जहां देश में एक तरफ ट्रांसजेंडर पहचान रखने वाले लोगों के लिए क़ानूनी अधिकारों की बात होना शुरू हो रहा है, वहीं दूसरी ओर देश की जेलों में बंद ऐसे लोग ज़रूरी हक़ों और सुविधाओं से भी महरूम हैं.
यह आलेख बार्ड- द प्रिजन प्रोजेक्ट सीरीज की कड़ी के तौर पर पुलित्जर सेंटर ऑन क्राइसिस रिपोर्टिंग के साथ साझेदारी में प्रस्तुत किया गया है.
मुंबई/नागपुर/मंगलुरू: ए-4 आकार की एक नोटबुक नागपुर सेंट्रल जेल में किरण गवली द्वारा गुजारे गए 17 महीनों की गवाही देती है. किरण बगैर नागा किए हर दिन थोड़ा समय निकालकर दिन भर की घटनाओं का ब्यौरा लिखा करती थीं- नई बनाई गई दोस्तियों, वेदना, अकेलेपन और कभी -कभी दिल टूटने के बारे में.
किसी-किसी दिन शब्द कविता की तरह बहकर आया करते थे, दूसरे दिनों में सिर्फ गुस्से से भरी कच्ची-पक्की पंक्तियां. किरण-ए-दास्तां शीर्षक से लिखी गई डायरी की हर पंक्ति और पन्ने पर शब्द उकेरे हुए हैं. हालांकि बहुत ही समझदारी से लिखी गई इस डायरी के कुछ पन्ने गायब हैं- मानो किसी ने गुस्से में उसे फाड़कर अलग कर दिया हो.
किरण बताती हैं, ‘जेल बाबा (जैसा कि कॉन्स्टेबलों को जेल की शब्दावली में आम तौर पर पुकारा जाता है) या वॉर्डन (दोषसिद्ध कैदियों के) हर सुबह उसकी कोठरी में आया करते थे और उससे उसने अपनी निजी डायरी में जो लिखा है, पढ़कर सुनाने के लिए कहते थे. मेरे अवसाद की कहानियां उन्हें सस्ता रोमांच दिया करती थीं. वे इसे जोर-जोर से पढ़कर सुनाते थे और हर बार मेरे और मेरे शरीर का मजाक बनाया करते थे. और जाने से पहले उनके धतकर्मों का वर्णन करनेवाले पन्ने फाड़ दिये जाते थे.’
2,000 पुरुष कैदियों के बीच कैद सिर्फ 5 ट्रांसजेंडर कैदियों में से एक होने के खतरे के बारे में किरण को पता था. किरण झिझक के साथ कहती हैं, ‘विरोध करने का सिर्फ एक मतलब होता- रेप.’ वे आगे कहती हैं, ‘इसका मतलब यह नहीं है कि उस पर हमला नहीं किया जाता. लेकिन शांत रहने ने शारीरिक नुकसान को जरूर थोड़ा कम कर दिया.’
लेकिन वह जेल की सामान्य नीरस दिनचर्या के वर्णनों के भीतर डरावनी कहानियों का एक हिस्सा पैबस्त करने में कामयाब रही. एक गहरे पैराग्राफ के बीच डाल दी गई एक पंक्ति- जिसमें यह बताया गया था कि कैसे जेल कर्मचारी, दोषसिद्ध कैदी और विचाराधीन (अंडरट्रायल)- हर कोई बिना अंतर के नियमित तौर पर उस पर मानसिक और यौन हमले किया करते थे.
किरण ने कई दोषसिद्ध और अंडरट्रायल कैदियों और कर्मचारियों- सभी जन्म से मिली लैंगिक पहचान रखने वाले (सिसजेंडर) पुरुषों- पर उनके और उनके साथ गिरफ्तार की गई ट्रांसजेंडर महिलाओं के यौन शोषण और बलात्कार का आरोप लगाया है.
किरण बताती हैं कि जेल में अपने 17 महीने के प्रवास में उन्होंने कम से कम पांच-छह शिकायती चिट्ठियां सीसीटीवी कैमरे की निगरानी में रखे शिकायत बक्से में डाली होंगी, जिसे खोलने और बंद करने का अधिकार सिर्फ दौरा करनेवाले मजिस्ट्रेट के पास होने का प्रावधान है.
इसी तरह की शिकायतें जेल अधीक्षक को भी की गईं. लेकिन न तो जेल अधिकारी और न ही न्यायपालिका उनका बचाव करने के लिए आई.
पिछले साल मार्च में लॉकडाउन लगाए जाने और जेल मुलाकातों को बिना किसी सूचना के अचानक रोक देने से कोर्ट में याचिका देना या वकील को सूचना देना मुश्किल हो गया.
किरण पूछती हैं, ‘जितनी बार भी हम अपनी शिकायत लेकर जाते और महिलाओं वाले अनुभाग में हमें स्थानांतरित करने की मांग करते, जेल प्रमुख हमसे जेल नियमों में ऐसा कोई प्रावधान न होने का हवाला देते. लेकिन आखिर किस नियम के तहत हमें पुरुषों की जेल मे ठूंस दिया गया और हर दिन हमारा यौन शोषण किया जाता था?’
किरण को उनके गुरु उत्तम सपन सेनापति के साथ 4 जून, 2019 को इलाके में एक जघन्य हत्या के बाद गिरफ्तार किया गया था. पुलिस ने 11 लोगों को- जिनमें से किरण और उत्तम समेत पांच ट्रांस महिलाएं थीं- इस मामले में आरोपित किया था.
हालांकि किरण कहती हैं कि उन्हें झूठे तरीके से फंसाया जा रहा था. सभी आरोपितों को कुछ दिनों के भीतर गिरफ्तार करके उन पर भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 302 के तहत हत्या का आरोप लगाया गया था.
2020 में अदालतों ने उन्हें जमानत देना शुरू कर दिया, लेकिन मुख्य आरोपी होने के कारण उत्तम की जमानत याचिका को कई बार खारिज किया गया. वे आज तक पुरुष बैरक में बंद है. अन्यों को जमानत चरणों में मिली- कुछ को जिला न्यायालय द्वारा और और कुछ को बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर पीठ द्वारा इस शर्त पर कि रिहाई के बाद वे कोर्ट द्वारा बुलाए जाने के अतिरिक्त नागपुर नगरपालिका की सीमा में दाखिल नहीं होंगे.
किरण और उनकी सहयोगी डॉली काम्बले- जो एक ट्रांस महिला हैं और इस मामले में सह-आरोपी है’ से मेरी मुलाकात नागपुर में किरण के घर पर हुई, जब वे कोर्ट में अपनी निर्धारित सुनवाई के लिए आई हुई थीं.
जब दोनों अपनी कहानियां सुना रही थीं, उस दौरान स्थानीय पुलिस द्वारा परेशान किए जाने के डर के कारण परिवार का एक सदस्य लगातार निगरानी में घर के बाहर खड़ा था. किरण का कट्टर आंबेडकरवादी परिवार उनका सबसे बड़ा सहारा रहा है, लेकिन 29 साल की अनाथ डॉली को किसी तरह का सामाजिक सहयोग उपलब्ध नहीं है.
जमानत की शर्तें उनके लिए मुश्किलें खड़ी करने वाली थीं. ट्रांस महिलाओं के लिए, जो बधाई और मंगती की परंपरागत व्यवस्था पर गुजारा करती हैं, उन्हें उससे अलग किए जाने का अर्थ सिर्फ आजीविका गंवाना नहीं बल्कि उन्हें शारीरिक तौर पर जोखिम मे डालना भी था.
डॉली स्वीकार करती हैं कि हमले और सार्वजनिक अपमान एक सामान्य अनुभव रहे हैं, लेकिन इससे पहले तक उन्हें दोस्तों पर निर्भर रहना पड़ता था या जीवित रहने के लिए सेक्स वर्क करना पड़ता था.
डॉली कहती हैं, ‘ज्यादातर घराने हमें अपने साथ सिर्फ इसलिए नहीं लेते हैं, क्योंकि हम पर हत्या का आरोप है.’ वे बताती है कि अन्य आरोपित ट्रांस महिलाओं को भी मुश्किलों से संघर्ष करना पड़ रहा है.
किरण बताती हैं कि 40 साल के उनके जीवन में आपराधिक न्याय प्रणाली के साथ उनका यह पहला सामना था. ‘मुझे नहीं पता था कि आगे क्या होने वाला है. बॉलीवुड पुलिस को एक खास क्रूर तरीके से चित्रित करता है. लेकिन सक्करदारा और बार्दी पुलिस स्टेशन, दोनों ही जगह मेरा प्रवास ठीक-ठाक था. हमारे साथ कम से कम इंसानों से जैसा बर्ताव किया गया. लेकिन पांच दिन बाद- 9 जून, 2019 को- को नागपुर सेंट्रल जेल में दाखिल होने के साथ हमारा सामना यथार्थ से हुआ.’
किरण ने यह मान लिया था कि किसी अन्य महिला कैदी की तरह उन्हें भी महिलाओं की जेल में ले जाया जाएगा. लेकिन इसकी जगह उन सभी को नागपुर सेंट्रल जेल के बड़े हिस्से में ठूंस दिया गया, जो सिर्फ पुरुषों के लिए है. महिलाओं का अनुभाग उसी परिसर में था, लेकिन उन्हें वहां जाने की सुविधा नहीं दी गई.
वे कड़वाहट के साथ पूछती हैं, ‘यह मेरे लिए बड़ा सदमा था. उन्होंने यह सोच भी कैसे लिया कि एक स्त्री पुरुषों की जेल में सही से रह पाएगी? उन्होंने हमसे हमारी प्राथमिकता क्यों नहीं पूछी कि क्या हम महिला कैदियों के साथ रहना पसंद करेंगी?’
किरण का सवाल हवा-हवाई नहीं है. भारतीय अदालतों ने बार-बार यह कहा है कि ट्रांसजेंडर लोग अपनी शर्तों पर, अनिवार्य हस्तक्षेप या भेदभाव के बिना, सरकार से मान्यता के हकदार हैं.
2014 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने नेशनल लीगल अथॉरिटी (नालसा) बनाम भारत सरकार वाले वाद में अपने ऐतिहासिक फैसले में व्यक्ति के जेंडर आत्म निर्णय (सेल्फ डिटरमिनेशन) के अधिकार के सवाल का निर्धारण किया था.
यह फैसला सुनाते हुए कि ट्रांसजेंडरों को थर्ड जेंडर के तौर पर मान्यता और सभी मौलिक अधिकार मिलने चाहिए, जस्टिस राधाकृष्णन ने बेंच की तरफ से लिखा, ‘ट्रांसजेंडर व्यक्ति के स्वयं चिह्नित जेंडर के निर्णय के अधिकार को भी स्वीकार किया जाता है और केंद्र और राज्य सरकारों को पुरुष, स्त्री या थर्ड जेंडर के तौर पर उनकी जेंडर पहचान को कानूनी मान्यता देने का निर्देश दिया जाता है.’
2018 में नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत सरकार मामले के फैसले में यौनिकता (सेक्सुअलिटी) को नागरिकता के अभिन्न हिस्से के तौर पर स्वीकार करते हुए कहा, ‘व्यक्तिगत स्वायत्तता और स्वतंत्रता, किसी भी तरह के भेदभाव के बिना सबकी समानता, मानव की गरिमा और निजता के साथ अस्तित्व की मान्यता का का व्यापक आदर्श हमारे महान संविधान के चार बुनियादी स्तंभ हैं जो हमारे मौलिक अधिकार की ठोस नींव का निर्माण करते हैं, जिससे आज भी हमारे समाज के कुछ वर्ग वंचित हैं, जो आज भी सामाजिक नियमों, पूर्वाग्रहपूर्ण धारणाओं, घिसी-पिटी छवियों, संकीर्ण मानसिकता और धर्मांध धारणाओं के बंधनों में जकड़े हुए हैं.’
व्यक्तिगत स्वायत्तता पर खास बल देनेवाले इन निष्कर्षों की पुष्टि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट दोनों ने ही कई अन्य फैसलों में की. इन फैसलों के कारण स्त्री समलैंगिक, पुरुष समलैंगिक, उभयलिंगी (बाइसेक्शुअल), ट्रांसजेंडर, अंतरलिंगी (इंटरसेक्स) (एलजीबीटीआई+) समुदायों के अधिकारों के इर्द-गिर्द चर्चाएं हुईं और एकराय से इन्हें समावेशी और प्रगतिशील बताते हुए इनकी तारीफ हुई.
इन फैसलों ने ट्रांसजेंडर समुदाय की गरिमा को स्थापित किया और उन्हें थर्ड जेंडर (तीसरे लिंग) का दर्जा प्रदान किया, ऐतिहासिक तौर पर जिनका अपराधीकरण करके हाशिये पर धकेल दिया गया था और जिन्हें विशेष सुरक्षा की जरूरत थी.
लेकिन न्यायिक हस्तक्षेपों का अभी जमीनी स्तर पर कोई खास असर दिखना बाकी है. किरण कहती हैं कि जब उन्हें नागपुर जेल ले जाया गया, तो बड़ी जेल के के ठीक प्रवेश द्वार पर ही उनकी शारीरिक गरिमा भंग करने की प्रक्रिया शुरू हो गई थी.
उन्होंने बताया, ‘हम जैसे ही जेल के भीतर दाखिल हुए दो पुरुष कॉन्स्टेबलों ने कपड़े उतारने के लिए कहा. हमें भेड़ की तरह झुंड में इकठ्ठा कर दिया गया. (हमसे) हमारा नाम, जाति, हमारा पेशा पूछा गया ओर उसके बाद हमें कपड़े उतारने के लिए कहा गया.’
बंदियों ने एक स्वर में ऐसा करने से इनकार कर दिया. ‘कुछ भी हो जाए, मैं किसी पुरुष को खुद को निर्वस्त्र करने की इजाजत देने वाली नहीं थी.’
किरण कहती हैं. उस समय नागपुर सेंट्रल जेल में तैनात में महिला कारा अधीक्षक रानी भोंसले उनका बचाव करने आई थीं. भोंसले ने महिला जेल गार्डों को जांच के काम को पूरा करने के लिए कहा था. ‘लेकिन उन सबने कहा कि वे हमसे ‘डरी’ हुई हैं.
किरण याद करती हैं, ‘भोंसले को महिला गार्डों को उनकी ड्यूटी निभाने के लिए ऊंची आवाज में कहना पड़ा था.’ इसके बाद उन्हें एक कतार में अपने हाथ और पांव पूरी तरह से खोलकर खड़ा कराया गया था. गार्डों ने उन्हें कई बार उकड़ू बैठने के लिए कहा और उन्हें बॉडी कैविटी सर्च (शरीर के अंदरूनी हिस्सों की तलाशी) के लिए मजबूर किया गया.
किरण कहती हैं, ‘उस समय मैंने वास्तव में यह समझा कि राज्य को अपना शरीर सौंप देने का क्या अर्थ होता है.’
जेल में ट्रांस महिलाओं को ट्यूबर कुलोसिस, लेप्रोसी, स्कैबीज और एचआईवी जैसे संक्रामक बीमारियों से ग्रस्त कैदियों के लिए निर्धारित अलग वार्ड में रखा गया था. यहां के कैदी और इसलिए बैरक भी पूरी तरह से अलग-थलग रहते हैं.
किरण कहती हैं कि किसी न किसी बीमारी से संक्रमित होने के स्थायी डर में रहा करती थीं.
एक बार जब उत्तम गंभीर रूप से बीमार पड़ीं, उस समय उनसे कथित तौर पर कपड़े उतारकर यह दिखाने के लिए कहा गया कि उनके पेट का ठीक कौन-सा हिस्सा दर्द कर रहा है. जब दो अन्य को हॉर्मोन रिप्लेसमेंट थिरैपी की तत्काल जरूरत थी, तब इसकी इजाजत देने से साफ इनकार कर दिया गया.
उनमें से एक ने गिरफ्तारी के कुछ महीने पहले ही स्तनवर्धक सर्जरी (ब्रेस्ट ऑग्मेंटेशन सर्जरी) कराई थी और उनके सिलिकॉन इम्प्लांट में संक्रमण हो गया था. लेकिन जेल के डॉक्टर ने बगैर समुचित जांच किए, उसे सिर्फ दर्दनिवारक गोलियां दे दीं.
किरण का कहना है कि उनके साथ वास्तव में जो व्यवहार किया गया, उसके उलट जेल प्रशासन का यह मानना है कि उनके चलने-फिरने और उनकी पहुंच को सीमित करके वास्तव में उन पर ‘खास ध्यान’ दिया गया. उन्हें ज्यादातर समय एक छोटे से कमरे में बंद करके रखा जाता था और किसी पुरुष कैदी से बात करने पर उन्हें फटकार लगाई जाती थी- और यह सब ‘सुरक्षा’ के नाम पर किया जाता था. लेकिन जब बात नहाने-धोने की आती थी, उन्हें यह काम खुले में करने के लिए मजबूर किया जाता था.
किरण कहती हैं, ‘हम किसी तरह खुद को पूरे दिन बचाकर रखते थे, लेकिन नहाने के समय में महासंग्राम छिड़ जाता था. हम बस अपनी रक्षा करने के लिए कई दिन बगैर नहाए रहे.’
डॉली कहती है कि यहां का अनुभव ‘बयान से परे’ है. अन्य विचाराधीन कैदियों के विपरीत, सभी बंदी ट्रांस महिलाओं को सामान्य कपड़े पहनने के उनके अधिकार से वंचित रखा गया था और उन्हें डोरीदार सफेद कमीज और सफेद निकर पहनने के लिए मजबूर किया गया था.
‘यहां तक कि हमें अंडरगारमेंट्स भी नहीं दिए गए थे,’ डॉली कहती है. किसी भी ट्रांस महिला को जेल में कभी-कभी कराए जाने वाले खास आयोजनों में भाग नहीं लेने दिया जाता था.
किरण, डॉली और दो अन्य ट्रांस महिलाओं के कष्टों का अंत उन्हें जमानत मिलने के साथ हो गया. लेकिन उत्तम की तकलीफों का अंत नहीं हुआ है. जमानत हासिल करने में नाकाम रही उत्तम ने महिला जेल में स्थानांतरित किए जाने की बार -बार मांग की है.
उन्होंने एक बार अपनी तकलीफों को बयां करते हुए और उनके साथ बुरा बर्ताव कर रहे हर व्यक्ति का नाम लेते हुए एक लंबी चिट्ठी लिखी थी. उनके वकील कैलाश वाघमारे बताते हैं कि यह चिट्ठी जेल अधिकारियों के हाथों में पड़ गई और उन्होंने इसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए.
पिछले साल अक्टूबर में एक दूसरी चिट्ठी, जो पहली चिट्ठी का काट-छांट किया हुआ रूप था, और जिसमें व्यक्तियों की जिम्मेदारी नहीं तय की गई थी, आखिरकार वाघमारे को दी गई. इस चिट्ठी में उत्तम ने न्यायपालिका से हस्तक्षेप करने और जेल में उसके साथ हो रहे खराब बर्ताव को खत्म कराने की गुहार लगाई है.
पिछले डेढ़ सालों में उसके और दूसरी ट्रांस महिलाओं के साथ हुई यौन हिंसा का ब्यौरा देने से पहले उन्होंने अपनी चिट्ठी में पूछा है, ‘आदरणीय जज महोदय, क्या जेल में ट्रांस महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करने के लिए कोई संवैधानिक प्रावधान नहीं है? क्या हमें पुरुष कैदियों के साथ सिर्फ जेल अधिकारियों तथा अन्य कैदियों की काम-वासना को बुझाने के लिए रखा जाता है?’
वाघमारे बताते हैं, ‘यह चिट्ठी उत्तम के जान को भीषण जोखिम मे डालते हुए लिखी गई. उसने नामों का उल्लेख नहीं किया है, लेकिन अगर कोई जांच बैठाई जाती है, तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि जेल अधिकारियों के साथ-साथ उसके साथी कैदी भी उसका शोषण कर रहे हैं.’
वे बताते हैं कि जैसे ही यह चिट्ठी उन्हें मिली, वे तुरंत न्यायिक हस्तक्षेप की उम्मीद से कोर्ट के पास गए. ‘लेकिन कोर्ट ने अभी तक इस पर प्रतिक्रिया नहीं दी है.’
असमान न्याय और अपंग विधिक सहायता
किरण और उनके दोस्त एक तरह से भाग्यशाली थे कि उनका पक्ष एक वकील, वह भी एक सक्षम वकील ने रखा. ट्रांसजेंडरों को जेल में हमलों और प्रताड़ना का शिकार होने के साथ-साथ काफी कमजोर कानूनी प्रतिनिधित्व से भी काम चलाना पड़ता है. किसी तरह की कानूनी मदद पहुंचने से पहले ट्रांसजेंडरों का कई सालों तक जेल में सड़ते रहना, एक आम बात है.
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 39 ए में समाज के गरीब और कमजोर तबके के लोगों को मुफ्त विधिक सहायता प्रदान करने की व्यवस्था करने की बात की गई है; अनुच्छेद 14 और 22(1) राज्य पर कानून के समक्ष सबकी समानता और सभी को बराबर मौके के आधार पर न्याय को बढ़ावा देने वाली न्यायिक व्यवस्था सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी डालता है.
लेकिन दिल्ली को छोड़कर अन्य सभी 28 राज्य और 7 केंद्रशासित प्रदेश ट्रांसजेंडर समुदाय को विधिक सहायता की जरूरत को स्वीकार करने में नाकाम रहे हैं.
नेशनल लीगल सर्विस अथॉरिटी की वेबसाइट पर उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के अनुसार दिल्ली ने विधिक सहायता के लिए तीन अलग-अलग वर्गों को परिभाषित किया है. ट्रांसजेंडर समुदाय और वरिष्ठ नागरिकों के लिए अधिकतम आय की सीमा 2 लाख रुपये यानी करीब 2,700 अमेरिकी डॉलर है, बाकियों के लिए इस सीमा को एक लाख रुपये पर रखा गया है.
नवंबर, 2019 से ट्रायल पूर्व पुरुष बंदियों की ठाणे सेंट्रल जेल में बंद 32 वर्षीय रेणुका* के लिए कानूनी तौर पर प्रतिनिधित्व दिए जाने का उसका संवैधानिक अधिकार दूर की कौड़ी था. उन पर यौन अपराधों से बच्चों की रक्षा (पॉक्सो) अधिनियम के तहत मामला बनाया गया था, जब उनकी एक शिष्य (ट्रांस महिला) एक सिसजेंडर (जन्म से चिह्नित लिंग के अनुसार लैंगिक व्यवहार वाले) वयस्क पुरुष से प्रेम करने लगीं.
चूंकि पॉक्सो 18 साल से कम उम्र के सभी व्यक्तियों के सभी यौन व्यवहारों का अपराधीकरण करता है, इसलिए एक बाल अधिकार संगठन को इस मामले को पुलिस में रिपोर्ट करने पर मजबूर होना पड़ा. आखिर रेणुका और नाबालिग के प्रेमी, दोनों को ही गिरफ्तार कर लिया गया.
रेणुका के खिलाफ कोई सबूत न मिलने के बावजूद और सिर्फ इस बिना पर कि वह नाबालिग और उसके पार्टनर के बीच यौन संपर्क के दौरान मौजूद थी, उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया. उस नाबालिग ने भी दोनों के खिलाफ गवाही देने से इनकार कर दिया.
उस व्यक्ति ने अपने लिए वकील का इंतजाम कर लिया और गिरफ्तारी के कुछ महीने के भीतर ही जमानत पर जेल से छूटने में सफल हो गया, लेकिन रेणुका अब भी जेल में बंद है. उनके परिवार का गुजारा मुश्किल से हो रहा है और पिछले साल राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन ने उनकी स्थिति और खराब कर दी है.
उन्होंने राज्य से विधिक सहायता की गुहार लगाई थी और यहां तक कि हस्तक्षेप करने के लिए कुछ एनजीओ से भी संपर्क किया था. लेकिन उन्हें कहीं से मदद नहीं मिली.
उनकी मां बताती हैं, ‘रेणुका को एक अलग कोठरी में बंद करके रखा गया है और उसे तभी कोई साथी मिलता है जब किसी ट्रांसजेंडर व्यक्ति को गिरफ्तार करके जेल लाया जाता है.’ लॉकडाउन से पहले दो बार उसके परिवार ने उससे मुलाकात की थी, लेकिन उसके अलावा पिछले 14 महीनों में उससे मिलने एक भी व्यक्ति नहीं आया. कोर्ट के सामने पेशी भी वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से कराई जाती है.
उनकी मां कहती है, ‘ ज्यादातर समय उसे अकेले उसकी गंदी और अंधेरी छोटी कोठरी में अकेले छोड़ दिया जाता था. जून में उसके पिता के गुजर जाने के बाद उसे एकांत कैद में रखना खासतौर पर चिंताजनक था. वह हमसे बार-बार कहा करती थी कि वह अकेली और तकलीफ में है और गलत ख्यालों से जूझ रही है.’
रेणुका एचआईवी पॉजिटिव है और उसे खास भोजन और दवाइयों की दैनिक खुराक की जरूरत है. उनकी मां का कहना है कि जितनी बार भी रेणुका घर में फोन करती है, वह खराब खाने और बीमार पड़ने पर उन्हें अस्पताल ले जाने से जेल प्रशासन के निरंतर इनकार की शिकायत करती हैं. उसके छोटे भाई का कहना है, ‘उसका सीडी4 काउंट पहले से ही कम था. हमें इस बात की जानकारी नहीं है कि वह जेल में नियमित तौर पर एंटीरेट्रोवाइरल थेरैपी (एआरटी) ले पा रही है या नहीं.’
इस रिपोर्ट के लिए सूचनाएं जुटाने के दौरान द वायर को उनके लिए बिना किसी शुल्क के (प्रो बोनो) उनका केस लेने के लिए एक वकील को खोजने में कामयाबी मिली. उनकी गिरफ्तारी के 14 महीने बाद जाकर उनकी जमानत याचिका दायर की जा सकी. इस पर सुनवाई का इंतजार है.
‘जेल वह जगह है जहां वास्तव में आपको ट्रांस होने का एहसास कराया जाता है’
यौन शोषण के अनुभव सिर्फ पुरुष कारागारों तक ही सीमित नहीं हैं. कई अपरंपरागत लैंगिक प्रवृत्ति वाले व्यक्तियों , जिन्हें महिलाओं के लिए निर्धारित जेलों में डाल दिया गया था, ने भीषण यौन शोषण और जेंडर हीनता बोध का अनुभव किया.
पिछले साल जुलाई में, बिहार में असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के संगठन जन जागरण शक्ति संगठन के साथ काम करनेवाले सामाजिक कार्यकर्ता और ट्रांस पुरुष 31 वर्षीय तन्मय निवेदिता एक अजीब मामले में जेल में बंद कर दिए गए.
वे और उनकी सहकर्मी कल्याणी एक 22 वर्षीय गैंग रेप पीड़िता खुशी* का मजिस्ट्रेट के सामने बयान दर्ज करवाने के लिए अररिया जिला आए थे. मजिस्ट्रेट के रवैये से असहज महसूस कर रही खुशी ने अपने बयान पर दस्तखत करने से इनकार कर दिया और इस बात का आग्रह किया कि पूरी प्रक्रिया के दौरान दोनों सामाजिक कार्यकर्ताओं को उनके साथ रहने की इजाजत दी जाए.
मजिस्ट्रेट को यह बात नागवार गुजरी और उन्होंने इन तीनों पर कोर्ट की अवमानना का आरोप लगाकर उन्हें जेल भेज दिया. खुशी मदद और न्याय की उम्मीद करते हुए काफी आशा लेकर मजिस्ट्रेट के पास आई थी, लेकिन पांच मिनट के भीतर कोर्ट ने उसे और उसके दो शुभचिंतकों को अपराधियों में तब्दील कर दिया.
खुशी ने दो एक सप्ताह जेल में बिताया; बाकी दो 25 दिनों के बाद ही रिहा किए गए. इन तीनों को अररिया से 250 किलोमीटर दूर समस्तीपुर जिले में दलसिंह सराय क्वारंटीन कैदखाने के स्त्री अनुभाग में बंद किया गया था.
जेल में बिताए गए अपने समय को याद करते हुए तन्मय कहते हैं, ‘जेल में बिताए गए हर क्षण ने व्यवस्था की के पूरे नकारेपन और असंवेदनशीलता को उजागर कर दिया.’
उन्हें पहले गैरकानूनी ढंग से एक स्थानीय पुलिस स्टेशन एक दिन से ज्यादा हिरासत में रखा गया और एक दूसरे मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया. चूंकि वह रविवार का दिन था और कोविड-19 के चलते राज्य में लॉकडाउन लगा हुआ था, अपने घर की खिड़की के शीशे पर खड़े होकर मजिस्ट्रेट ने उन्हें न्यायिक हिरासत में भेजने का आदेश दिया.
तन्मय कहते हैं, ‘खिड़की के पर्दे और लोहे की ग्रिल के पीछे छिपे एक व्यक्ति ने हमें जेल भेजने का फरमान सुना दिया. हमें नीचे भूतल (ग्राउंड फ्लोर) पर रखा गया था और हमें उनकी आवाज भी बेहद मुश्किल से सुनाई दे रही थी.’
वैसे तो इस अचानक घटे घटनाक्रम ने तीनों सकते में आ गए थे, लेकिन जेल के बारे में सोचकर तन्मय खासतौर पर चिंतित हो उठे थे. वे बताते हैं, ‘जेल में प्रवेश के दौरान शुरुआती तलाशी के दौरान हर जगह को छुआ और पकड़ा गया.’
तन्मय बताते हैं कि जेल एक ऐसी जगह है जहां व्यक्ति को उसकी ‘ट्रांस पहचान’ के बारे में गहराई से महसूस कराया जाता है. बंद कमरे में तलाशी लिए जाने की उनकी मांग को बेजवह के नखरे के तौर पर देखा गया. ‘मुझे बार-बार कहा गया, ‘हम सब महिलाएं ही हैं. इसमें क्या बड़ी बात है.’
‘मुझे उन्हें यह लगातार बतलाना पड़ा कि हम सब महिलाएं नहीं हैं. हमें यहां पर सिर्फ भेजा गया है.’ जब उन्होंने अपनी जेंडर पहचान पर जोर दिया, तब जेल के गार्ड ने उससे कहा, ‘उसके जैसा एक और आदमी जेल में है.’
केरल में पले-बढ़े तन्मय जिन्होंने पांच साल से ज्यादा समय बिहार में बिताया है, राज्य में अभी तक किसी दूसरे ट्रांस पुरुष से नहीं मिले हैं.
‘मुझे वे बाकी जगहों को छोड़कर जेल में ही मिलने थे,’ और यह कहते हुए तन्मय हंस पड़ते हैं, ‘एक और ट्रांस पुरुष, जो मुजफ्फरपुर जिले के रहने वाले थे और जिन पर एक नाबालिग के साथ संबंध में होने का आरोप था, एक महीने से ज्यादा समय से पहले ही जेल में थे. वास्तव में हम उनसे संपर्क करने और कानूनी हस्तक्षेप के उपायों की तलाश ही कर रहे थे और एक महीने बाद मैं उसी जेल में था जहां मुझे उससे सीधे मुलाकात करने का मौका मिल रहा था.’
तन्मय कहते हैं कि जेल में सही जेंडर की पहचान न हो पाना आम था और उससे उसकी पहचान को लेकर उत्सुकता से भरे सवाल पूछे जाते थे और यहां तक कि उसकी सहमति के बगैर उसे छुआ जाता था.
वे कहते हैं, ‘जेल में पहली बार दाखिल होने वाला हर नया गार्ड मेरे जेंडर के बारे में जानना चाहता था. हो सकता है कि इसमें शारीरिक तौर पर छूना शामिल न हो, लेकिन फिर भी यह शरीर के बारे में ही था.’
इस तरह घूरकर देखा जाना जारी रहा, लेकिन तन्मय ने जेल में कुछ यादगार दोस्त भी बनाए. वे कहते हैं कि खुशी उनकी सबसे बड़ी पैरोकार थी.
वे कहते हैं, ‘मैं मजिस्ट्रेट के पास उसे सहारा देने के लिए गया था, लेकिन यहां जेल में वह मेरी सहायता और मेरा बचाव कर रही थी.’ इसी तरह से हर बार उसकी गलत जेंडर पहचान किए जाने पर जेल की अन्य महिलाओं ने उनका बचाव करना और जेल कर्मचारियों समेत हर किसी को दुरुस्त करना शुरू कर दिया था, यह देखना दिल को काफी दिलासा देने वाला था कि कैसे औरतें मेरी शारीरिक गरिमा रक्षा करने के लिए अपनी सुरक्षा खतरे में डाल रही थीं.’
तन्मय कहते हैं कि उनकी उच्च जाति और अंग्रेजी शिक्षा ने उन्हें अपेक्षाकृत सुरक्षित रखा. यह हाशिये के समुदाय से ताल्लुक रखने वाले कई अन्य ट्रांसजेंडर लोगों की स्थिति नहीं थी, जो नियमित तौर पर भारतीय आपराधिक न्यायिक प्रणाली के संपर्क में आते हैं.
जेलों के समन्वित आंकड़े रखनेवाला एकमात्र सरकारी संगठन भारतीय क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो का कहना है कि भारतीय जेलें सभी धर्मों के दलितों, आदिवासियों और अन्य पिछड़ा वर्गों से भरी हुई हैं. ट्रांसजेंडर समुदायों के मामलों में भी हिरासत में रखे गए लोगों में एक बड़ी संख्या दलित, आदिवासी और ओबीसी जाति अस्मिता वाले हैं.
दिल्ली की वकील और भारतीय जाति-व्यवस्था की मुखर आलोचक दिशा वाडेकर को लगता है कि ट्रांसजेंडर समुदायों के प्रति सरकार के रवैये की जड़ें प्रतिगामी जाति व्यवस्था में धंसी हुई है. वे बुरे बर्ताव के सिरे की खोज उपनिवेशवादी काल से करती हैं, जब आपराधिक जनजाति अधिनियम (क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट), 1871 के तहत कई घुमंतू समुदायों के साथ-साथ ट्रांसजेंडर समुदाय का भी अपराधीकरण कर दिया गया था. हालांकि उस अधिनियम को रद्द कर दिया गया है लेकिन यह आज भी इस समुदाय का अपराधीकरण कर रहा है.
वे कहती हैं, ‘ब्राह्मणवादी राजसत्ता ने लंबे समय से आधुनिक न्याय व्यवस्था का इस्तेमाल ‘अपवित्र व्यक्तियों’ से निपटने के लिए एक प्रभावी औजार के तौर पर किया है, जिसे वह ‘पवित्र उच्च जाति सिसजेंडर (जन्म से चिह्नित लैंगिक आचरण वाले) पुरुष शरीर’ की अपनी धारणा के हिसाब से अनुपयुक्त मानता है.’
उनका कहना है, ‘पवित्रता के विचार का निर्धारण सिर्फ व्यक्ति के जेंडर से नहीं, बल्कि उसकी जाति से भी होता है. इस पृष्ठभूमि में जेल में बंद ट्रांसजेंडर समुदाय में सबसे ज्यादा हाशिये की जाति वालों को पाना आश्चर्यजनक नहीं होना चाहिए.’
सरकार की प्रतिक्रिया
भारतीय न्यायपालिका समय-समय पर कैदियों के अधिकारों को लेकर चिंता पर विचार करती रही है. लेकिन यह सामान्य तौर पर ही किया जाता रहा है और एलजीबीटीक्यूआई+ समुदाय, खासकर ट्रांसजेंडर लोगों की विशिष्ट चिंताओं पर बहुत कम ध्यान दिया गया है.
ट्रांस अधिकार कार्यकर्ताओं के विरोध के बावजूद भारतीय संसद ने ट्रांसजेंडर पर्सन्स प्रोटेक्शन (प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स) एक्ट को नवंबर, 2019 में पारित कर दिया.
यह अधिनियम कोर्ट के आदेशों और संवैधानिक अधिकारों का साफ-साफ उल्लंघन है और कानूनी जेंडर मान्यता को अनिवार्य करता है और व्यक्ति से उनके निवास के जिले के जिलाधीश से ‘ट्रांसजेंडर प्रमाणपत्र’ के लिए आवेदन करने की शर्त लगाता है.
इस लिहाज से अगर कोई ट्रांसजेंडर व्यक्ति जेल में जिलाधीश के प्रमाणपत्र के बगैर जेल में दाखिल होता है, तो वह अपने जननांग के आधार पर ‘मान्यता मिलने’ और प्रमाणपत्र दिए जाने के लिए जेल के अधिकारियों और डॉक्टरों की कृपा का मोहताज होता है.
2018 में भारत की 1,382 जेलों की अमानवीय परिस्थितियों के मामले पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने जेलों में व्याप्त विभिन्न समस्याओं की जांच करने के लिए जेल सुधार पर एक समिति का गठन किया था.
इस समिति का नेतृत्व सुप्रीम कोर्ट के एक रिटायर्ड न्यायाधीश अमिताव राय और आईजी, ब्यूरो ऑफ एंड डेवलपमेंट तथा डीजी (प्रिजन्स) , तिहाड़ जेल इसके अन्य सदस्य हैं. अपने गठन के बाद से समिति ने भीड़-भाड़ से लेकर दोषियों को कानूनी सलाह की कमी से लेकर छूट और पैरोल जैसे विभिन्न विषयों को समेटते हुए दो विस्तृत रिपोर्ट सौंपी है.
लेकिन ट्रांसजेंडर समुदाय की चिंताओं को बिल्कुल ही छोड़ दिया गया है.
1995 से एनसीआरबी हर साल वार्षिक जेल आंकड़े (प्रिजन स्टैटिस्टिक्स) का प्रकाशन कर रहा है. लेकिन इसके लिए आंकड़े स्त्री-पुरुष बाइनरी के संकीर्ण चश्मे से एकत्र किए गए हैं और ट्रांसजेंडर समुदाय को आंकड़े से बाहर रखा गया है.
बिल्कुल हाल में जाकर केंद्र सरकार ने इस डेटा की सीमा को स्वीकार किया है और दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष दायर एक चाचिका के जवाब में कोर्ट को यह सूचना दी है कि अब से एनसीआरबी के प्रिजन आंकड़े में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को एक अलग जेंडर के तौर पर शामिल किया जाएगा.
लेकिन रिपोर्ट में यह डेटा शामिल करने के लिए यह जरूरी है कि ऐसा डेटा पहले स्थानीय पुलिस थानों और राज्यों के स्तरों तैयार किया जाए.
सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत दायर किए गए अनेक आवेदनों के आधार एकत्र किए गए डेटा के आधार पर कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव (सीएचआरआई) नामक एक गैर सरकारी संगठन ने हाल ही में लॉस्ट आइडेंटिटी: ट्रांसजेंडर पर्सन्स इनसाइड इंडियन प्रिजन्स’ शीर्षक से एक विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की.
इस अध्ययन में यह पाया गया है कि जेलों में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों संबंधित डेटा को दर्ज करने के तरीके में कोई एकरूपता नहीं है. संगठन के प्रश्नों का जवाब देने वाले राज्य और केंद्रशासित प्रदेशों में से सिर्फ नौ- आंध्र प्रदेश, गोवा, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, मेघालय, सिक्किम, उत्तराखंड, दादरा नगर हवेली तथा पुदुचेरी- ने यह कहा है कि ट्रांसजेंडर बंदियों संबंधित डेटा को पुरुष एवं महिलाओं के डेटा से अलग दर्ज किया जा रहा है.
इसके अतिरिक्त, गुजरात, झारखंड, केरल, महारष्ट्र, दिल्ली, राजस्थान, त्रिपुरा, उत्तर प्रदेश तथा पश्चिम बंगाल जिन्होंने अलग से डेटा दर्ज करने की कोशिश की, उनमें राज्य के भीतर ही विभिन्न जेलों में इसकी प्रक्रिया में कोई एकरूपता नहीं थी.
अपनी अपूर्णता के बावजूद इकट्ठा किए गए आंकड़े यह दिखाते हैं कि मई, 2018 से अप्रैल, 2019 के बीच कम से कम 216 ट्रांसजेंडर व्यक्ति विभिन्न जेलों में बंद थे. इनमें उत्तर प्रदेश तथा तेलंगाना में क्रमशः 47 तथा 40 के साथ ट्रांसजेंडर कैदियों की सर्वाधिक संख्या दर्ज की गई.
सीएचआरआई के साथ बतौर प्रोजेक्ट ऑफिसर और रिसर्च टीम के एक हिस्से के तौर पर काम कर रहे साई बौरोथू आगे के सरकारी और अकादमिक विचार-विमर्श के लिए इस आंकड़े को आधार बनाने के खतरों की ओर इशारा करते हैं.
बौरोथू कहते हैं, ‘हमारा शोध इस डेटा को एकत्र करने संबंधी समस्याओं की ओर साफतौर पर इशारा करता है. सबसे पहली बात तो यह है कि बहुत कम राज्य हैं जो यह आंकड़ा रख भी रहे हैं. और वह भी व्यक्ति के स्व-निर्णय के अधिकार को नजरअंदाज करते हुए अव्यवस्थित तरीके से किया जा रहा है.’
भारतीय कानून निर्माताओं ने अंतरराष्ट्रीय मानकों या श्रेष्ठ प्रचलनों- जिनमें संयुक्त राष्ट्र की अनेक एजेंसियों या योग्याकार्टा सिद्धांत और योग्याकार्टा सिद्धांत प्लस 10 शामिल है, जो खासतौर पर व्यक्तियों के खिलाफ उनके वास्तविक या कल्पित यौन प्रवृत्ति के कारण किए जाने वाले मानवाधिकार हनन की ओर खास तौर पर ध्यान देता है- के प्रति कोई सम्मान नहीं दिखाया है
केरल जैसे कुछ राज्यों ने नए कारागारों में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए अलग ब्लॉकों का निर्माण करने का फैसला किया है. यह सही है कि एक अलग जेल समुदाय के खिलाफ होनेवाली यौन या किसी भी दूसरी तरह की हिंसा की संभावना को काफी कम कर देंगी, लेकिन यह उनसे चुनने के उनके अधिकार को भी छीन लेंगी.
बौरोथू को लगता है कि अलग जेलों के साथ-साथ आखिरकार अपनी जेंडर पहचान का निर्णय करने और क्या वे जेल के अन्य लोगों से अलग रहना चाहते हैं, का फैसला बंदी ट्रांसजेंडर लोगों पर ही छोड़ देना चाहिए. उन्हें यह भी लगता है कि अलग-थलग करने का मसला इतना आसान नहीं है.
उदाहरण के लिए, खासतौर पर स्त्रीवादी तथा स्त्री आंदोलन में जब भी जेंडरीकृत पृथक्करण का मसला सामने आता है, आंदोलन के कई लोगों ने सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए पृथकीकृत स्थान की पैरोकारी की है.
बौरोथू कहते हैं, ‘उस खांचे के भीतर भी बाकी चीजों के अलावा ट्रांसजेंडर समुदाय को एक खतरे के तौर पर देखा जाता है, ऐसे लोगों के तौर पर जिनसे रक्षा किया जाना जरूरी है.’
दांडिक प्रणाली में ट्रांस समुदाय के इर्दगिर्द बहस-मुबाहिसा अभी भी नया है और बौरोथू का कहना है कि अभी कई और चिंताओं का समाधान किया जाना बचा हुआ है.
पिछले सालों में, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, केरल और दिल्ली जैसे राज्यों जैसे राज्यों ने नीति बनाने के लिए तैयार होने का प्रदर्शन किया है, लेकिन वे भी पूरी तरह से सामुदायिक सलाह-मशविरे के लिए तैयार नहीं हैं.
कोविड-19 को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने हिरासत में एलजीबीटीक्यूआई+ के अधिकारों की सुरक्षा के लिए एक विस्तृत दिशानिर्देश जारी किया था. इस आदेश में राज्यों से खासतौर पर यह सुनिश्चित करने के लिए कहा गया है कि जेलों में ट्रांसजेंडर या इंटरसेक्स लोगों के साथ कोई भेदभाव न हो या उनका शोषण न किया जाए.
यह आदेश पिछले साल अक्टूबर में दिया गया ओर कर्नाटक जैसे सिर्फ कुछ राज्यों ने विभिन्न जेलों को इस संबंध में सर्कुलर भेजा है.
द एकेडमी ऑफ प्रिजन्स एंड करेक्शनल एडमिनिस्ट्रेशन इन वेल्लोर, ने नेशनल इंस्टीट्यूटी ऑफ सोशल डिफेंस के साथ साझेदारी में हाल ही में जेलों में संरचनात्मक बदलावों की शुरुआत करने के लिए विस्तृत सलाह-मशविरा किया था.
एकेडमी में प्रोफेसर और वरिष्ठ फैकल्टी बेलुआ इमैनुएल यह बात स्वीकार करते हैं कि इस समुदाय की लंबी समय से उपेक्षा हुई है और हिरासत में रखे गए ट्रांस जेंडर व्यक्तियों के साथ व्यवहार करने के लिए किसी भी राज्य के जेल प्रशासन के पास ऐसा कोई कोई मानक ऑपरेटिंग प्रक्रिया नहीं है जिसका अनुसरण किया जाए.
‘हमारे पास विभिन्न स्थितियों और चिंताओं के मद्देनजर अनुसरण किये जानेवाले ट्रेनिंग मॉड्यूल्स हैं, लेकिन (ट्रांसजेंडर) समुदाय इन विचार विमर्शों से बाहर रहा है, ‘इमैनुएल कहते हैं, ‘समुदायों के अधिकारों और जरूरतों के प्रति जेल कर्मचारियों को शिक्षित करने और उन्हें संवेदनशील बनाने के लिए हम एक मॉड्यूल तैयार करने की कोशिश कर रहे हैं.’
लेकिन तब तक किरण और उत्तम जैसे कई ट्रांसजेंडर लोगों को बगैर किसी राहत के जेल प्रणाली की निर्दयता का सामना करते रहेंगे.
*पहचान छिपाने के लिए कुछ नामों को बदल दिया गया है.
(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)