छत्तीसगढ़: क्या नक्सलवाद से जुड़ी सरकारी योजनाएं एक छलावा बनकर रह गई हैं

विशेष रिपोर्ट: साल 2004 में छत्तीसगढ़ की तत्कालीन रमन सिंह सरकार ने 'नक्सल पीड़ित पुनर्वास योजना’ शुरू करते हुए नक्सल पीड़ित व्यक्तियों/परिवारों व आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों को समाज की मुख्यधारा से जोड़ने और पुनर्वास की बात कही थी. योजना के पात्र व्यक्तियों का कहना है कि इसकी ज़मीनी हक़ीक़त कागज़ों पर हुए वादों से बिल्कुल अलग है.

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परिवार के साथ गौतरिया, उन्हें लगी गोलियों के निशान दिखाते हुए. (फोटो स्पेशल अरेंजमेंट)

विशेष रिपोर्ट: साल 2004 में छत्तीसगढ़ की तत्कालीन रमन सिंह सरकार ने ‘नक्सल पीड़ित पुनर्वास योजना’ शुरू करते हुए नक्सल पीड़ित व्यक्तियों/परिवारों व आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों को समाज की मुख्यधारा से जोड़ने और पुनर्वास की बात कही थी. योजना के पात्र व्यक्तियों का कहना है कि इसकी ज़मीनी हक़ीक़त कागज़ों पर हुए वादों से बिल्कुल अलग है.

परिवार के साथ गौतरिया, उन्हें लगी गोलियों के निशान दिखाते हुए.
परिवार के साथ गौतरिया, उन्हें लगी गोलियों के निशान दिखाते हुए.

गौतरिया राम विश्वकर्मा छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित कांकेर जिले के सिलपट गांव में स्वास्थ्य विभाग के अधीन बतौर मलेरियाकर्मी तैनात थे.

22 सितंबर 2009 की रात दो बंदूकधारी नक्सली उनके घर आए और अपने बीमार साथी का इलाज कराने के बहाने उन्हें जंगल में अपने साथियों के पास ले गए.

आगे गौतरिया के साथ जो हुआ, उसकी उन्होंने कल्पना तक नहीं की थी. उनकी आंखों पर पट्टी बांधकर जंगल में घंटे-दो घंटे घुमाने के बाद नक्सलियों ने एक के बाद एक तीन गोलियां उनके शरीर में उतार दीं.

गौतरिया को मरा समझकर नक्सली उन्हें जंगल में ही छोड़कर भाग गए, लेकिन किस्मत से गौतरिया की सांसें चल रही थीं. उस हमले में गौतरिया जिंदा तो बच गए लेकिन नक्सलियों के डर से वे अपना घर, जमीन, खेती-बाड़ी सब छोड़कर अपने गांव से दूर भानुप्रतापपुर में आ बसे.

एक कहानी मनोहर की भी है. छत्तीसगढ़ के ही कोंडागांव जिले के 38 वर्षीय मनोहर 1992 में जब महज 8-9 साल के थे, तभी एक नक्सलवादी संगठन से जुड़ गए थे.

अगले 22 सालों तक उन्होंने नक्सलियों के साथ काम किया, लेकिन 2014 में उनका नक्सलवाद से मोह भंग हो गया और सरकार की आत्मसमर्पण नीति के तहत पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर दिया. नक्सलियों के डर से मनोहर भी अपना गांव छोड़कर अन्य क्षेत्र में जा बसे.

ये दोनों ही कहानी एक-दूसरे से जुदा होने के बावजूद भी आपस में कुछ समानताएं रखती हैं. जैसे कि दोनों ही कहानियां उस नक्सलवाद से जुड़ी हैं जिसने छत्तीसगढ़ की धरती को रक्तरंजित कर रखा है.

गौतरिया और मनोहर दोनों ही नक्सलवाद से पीड़ित रहे हैं. दोनों ही राज्य सरकार द्वारा 2004 में बनाई गई ‘नक्सल पीड़ित पुनर्वास योजना’ के तहत लाभार्थी की श्रेणी में आते हैं. पर दोनों ही वर्षों से योजना का लाभ पाने से वंचित हैं.

बता दें कि वर्ष 2004 में डॉ. रमन सिंह के नेतृत्व वाली राज्य की तत्कालीन भाजपा सरकार नक्सल पीड़ित व्यक्तियों, परिवारों तथा आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों को समाज की मुख्यधारा से जोड़ने, उन्हें पर्याप्त सुरक्षा मुहैया कराने एवं उनका पुनर्वास करने के उद्देश्य से एक योजना लेकर आई थी.

इस 29 बिंदुयीय योजना में आत्मसमर्पित नक्सलियों और नक्सल पीड़ितों के पुनर्वास हेतु रोजगार, शासकीय नौकरी, मुआवजा, राहत राशि, अनुग्रह राशि, आवास, कृषि भूमि, बच्चों की शिक्षा-छात्रावास, शैक्षणिक छात्रवृति, स्वरोजगार के लिए ऋण आदि उपलब्ध कराने की भी बात कही गई थी.

साथ ही, सुरक्षा की दृष्टि से अगर कोई नक्सल पीड़ित परिवार अपनी ज़मीन शासन को देकर प्रदेश में कहीं और बसता है तो ज़मीन के बदले ज़मीन भी दी जाने की बात दर्ज है.

इस योजना में 2011 और 2013 में संशोधन करके राहत राशि, मुआवजा राशि में समय-समय पर बढ़ोतरी भी की गई. साथ ही, न्यूनतम दर पर खाद्यान्न उपलब्ध कराने और बस के यात्री किराए में 50 प्रतिशत की छूट के प्रावधान भी जोड़े गए.

राज्य में रहने वाले नक्सल पीड़ितों के अधिकतम दो बच्चों को ग्रेजुएशन तक निशुल्क शिक्षा और छात्रावास उपलब्ध कराने का प्रावधान भी जोड़ा गया. कागज़ों पर तो यह योजना बेहद कल्याणकारी नज़र आती है लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त कुछ और ही बताती है.

गौतरिया जैसे नक्सल पीड़ित या मनोहर जैसे आत्मसमर्पण करने वाले पूर्व नक्सली इस योजना का लाभ लेने के लिए वर्षों से दर-दर की ठोकर खा रहे हैं.

राजनांदगांव जिले के धीरेंद्र साहू भी नक्सल पीड़ित हैं और पिछले डेढ़ दशक से योजना का लाभ पाने के लिए सड़क से लेकर सरकारी कार्यालयों और अदालत तक में उन्होंने अपने हक की लड़ाई लड़ी है. अदालती फैसला भी उनके पक्ष में आया है.

अपने इस संघर्ष के दौरान धीरेंद्र को पता लगा कि उन जैसे हजारों लोग योजना से वंचित हैं तो उन्होंने सबको साथ जोड़ना शुरू किया और नक्सल पीड़ितों का एक अनौपचारिक संगठन खड़ा कर दिया. इसी कड़ी में पिछले दिनों नक्सल पीड़ित और आत्मसमर्पित नक्सलियों ने राजधानी रायपुर में जुटकर दो दिन तक अपनी मांगों के समर्थन में सरकार के खिलाफ धरना भी दिया था.

धीरेंद्र बताते हैं, ‘राज्य में करीब 20 से 30 हजार ऐसे लोग हैं जो नक्सल पीड़ित या आत्मसमर्पित नक्सली हैं लेकिन उन्हें पुनर्वास योजना का लाभ पूरी तरह नहीं मिल रहा है.’

धीरेंद्र की बात करें तो गौतरिया या मनोहर की तरह उनका नक्सलवाद से सीधा सामना तो नहीं हुआ था, लेकिन उनके पिता बबला साहू को 2006 में नक्सलियों ने घर से बाहर खींचकर गांव के मुख्य चौराहे पर खड़ा करके सिर में गोली मार दी थी. उनकी मौके पर ही मौत हो गई थी.

उल्लेखनीय है कि बबला साहू भाजपा नेता थे और उस समय राज्य में भाजपा की ही सरकार थी, जो अगले 12 सालों तक रही. इसके बावजूद भी उनके अनाथ बेटे को अपने पुनर्वास के लिए दर-दर भटकना पड़ा और अंत में अदालत जाना पड़ा.

धीरेंद्र बताते हैं, ‘मेरे पिता मुख्यमंत्री रमन सिंह के करीबियों में गिने जाते थे. जब उनकी मौत हुई तो मेरी उम्र 14-15 साल थी. नक्सलियों की दहशत के कारण परिवार को गांव छोड़ना पड़ा. उस समय योजना के तहत एक लाख रुपये मुआवजा मिला और मेरे लिए एक अस्थायी नौकरी.’

धीरेंद्र के मुताबिक, इसके अलावा जो अन्य लाभ थे, वो उन्हें नहीं मिले. 2008 में कलेक्टर ने योजना के तहत उनके लिए आवास का आवंटन किया था लेकिन आज 13 सालों बाद भी उन्हें आवास नहीं मिल सका है.

वे बताते हैं, ‘2008 में तत्कालीन कलेक्टर ने आवास का आवंटन किया लेकिन उसके बाद आए कलेक्टर उस आदेश को ही फर्जी बताकर कहने लगे कि नक्सल पीड़ितों को आवास देने का कोई प्रावधान नहीं है. दस साल सरकार और सरकारी कार्यालयों के धक्के खाने के बाद मैंने अदालत का रुख किया और अदालत ने मेरे पक्ष में फैसला देते हुए आवास आवंटित करने का आदेश दिया.’

धीरेंद्र को जल्द ही मकान का आवंटन होने वाला है. वे सवाल उठाते हैं, ‘कलेक्टर की मानें तो योजना के तहत मकान दिए जाने का नियम ही नहीं था. जब नियम नहीं था, तो अब मुझे क्यों मकान दिया जा रहा है? यानी कि योजना को लागू करने में कहीं गड़बड़ तो है. हमें इसी गड़बड़ के खिलाफ लड़ना है.’

धीरेंद्र ने जब से होश संभाला है, वे बस अपने पुनर्वास के लिए लड़ रहे हैं. यहां सवाल उठता है कि जब मुख्यमंत्री के करीबी रहे नेता का नक्सल पीड़ित परिवार ही पुनर्वास योजना के लाभ से वंचित हो तो आम नक्सल पीड़ितों को योजना का कितना लाभ मिलता होगा?

द वायर  ने पुनर्वास योजना का लाभ मिलने के संबंध में अनेक नक्सल पीड़ितों और आत्मसमर्पित नक्सलियों से बात की, तो पता लगा कि सभी को योजना का आंशिक लाभ ही मिला है.

किसी को मुआवजा मिला है तो नौकरी नहीं मिली. जिसे नौकरी मिली है तो वह योजना में दर्ज प्रावधानों के तहत उसकी योग्यता के मुताबिक नहीं मिली.

किसी-किसी को तो कलेक्टर दर पर अस्थायी नौकरी पर रखा है जबकि योजना के तहत उनकी शैक्षणिक योग्यता शासकीय नौकरी पाने लायक है. जिन्हें अस्थायी नौकरी पर रखा है, उन्हें भी कुछ समय बाद निकाल बाहर कर दिया जिसके चलते वे मजदूरी करके पेट पाल रहे हैं. उनके बच्चों की पढ़ाई बीच में छूट गई है.

हालांकि, पढ़ाई के लिए भी योजना में शैक्षणिक छात्रवृति और छात्रावास का जिक्र है लेकिन जिससे भी हमने बात की उसे इनका लाभ नहीं मिला है. नतीजतन, शिक्षा जो मुख्यधारा से जोड़ने की एक अहम कड़ी है, नक्सल पीड़ितों और आत्मसमर्पित नक्सलियों के बच्चे उससे महरूम हैं. पीड़ितों के राशन कार्ड तक नहीं बने हैं जिससे सस्ते राशन का भी लाभ उन्हें नहीं मिल रहा है.

बीते दिनों नक्सल पीड़ित और आत्मसमर्पित नक्सलियों ने रायपुर में दो दिन तक अपनी मांगों के समर्थन में सरकार के खिलाफ धरना दिया था. (फोटो स्पेशल अरेंजमेंट)
बीते दिनों नक्सल पीड़ित और आत्मसमर्पित नक्सलियों ने रायपुर में दो दिन तक अपनी मांगों के समर्थन में सरकार के खिलाफ धरना दिया था.

नक्सली हमले के बाद गांव, घर-जमीन छोड़ दर-दर भटक रहे हैं पीड़ित

इस संबंध में कांकेर जिला की स्नेहलता की कहानी बेहद कष्टदायक रही. उनके पिता की 2004 में नक्सलियों ने हत्या कर दी थी, पिता के गम में कुछ दिनों बाद मां ने भी दम तोड़ दिया.

इसके कुछ समय बाद नक्सलियों ने उनके भाई को मार दिया जो पुलिस विभाग के गोपनीय सैनिक थे. पिता-भाई की मौत पर उन्हें एक-एक लाख रुपये का मुआवजा मिला. घटना के बाद स्नेहलता अपना गांव, घर और जमीन छोड़कर भानुप्रतापपुर आ बसीं.

स्नेहलता तब 23 साल की थीं, जब अचानक ही सिर से माता-पिता व भाई का साया उठ गया, जिस घर में बचपन बीता, वही छूट गया, और किसी नई जगह अपनों के बिना अकेले ही नया जीवन शुरू करना पड़ा. इस दौरान उनके द्वारा महसूस की गई मानसिक वेदना की बस कल्पना की जा सकती है.

अनाथ स्नेहलता को तब अकेले ही अपने जीवन को पटरी पर लाना था. योजना के मुताबिक होना तो यह चाहिए था कि सरकार उनके पुनर्वास में मदद करती, लेकिन स्नेहलता के साथ हुआ यह कि उन्हें अगले पांच सालों तक पुनर्वास नीति के तहत नौकरी पाने के लिए संघर्ष करना पड़ा.

2009 में शासन से उन्हें दैनिक भत्ते पर चपरासी की नौकरी मिली जो कि 2015 में जाकर स्थायी हुई, लेकिन अपने हक के लिए स्नेहलता का संघर्ष आज भी जारी है.

स्नेहलता बताती हैं, ‘मैंने पढ़ाई में हिंदी और संस्कृत में डबल एमए किया है लेकिन नौकरी मुझे चपरासी की दी है जबकि योजना में प्रावधान है कि मेरी शैक्षणिक योग्यता के हिसाब से मुझे बड़े पद पर नियुक्ति मिल सकती है. कई बार पुलिस विभाग, एसपी, कलेक्टर को आवेदन दे चुकी हूं लेकिन कुछ नहीं हो रहा है.’

वहीं, जिन गौतरिया विश्वकर्मा का शुरुआत में जिक्र किया, वे बताते हैं, ‘उस घटना के बाद मैंने गांव छोड़ दिया था क्योंकि गांव जाता तो नक्सली फिर मारते. अपना घर-ज़मीन, नौकरी सब छोड़कर यहां (भानुप्रतापपुर) 11 सालों से दर-दर भटक रहे हैं. जिस दिन मजदूरी मिल जाती है तो कर लेते हैं. पेट के लिए कुछ तो करना पड़ेगा. खेत-खलिहान छोड़कर आए हैं, लेकिन पुनर्वास के नाम पर अब तक केवल 10,000 रुपये मिले हैं. इसके अलावा अन्य कोई सहायता नहीं मिली है.’

अपनी व्यथा सुनाते हुए वे कहते हैं, ‘मैंने स्वास्थ्य विभाग में 15 वर्ष मलेरिया वर्कर के तौर पर काम किया था, लेकिन उस घटना ने सब छीन लिया. भानुप्रतापपुर आया तो पुलिस ने तीन-चार साल मुखबिर बनाकर काम कराया. वेतन देते नहीं थे. उनका कहना था कि कुछ काम करके दिखाओगे तो पक्की नौकरी दे देंगे. इस लालच में हम करते गए. बहुत काम करके दिया. एक आत्मसमर्पण कराया, बंदूक पकड़वाई लेकिन न तो मुझे गोपनीय सैनिक में रखा, न एसडीओ और नगर सैनिक में. कुछ नहीं हुआ मेरा सर….’

ऐसा कहते हुए गौतरिया की आवाज भारी हो जाती है और आंखों में आंसू आ जाते हैं. थोड़ा ठहरकर, खुद को संभालते हुए वे रुंधे हुए गले से आगे कहते हैं, ‘47 साल उम्र हो गई है. तीन गोलियां लगी हैं. अब परिवार पालना मुश्किल हो रहा है. शासन से 2009 से नौकरी मांग रहा हूं. अगर मुझे नहीं तो मेरे बच्चे को ही नौकरी दे दो.’

घास-फूस की छप्परनुमा झोपड़ी में रहने वाले गौतरिया के दो किशोर लड़के हैं. दोनों फिलहाल सरकारी स्कूल में पढ़ रहे हैं लेकिन पुनर्वास योजना में वर्णित प्रावधानों के तहत उन्हें शैक्षणिक छात्रवृति या किसी भी प्रकार की कोई सरकारी सहायता नहीं मिलती है. इसलिए वे आगे भी पढ़ पाएंगे, इस पर संशय है.

मनोहर. (फोटो स्पेशल अरेंजमेंट)
मनोहर.

‘इस तरह तो कोई भी नक्सली आत्मसमर्पण नहीं करेगा’

दूसरी ओर, आत्मसमर्पण करने वाले एक पूर्व नक्सली मनोहर को भी पुनर्वास के नाम पर अब तक केवल 5,000 रुपये ही मिले हैं. इसके अलावा कुछ भी नहीं. पेट पालने के लिए वे भी मजदूरी करते हैं. उनके तीन बच्चे हैं जो स्कूल में पढ़ रहे हैं लेकिन उन्हें भी योजना के तहत छात्रवृत्ति का लाभ नहीं मिल रहा है.

मनोहर बताते हैं, ‘जब मैंने आत्मसमर्पण किया, तब मेरे ऊपर 50-60 हजार रुपये का इनाम था. मैंने दो नक्सलियों का भी आत्मसमर्पण कराया. आत्मसमर्पण के समय खूब वादे किए गए थे. घर मिलेगा. जमीन मिलेगी. नौकरी मिलेगी. पैसा मिलेगा. लेकिन, मिला सिर्फ पांच हजार. नौकरी के लिए थाने से लेकर एसपी तक आवेदन दे-देकर थक गया हूं. टीआई साहब बोले तो एक जमीन पर झोपड़ी डालकर रह रहा हूं.’

अगर योजना के प्रावधानों पर नज़र डालें तो मनोहर उनके ऊपर घोषित इनाम की राशि, रोजगार, आवास, कृषि भूमि, बच्चों की शैक्षणिक छात्रवृत्ति पाने के हकदार हैं.

कोंडागांव जिले में रजनु ने भी 2009 में अपने एक साथी के साथ आत्मसमर्पण किया था. 30 वर्षीय रजनु बताते हैं कि उनके ऊपर तब एक-डेढ़ लाख रुपये का इनाम था, लेकिन आत्मसमर्पण करते समय उन्हें एक रुपया भी नहीं मिला. बाद में जब वे पुलिस अधिकारियों के पास गए तो उन्हें कहा गया, ‘जो मिलना था, मिल गया. अब कुछ नहीं मिलेगा.’

रजनु बताते हैं, ‘आत्मसमर्पण कराते वक्त उन्होंने कहा था कि आपके लिए योजना बनी है. आपको ज़मीन मिलेगी. सरकारी नौकरी मिलेगी. यह सुनकर ही तो आत्मसमर्पण किया था लेकिन ज़मीन तो मिली नहीं, उल्टा गांव छोड़कर दूसरे गांव में रह रहे हैं क्योंकि समर्पण करने के बाद अपने गांव जाने पर नक्सली मार देंगे. इसलिए अब मजदूरी कर रहे हैं.’

रजनु के मुताबिक आत्मसमर्पण के बाद पुलिस ने नौकरी का लालच देकर उनसे भी मुखबिरी कराई थी. उन्होंने हथियार भी पकड़वाए थे, लेकिन उन्हें कुछ हासिल नहीं हुआ. यहां तक कि उनके बच्चों की पढ़ाई के लिए भी कोई सरकारी मदद नहीं मिल रही है.

रजनु के मुताबिक, ‘कोंडागांव जिले में दो नक्सली दल हुआ करते थे. दोनों दलों के सभी सदस्यों ने आत्मसमर्पण कर दिया था. एक-दो को छोड़ दें तो किसी को योजना के तहत कोई लाभ नहीं मिला. अगर लाभ मिलता तो राज्य में और भी नक्सली आत्मसमर्पण कर सकते हैं लेकिन इस तरह तो कोई नहीं करेगा.’

परिवार के साथ रजनु. (फोटो स्पेशल अरेंजमेंट)
परिवार के साथ रजनु.

क्या पीड़ितों को मुख्यधारा में जोड़ने के नाम पर उनके हाथों में हथियार थमाए जा रहे हैं?

गौरतलब है कि पुनर्वास योजनांतर्गत नक्सल पीड़ित या आत्मसमर्पित नक्सलियों को पुनर्वास हेतु अपना आवेदन जिला पुलिस अधीक्षक (एसपी) को देना होता है. एसपी उसका परीक्षण करके कलेक्टर को भेजता है. फिर कलेक्टर एसपी से जानकारी प्राप्त करके पुनर्वास की कार्रवाई प्रारंभ करते हैं.

इसकी समय सीमा अधिकतम 90 दिन है, लेकिन ज़मीनी हकीकत यह है कि दशकों तक पुनर्वास की कार्रवाई अटकी रहती है. पीड़ित और आत्मसमर्पित नक्सली अपने आवेदन स्थानीय थाने के माध्यम से एसपी तक पहुंचाते हैं. इसी दौरान इन लोगों को पुलिस अधिकारियों द्वारा नक्सल विरोधी अभियान से जोड़कर अपने काम निकलवाए जाते हैं.

गौतरिया हों, रजनु हों या फिर अजयवती, सभी से पुलिस ने पुनर्वास के नाम पर नौकरी का लालच देकर गोपनीय सैनिक या मुखबिर के तौर पर काम करवाया लेकिन न तो उन्हें नौकरी मिली और न पुनर्वास हुआ.

अजयवती (32) का भी अनुभव ऐसा ही रहा. कोंडागांव के लखापुरी गांव में एक आंगनबाड़ी शिक्षिका थीं. वर्ष 2013 की घटना है जब नक्सली उन्हें उनके घर से उठा ले गए. उन्होंने दस दिन अजयवती को अपने साथ रखकर घोर यातनाएं दीं, जिन्हें याद करते ही अजयवती सहम जाती हैं.

वे बताती हैं, ‘उन्होंने इस दौरान मुझे इतना पीटा कि मेरे शरीर पर कोई ऐसी जगह नहीं बची थी जहां चोट के निशान न हों. एक दिन जब मैं होश खो बैठी तो मुझे मरा समझकर जंगल में फेंक गए.’

इस तरह अजयवती की जिंदगी तो बच गई लेकिन जीवन की चुनौतियां बढ़ गईं. जब नक्सलियों को उनके जीवित होने की भनक लगी तो उन्होंने फरमान जारी किया कि अजयवती अगले तीन सालों तक घर के बाहर कदम नहीं रखेंगी. अजयवती की हालत गंभीर थी. उन्हें तत्काल इलाज की जरूरत थी, जो घर के अंदर संभव नहीं था. बाहर जाने पर नक्सलियों की नाफरमानी होती और वे फिर हमला कर देते.

तब कुछ गांव वालों की मदद से अजयवती और उनका परिवार अपना गांव, घर-ज़मीन और नौकरी छोड़कर कहीं दूर जा बसे. वहां तीन महीने अजयवती अस्पताल में भर्ती रहीं.

इसी दौरान उन्हें अपने परिवार सहित गांव, घर-ज़मीन और नौकरी छोड़ने पड़े. तीन महीने वे अस्पताल में रहीं. नक्सलियों ने उन्हें पुलिस के सामने जुबां खोलने पर जान से मारने की धमकी भरा संदेश भेजा तो दूसरी तरफ पुलिस ने उन पर दबाव बनाया कि वे नक्सलियों के बीच बिताए समय की जानकारी दें.

अजयवती मानो दो पाटों के बीच पिस रही थीं. उस दौर को याद करते हुए वे बताती हैं, ‘पुलिस ने मुझे समझाया कि मैं गांव गई तो नक्सली मार देंगे. इसलिए मुझे गोपनीय सैनिक बनने का प्रस्ताव दिया. मैं नक्सलियों के बीच रही थी इसलिए उनके काम आ सकती थी. उन्होंने मुझसे बहुत काम भी लिया. नौकरी छिन गई थी. मैं सबसे बड़ी थी. अपनी मां और पांच छोटे भाई-बहनों को पालने की जिम्मेदारी थी. इसलिए पुलिस का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया.’

सरकार की योजना के दावों के अनुसार आदर्श स्थिति यह होती कि सुनिश्चित किया जाता कि अजयवती फिर से सामान्य जीवन जी सकें. उन्हें वापस मुख्यधारा से जोड़ा जाता. लेकिन, हुआ यह कि एक आम आदिवासी महिला शिक्षिका को अपना हथियार बनाकर नक्सल के खिलाफ लड़ाई में झोंक दिया गया.

इसका नतीजा यह हुआ कि गोपनीय सैनिक बनने के साल भर बाद ही नक्सलियों ने उनके छोटे भाई पर भी जानलेवा हमला कर दिया जिसमें किसी तरह वे जान बचाने में कामयाब हो सके.

इससे भी ज्यादा दुखद यह हुआ कि जिस महिला शिक्षिका को पुलिस ने पुनर्वास के नाम पर दबाव बनाकर नक्सल विरोधी लड़ाई में उतार दिया था, और वह भी अपने परिवार को पालने की खातिर गोपनीय सैनिक बनने को राजी हो गई थी, उसे बाद में दूध से मक्खी की तरह बाहर निकाल कर फेंक दिया गया.

अजयवती बताती हैं, ‘मुझे 12,000 के मासिक वेतन पर गोपनीय सैनिक के तौर पर रखा गया. चार साल काम कराने के बाद 2020 में हटा दिया गया.’ उस दिन से अजयवती 190 रुपये की दिहाड़ी पर मजदूरी कर रही हैं.

मजदूरी करती अजयवती. (फोटो स्पेशल अरेंजमेंट)
मजदूरी करती अजयवती.

वे कहती हैं, ‘नियमानुसार मुझे गोपनीय सैनिक के बाद आरक्षक की स्थायी नौकरी पर रखते लेकिन उन्होंने तो नौकरी ही छीन ली. छोटे भाई-बहन स्कूल में हैं. उनकी पढ़ाई बंद हो गई है. छात्रवृत्ति उन्हें मिलती नहीं. उनको कैसे पढ़ाऊं?’

नियमानुसार अजयवती को नौकरी-आवास और जमीन समेत अनेक लाभ मिलने थे लेकिन मिला कुछ नहीं. इसलिए सवाल उठता है कि यह कैसा पुनर्वास है जहां नक्सल हमले की शिकार एक 25 साल की पीड़ित शिक्षिका को नक्सलवाद के खिलाफ लड़ाई में उतार दिया जाता है और बाद में मजदूरी करके पेट पालने के लिए छोड़ दिया जाता है?

सीआरपीएफ और बीएसफ में एडीजी एवं कोबरा बटालियन में आईजी रहे रिटायर्ड पुलिस अधिकारी डॉ. एनसी अस्थाना, जो राजनीतिक-सामाजिक मसलों पर लगातार लिखते रहे हैं, बताते हैं, ‘एक बार जो जंगल से बाहर आ गया उसके पास रियल टाइम कोई जानकारी नहीं होती है और न जानकारी का स्रोत होता है. इसलिए साल-दो साल बाद पुलिस वाले उन्हें काम का न पाकर भगा देते हैं.’

वहीं पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) की छत्तीसगढ़ इकाई की सचिव शालिनी गैरा तो पूरी पुनर्वास योजना पर ही सवाल खड़े करती हैं.

शालिनी कहती हैं, ‘इस पुनर्वास नीति में नक्सल पीड़ित और आत्मसमर्पित नक्सलियों को मिलने वाले जो भी लाभ हैं वो इस बात पर निर्भर करते हैं कि वे लोग नक्सल विरोधी अभियान में पुलिस की कितनी सहायता करते हैं! मुखबिर के तौर पर, गोपनीय सैनिक के तौर पर या किसी भी अन्य रूप में.’

शालिनी आगे कहती हैं, ‘इसका मतलब ये हुआ कि सरकार नहीं चाहती कि पूर्व नक्सली या आदिवासी हथियार छोड़ दें. नक्सली आत्मसमर्पण करके मुख्यधारा में आना चाहते हैं तो उन्हें फिर से एक युद्ध में शामिल कर लिया जाता है. होना तो यह चाहिए कि उन्हें समझाया जाए कि जो नक्सली युद्ध चल रहा है, वह गलत है. आप मुख्यधारा में आकर एक शांतिपूर्ण जिंदगी जिएं. लेकिन, हो यह रहा है कि सरकार उनसे कहती है कि आप इस युद्ध में नक्सलियों को छोड़कर हमारी तरफ से लड़ें. यह तो पुनर्वास नहीं हुआ.’

इस संदर्भ में पुनर्वास नीति के बिंदु क्रमांक 5, 16 व 27 का जिक्र जरूरी हो जाता है.

बिंदु क्रमांक 5 में लिखा है, ‘आत्मसमर्पित नक्सली के पुनर्वास में इस बात का परीक्षण किया जाएगा कि उसके द्वारा नक्सलियों के विरुद्ध कार्रवाई में राज्य को कितना योगदान दिया गया है.’

बिंदु क्रमांक 16 में वर्णित है, ‘यदि आम जनता में से किसी व्यक्ति द्वारा नक्सल विरोधी अभियान में पुलिस को विशेष सहयोग दिया हो या आम जनता की रक्षा व शासकीय/अशासकीय संपत्ति की सुरक्षा के दौरान नक्सलियों से मुकाबला किया हो जिसके चलते उसकी जान को खतरा पैदा हो गया हो, तो उसे पुलिस विभाग के अधीन निम्नतम पदों या होमगार्ड पर योग्यतानुसार नियुक्ति दी जाएगी.’

वहीं, बिंदु क्रमांक 27 में लिखा है, ‘आत्मसमर्पित नक्सली या नक्सल पीड़ित व्यक्ति के खिलाफ यदि पूर्व में आपराधिक प्रकरण पंजीबद्ध हो तो उनके द्वारा नक्सल उन्मूलन में दिए गये योगदान को ध्यान में रखते हुए आपराधिक प्रकरणों को समाप्त करने पर शासन विचार करेगा.’

ये तीनों ही बिंदु आत्मसमर्पित नक्सलियों एवं नक्सल पीड़ितों को नक्सल विरोधी अभियान से जुड़ने को विवश करते हैं ताकि वे अपने ऊपर दर्ज पुलिस प्रकरणों को समाप्त करा सकें एवं पुनर्वास नीति का ज्यादा से ज्यादा लाभ पा सकें.

साथ ही ये नियम आम जनता को भी नक्सल विरोधी लड़ाई में उतारने के लिए पुलिस विभाग में नौकरी का लालच देते हैं और आम आदिवासी को नक्सलियों से लड़ाने की नीति को बढ़ावा देते हैं.

शालिनी कहती हैं, ‘सलवा जुडूम प्रकरण पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट भी ऐसी कोशिशों को खतरनाक ट्रेंड बता चुका है. बावजूद इसके पुनर्वास नीति के तहत वही सब सामने आ रहा है.’

पीयूसीएल के छत्तीसगढ़ इकाई के अध्यक्ष डिग्री प्रसाद चौहान कहते हैं, ‘सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद सलवा जुडूम भले ही कागजों पर नहीं है लेकिन व्यवहारिक अर्थों में उसका नाम बदल-बदलकर वैसा ही प्रताड़नाओं का दौर जारी है. हाल ही में दंतेवाड़ा में ‘लोन वर्राटू (घर वापसी)’ नामक एक कार्यक्रम शुरू हुआ है जो सलवा जुडूम जैसा ही है. जहां पुलिस और राज्य सरकार ने आत्मसमर्पित नक्सलियों को बंदूक थमाकर नक्सल विरोधी लड़ाई में उतार दिया है.’

छत्तीसगढ़ की मानवाधिकार कार्यकर्ता बेला भाटिया भी ‘लोन वर्राटू’ का ही उदाहरण देते हुए पुनर्वास नीति की आलोचना करती हैं.

वे कहती हैं, ‘ये लोग आत्मसमर्पित नक्सली को ही हथियार थमाकर अपने फोर्स में शामिल कर लेते हैं. यह खतरनाक तो है ही, साथ ही यह नक्सलवाद को लेकर सरकार का कपटपूर्ण रवैया दिखाता है. सरकार को तो उन्हें मुख्यधारा में शामिल करना था न. इसके लिए उनका निजी और सामाजिक जीवन अच्छा बनाने में मदद करते, फिर चाहे वह मदद शिक्षा से होती या फिर ट्रेनिंग से. बंदूक थामकर वे मुख्यधारा का हिस्सा थोड़ी न बनेंगे.’

पीड़ितों को पता ही नहीं है कि उनके लिए कोई योजना भी है

नक्सल पीड़ितों के हालात ऐसे हैं कि नक्सलवाद ने उन्हें शारीरिक क्षति तो पहुंचाई ही, मानसिक और आर्थिक रूप से भी तोड़कर रख दिया. नक्सली घटना का शिकार होने से पहले ज्यादातर पीड़ित खुशहाल, संपन्न और सामान्य जीवन जी रहे थे, लेकिन शिकार बनने के बाद उन्हें अपना घर-द्वार, खेती-बाड़ी, नौकरी-धंधा सब छोड़कर कहीं दूर बसना पड़ा और अब दो जून की रोटी का गुजारा करना भी चुनौती है.

वर्षों से पुनर्वास योजना का लाभ मिलने का इंतजार कर रहे नक्सल पीड़ितों और आत्मसमर्पित नक्सलियों के संघर्ष की ढेरों कहानियां हैं.

धीरेंद्र बताते हैं, ‘ज्यादातर लोगों को तो पता ही नहीं है कि उनके पुनर्वास के लिए ऐसी कोई योजना भी मौजूद है. जब हमने जिले-जिले जाकर उन्हें समझाया और योजना के बारे में बताया, तब जाकर वे अपना हक मांगने की स्थिति में आए हैं.’

उनकी बात सही साबित होती दिखती है. अनेकों पीड़ितों से बात करने के बाद निष्कर्ष यही है कि उन्हें पुनर्वास योजना के संबंध में कोई खास जानकारी ही नहीं है और संघर्षों में अपना जीवन काट रहे हैं.

धीरेंद्र बताते हैं कि जब इस मामले को अदालत और मीडिया में उछाला गया तब जाकर कुछ समय पहले सरकार की ओर से पीड़ितों को बस यात्रा का पास, राशन कार्ड और छात्रवृत्ति जैसी छोटी-छोटी सुविधाएं सुचारू रूप से मिलने की घोषणा हुई है.

वे कहते हैं, ‘अदालत ने मुझे आवास तो दिला दिया लेकिन मेरी नौकरी अब भी अस्थायी है जबकि मैं शासकीय नौकरी पाने की हर योग्यता पूरी करता हूं, लेकिन अब यह लड़ाई सिर्फ मेरे हक की नहीं है. अब सभी नक्सल पीड़ितों और आत्मसमर्पित नक्सलियों को योजना का लाभ मिलना चाहिए. अगर सरकार जल्द ही ऐसा नहीं करती तो हम अदालत में रिट पिटीशन डालेंगे.’

गौरतलब है कि सरकारी नाफरमानी के चलते अब पीड़ित लगातार अदालतों का रुख कर रहे हैं. पिछले दिनों कवर्धा जिले की केकती बाई को भी छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में सरकार के खिलाफ जीत मिली और अदालत ने उनके बेटे को सरकारी नौकरी देने का आदेश सुनाया.

वहीं, पीड़ितों की शिकायत है कि पहले मृतक के परिजनों को राज्य सरकार की ओर से पांच लाख और केंद्र सरकार तीन लाख रुपये मुआवजा देती थी लेकिन 2017 में राज्य सरकार ने केंद्र से मिलने वाली राशि को भी राज्य की राशि में समायोजित कर दिया है जिससे कि पीड़ितों को जहां पहले आठ लाख रुपये मिलते थे, अब पांच लाख ही मिल रहे हैं.

पिछले दिनों पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने भी पुर्नवास योजना का मुद्दा उठाते हुए सरकार को घेरा था कि वह नक्सल पीड़ितों और आत्मसमर्पित नक्सलियों की अनदेखी कर रही है.

हालांकि, गौर करने वाली बात यह है कि प्रदेश में कांग्रेस की सरकार तो दो साल पहले आई है लेकिन नक्सल पीड़ितों को पुनर्वास योजना का लाभ भाजपा सरकार के समय से ही नहीं मिल रहा है.

धीरेंद्र. (फोटो स्पेशल अरेंजमेंट)
धीरेंद्र.

इसलिए धीरेंद्र कहते हैं, ‘मेरे पिता तो भाजपा का हिस्सा थे, रमन सिंह के करीबी थे और उनके गृह जिले राजनांदगांव से थे. लेकिन, फिर भी मुझे 12 सालों तक उनकी सरकार ने दर-दर की ठोकरें खिलाईं. प्रधानमंत्री को हजारों पत्र लिखे लेकिन कभी जवाब नहीं आया. नियम तो कहता था कि मेरी पढ़ाई के लिए छात्रवृत्ति सरकार देती, लेकिन छात्रवृत्ति मिली राजीव गांधी फाउंडेशन से.’

वे आगे कहते हैं, ‘2004 से 2018 तक जितनी भी घटनाएं हुईं तब भाजपा की रमन सरकार ही थी. योजना के लाभ से वंचित ज्यादातर लोग उसी समय के हैं. यदि वे सही काम करते तो हम सड़क पर नहीं उतरते. कांग्रेस की नई सरकार से उम्मीद थी लेकिन वह भी भाजपा के नक्शेकदम पर चल रही है. हकीकत यही है कि भाजपा हो या कांग्रेस, दोनों ने ही हमारे हितों की अनदेखी की है.’

धीरेंद्र के यह भी आरोप हैं कि नक्सल पीड़ितों को तो योजना का लाभ नहीं मिल रहा, उनके बजाय पुलिस विभाग अपने चहेतों को नक्सल पीड़ित बताकर लाभ दिला रहा है.

वे सवाल उठाते हुए पूछते हैं, ‘हमसे कहा जाता है कि नक्सल पीड़ितों के लिए शासकीय नौकरी नहीं है. हम नियम दिखाते हैं कि नौकरी का प्रावधान है तो कहते हैं कि विभागों में जगह खाली नहीं है. जबकि पिछले दिनों राजनांदगांव के चार लोगों को नक्सल पीड़ित बताकर पुलिस एवं अन्य विभागों में शासकीय नौकरी दी गई हैं. जब शासकीय नौकरी का प्रावधान नहीं है तो फिर उन चार लोगों को कैसे नौकरी मिली?’

सरकार का पक्ष रखते हुए छत्तीसगढ़ कांग्रेस प्रवक्ता शैलेश नितिन त्रिवेदी रमन सिंह सरकार की पुनर्वास योजना को विफल बताते हुए कहते हैं कि नक्सल पीड़ित राजनीतिक कारणों से भाजपा के इशारे पर इस मुद्दे को हवा दे रहे हैं.

वे कहते हैं, ‘जो लोग आज खुद को नक्सल पीड़ित बताकर पुनर्वास की मांग कर रहे हैं, वे 14 सालों तक क्यों खामोश रहे? मतलब साफ है कि सरकार के खिलाफ यह भाजपा की साजिश है. उनकी बनाई नीति उनकी ही सरकार में लागू नहीं हुई, इसका दायित्व किस पर था? भाजपा पर था न. उसने अपनी नीतियों को लागू करके इन लोगों को फायदा क्यों नहीं पहुंचाया?’

यहां सवाल उठता है कि यदि रमन सरकार ने वादाखिलाफी की तो वर्तमान कांग्रेस सरकार तो पीड़ितों के हितों को ध्यान में रखकर फैसला ले सकती है. वहीं, यदि तत्कालीन भाजपा सरकार की पुनर्वास नीति विफल थी तो क्यों कांग्रेस सरकार स्वयं एक सफल नीति लेकर नहीं आती जो नक्सल पीड़ितों और आत्मसमर्पित नक्सलियों का पुनर्वास करके उन्हें मुख्यधारा से जोड़े?

इस सवाल पर शैलेश हालिया सेना-नक्सली मुठभेड़ के आलोक में कहते हैं, ‘इस समय तो नक्सलवाद के खिलाफ लड़ाई लगभग अपने अंतिम मुहाने यानी हिड़मा के गांव तक पहुंच गई है. अभी वह महत्वपूर्ण है. जहां तक पुनर्वास नीति का विषय है तो पीड़ित सड़कों पर राजनीति करने के बजाय संबंधित अधिकारियों व जनप्रतिनिधियों से बात करें, उनकी मदद की जाएगी. जो वाजिब मांगें होंगी, वे मानी जाएंगी.’

सरकारी रवैये को लेकर शालिनी कहती हैं, ‘जमीनी स्तर पर सरकार बदलने का कोई खास फर्क नहीं दिखता. विपक्ष में रहते हुए कांग्रेस ने नक्सलवाद संबंधी लंबे-चौड़े वादे किए थे. वे उन पर खरे नहीं उतरे. उनके आने से यहां शांति का वातावरण आ गया, ऐसा कहीं नहीं दिखता. ’

नक्सलवाद के खिलाफ लड़ाई वाली बात पर ही धीरेंद्र अंत में एक अहम बात कहते हैं. वे कहते हैं, ‘आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों को जब उनके लिए बनाई गईं योजनाओं का ही लाभ नहीं मिलेगा और वे मीडिया में आकर बताएंगे कि सालों बाद भी हमें कुछ नहीं मिला है, तो बाकी नक्सली क्यों आत्मसमर्पण करेंगे? इतनी-सी बात सरकार समझ नहीं पा रही हैं.’

नक्सलवाद पर रिपोर्टिंग करते रहे छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार आलोक पुतुल इस संबंध में कहते हैं, ‘संसद/विधानसभा में पेश आत्मसमर्पण के आंकड़े बिल्कुल अलग होते हैं. वे जिला एसपी के भेजे हुए होते हैं. फिर उन तमाम लोगों की सूची पुलिस हेडक्वार्टर भेजी जाती है. वहां एक समिति तीन या छह महीने के अंतराल पर एक बार बैठती है जो तय करती है कि किसको नक्सली माना जाए. वहां आत्मसमर्पण के ज्यादातर आवेदन खारिज हो जाते हैं. उन्हें नक्सली नहीं माना जाता इसलिए पुनर्वास योजना का लाभ नहीं मिल पाता. 2014 में ऐसे 85 फीसदी आवेदन खारिज हुए थे.’

यहां प्रश्न उठता है कि जिन लोगों को आत्मसमर्पित नक्सली नहीं माना गया तो वे कौन थे? और जब वे नक्सली नहीं थे तो क्यों स्थानीय पुलिस ने उनका आत्मसमर्पण दिखाया? क्या वे आम आदिवासी थे जिन्हें नक्सली बताकर आत्मसमर्पण कराया गया!

जैसा कि पहले भी लगातार होता आया है कि आम आदिवासी को पुनर्वास योजना के लाभों का लालच देकर पुलिस नक्सली बनाकर आत्मसमर्पण करा लेती है और अपनी रैंक में बढ़ोत्तरी व प्रमोशन जैसे लाभ पा लेती है? यह ट्रेंड तो और भी ज्यादा खतरनाक है.

उल्लेखनीय है कि विपक्ष में रहते हुए 2018 में विधानसभा चुनाव से ऐन पहले द वायर  से बातचीत में भूपेश बघेल ने कहा था, ‘नक्सलवाद को केवल बंदूक के दम पर खत्म नहीं कर सकते. लोगों का विश्वास जीतना होगा. लोग जो चाहते हैं वो काम नहीं करेंगे, तो नक्सलवाद को समाप्त नहीं कर सकते.’

इस संदर्भ में उनका कहना था, ‘यह सामाजिक-आर्थिक समस्या है. लोगों को उनके अधिकारों से वंचित कर रखा है जो कि उन्हें मिलने चाहिए. उनको काम में लगाइए. रमन सिंह पंद्रह साल में उन्हें काम नहीं दे सके क्योंकि उनकी दृष्टि ही गलत है, दृष्टिकोण ही गलत है.’

आज ऐसे लोगों की पैरवी करने वाले विपक्ष के वही नेता स्वयं मुख्यमंत्री हैं और जिन पीड़ितों को लेकर उन्होंने सहानुभूति जताई थी, वे आज भी अपने अधिकारों से वंचित हैं. उनके पास काम नहीं है.

वहीं, ‘लोन वर्राटू’ जैसे अभियान इस बात की पुष्टि करते हैं कि भूपेश सरकार भी बंदूक को ही तरजीह दे रही है. बघेल के ही पुराने शब्दों में सवाल करें तो क्या स्वयं उनकी भी दृष्टि गलत है, दृष्टिकोण गलत है?

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)