पश्चिम बंगाल: प्रायोजित महानायकत्व की उम्र कितनी होती है

पश्चिम बंगाल के चुनाव के नतीजों की कई व्याख्याएं हो सकती हैं, और होनी भी चाहिए. लेकिन हर व्याख्या की शुरुआत यहीं से करनी होगी कि पश्चिम बंगाल के मतदाताओं ने नरेंद्र मोदी की एक नहीं सुनी.

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नरेंद्र मोदी. (फाइल फोटो: पीटीआई)

पश्चिम बंगाल के चुनाव के नतीजों की कई व्याख्याएं हो सकती हैं, और होनी भी चाहिए. लेकिन हर व्याख्या की शुरुआत यहीं से करनी होगी कि पश्चिम बंगाल के मतदाताओं ने नरेंद्र मोदी की एक नहीं सुनी.

नरेंद्र मोदी. (फाइल फोटो: पीटीआई)
नरेंद्र मोदी. (फाइल फोटो: पीटीआई)

चार राज्यों असम, केरल, तमिलनाडु व पश्चिम बंगाल, और केंद्रशासित पुदुचेरी के विधानसभा चुनावों में मतदाताओं से मोटे तौर पर ग्यारह सवालों के जवाबों की अपेक्षा थी:

पहला: देश का जनस्वास्थ्य भीषण आपदाओं से दो चार हो, यहां तक कि अर्थव्यवस्था भी उसके कहर से नहीं बच पा रही हो, तो विभाजनकारी शक्तियों के हाथों दूषित मतदाताओं की चेतना अपने दूषणों से मुक्ति की ओर बढ़ती है या उनके शिकंजे में और कस जाती है?

दूसरा: राज्य सरकारों से असंतुष्ट मतदाता विश्वसनीय नये विकल्पों की अनुपस्थिति में उन पुराने विकल्पों से कैसा सलूक करते हैं, जिनको वे उनकी सत्ता के समय खारिज कर चुके हैं और जिन्हें लेकर उनका मन अभी भी साफ नहीं है? उनकी कसौटी पर कोई दल खरा नहीं उतरता तो क्या वे इस आधार पर फैसला करते हैं कि उनमें किसने उन्हें ज्यादा सताया है और किसने कम?

तीसरा: लोकसभा और विधानसभा चुनावों में अलग-अलग ढंग से प्रदर्शित होने वाला उनका विवेक फिलहाल कितना परिपक्व हो चुका है, खासकर स्थानीय कारकों और राष्ट्रीय कारकों को अलग-अलग पहचान कर रिएक्ट करने के मामले में?

चौथा: राजधानी की सीमाओं पर आंदोलित किसानों के नेताओं की ‘केंद्र में किसान विरोधी सरकार चला रही भाजपा’ को वोट न देने की अपील कितनी रंग लाएगी? खासकर जब वे किसी शुभचिंतक दल की पहचान नहीं कर पाए हैं और इतना भर कह रहे हैं कि लोग भाजपा को छोड़ जिसे भी चाहें वोट दें?

पांचवां: क्या देश की सकल जीडीपी में कृषि क्षेत्र के घटते योगदान और किसानों की वर्गीय अनुपस्थिति के बावजूद विधानसभा चुनावों में किसान-मिथ निर्णायक सिद्ध हो सकता है, जबकि प्रायः हर राज्य में खेती-किसानी की परिस्थितियां अलग-अलग हैं?

छठा: देश की लगातार नीति व विचारहीन और व्यक्ति-केंद्रित होती जा रही राजनीति का डर मतदाताओं को नये राजनीतिक प्रयोगों का हिस्सा बनने से कब तक रोके रहेगा? 1977 में तो उन्होंने कांग्रेस से नाराज होकर उस जनता पार्टी को केंद्र की सत्ता सौंप दी थी, जिसका उस समय तक विधिवत गठन भी नहीं हुआ था.

सातवां: सारे कुएं में भांग जैसी स्थिति में भी मतदाता अपने सरोकारों के पक्ष में खड़े रह पाते हैं या किसी चहेते राजनीतिक दल की लहर में बहकर उसकी विजय कामना के लिए इस्तेमाल होने और आड़े आने वाले ‘धर्मों, शीलों व सदाचारों’ पर एक ही भांति पादप्रहार करने लग जाते हैं?

आठवां: चुनावों का अंपायर चुनाव आयोग किसी पक्ष से खिलाड़ी की भूमिका में उतर आए तो मतदाताओं में किसी तरह का रोष या क्षोभ पैदा होता है अथवा वे इस तर्क की छाया में बने रहते हैं कि भला अब कौन-सी ऐसी पार्टी है, जो चुनावों में लोकतांत्रिक मूल्यों, सिद्धांतोंं और तरीकां के भरोसे बैठी रहे?

नवां: क्या अब चुनावों में हमेशा के लिए सब कुछ प्रबंधन के हवाले हो गया है और मतदाताओं के स्वतः स्फूर्त प्रवाह गुजरे जमाने की चीज हो गए हैं?

दसवां: प्रायोजित महानायकत्व की उम्र कितनी होती है? खासकर जब मतदाताओं के एक धड़े में यह धारणा घर कर रही है कि कई बार वे नायकों को हराकर भी हार जाते हैं और जिताकर भी?

ग्यारहवां: क्या किन्हीं राज्यों के चुनाव नतीजों को केंद्र सरकार की लोकप्रियता अथवा अलोकप्रियता का मापक माना जा सकता और उसकी नीतियों पर मुहर लगने या न लगने के रूप में देखा जा सकता है?

मतदाताओं ने अपने तईं इन सवालों के जो जवाब दिए हैं, उनकी कई व्याख्याएं हो सकती हैं, और होनी भी चाहिए. लेकिन हर व्याख्या की शुरुआत यहीं से करनी होगी कि पश्चिम बंगाल के मतदाताओं ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एक नहीं सुनी.

उन्होंने इस राज्य के चुनाव को बरबस ‘ममता बनाम मोदी’ में बदल दिया था और ‘दीदी-ओ-दीदी’ का जाप-सा करते हुए ‘अशोल पोरिबर्तन’ का आह्वान कर रहे थे. लेकिन मतदाताओं ने उनके आह्वान को नकारकर ममता के जवाबी आह्वान के तहत खेला कर दिखाया.

यकीनन, ममता ने सीधे मुकाबले में सिर्फ भाजपा को नहीं हराया, अपने चिरप्रतिद्वंद्वी वाम दलों, कांग्रेस व असदउद्दीन ओवैसी की पार्टी के साथ अपनी पार्टी के उन बागियों   को भी भू-लुंठित कर डाला है, जिन्होंने राज्य के राजनीतिक प्रवाह का गलत आकलन कर भाजपा का दामन थाम लिया और उसका तकिया बन गए थे.

भाजपा ही नहीं, नरेंद्र मोदी सरकार और उसकी एजेंसियों की सर्वथा अवांछनीय आक्रामकता के बीच ममता ने जिस तरह अपना करिश्मा बरकरार रखकर जीत की हैट्रिक लगाई है, उसके मद्देनजर कई लोग यह भी ठीक ही कह रहे हैं कि उन्होंने केंद्र सरकार, चुनाव आयोग और मीडिया के एक बड़े हिस्से की बदनीयत सांठ-गांठ की भी हवा निकाल दी है.

बिहार में लालू के सुनहरे यानी ‘जब तक रहेगा समोसे में आलू…’ वाले दिनों में कहा जाता था कि वहां मतपेटियों से जिन्न निकला करते हैं. उसकी तर्ज पर कह सकते हैं कि इस बार पश्चिम बंगाल में ईवीएमों से जिन्न निकले हैं, जिन्होंने ममता को उस तरह उड़ने से बचा लिया है, जिस तरह 2017 में देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में मोदी मैजिक के समक्ष समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव उड़ गए थे.

इन नतीजों का एक और अहम संदेश यह है देश की दोनों बड़ी राजनीतिक पार्टियों भाजपा व कांग्रेस को आत्ममंथन की सख्त जरूरत है. खासकर कांग्रेस को, जो केंद्र की सत्ता से बेदखली के सात साल बाद भी अपने प्रतिद्वंद्वियों के समक्ष जीत के जीवट का प्रदर्शन नहीं कर पा रही-साम, दाम, दंड और भेद कुछ भी नहीं बरतने में उनसे आगे नहीं जा पा रही.

न उनके अंतर्विरोधों का लाभ उठा पा रही है, न ही उनकी सरकारों के खिलाफ व्याप्त एंटी-इनकंबेंसी का.

इन चुनावों में न वह असम में भाजपा से सत्ता छीन पाई है, न केरल में वामदलों से. उलटे उसे पुदुचेरी में अपनी हाल तक कायम रही सत्ता गंवा देनी पड़ी है. ठीक है कि तमिलनाडु में उसके नेतृत्व वाला द्रमुक का गठबंधन विजयी हुआ है, लेकिन उस गठबंधन की जूनियर पार्टनर होने के कारण उसका बड़ा श्रेय उसके खाते नहीं आने वाला.

वामदल तो पश्चिम बंगाल में अपनी शिकस्त का गम केरल में अपनी सरकार बचाकर गलत कर सकते हैं, जो नहीं बचती तो एक तरह से उनका सूर्यास्त ही हो जाता. लेकिन कांग्रेस राहुल गांधी के वहां से सांसद होने का भी कोई लाभ नहीं उठा पाई.

इसका एक बड़ा कारण यह है कि कांग्रेस में हाईकमान का मुंह देखते रहने वाले नेताओं के प्रभुत्व की परंपरा   के चलते उसमें राज्यों में ताकतवर क्षत्रपों के अभ्युदय की गुंजायश ही नहीं बच पाती. स्वाभाविक ही, उनके अभाव में वह मुकाबलों में जी-जान नहीं लड़ा पाती. पंजाब और राजस्थान जैसे जिन राज्यों के उसके क्षत्रप इस नियम के अपवाद है, वे जरूर अच्छा कर गुजरते हैं.

भाजपा के लिए भी संदेश साफ है कि नरेंद्र मोदी या खरीद-फरोख्त अथवा पालाबदल की मार्फत दूसरे दलों से आयातित नेता लाख सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के बावजूद हमेशा उसके ट्रंप कार्ड नहीं बने रह सकते. हां, उसकी पार्टी विद डिफरेंस की पहले से ही क्षतिग्रस्त तथाकथित छवि में नये पलीते जरूर लगा सकते हैं.

पश्चिम बंगाल ने, जिसने कभी भाजपा की सत्ता का स्वाद नहीं चखा, ‘अभी नहीं तो कभी नहीं’ जैसे मुकाबले में पहली बार कमल खिलने पर ‘सोनार बांग्ला’ बनाने के उसके लोकलुभावन नारे के साथ उसके सारे तथाकित आदर्शों व मूल्यों को जिस बेदर्दी से ठुकरा दिया है, यहां तक कि उसे 2019 के लोकसभा चुनाव के प्रदर्शन को दोहराने से वंचित कर दिया है, उससे इस तथ्य कोई में संदेह नहीं बचा है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में उसका मोदी मैजिक उत्तर प्रदेश व बिहार जैसे बड़े हिंदी भाषी राज्यों में विफल हुआ, जिसके प्रबल आसार दिखते हैं, तो बंगाल जैसे अहिंदी भाषी राज्य उसकी भरपाई नहीं करने वाले. भले ही 2019 के लोकसभा चुनाव में ऐसा होता दिखा था.

पश्चिम बंगाल में मोदी के तंजिया तकियाकलाम ‘दीदी ओ दीदी’ का 2019 के लोकसभा चुनाव में राहुल के बहुप्रचारित नारे ‘चौकीदार चोर है’ की तरह फ्लॉप हो जाना बिना कहे बहुत कुछ कह देता है. हां, उनके ‘दो मई, दीदी गई’ का विलोम में बदल जाना भी.

वैसे भी कांग्रेस भले ही नरेंद्र मोदी के ‘महानायकत्व’ को निर्णायक चुनौती नहीं दे पा रही, प्रधानमंत्री के तौर पर क्षत्रपों के हाथों प्रतिष्ठा की वे कम से कम तीन लड़ाइयां हार चुके हैं.

पहली, 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद 2015 में दिल्ली विधानसभा के चुनाव में आम आदमी पार्टी के हाथों, जिसकी पिछले साल पुनरावृत्ति भी हो चुकी है. दूसरी, 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में राजद व जदयू के गठछबंधन के हाथों ओर अब तीसरी पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के हाथों.

लेकिन क्या पता, इस तीसरी शिकस्त के बाद भी वे अपने महानायकत्व के लिए बजी खतरे की घंटी सुन पाएंगे या नहीं.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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