यौन अपराध मामले में ज़मानत शर्त के तौर पर राखी बांधने को कहना अस्वीकार्य: सुप्रीम कोर्ट

मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने बीते साल यौन उत्पीड़न के आरोपी को पीड़िता से राखी बंधवाने के शर्त पर ज़मानत दी थी. सुप्रीम कोर्ट ने इसे निरस्त करते हुए कहा यह यौन उत्पीड़न के अपराध को कमतर करता है. कोर्ट ने यौन उत्पीड़न के मामलों में ज़मानत देने के दिशानिर्देश भी दिए हैं.

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फोटो: पीटीआई)

मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने बीते साल यौन उत्पीड़न के आरोपी को पीड़िता से राखी बंधवाने के शर्त पर ज़मानत दी थी. सुप्रीम कोर्ट ने इसे निरस्त करते हुए कहा यह यौन उत्पीड़न के अपराध को कमतर करता है. कोर्ट ने यौन उत्पीड़न के मामलों में ज़मानत देने के दिशानिर्देश भी दिए हैं.

(फोटो: पीटीआई)
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नई दिल्ली: उच्चतम न्यायालय ने गुरुवार को मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के उस आदेश को एकदम अस्वीकार्य बताया, जिसमें यौन अपराध के एक मामले में आरोपी को जमानत देने के लिए पीड़िता से राखी बंधवाने की शर्त रखी गई थी.

शीर्ष अदालत ने यौन अपराध के मामलों पर विचार करने के दौरान न्यायाधीशों के पालन के लिए कई निर्देश जारी किए. न्यायालय ने कहा कि कुछ रवैये जैसे कि पीड़िता की पूर्व सहमति, गड़बड़ व्यवहार, कपड़ा और इस तरह की अन्य बातें न्यायिक फैसले में नहीं आनी चाहिए

न्यायालय का यह फैसला उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ नौ नागरिकों की याचिका पर आया. उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में आरोपी को जमानत देने के लिए उसे पीड़िता से राखी बंधवाने की विचित्र शर्त रखी थी.

इन नागरिकों ने शीर्ष न्यायालय से सभी अदालतों को जमानत के लिए अप्रासंगिक, असामान्य और अवैध शर्तें लगाने से बचने का निर्देश देने का अनुरोध किया था.

जस्टिस ए एम खानविल्कर और जस्टिस एस रवींद्र भट्ट की पीठ ने उच्च न्यायालय के फैसले को निरस्त कर दिया और कहा, ‘यह अदालत कहती है कि वैसी भाषा या तर्क जो अपराध को खत्म करती है और पीड़िता को महत्वहीन बनाती है उससे सभी परिस्थितियों में बचा जाना चाहिए.’

पीठ की ओर से लिखे गए फैसले में जस्टिस भट्ट ने कहा, ‘न्यायिक आदेश के जरिए जमानत की शर्त के तौर पर राखी बांधने को कहना छेड़खानी करने वाले को भाई में तब्दील कर देता है. यह पूरी तरह अस्वीकार्य है और यौन उत्पीड़न के अपराध को कमतर करता है. पीड़िता के साथ किया गया कृत्य कानून की दृष्टि से अपराध है और यह कोई मामूली गलती नहीं है कि उसे माफी, सामुदायिक सेवा, राखी बांधने को कहने, पीड़िता को भेंट देने को कहने या उससे शादी का वादा करने को कहकर सुधारा जा सकता है.’

उन्होंने कहा, ‘कानून में महिला के शील को भंग करना अपराध है. इस तरह की शर्तों पर जमानत देना अदालत को मोल-तोल करने और आपराधिक मामले के दोनों पक्षों के बीच न्याय के लिए मध्यस्थता करने और लैंगिक रूढ़िवादिता को बनाए रखने के आरोपों की जद में लाता है.’

मालूम हो कि पिछले साल अगस्त मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने महिला के साथ छेड़छाड़ के आरोपी की जमानत याचिका को इस शर्त पर मंजूर किया था कि वह रक्षाबंधन के दिन पीड़िता के घर जाकर उससे राखी बंधवाएगा.

इस घटना को लेकर बड़ा विवाद पैदा हो गया था और वकील अपर्णा भट्ट ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ अपील दायर की थी.

शीर्ष अदालत ने बार काउन्सिल ऑफ इंडिया को न्यायाधीशों, लोक अभियोजकों समेत वकीलों के प्रशिक्षण और उनको संवेदनशील बनाने की दिशा में काम करने का निर्देश दिया.

इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, पीठ ने महिलाओं के खिलाफ अपराधों से संबंधित मामलों में जमानत याचिकाओं से निपटते हुए निचली अदालतों, जजों और वकीलों के लिए संवेदनशीलता पर दिशा-निर्देश भी जारी किए.

– जमानत शर्तों में अभियुक्त और पीड़ित के बीच किसी भी तरह के संपर्क का आदेश या अनुमति नहीं दी जानी  चाहिए. ऐसी स्थितियों में शिकायतकर्ता को आरोपी द्वारा किसी और उत्पीड़न से बचाने की कोशिश करनी चाहिए.

– अगर अदालत को लगे कि पीड़ित के उत्पीड़न का संभावित खतरा हो सकता है या इसकी आशंका व्यक्त की गई है तो पुलिस से रिपोर्ट मांगने के बाद सुरक्षा पर अलग से विचार किया जाना चाहिए और उचित आदेश दिया जाना चाहिए. साथ ही आरोपी को पीड़ित से कोई संपर्क नहीं करने के लिए निर्देश दिया जाना चाहिए.

– उन सभी मामलों में जहां जमानत दी गई है, शिकायतकर्ता को तुरंत सूचित किया जाना चाहिए कि अभियुक्त को जमानत दे दी गई है और उसे दो दिनों के भीतर जमानत के आदेश की प्रति दी जानी चाहिए.

– जमानत की शर्तों और आदेशों में समाज में महिलाओं और समाज में ऊनि स्थिति को लेकर रूढ़िवादी या पितृसत्तात्मक धारणाओं को प्रतिबिंबित करने से बचना चाहिए और सीआरपीसी की धाराओं के अनुसार इनका सख्ती से अनुपालन होना चाहिए. दूसरे शब्दों में जमानत देते समय पीड़ित के कपड़ों, व्यवहार या अतीत के आचरण या उसकी नैतिकता के बारे में जिक्र नहीं किया जाना चाहिए.

– अदालतों में यौन अपराधों से जुड़े मामलों की सुनवाई करते समय अभियोजन पक्ष और अभियुक्त के बीच विवाह करने, उनके बीच किसी तरह के समझौते के सुझाव या मध्यस्थता के किसी भी कदम को प्रोत्साहित करना नहीं करना चाहिए. किसी भी तरह का समझौता उनकी शक्तियों और अधिकारक्षेत्र से परे है.

– हर समय न्यायाधीशों को संवेदनशीलता प्रदर्शित किया जाना चाहिए, जिन्हें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि कार्यवाही के दौरान अभियोजन पक्ष किसी तरह का कोई आघात न पहुंचे या ऐसा कुछ भी कहा न जाए.

– न्यायाधीशों को विशेष रूप से किसी भी ऐसे शब्द का बोलने या लिखने में प्रयोग नहीं करना चाहिए, जो न्यायालय की निष्पक्षता पर पीड़ित के विश्वास को कमजोर करता हो.

 

इस दिशानिर्देश के अलावा पीठ ने यह भी कहा कि निचली अदालतों को किसी भी रूढ़िवादी राय को व्यक्त करने से बचना चाहिए जैसे कि महिलाएं शारीरिक रूप से कमजोर हैं, उन्हें विनम्र और आज्ञाकारी होना चाहिए, अच्छी महिलाएं यौन दृष्टि से पवित्र हैं आदि.

(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)