एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स ने एक याचिका में राजनीतिक दलों की फंडिंग और खातों में पारदर्शिता की कथित कमी संबंधी एक मामले के लंबित रहने और आगामी विधानसभा चुनाव से पहले चुनावी बॉन्ड की आगे बिक्री की अनुमति न देने की मांग की थी. शीर्ष अदालत ने इससे इनकार कर दिया है.
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने आगामी विधानसभा चुनाव से पहले चुनावी बॉन्ड की ब्रिक्री पर रोक लगाने का अनुरोध करने वाली याचिका शुक्रवार को खारिज कर दी.
मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे, जस्टिस एएस बोपन्ना और जस्टिस वी. रामसुब्रमण्यम की पीठ ने चुनावी बॉन्ड की आगे और बिक्री पर रोक लगाने से इनकार कर दिया.
लाइव लॉ के मुताबिक, कोर्ट ने अपने आदेश में कहा, ‘चूंकि बिना हस्तक्षेप किए साल 2018 और 2019 में चुनावी बॉन्ड के बिक्री की इजाजत दी गई थी और इस संबंध में पहले से ही पर्याप्त सुरक्षा मौजूद है, इसलिए फिलहाल चुनावी बॉन्ड पर रोक लगाने की कोई तुक नहीं बनती है.’
गैर सरकारी संगठन ‘एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स’ (एडीआर) ने एक याचिका दायर कर इसकी मांग की थी और कहा था कि राजनीतिक दलों को फंडिंग और उनके खातों में पारदर्शिता की कथित कमी से संबंधित एक मामले के लंबित रहने के दौरान और आगामी विधानसभा चुनाव से पहले चुनावी बॉन्ड की आगे और बिक्री की अनुमति नहीं दी जाए.
केंद्र ने इससे पहले पीठ को बताया था कि एक अप्रैल से 10 अप्रैल के बीच बॉन्ड जारी किए जाएंगे.
एनजीओ ने याचिका में दावा किया था कि इस बात की गंभीर आशंका है कि पश्चिम बंगाल और असम समेत कुछ राज्यों में आगामी विधानसभा चुनावों से पहले चुनावी बॉन्ड की आगे और बिक्री से ‘फर्जी कंपनियों के जरिये राजनीतिक दलों का अवैध और गैर कानूनी चंदा और बढ़ेगा.’
शीर्ष अदालत ने बीते 20 मार्च को फैसला सुरक्षित रखते हुए राजनीतिक दलों द्वारा चुनावी बॉन्ड के जरिये प्राप्त की जाने वाली निधि का आतंकवाद जैसे अवैध कार्यों में संभावित इस्तेमाल का मामला उठाया था और केंद्र से सवाल किया था कि क्या इन निधियों के इस्तेमाल के तरीकों पर किसी प्रकार का ‘नियंत्रण’ है.
पीठ ने कहा था कि सरकार को चुनावी बॉन्ड के जरिये प्राप्त धन के आतंकवाद जैसे अवैध कार्यों में दुरुपयोग की आशंका के मामले पर गौर करना चाहिए.
पीठ ने सरकार से पूछा था, ‘इस धन का इस्तेमाल कैसे होता है, इस पर सरकार का क्या नियंत्रण है?’
उसने कहा था कि राजनीतिक दल अपने राजनीतिक एजेंडा से परे की गतिविधियों के लिए इन निधियों का इस्तेमाल कर सकते हैं.
पीठ ने कहा था, ‘यदि राजनीतिक दल 100 करोड़ रुपये के चुनावी बॉन्ड हासिल करते हैं, तो इस बात का क्या भरोसा है कि इसे किसी अवैध मकसद या हिंसात्मक गतिविधियों को मदद देने में इस्तेमाल नहीं किया जाएगा.’
उसने साथ ही कहा कि वह राजनीति में दखल नहीं देना चाहती और ये टिप्पणियां किसी विशेष राजनीतिक दल के लिए नहीं की गई हैं.
केंद्र ने पीठ से कहा था कि चुनावी बॉन्ड की वैधता 15 दिन की है और राजनीतिक दलों को अपना ‘इनकम टैक्स रिटर्न’ भी भरना है.
उसने कहा कि खरीदार को वैध धन का इस्तेमाल करना होगा और चुनावी बॉन्ड की खरीदारी बैंकिंग माध्यम से होगी.
सरकार ने कहा था, ‘आतंकवाद को वैध धन से वित्तीय मदद नहीं दी जाती. इसे काले धन के जरिये मदद दी जाती है.’
एनजीओ ने कहा कि दाता (डोनर) की पहचान पहचान उजागर नहीं की जाती और चुनाव आयोग तथा भारतीय रिजर्व बैंक ने भी इस पर आपत्ति जतायी है.
उसने यह भी दावा किया कि चुनावी बॉन्ड से मिलने वाली अधिकतर राशि सत्तारूढ़ पार्टी को मिली है.
गौरतलब है कि तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, असम, केरल और पुडुचेरी में 27 मार्च से 29 अप्रैल के बीच विधानसभा चुनाव होंगे.
चुनावी बॉन्ड को लेकर क्यों है विवाद
चुनाव नियमों के मुताबिक यदि कोई व्यक्ति या संस्थान 2,000 रुपये या इससे अधिक का चंदा किसी पार्टी को देता है तो राजनीतिक दल को दानकर्ता के बारे में पूरी जानकारी देनी पड़ती है.
हालांकि चुनावी बॉन्ड ने इस बाधा को समाप्त कर दिया है. अब कोई भी एक हजार से लेकर एक करोड़ रुपये तक के चुनावी बॉन्ड के जरिये पार्टियों को चंदा दे सकता है और उसकी पहचान बिल्कुल गोपनीय रहेगी.
इस माध्यम से चंदा लेने पर राजनीतिक दलों को सिर्फ ये बताना होता है कि चुनावी बॉन्ड के जरिये उन्हें कितना चंदा प्राप्त हुआ.
इसलिए चुनावी बॉन्ड को पारदर्शिता के लिए एक बहुत बड़ा खतरा माना जा रहा है. इस योजना के आने के बाद से बड़े राजनीतिक दलों को अन्य माध्यमों (जैसे चेक इत्यादि) से मिलने वाले चंदे में गिरावट आई है और चुनावी बॉन्ड के जरिये मिल रहे चंदे में बढ़ोतरी हो रही है.
साल 2018-19 में भाजपा को कुल चंदे का 60 फीसदी हिस्सा चुनावी बॉन्ड से प्राप्त हुआ था. इससे भाजपा को कुल 1,450 करोड़ रुपये की आय हुई थी. वहीं वित्त वर्ष 2017-2018 में भाजपा ने चुनावी बॉन्ड से 210 करोड़ रुपये का चंदा प्राप्त होने का ऐलान किया था.
चुनावी बॉन्ड योजना को लागू करने के लिए मोदी सरकार ने साल 2017 में विभिन्न कानूनों में संशोधन किया था. चुनाव सुधार की दिशा में काम कर रहे गैर सरकारी संगठन एसोशिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स इन्हीं संशोधनों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है. हालांकि कई बार से इस सुनवाई को लगातार टाला जाता रहा है.
याचिका में कहा गया है कि इन संशोधनों की वजह से विदेशी कंपनियों से असीमित राजनीतिक चंदे के दरवाजे खुल गए हैं और बड़े पैमाने पर चुनावी भ्रष्टाचार को वैधता प्राप्त हो गई है. साथ ही इस तरह के राजनीतिक चंदे में पूरी तरह अपारदर्शिता है.
साल 2019 में चुनावी बॉन्ड के संबंध में कई सारे खुलासे हुए थे, जिसमें ये पता चला कि आरबीआई, चुनाव आयोग, कानून मंत्रालय, आरबीआई गवर्नर, मुख्य चुनाव आयुक्त और कई राजनीतिक दलों ने केंद्र सरकार को पत्र लिखकर इस योजना पर आपत्ति जताई थी.
हालांकि वित्त मंत्रालय ने इन सभी आपत्तियों को खारिज करते हुए चुनावी बॉन्ड योजना को पारित किया.
आरबीआई ने कहा था कि चुनावी बॉन्ड और आरबीआई अधिनियम में संशोधन करने से एक गलत परंपरा शुरू हो जाएगी. इससे मनी लॉन्ड्रिंग को प्रोत्साहन मिलेगा और केंद्रीय बैंकिंग कानून के मूलभूत सिद्धांतों पर ही खतरा उत्पन्न हो जाएगा.
वहीं चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट ने हलफनामा दायर कर कहा कि चुनावी बॉन्ड से पार्टियों को मिलने वाला चंद पारदर्शिता के लिए खतरनाक है.
इसके अलावा आरटीआई के तहत प्राप्त किए गए दस्तावेजों से पता चलता है कि जब चुनावी बॉन्ड योजना का ड्राफ्ट तैयार किया गया था तो उसमें राजनीति दलों एवं आम जनता के साथ विचार-विमर्श का प्रावधान रखा गया था. हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ बैठक के बाद इसे हटा दिया गया.
इसके अलावा चुनावी बॉन्ड योजना का ड्राफ्ट बनने से पहले ही भाजपा को इसके बारे में जानकारी थी, बल्कि मोदी के सामने प्रस्तुति देने से चार दिन पहले ही भाजपा महासचिव भूपेंद्र यादव ने तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली को पत्र लिखकर चुनावी बॉन्ड योजना पर उनकी पार्टी के सुझावों के बारे में बताया था.
(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)