरक्षण में सिरोही राजपरिवार की गद्दी संभालने के लिए गोद लिए गए बच्चे तेज सिंह के किरदारों के अपनी जड़ों से बिछड़ने को लेकर एक अनोखी समानता है.

ये वो समय था जब देश की सभी रियासतों और रजवाड़ों से उनके शाही पद और कुछ विशेषाधिकार छोड़कर सारी शक्तियां और धन ले लिया गया था. उनमें भी अपनी जड़ से उजड़ जाने और खो जाने की एक भावना थी- वे अपने महलों के अंदर ही एक अलग तरह के ‘रिफ्यूजी’ बनकर रह गए थे. शाही परिवार में एक गवर्नेस की भूमिका ने कृष्णा सोबती को इन महलों के अंदर की अलग-थलग ज़िंदगी और महल के मुलाज़िमों की साज़िशों की सच्चाई से रूबरू करवाया.

जब विभाजन के बाद एक के बाद एक ख़तरनाक घटनाएं हो रही थीं, पूरे उपमहाद्वीप में सांप्रदायिक हिंसा की आग फैली हुई थी, हिंदुस्तान और नए बने पाकिस्तान के बीच लाशों से भरी ट्रेनें आ-जा रही थीं, तब 12 अक्टूबर 1947 से 12 नवंबर 1947 के बीच सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ ने ‘शरणार्थी’ शीर्षक से कविताओं की एक श्रृंखला लिखी थी.

इस समय तक उन्होंने ‘शेखर-एक जीवनी’ जैसा उपन्यास लिखकर अपनी छवि एक ऐसे युवा लेखक की बना ली थी, जिसमें हिंदी साहित्य की दुनिया भविष्य की संभावनाएं देख रही थी. शेखर एक जीवनी ने हिंदी साहित्य जगत को अपनी प्रतिभा और सर्वथा नई व ताजगी भरी लेखन शैली से चकित कर दिया था.

यह भी प्रतीकात्मक ही था कि 11 भागों की इस श्रृंखला की अधिकतर कवितायें अलग-अलग रेलवे स्टेशनों के प्लेटफॉर्म या प्रतीक्षालयों में लिखी गई थीं- पहली कविता इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर लिखी गई थी, वहीं आखिरी आधी रात के किसी समय मुरादाबाद के रेलवे स्टेशन पर. ये हिंदी साहित्य के आलोचकों की इस ग़लती को भी दिखाती हैं कि कैसे किसी महत्वपूर्ण कवि द्वारा विभाजन के बाद उसके आस-पास हो रही घटनाओं पर कविताओं के रूप में दर्ज हुई प्रतिक्रियाओं को ज़्यादातर आलोचकों द्वारा नज़रअंदाज़ कर दिया गया.

MILLENNIUM PHOTO: FREEDOM MOVEMENT, HISTORY'S BIGGEST MIGRATION. TRAIN LOADED TO CAPACITY, INDIA PAKISTAN PARTITION.. ISSUED BY DIRECTORATE OF PUBLIC RELATIONS, EAST PUNJAB.
शरणार्थियों की भीड़ से भरी ट्रेन (फोटो: विकीमीडिया)

अज्ञेय की नज़र में देश मानो मिर्गी के दौरे सरीखी पीड़ा से जूझ रहा था. इस श्रृंखला की छठी कविता को ‘समानांतर सांप’ का नाम दिया गया है, जो सात भागों में बंटी हुई है. ये सांप्रदायिकता के दो लंबे सांपों के बारे में है, जिन्होंने हिंदुस्तान के लोगों को अपनी ज़द में ले लिया है और अब दूर-दूर तक अपना ज़हर फैला रहे हैं. लोगों की आंखों में नफ़रत है, दुश्मनी की फसल पक चुकी है.

वे अपनी ज़िंदगी बचाने के लिए भाग रहे हैं क्योंकि ‘रुकेंगे तो मरेंगे’. श्रृंखला की एक कविता में तो धार्मिक प्रतिष्ठानों पर भी बेहद कड़वी टिप्पणी की गई है. किसी घटना पर एक कवि की त्वरित प्रतिक्रियाओं को आज की तारीख में पढ़ना एक अनोखा अनुभव है.

वामपंथी लेखक यशपाल, जो अंग्रेजों के ख़िलाफ़ क्रांतिकारी आंदोलन में भगत सिंह और सुखदेव के करीबी थे, ने विभाजन के दंश और विध्वंस पर ‘झूठा सच’ लिखा था. इस उपन्यास का पहला हिस्सा 1958 में ‘वतन और देश’ के नाम से आया और इसके दो साल बाद इसके दूसरे हिस्से ‘देश का भविष्य’ को छापा गया. कृष्णा सोबती के उपन्यास के उलट इसमें लिखा गया था कि प्रधानमंत्री सहित इसके किरदार और घटनाएं काल्पनिक हैं.

उपन्यास के पहले हिस्से में जगह लाहौर है, वहीं दूसरे हिस्से में विभाजन के बाद का दिल्ली है. इस उपन्यास की तुलना अक्सर टॉलस्टॉय के ‘वॉर एंड पीस’ से होती है, साहित्यिक योग्यता की वजह से नहीं बल्कि विभाजन के पूर्व और पश्चात के बखूबी चित्रण के कारण. साल 2010 में यशपाल के बेटे आनंद ने इसका अंग्रेज़ी में अनुवाद किया था, जिसे ‘दिस इज़ नॉट डैट डॉन’ (This is not that Dawn) का नाम दिया गया. ये संदर्भ फैज़ अहमद फैज़ की मशहूर लाइन ‘वो इंतज़ार था जिसका ये वो सहर तो नहीं’ से लिया गया था.

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झूठा सच: यशपाल/लोकभारती प्रकाशन

इस उपन्यास में 1942 से 1957 तक के सालों और इस दौरान हुई राजनीतिक और ऐतिहासिक प्रक्रियाओं, जो विभाजन के रूप में परिणत हुईं, को बारीकी से दर्ज किया गया था. इस उपन्यास में बंटवारे के वक़्त हुए कत्लेआम, बलात्कार, लूटपाट, आगजनी, दोनों ओर के लोगों के पलायन और रातों-रात अपने ही देश में शरणार्थी बन जाने के दर्द का बेहद प्रभावी वर्णन किया गया है. उपन्यास का दूसरा हिस्सा कहानी को 1947 के बाद के हिंदुस्तान में ले आता है, जहां राजनीतिक आदर्शवाद जल्द ही राजनीतिक अवसरवाद और भ्रष्टाचार में बदल गया था. बंटवारे के साहित्यिक चित्रण की बात करें तो, न हिंदी और न ही उर्दू में ‘झूठा सच’ सरीखी कोई और रचना मिलती है.

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तमस: भीष्म साहनी/ राजकमल प्रकाशन

भीष्म साहनी ने विभाजन के कई सालों बाद ‘तमस’ लिखा. 1970 में जलगांव, महद और भिवंडी में हुए सांप्रदायिक दंगों के बाद साहनी वहां गए थे, जिसके बाद उन्हें इसे लिखने की प्रेरणा मिली. तमस सांप्रदायिक हिंसा पैदा करने के विभिन्न पहलू उजागर करता है.

उपन्यास के पहले पाठ में निम्न स्तर का एक सरकारी मुलाज़िम मुराद अली एक ब्रिटिश अधिकारी के लिए सुअर मार के लाने के लिए नत्थू को पैसे देता है. अगले दिन नत्थू को वही मरा हुआ सुअर मस्जिद की सीढ़ियों पर पड़ा मिलता है… और इस तरह सांप्रदायिक हिंसा भड़कने के लिए पूरी पटकथा तैयार है.

वैसे अशांति या दंगा फैलाने के लिए मंदिर में गोमांस और मस्जिद में सुअर का मांस फेंकने का तरीका आज भी चलन से बाहर नहीं गया है और जब-तब दंगा भड़काने वालों के लिए मददगार साबित होता रहता है.

दंगों के बाद के भिवंडी ने साहनी के बचपन के दिनों की रावलपिंडी (पाकिस्तान) में बीती यादें ताज़ा कर दी थीं. ये उपन्यास 1972 में प्रकाशित हुआ था और फिर भीष्म साहनी के नाम से ऐसा जुड़ गया कि उनके द्वारा लिखी गई ‘मय्यादास की माड़ी’ जैसी रचनाओं पर भारी पड़ गया. साहित्यिक योग्यता के पैमाने पर देखें तो मय्यादास की माड़ी तमस से बेहतर है.

1980 के आखिरी दशक में जब तमस धारावाहिक के रूप में टेलीविज़न तक पहुंचा तब आरएसएस और इससे संबद्ध संगठनों ने दूरदर्शन पर इसके प्रसारण का कड़ा विरोध किया. तब आज की तरह प्राइवेट चैनल नहीं थे. संघ के विरोध के बाद इसे भाजपा के दिग्गज केआर मलकानी को सहमति के लिए दिखाया गया और यहीं से राजनीतिक सेंसरशिप की एक ग़लत प्रथा की शुरुआत हुई. तमस ने दिखाया कि कैसे काल्पनिक डर, अफवाहें और असुरक्षा की गहरी भावना किसी एक समुदाय के लोगों को दूसरे समुदाय के लोगों से डरने और नफ़रत करने के लिए उकसाते हैं और इन सबके बीच उनके अंदर की इंसानियत कहीं खो जाती है.

इसी तरह राही मासूम रज़ा का मशहूर उपन्यास ‘आधा गांव’ भी विभाजन के दंश पर लिखा गया है. पर झूठा सच और तमस के बिल्कुल उलट आधा सच की घटनाएं पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक गांव में घटती हैं, जहां भोले-भले गांववाले सांप्रदायिक बहकावे में आ जाते हैं. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से करीब से जुड़े रहे राही ने आधा गांव में बताया है कि कैसे गाजीपुर के गंगौली गांव के ग्रामीण एएमयू के छात्रों की जोशीली दलीलों से प्रभावित हुए, जिसने गांव के समावेशी सामाजिक और सांस्कृतिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करके रख दिया.

1966 में प्रकाशित हुए आधा गांव ने उस समय बड़ी खलबली पैदा कर दी थी क्योंकि इसके ग्रामीण किरदार भदेस आम बोलचाल के लहज़े में बात कर रहे थे, जिसमें अधिकतर गालियां थीं. ये उपन्यास हर उस व्यक्ति को पढ़ना चाहिए जो समझना चाहता है कि कैसे कुछ ही सालों के अंदर मुस्लिम मानसिकता इतनी बदल गई कि बंटवारे को टाला नहीं जा सका.

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कितने पाकिस्तान : कमलेश्वर /राजपाल प्रकाशन, आधा गांव: राही मासूम रज़ा/राजकमल प्रकाशन

कृष्णा सोबती के उपन्यास के अलावा विभाजन के बारे में लिखा गया नवीनतम उपन्यास कमलेश्वर का ‘कितने पाकिस्तान’ है. कमलेश्वर ने इसे 1990 में लिखना शुरू किया था और ये 2000 में प्रकाशित हुआ. पढ़ने वाले को कुर्तुलएन हैदर के ‘आग का दरिया’ की याद दिलाता प्रयोग के बतौर लिखा गया ये उपन्यास तात्कालिक अतीत के साथ बंटवारे की ऐतिहासिक जड़ें भी तलाशने की कोशिश करता है. हालांकि इसमें बताई गई घटनाएं उस समय की नहीं है, पर उन पर विभाजन की छाया साफ तौर पर देखी जा सकती है.

जहां हिंदी लेखकों ने विभाजन पर बार-बार लिखा, हिंदी कवि इस बारे में ज़्यादातर तटस्थ ही बने रहे. कइयों ने आज़ादी मिलने पर जश्न मनाती कवितायें तो लिखीं, लेकिन देश के बंटने के पीड़ादायी अनुभव पर उनकी चुप्पी बनी रही.

(कुलदीप कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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