क़ीमत और प्राइवेसी पर विचार किए बिना सरकार ने चुपचाप निजी कंपनी को बेचा वाहन संबंधी डेटा

सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय द्वारा निजता संबंधी चिंताओं व विभिन्न अधिकारियों की आपत्तियों को नज़रअंदाज़ करते हुए देश के कई करोड़ नागरिकों का वाहन रजिस्ट्रेशन संबंधी डेटा ऑटो-टेक सॉल्यूशंस कंपनी फास्ट लेन को बेहद कम क़ीमत पर बेचा गया, जिसके आधार पर कंपनी ने ख़ूब कमाई की.

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(फोटो: रॉयटर्स)

सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय द्वारा निजता संबंधी चिंताओं व विभिन्न अधिकारियों की आपत्तियों को नज़रअंदाज़ करते हुए देश के कई करोड़ नागरिकों का वाहन रजिस्ट्रेशन संबंधी डेटा ऑटो-टेक सॉल्यूशंस कंपनी फास्ट लेन को बेहद कम क़ीमत पर बेचा गया, जिसके आधार पर कंपनी ने ख़ूब कमाई की.

(फोटो: रॉयटर्स)
(फोटो: रॉयटर्स)

नई दिल्ली: भारत के आम नागरिकों की निजी जानकारियां बेचकर सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय ने ऑटो-टेक सॉल्यूशंस कंपनी- फास्ट लेन को करोड़ों का फायदा पहुंचाया.

नितिन गडकरी के मंत्रालय ने न सिर्फ़ आम लोगों की वाहन रजिस्ट्रेशन से जुड़ी जानकारियां सरेआम और बेहद कम क़ीमत पर एक प्राइवेट कंपनी को बेच दीं बल्कि इस सौदे के लिए किसी दूसरी निजी कंपनी को आंमत्रण भी नहीं दिया गया और न ही ये सौदा किसी आधिकारिक टेंडर या बोली प्रक्रिया के तहत हुआ.

दो खोजी पत्रकारों श्रीनिवास कोडली और श्रीगिरीश जलिहल ने मंत्रालय में आरटीआई के जरिये ये दस्तावेज हासिल किए गए जिनसे साफ होता है कि 2014 में किए गए इस सौदे में न सिर्फ़ खुद सरकार ने अपने बनाए नियमों की धज्जियां उड़ाईं बल्कि अपने ही मंत्रालय के अधिकारियों की गंभीर आपत्तियों को नज़रअंदाज़ किया.

फास्ट लेन ऑटोमोटिव (एफएलए) नाम की इस कंपनी पर सरकार की मेहरबानी कुछ इस तरह हुई उसने आपके यानी आम भारतीय नागरिक के थोक में मिले इस डेटा के आधार पर टेक्नोलॉजिकल सॉल्यूशंस देने वाला एक बिजनेस मॉडल अपने क्लाइंट्स के सामने पेश किया और ये बिजनेस उनके लिए बेहद फायदेमंद साबित हुआ.

तमाम डेटा प्राइवेसी की चिंतायें ताक़ पर रखकर, सरकार की तरफ़दारी के बलबूते इस कंपनी ने न सिर्फ़ ये जानकारी घरेलू ख़रीदारों बल्कि विदेशी खरीददारों के साथ भी साझा की. इस डेटा के मिलने के एक साल के अंदर कंपनी का टर्नओवर 163 गुना बढ़ गया. (वित्त वर्ष 2014-15 के 2.25 लाख रुपये से यह वित्त वर्ष 2015-16 में 3.70 करोड़ रुपये पर पहुंचा).

पिछले पांच साल के फाइनेंशियल रिटर्न की पड़ताल बताती है कि इस डेटा के आधार पर कंपनी का राजस्व आज भी बढ़ रहा है और इस अवधि के दौरान 333 गुना हो चुका है.

मामले की गंभीरता को समझने के लिए ये जानना भी ज़रूरी है कि 2019 में सरकार ने आधिकारिक बल्क डेटा शेयरिंग पॉलिसी शुरू की जिसके तहत निजी खरीदारों के लिए बल्क या थोक डेटा पाने का रास्ता खोला गया था. लेकिन फास्ट लेन ऑटोमोटिव के साथ परिवहन मंत्रालय ने ये सौदा इस नीति के बनने से भी पांच साल पहले किया था.

2019 में लाई गई ये नीति भी ज्यादा दिन नहीं चली और 2020 के मध्य में इसे ‘प्राइवेसी से जुड़ी चिंताओं’ की वजह से सरकार ने ही वापस ले लिया. लेकिन नया नियम एफएलए पर लागू नहीं किया गया और फास्ट लेन के पास फिर भी वो डेटा रहा, जो उसे दिया जा चुका था.

यह सौदा पूरी तरह से सार्वजनिक तौर पर हुआ था. सरकार ने मंत्रालय के अधिकारियों द्वारा ‘प्राइस डिस्कवरी’ की कमी को लेकर चिंता जताने बावजूद इस सौदे को लंबा खिंचने दिया. प्राइस डिस्कवरी किसी भी एसेट को बेचने से पहले उसकी कीमत को लेकर किया जाने वाला  मूल्यांकन होता है, इस मामले में जिसे लेकर नौकरशाहों द्वारा डेटा को सस्ते में भेजने के लिए चेताया गया.

अधिकारियों के द्वारा दिया गया निष्कर्ष ये था कि यह अनुबंध ग्राहक के ‘बहुत अधिक’ पक्ष में है.

संक्षेप में यह डेटा देश में विभिन्न राज्यों के परिवहन विभागों में पंजीकृत मोटर वाहनों की फेहरिस्त है, जिसमें हो सकता है कि वाहन मालिक की निजी जानकारियां न शामिल हों, लेकिन सरकार के आंतरिक दस्तावेज दिखाते हैं कि इस अनुबंध पर दस्तखत होने से महीनों पहले नेशनल इंफॉर्मेटिक्स सेंटर (एनआईसी) ने निजी खरीददारों के साथ बल्क यानी थोक में डेटा साझा करने से जुड़े सामान्य सुरक्षा और निजता के पहलू को लेकर चेताया था.

2014 का यह सौदा, जिसके बारे में अबसे पहले कभी बात नहीं हुई, एफएलए के लिए बेहद महत्वपूर्ण साबित हुआ. कंपनी ने एक साल के अंदर और उसके बाद कई करोड़ रुपये कमाए, साथ ही बाद में मंत्रालय द्वारा इसे रद्द करने पर आपत्ति जताते हुए इसने कहा कि डेटा तक मिली यह एक्सेस (पहुंच) उनकी फर्म के बिजनेस की जरूरतों का ‘आधार’ है.

इस वाहन और लाइसेंस डेटाबेस का महत्व देश के तेजी से बढ़ते हुए ऑटो सेक्टर तक गहरी पहुंच रखने के मद्देनजर बढ़ जाता है. नागरिकों के बारे में मौजूद कुछ और डेटाबेस और सूचनाओं के साथ मिलकर यह डेटा बैंकरों, फाइनेंस कंपनियों, ऑटोमोबाइल निर्माताओं, इंश्योरेंस कंपनियों, मार्केटिंग कंपनियों जैसे कइयों को बिजनेस का एक बड़ा अवसर दे सकता है.

किसी अन्य दावेदार का न होना

2014 का यह अनुबंध, जिसके तहत एफएलए को डेटा की कॉपी मिली, वह इसलिए भी अजीब है कि मंत्रालय के कर्मचारियों के लगातार यह कहने के बावजूद कि वे किसी अन्य कंपनी के साथ फास्ट लेन जितने दाम पर डेटा साझा करने के लिए तैयार हैं, कोई और निजी दावेदार यहां नजर नहीं आता.

साल 2016 की एक सरकारी फाइल दर्शाती है कि एक संयुक्त सचिव ने इस बात का जिक्र किया है कि सरकार को बल्क डेटा शेयरिंग के लिए एक और आवेदन मिला था, लेकिन उन्होंने यह भी कहा है कि इस आवेदन को आगे बढ़ाने से पहले प्राइस डिस्कवरी को लेकर मंत्रालय की फाइनेंस इकाई से सलाह ली जानी चाहिए.

फास्ट लेन ने इस डेटा के साथ कई अतिरिक्त डेटा सेट से प्राप्त सूचनाओं को जोड़कर भारत के वाहन पंजीकरण डेटा पर आधारित तकनीकी समाधान (टेक्नोलॉजिकल सॉल्यूशन्स) के वैश्विक बाजार में खुद को एक बड़े खिलाड़ी के तौर पर पेश किया.

हालांकि अनुबंध में इस तरह की अनुमति थी,  फिर भी डेटाबेस के इस तरह इकठ्ठा किए जाने को लेकर मंत्रालय के कर्मचारियों ने अपनी चिंताएं तो जाहिर की थीं. पर उन्होंने ऐसा करने में कई साल लगा दिए- तब तक फास्ट लेन ने सस्ते में हुए इस सौदे का भरपूर फायदा उठाया.

एफएलए द्वारा भेजा गया प्रस्ताव.
एफएलए द्वारा भेजा गया प्रस्ताव.

यह सौदा किसी आधिकारिक टेंडर या बोली प्रक्रिया के तहत नहीं हुआ था बल्कि फास्ट लेन की तरफ से भेजे गए एक प्रस्ताव के आधार पर इसकी शुरुआत हुई थी. हालांकि इस बारे में अनुमति देने वाले सरकारी दस्तावेज कहते हैं कि अगर कोई अन्य प्राइवेट पार्टी इसमें दिलचस्पी लेती है, तो उसके लिए भी शर्तें यही रहेंगी.

एफएलए ने भारतीय नागरिकों के इस डेटा तक अपनी विशिष्ट पहुंच के आधार पर टेक्नोलॉजिकल सॉल्यूशंस देने वाला एक बिजनेस मॉडल अपने क्लाइंट्स के सामने पेश किया और यह बिजनेस चल निकला.

एफएलए के सीईओ के प्रोफाइल में जुड़ी कंपनी के काम संबंधी जानकारी.
एफएलए के सीईओ के प्रोफाइल में जुड़ी कंपनी के काम संबंधी जानकारी.

 

स्वतंत्र डेटा शोधार्थी श्रीनिवास कोडली और इस रिपोर्टर द्वारा आरटीआई के जरिये हासिल किए गए दस्तावेज दिखाते हैं कि मंत्रालय ने इस कंपनी की एक बार फिर तरफदारी की, जब इसके द्वारा एनआईसी और मंत्रालय के अपने अधिकारियों की गंभीर आपत्तियों को दरकिनार करते हुए कंपनी को बिना किसी कीमत के एक ‘ग्रेस पीरियड’ यानी अतिरिक्त अवधि में डेटा को एक्सेस करने की अनुमति दी गई.

यह समझौता 2019 में सरकार द्वारा आधिकारिक बल्क डेटा शेयरिंग पॉलिसी, जिसने खरीददारों के लिए बल्क डेटा पाने का रास्ता खोला था,  को लाए जाने से पांच साल पहले हुआ था. 2019 में लाई गई यह नीति ज्यादा दिन नहीं चली और 2020 के मध्य में इसे ‘गोपनीयता संबंधी चिंताओं’ के चलते वापस ले लिया गया, हालांकि फास्ट लेन के पास फिर भी वो डेटा रहा, जो उसे दिया जा चुका था.

सरकार ने एफएलए से यह डेटा डिलीट करने के लिए नहीं कहा और कंपनी, जो बड़ी अंतरराष्ट्रीय कंपनियों के अपना ग्राहक होने का दावा करती है, के पास आज भी यह डेटा सेट है. इसकी वेबसाइट बताती है कि सितंबर 2014 से इसके पास देशभर के पंजीकरणों (रजिस्ट्रशन) का डेटा है.

11 फरवरी 2021 को केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने लोकसभा में बताया था कि सरकार ने निजी फर्मों से साझा किया हुआ डेटा डिलीट करवाने के बारे में विचार नहीं किया है.

द वायर  द्वारा एफएलए के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) निर्मल सिंह सरन्ना से फोन पर संपर्क किया गया, साथ ही लिखित प्रश्नावली भी भेजी गई. इन सवालों के विस्तृत जवाब में सरन्ना ने कंपनी द्वारा कोई भी गलत काम किए जाने से इनकार किया और कहा, ‘किसी भी समय या स्तर पर कोई अनुचित काम नहीं किया गया.’

सरन्ना द्वारा इस रिपोर्टर से ‘एफएलए और इसके अधिकारियों का अनुचित उत्पीड़न करने से बाज़ आने’ को भी कहा गया. उन्होंने लिखा, ‘अगर इस जवाब के बावजूद आप एफएलए के खिलाफ दुर्भावना से काम करना चुनते हैं, तो एफएलए मानहानि और अपमानित करने के संदर्भ में, जब आवश्यकता होगी, उचित कानूनी उपायों का सहारा लेगा.’

द वायर  द्वारा इस सौदे के बारे में इस रिपोर्ट और इसके अगले भाग में की गई पड़ताल किसी अवैधता की ओर इशारा नहीं करती है. इसके बजाय यह एक छोटी कंपनी के हाथ लगे एक फायदेमंद सौदे की परतें खोलती है, जिसके बारे में अब तक कोई बात ही नहीं हुई और जो तकनीकी-नीतियों को बनाने की बेहद उलझी प्रक्रिया को दिखाती है, जिसमें भारत के नागरिकों और सरकार दोनों के ही लिए पर्याप्त जोखिम है.

द वायर  द्वारा केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी के कार्यालय, सचिव व अन्य अधिकारियों को भी विस्तृत प्रश्नवाली भेजी गई हैं, हालांकि कई बार याद दिलाए जाने के बावजूद वहां से कोई जवाब प्राप्त नहीं हुआ है.

कहानी कहां से शुरू हुई

बल्क डेटा शेयरिंग पॉलिसी के ढंग से शुरू होने से पहले ही खत्म हो जाने की कहानी हमें मोदी सरकार के उस पहले सौदे की तरफ ले चलती है, जहां इसने किसी कंपनी को बल्क डेटा तक पहुंच (एक्सेस) देने की अनुमति दी.

25 अप्रैल 2014 को मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली यूपीए सरकार के आखिरी दिनों में मंत्रालय ने कानून लागू करने वाली एजेंसियों और इंश्योरेंस कंपनियों के साथ राष्ट्रीय पंजी के डेटा को साझा करने की एक योजना को मंजूरी दी.

यहीं से फास्ट लेन ऑटोमेटिव तस्वीर में आई, जो यूनाइटेड किंगडम (यूके) स्थित मूल कंपनी की हिंदुस्तानी फर्म है और वित्त वर्ष 2020 की फाइलिंग के मुताबिक वर्तमान में जिसकी 46 फीसदी विदेशी भागीदारी है. इसने सरकार के सामने एक प्रस्ताव रखा, जिसमें इसने देशभर के वाहनों का डेटा खरीदने की बात कही.

इसका आधार एक ऐसा अनुबंध था जो कंपनी ने यूके की सरकार के साथ किया हुआ था. यहां तक कि इसमें दी गई कीमतें भी ब्रिटिश सरकार द्वारा लिए गए शुल्क के आधार पर ही तय की गई थीं.

हमारे द्वारा भेजे गए सवालों के जवाब में इस तरह के डेटा की महत्ता समझाते हुए सरन्ना ने बताया, ‘ऑटोमोटिव क्षेत्र के सभी बड़े हितधारकों को उनके प्रोडक्शन, डीलर मैनेजमेंट, वितरण और सप्लाई चेन से संबंधित अच्छी जानकारी वाले, वैज्ञानिक और डेटा समर्थित निर्णयों, बिजनेस योजनाओं और रणनीतियों के मानकों के लिए इस तरह के ‘अनाम’ वाहन संबंधी डेटा की जरूरत होती है.’

इस पर चर्चा का महीना भर ही बीता था कि देश में सरकार बदल गई और भाजपा सत्ता में आई. नया प्रशासन भी तेजी से आगे बढ़ा. 20 जून 2014 को सरकार ने खरीददारों के सामने एक करोड़ रुपये सालाना की कीमत पर वाहन और सारथी डेटाबेस बेचने का प्रस्ताव रखा.

वाहन डेटा में गाड़ी के रजिस्ट्रेशन से संबंधित जानकारी होती है, जबकि सारथी डेटा ड्राइविंग लाइसेंस से जुड़ी सूचनाएं होती हैं. सरकार द्वारा तब दी गई यह कीमत बाद में लाई गई बल्क डेटा शेयरिंग पॉलिसी में दी गई कीमत- तीन करोड़ रुपये की तुलना में बेहद कम थी.

एनआईसी को किया नज़रअंदाज़

2014 में ही परिवहन मंत्रालय ने कानून और न्याय मंत्रालय से उसके, एफएलए और एनआईसी के बीच एक त्रिपक्षीय अनुबंध किए जाने का प्रस्ताव रखा.

एनआईसी की भूमिका यहां डेटा ट्रांसफर करने और इसके अनधिकृत उपयोग को रोकने को सुनिश्चित करने की थी. हालांकि रिकॉर्ड्स दिखाते हैं कि इस अनुबंध पर दस्तखत करते हुए मंत्रालय द्वारा एनआईसी को दरकिनार कर दिया गया.

मंत्रालय और कानूनी मामलों के विभाग के बीच हुआ पत्राचार दिखाता है कि इस तरह का कोई अनुबंध कभी नहीं हुआ था. 7 अगस्त 2014 तक अनुबंध का मूल्यांकन कर, उसमें बदलाव करते हुए मंजूरी भी दे दी गई.

8 अगस्त 2014 को परिवहन विंग के तत्कालीन संयुक्त सचिव द्वारा लिखा फाइल नोट कहता है, ‘अनाम बल्क डेटा साझा करने के लिए आवेदन लेना, अनुबंध करना और अनुमति देना शुरू किया जाए.’ इसी दिन मंत्रालय को एफएलए द्वारा अनुबंध करने को लेकर आवेदन मिला था.

हालांकि इस बीच मंत्रालय जल्द ही एनआईसी द्वारा दर्ज करवाई जा रही आपत्तियों से उकता गया. 15 सितंबर को मंत्रालय ने लिखा, ‘यह पाया गया है कि कॉन्ट्रैक्ट संबंधी स्वीकृति में एनआईसी द्वारा काफी देर की जा रही है.’

मंत्रालय ने एफएलए की इस बात को स्वीकार किया कि एनआईसी एक मध्यस्थ है और डेटा का स्वामित्व परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय के पास है.

Fast Lane Bulk Data File Noting

हालांकि किन्हीं वजहों से मंत्रालय ने इस प्रस्ताव को साइन करने से पहले अपनी फाइनेंस विंग ‘इंटीग्रेटेड फाइनेंस डिवीज़न (आईएफडी) को फॉरवर्ड नहीं किया.

डेटा सप्लाई शुरू हो जाने के महीनों बाद जब ऐसा किया गया तब इसे लेकर कई चेतावनियां दी गईं, जिन पर लंबे समय तक कोई ध्यान नहीं दिया गया. अधिकारियों ने प्राइस डिस्कवरी के अभाव को लेकर चेताया था और एक संयुक्त सचिव ने फाइल में लिखा भी था कि बल्क डेटा शेयरिंग का एक अन्य आवेदन भी है, लेकिन उन्होंने पहले कीमत तय करने की उचित प्रक्रिया बनाने की बात कही थी.

19 सितंबर को, एफएलए के साथ अनुबंध करने के तीन दिन बाद, मंत्रालय ने एनआईसी को कॉन्ट्रैक्ट पर दस्तखत कर डेटा की सप्लाई देने को कहा क्योंकि उनके (कंपनी) द्वारा भारतीय स्टेट बैंक में पैसा जमा करवाया जा चुका था.

‘प्राइस डिस्कवरी’

वे अधिकारी, जिन्होंने इस कॉन्ट्रैक्ट को पढ़ा, यह देखकर उलझन में पड़ गए कि मंत्रालय ने शुल्क के रूप में एक करोड़ रुपये का आंकड़ा किस तरह तय किया. फाइल नोटिंग्स में यह सवाल लगातार नजर आता है.

दस्तावेज बताते हैं कि मंत्रालय का अनुबंध यूके के परिवहन विभाग के सैंपल कॉन्ट्रैक्ट पर आधारित था, जिसमें एक साल तक बल्क डेटा साझा करने के लिए 90 हज़ार पाउंड्स (वैट के साथ) का शुल्क तय किया गया था. 96 हज़ार पाउंड्स यानी भारतीय रुपये में एक करोड़.

इस बात का कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया है कि एफएलए की मूल कंपनी द्वारा किए गए ब्रिटिश कॉन्ट्रैक्ट को भारतीय सरकार द्वारा ‘कॉपी-पेस्ट’ रवैये के साथ क्यों अपनाया गया जबकि यूके का ऑटो सेक्टर और वाहनों की संख्या भारत की अपेक्षा कई गुना (155 मिलियन यानी 15 करोड़ पचास लाख) कम है.

चलिए, थोड़ी-सी गणित इस्तेमाल करते हैं. साल 2014 में भारत में 19, 10,00, 000 (उन्नीस करोड़ दस लाख) रजिस्टर्ड वाहन थे और मंत्रालय के पास केवल 2011 से 2014 के बीच पंजीकृत हुए 4,90,00,000 (चार करोड़ नब्बे लाख) वाहनों की ही डिजिटल जानकारी मौजूद थी. यानी चार करोड़ नब्बे लाख वाहनों की सूचना एक करोड़ रुपये में बेची गई यानी एक वाहन की जानकारी 20 पैसे में बिकी. अगर सरकार ने उस समय सभी वाहनों की जानकारी को डिजिटलीकृत कर लिया होता तो बिक्री की यह कीमत पांच पैसे प्रति वाहन होती. यदि इसमें लाइसेंस डिटेल्स भी जोड़ दें, तो यह और कम हो जाती.

अनुबंध हुए एक साल हो चुका था और तब आईएफडी से पहली बार मशविरा किया गया- वो भी एफएलए को ‘ग्रेस पीरियड’ की अनुमति देने के लिए. आईएफडी ने अपनी नाखुशी का संकेत इस नोट में दिया:

‘यह माना जाता है कि चूंकि नीति पहले ही तैयार की गई है, इसलिए निजता के अधिकार और डेटा के दुरुपयोग जैसे मुद्दों और बाजार में डेटा साझा करने के लिए टेंडर निकालने की संभावना पर विचार किया गया होगा और सक्षम प्राधिकारी द्वारा अनुमोदित किया गया होगा.’

Fast Lane issue raised by MoRTH IFD

23 मार्च 2016 को परिवहन विंग के संयुक्त सचिव अभय दामले ने लिखा, ‘आईएफडी की राय लिए बिना एक करोड़ रुपये का दाम तय किया गया. आगे यह कॉन्ट्रैक्ट सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय को इस शुल्क को उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के हिसाब से ही बढ़ाने की अनुमति देता है. इसलिए यह लगता है कि प्राइस डिस्कवरी को लेकर काम नहीं किया गया. सरकार को होने वाले लाभ के मद्देनजर देखें तो वाहन/सारथी डेटा से मंत्रालय द्वारा कोई पर्याप्त लाभ अर्जित नहीं किया गया है. ग्राहक द्वारा मंत्रालय के साथ कोई रिपोर्ट साझा नहीं की गई है.’

दामले मंत्रालय की डेटा साझा करने की प्रक्रिया को ‘फाइनल’ करने की मांग का जवाब दे रहे थे. उन्होंने आगे जोड़ा, ‘कॉन्ट्रैक्ट को संतुलित बनाए जाने के लिए दोबारा ड्राफ्ट किए जाने की जरूरत है क्योंकि वर्तमान मसौदा ग्राहक के बहुत अधिक पक्ष में है.’

अधिकारी ने यह भी कहा, ‘बल्क डेटा साझा करने संबंधी एक अन्य आवेदन भी प्राप्त हुआ है. लेकिन इस बारे में आगे बढ़ने के लिए हमें पहले तो प्राइस डिस्कवरी को लेकर आईएफडी की सलाह लेनी होगी.’ वाहन डेटाबेस की एक्सेस के लिए कई फर्म्स ने मंत्रालय को लिखा था.

Fast Lane Bulk Data File Noting 2

पर प्राइस डिस्कवरी कोई अकेला मसला नहीं था.

कोडली कहते हैं, ‘अगर आप आरटीआई द्वारा प्राप्त वाहनों के डिजिटल किए गए रिकॉर्ड्स देखते हैं तो पाते हैं कि केंद्र द्वारा निजी कंपनियों के साथ डेटा साझा करने से पहले राज्यों से पूछा तक नहीं गया है. परिवहन राज्यों का विषय है. मंत्रालय के पास जो डेटा है वो विभिन्न राज्यों के आरटीओ से इकठ्ठा किया गया था लेकिन इस योजना के लिए किसी राज्य से अनुमति नहीं ली गई. राज्य अपना डेटा नियमों के अनुसार साझा करते हैं.’

तेदेपा सांसद केसिनानी श्रीनिवास द्वारा संसद में यह पूछे जाने पर कि क्या वाहन और सारथी डेटाबेस को साझा करने से अर्जित हुए फंड को राज्यों के साथ बांटा जाएगा, केंद्रीय परिवहन और राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी ने सदन में कहा, ‘नहीं, इसे राज्यों के साथ नहीं बांटा गया है.’

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ग्रेस पीरियड (अतिरिक्त अवधि)

अगर इस अनुबंध में कीमत सेर थी, तो ग्रेस पीरियड सवा सेर था. इसके तहत एक विशेष अवधि के लिए फर्म को मुफ्त में डेटा एक्सेस करने की सहूलियत मिली थी.

दस्तावेज दिखाते हैं कि मंत्रालय के विभिन्न अधिकारियों और एनआईसी ने कंपनी को ग्रेस पीरियड दिए जाने को लेकर चिंता जाहिर की थी. कंपनी द्वारा यह दावा करते हुए इसकी मांग की गई थी कि यह 28 राज्यों में से एक- आंध्र प्रदेश, का डेटा न मौजूद होने के कारण वह इस डेटा के व्यावसायिक उपयोग का लाभ उठाने में सक्षम नहीं हुई.

इस बारे में जवाब देते हुए सरन्ना ने कहा, ‘एफएलए के साथ कभी उस तरह तरफदारी भरा रवैया नहीं अपनाया गया जैसा आपके द्वारा दावा किया गया है.’

उन्होंने आगे कहा, ‘अनुबंध के संबंध में मंत्रालय द्वारा हुए कुछ नॉन-परफॉरमेंस और देरी को लेकर एफएलए द्वारा दी गई छूट के एवज में यह अवधि दी गई थी. कंपनी और मंत्रालय के बीच हुए पत्राचार में यह बात उचित तरीके से दर्ज है.’

द वायर  द्वारा आरटीआई के जरिये प्राप्त सरकारी दस्तावेजों के साथ मिले इस पत्राचार का अध्ययन किया गया है. पत्राचार दिखाता है कि कंपनी द्वारा मंत्रालय से एक साल की अवधि की शुरुआत 16 सितंबर 2014 की बजाय 1 मई 2015 से आग्रह किया गया था, यानी कि इसी अनुबंध में सात महीने के अतिरिक्त समय के लिए मुफ्त बल्क डेटा की सप्लाई.

मंत्रालय में मौजूद एनआईसी अधिकारियों द्वारा यह अतिरिक्त समय देने को लेकर ऐतराज जताया गया था क्योंकि डेटा सप्लाई आंध्र प्रदेश के बंटने के चलते प्रभावित हुई थी, जिसे एक ‘अप्रत्याशित परिस्थिति’ बताया गया था. लेकिन एफएलए जिद पर अड़ा रहा और मंत्रालय ने एनआईसी कर्मचारियों की बात को नजरअंदाज कर दी.

सितंबर महीने में ही संयुक्त सचिव (परिवहन) ने लिखा, ‘चूंकि यह अपनी तरह का पहला अनुबंध है और मंत्रालय से किसी अन्य कंपनी द्वारा बल्क डेटा के संबंध में संपर्क भी नहीं किया गया है, हम आपका निवेदन स्वीकार कर सकते हैं.’

तब पहली बार इस फाइल को ग्रेस पीरियड संबंधी तरीके को अंतिम स्वरूप देने के लिए आईएफडी के पास भेजा गया. इस समय तक मंत्रालय के भीतर इस सौदे को लेकर आवाज उठने लगी थी.

12 अक्टूबर 2015 मंत्रालय की फाइल नोटिंग में फाइनेंस विभाग के संयुक्त सचिव और वित्तीय सलाहकार ने यह सवाल उठाया कि ‘बल्क डेटा शेयरिंग के लिए इस विशेष कंपनी के चयन और एक करोड़ रुपये शुल्क तय करने का आधार क्या है.’

अधिकारी ने लिखा, ‘ग्रेस पीरियड की अनुमति देना डेटा के प्रारूप पर निर्भर करता है लेकिन अनुबंध में इसका कोई उल्लेख नहीं है.’

Fast Lane Bulk Data File Noting 5

2 नवंबर 2015 को मोटर व्हीकल लेजिस्लेशन (एमवीएल) की उपसचिव आइरिन चेरियन ने कहा, ‘चूंकि एनआईसी का कहना है कि उन्हें पहले दिन से डेटा सप्लाई सुनिश्चित की थी और रुकावट अप्रत्याशित परिस्थितियों के चलते आई, इसलिए एफएलए को ग्रेस पीरियड की अनुमति नहीं दी जा सकती.’

इसी दिन संयुक्त सचिव नीरज वर्मा ने लिखा, ‘ग्रेस पीरियड की मांग ख़ारिज की जाती है.’

Fast Lane Bulk Data File Noting Joint Sec

इन आपत्तियों के बावजूद सड़क परिवहन और राजमार्ग सचिव ने फाइल पर लिखा, ‘महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या हमने अनुबंध के तहत किया गया अपना वादा पूरा किया, यदि हां तो किस डेटा के जरिये.’

इसके कुछ दिन बाद मंत्रालय द्वारा कंपनी को उस अनुबंध, जो 18 सितंबर 2015 को खत्म हो गया था, के लिए 30 नवंबर 2015 तक का ग्रेस पीरियड स्वीकृत किया गया.

एनआईसी की चिंताओं के बाद बंद हुई डेटा सप्लाई

एनआईसी की इस राय कि निजता और सुरक्षा चिंताओं के मद्देनजर बल्क डेटा साझा नहीं किया जाना चाहिए, फरवरी 2016 में मंत्रालय द्वारा फास्ट लेन को हो रही डेटा सप्लाई को रोक दिया गया.

कंपनी के सीईओ निर्मल सिंह सरन्ना द्वारा ने तब डेटा वापस साझा करने के निवेदन को लेकर मंत्रालय को कई पत्र लिखे. उनका कहना था कि मंत्रालय द्वारा डेटा रोक देने से कंपनी को नुकसान उठाना पड़ रहा है.

द वायर  को किए ईमेल में उन्होंने बताया, ‘दस साल की कड़ी मेहनत और जीवन भर की पूंजी लगाने के बाद हम ऐसी स्थिति में थे जहां हमारे पास अपने बिजनेस का आधार- राष्ट्रीय पंजी का अनाम वाहन डेटा ही नहीं था जबकि हमारे पास सितंबर 2014 में सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय को एक करोड़ रुपये का सालाना शुल्क देकर किया हुआ अनुबंध भी था. वो अनुबंध जो सितंबर 2014 में शुरू हुआ था, फरवरी 2016 में मंत्रालय द्वारा बिना किसी स्पष्टीकरण या नोटिस के खत्म कर दिया गया और उसके बाद से उन्होंने हमें कोई डेटा जारी नहीं किया.’

2018 में काफी समय तक मंत्रालय द्वारा वाहन पंजीकरण डेटा को सार्वजनिक करने पर विचार किया गया. अक्टूबर महीने में इस नीतिगत प्रस्ताव को नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत द्वारा सरकार के पास मौजूद सारे डेटा पर लागू करने के बारे में सोचने की बात कही गई.

यह साल 2018 था- फास्ट लेन के साथ हुए क़रार के चार साल बाद मंत्रालय इस बारे में जानकारी फैलाना शुरू किया और अन्य खरीददारों को आमंत्रित किया गया.

एक अधिकारी द्वारा जारी नोट में  कहा गया, ‘यदि कोई निजी कंपनी या संस्थान अनाम थोक डेटा लेना चाहता है तो उन्हें भी यह उसी दाम और शर्तों पर दिया जाएगा जैसा M/S फास्ट लेन के मामले में हुआ था. इस बारे में मंत्रालय की वेबसाइट पर नोटिस अपलोड किया जाएगा.’

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जनवरी 2019 में मंत्रालय ने बल्क डेटा शेयरिंग पॉलिसी, जिसे मार्च में लागू किया जाना था, को अंतिम स्वरूप देने के लिए बैठकें कीं. 18 मार्च को एफएलए ने दोबारा बल्क डेटा सप्लाई के लिए आवेदन किया. इस बार कीमत तीन करोड़ रुपये सालाना थी.

30 जुलाई 2019 को फाइनेंस विंग द्वारा मंत्रालय से कीमत को लेकर फिर सवाल किए गए. इसने मंत्रालय से यह भी पूछा कि क्या उसने पॉलिसी को अंतिम स्वरूप देने से पहले उसकी रजामंदी ली थी. मंत्रालय ने जवाब दिया:

‘एक उपसमिति ने विस्तार से काम किया और बल्क डेटा शेयरिंग के लिए पॉलिसी का प्रस्ताव रखा है. विस्तृत चर्चा के बाद इसे अतिरिक्त सचिव और वित्तीय सलाहकार की सहमति के लिए भेजा गया और बाद में इसे माननीय सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्री द्वारा स्वीकृत किया गया.’

इसके करीब एक साल के बाद 4 जून 2020 को मंत्रालय द्वारा बल्क डेटा शेयरिंग पॉलिसी पर काम करना बंद कर दिया गया. नीति को रद्द करने का आधिकारिक कारण ‘डेटा प्राइवेसी संबंधी चिंताओं ‘को बताया गया.

सरन्ना का यही कहना है कि सरकार ने उनकी कंपनी पर कोई एहसान नहीं किया है. और सरकार खामोश बनी हुई है.

(लेखक रिपोर्टर्स कलेक्टिव के सदस्य हैं.)