जिस समाज को नारों के बिना कुछ सुनाई न पड़े उसके कान नारों से भोथरे भी हो सकते हैं. ज़ोर से बोलते रहना, शब्दों को पत्थर की तरह फेंकना, उनसे वार करते रहना, इससे मन को तसल्ली हो सकती है लेकिन इससे समाज में आक्रामकता बढ़ती है.
‘गर्मियों की रात में
कितना अच्छा लगता है
उस रास्ते पर चलना, जिस पर मालती ने अपनी गंध
छिड़क दी हो… ‘
मैंने अपनी बेटी को यह कविता सुबह सुबह भेजी. उसके नाना की लिखी है. नंदकिशोर नवल की. आज के ही दिन साल भर पहले उन्होंने इस दुनिया से विदा ली थी. उस दुनिया से जो मर्त्य है लेकिन जिसके अलावा और कहीं मालती गंध सिक्त पथ नहीं.
‘कितनी सुंदर कविता है,’ अपने कमरे से फौरन बेटी ने लिखा. जाने क्यों दिल को तसल्ली हुई. कविता का सौंदर्य अगर समझ पा रही हो तो वह जीवन को भी ठीक ही समझ लेगी.
कविता भाषा में आदमी होने की तमीज है, यह धूमिल ने कहा था. आदमी होने की तमीज का गाढ़ा रिश्ता ज़बान की तमीज से है. ज़बान खुलते ही आपका पता दे देती है.
ज़बान सबके पास होती है लेकिन क्या भाषा का दावा भी सब कर सकते हैं? भाषा की कठिनाई का एहसास क्या सबको हो पाता है?
जो धड़ल्ले से बोलते ही चले जाते हैं, वे क्या कभी कंठावरोध का अर्थ समझ पाएंगे? कब भाषा असमर्थ हो जाती है? कौन-सा मानवीय अनुभव है जिसके लिए हमारे पूर्वजों ने जो भाषा गढ़ी है, वह अपर्याप्त जान पड़ती है?
आज से ज़्यादा और कब हमें वह ज़बान नाकाफ़ी और बेबस लगी थी जो जाने कब से वेदना, पीड़ा, अभाव, अन्याय, सहानुभूति, संवेदना, सांत्वना को दर्ज करते करते इतनी ज़ख़्मी हो चुकी है?
पिछले शनिवार को जब एक खबर आई कि डॉक्टर महावीर नरवाल की हालत गंभीर है तो मैं सिर्फ फोन को देखता रह गया. जगमती सांगवान को जवाब नहीं दे सका. कुछ पूछ नहीं सका. दूसरी सुबह जब रोहतक के मित्र, मेरे और नरवाल साहब के, प्रमोद गौरी को फोन किया तो उन्होंने कहा कि अगर कुछ बताने लायक हुआ तो वे फोन करेंगे.
वह फोन नहीं आया. मंगलवार को जब रोहतक के श्मशान में बेंच पर बैठी नताशा नरवाल की तस्वीर देखी तो उस तस्वीर का कोई शीर्षक देना संभव नहीं लगा… सिर्फ नताशा की उस खामोशी को देखता रहा.
सुनने और देखने के बीच क्या रिश्ता है? कविता कृष्णन ने एक दिन प्रेस क्लब में अपनी मां की एक बात बताई. वे अगर चश्मा न पहनें तो उन्हें आपकी बात ठीक-ठीक सुनाई नहीं देती. सुनने के लिए देखना कितना ज़रूरी है! जिसे आप देख नहीं पाते उसे सुनेंगे कैसे?
फिर भाषा शब्द और शब्द ही तो नहीं. खाली जगह भी तो है उनके बीच. मैंने नवल जी की ही एक और कविता बेटी को भेजी,
‘शब्दों के बीच
जो छूटी हुई जगह होती है,
उसी के माध्यम से
मैंने तुमसे कुछ कहा था–
वह सब, जो पिछले दिनों
सहा था.
तुमने उसे सुना
मन से गुना.
यह देखकर मैंने
चुप रहने की ही राह पकड़ी है.
बोलने की राह सचमुच
बहुत संकरी है.’
भाषा में जो मौन होता है वह कई बार अधिक मुखर होता है, लेकिन उसे सुनने के लिए कान भी चाहिए और गुनने के लिए मन. जितना बोलने का अभ्यास होना चाहिए उतना ही सुनने का भी और उसमें भी ठहरकर सुनने का.
यह कविता प्रेम कविता कही जा सकती है लेकिन क्या भाषा का यह व्यवहार और बोलने और चुप रहने का यह रिश्ता मात्र प्रेमियों के बीच की बात है? चुप रहने की राह पकड़ना सबके बस की बात नहीं.
यह आश्वासन कि कोई बिना कुछ कहे सुन लेगा, सारे समाजों में और सबको हासिल नहीं! इसलिए चीखना पड़ता है. एलेन गिंसबर्ग की कविता का नाम ही है ‘हॉउल.’ लेकिन आप चीखते रहें तो भी सुने जाने की गारंटी तो नहीं.
दिसंबर, 2018 में अल जज़ीरा में हामिद दाबाशी का लेख याद आ रहा है. ‘तुम अरबी में कैसे चीखते हो?’ सऊदी अरब के दूतावास में पत्रकार जमाल खशोगी को टुकड़े-टुकड़े कर उनकी हत्या के समय उनकी चीखें एक छिपे रिकॉर्डर में दर्ज हो गई थीं.
राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को इस टेप के बारे में मालूम है. लेकिन वे इसे सुनना नहीं चाहते क्योंकि यह भयानक है. दाबाशी ने लिखा कि जिस व्यक्ति ने अफगानिस्तान पर महाबम गिराते हुए पलक भी नहीं झपकाई उससे ये खशोगी की चीखें बर्दाश्त नहीं हो रहीं, यह भी खबर है.
डोनाल्ड ट्रंप के सहयोगी जॉन बोल्टन ने कहा, ‘नहीं मैंने इसे नहीं सुना. क्यों सुनूं मैं इसे? आखिर इससे क्या मिलेगा? जब तक आप अरबी नहीं जानते आप इससे कुछ हासिल नहीं कर सकते. मैं अरबी नहीं बोलता हूं.’
दाबाशी ने इसीलिए कई लोगों से पूछा कि आखिर अरबी में कैसे चीखते हैं? खशोगी को जब टुकड़े-टुकड़े चीरा जा रहा था तो क्या वे अरबी में चीख रहे थे. तो क्या उन्हें अरबी में चीरा भी जा रहा था? अमेरिका के सुरक्षा सचिव ने भी टेप सुनने से मना कर दिया क्यों ‘मैं वह भाषा नहीं समझता हूं.’
हामिद दाबाशी ने इसके बाद लिखा, ‘हमें ईमानदार होना ही चाहिए. क्या हम डोनाल्ड ट्रंप या जॉन बोल्टन से यह उम्मीद ही कर सकते हैं कि वे अरबी या कोई भी ज़बान बोल और समझ सकते हैं, वे जो अपने अत्याचार अपनी टूटी-फूटी कामचलाऊ अंग्रेज़ी में करते हैं.’
दाबाशी ने अरबी चीख को समझने की कोशिश में मनोवैज्ञानिकों, भाषाशास्त्रियों और विशेषज्ञों से बात की. जवाब नहीं मिला. उन्होंने इस खोज में खुद को 1893 की नार्वेनियन कलाकार एडवर्ड मुंक की पेंटिंग ‘चीख’ के सामने खड़ा पाया. जो शायद हमारी प्रजाति की आपराधिक मूढ़ता के सामने आदिम मानवीय चीख की अभिव्यक्ति है.
चीख और नारे में फर्क है लेकिन जो कविता नहीं सुन सकता, वह चीख भी नहीं समझ सकता. चीख शायद भाषा की कैदी नहीं.
दाबाशी ने इराकी कलाकार दिया अज़ाई से पूछा कि क्या अरबी चीख समझते हैं. कलाकार ने दाबाशी को वेधक निगाह से देखते हुए जवाब दिया, ‘क्या तुम्हें दिखलाई नहीं देता? मेरा पूरा काम ही अरब चीख के बारे में है.’
क्या पिछले 70 साल से और इधर फिर एक हफ्ते से जेरुसलम और गाज़ा से जो चीखें उठ रही हैं वे भी हमारे भारतीय कानों को इसलिए समझ में नहीं आ रहीं कि वे अरबी चीखें हैं?
क्या हम इसलिए उन्हें सुनना नहीं चाहते कि हम अरबी नहीं जानते इसलिए यह कोशिश ही बेकार है? या कई बारे चीख हमें एक शैतानी खुशी देती है?
भारत में कई लोग अभी उन चीखों पर उत्सव मना रहे हैं. चीख जो नहीं सुन सकता वह कविता भी नहीं समझ सकता.
लेकिन जिस समाज को नारों के बिना कुछ सुनाई न पड़े उसके कान नारों से भोथरे भी हो सकते हैं. ज़ोर से बोलते रहना, शब्दों को पत्थर की तरह फेंकना, उनसे वार करते रहना, इससे मन को तसल्ली हो सकती है लेकिन इससे समाज में आक्रामकता बढ़ती है.
आश्चर्य नहीं कि आंदोलनकारी जवाहरलाल नेहरू को नारे बहुत पसंद नहीं थे. गांधी की आवाज़ तो फुसफुसाहट भर ही थी. लेकिन लाखों लाख कर्णेंद्रियां उस आवाज़ को पकड़ पाने के लिए तनी हुई रहती थीं.
आवाज़ में असर कैसे पैदा हो अगर आप खामोशी पैदा नहीं कर सकते? खामोशी जिसमें तूफ़ान बंधा हुआ हो?
भाषा इसीलिए सावधानी का मसला है. शब्दों का चुनाव, उनके बीच क्रम बैठाना, उनके बीच अंतराल भरना ताकि शब्दों के बीच तनाव हो. बिना तनाव के न तो छत ठहर सकती है, न कोई इमारत.
एक संरचना, एक रूपाकार सही तनाव के बिना खड़ा नहीं हो सकता. तनाव और संतुलन, इनका अभ्यास भाषा के व्यवहार के लिए सबसे ज़रूरी है.
कहा जा सकता है कि कवि या कथाकार दूसरों से अलग इसी मामले में है कि उसे शब्दों के बीच खाली जगह रखना और भाषा में भिन्न-भिन्न प्रकार के तनाव के बिंदु पैदा करना आता है.
भाषा इसलिए बोलने के पहले एक लंबी चुप्पी और चौकन्नेपन के बिना संभव नहीं. क्या आपने किसी बिल्ली को या शेर को ध्यान लगाते देखा है? ताकि वह निशाना चूके नहीं?
शायद यह रूपक बहुत उपयुक्त नहीं है, लेकिन मैं सिर्फ इसके पहले हिस्से पर तवज्जो चाहता हूं. शेर, बिल्ली, कुत्ते और दूसरे प्राणियों को भी मालूम है कि गति को बांधे बिना निशाना साधना मुमकिन नहीं.
उतावलापन, हड़बड़ी- इससे काम बिगड़ ही जाता है. भाषा के मामले में तो और ज़्यादा. कितनी बार होता है कि बोलकर आप जीभ काट लेते हैं. काश! वह शब्द मुंह से न निकला होता. काश! मैंने खुद पर काबू कर लिया होता!
चुस्त फिकरेबाजी, फ़ब्ती, ताने, मखौल, खिल्ली या व्यंग्य सब कुछ भाषा में है. लेकिन इनसे बचाकर ही वह भाषा हासिल की जा सकती है जो उसे भी आपको सुनने को प्रेरित करे जो आपको अपना दुश्मन समझ बैठा है.
खंडन-मंडन, विवाद में आपका दिल तो ठंडा होता है लेकिन बात आगे नहीं बढ़ती. इसीलिए गांधी ने लिखा था कि जितने चुस्त फिकरे मेरी ज़बान पर आते है, जितने व्यंग्यपूर्ण वाक्य, मैं सबको बेरहमी से छांट देता हूं. उसके बाद भी आप अपना क्षोभ प्रकट कर पाएं इसके लिए भाषा की साधना चाहिए.
भाषा सिर्फ काम में लाने के लिए नहीं. सिर्फ नसों में प्रवाहित रक्त को तीव्र करने के लिए और माथा गरम करने के लिए नहीं. सिर्फ कामचलाऊ भी नहीं. भाषा जो किसी तरह लड़खड़ाते हुए काम कर ले, उससे संतोष नहीं.
भाषा से प्रेम करने का अर्थ क्या है? मनुष्य होने का एक अर्थ या दायित्व भाषा को अपने तरीके से सुंदर करना, संवेदनशील करना है. लेखक, कवि यही तो करते हैं. वे नई संवेदनाएं, महसूस करने की नई भाषाई पद्धतियां ईजाद करते हैं.
नवल जी नामवर सिंह को बार बार उद्धृत करते थे, ‘जो चार वाक्य सुंदर नहीं लिख सकते वे समाज को कैसे सुंदर बनाएंगे.’ सुंदर या शालीन-बात एक ही है.
अल्बेयर काम्यू के उपन्यास ‘प्लेग’ में एक पात्र कहता है, ‘यह बात बड़ी अटपटी लग सकती है लेकिन प्लेग से मुकाबला सिर्फ शालीनता के सहारे ही किया जा सकता है. शालीनता, भद्रता की रक्षा भाषा की रक्षा के बिना नहीं की जा सकती. दोनों अभिन्न हैं.’
मित्र मुकुल मांगलिक ने अपने छात्रों और सहकर्मियों को इस महामारी में खुद को बचाने का आह्वान किया है. वे प्लेग का ही हवाला देते हैं, ‘हम सब प्लेग के बीच हैं… मैं इतना ही जानता हूं कि हमें हर मुमकिन कोशिश करनी है कि हम प्लेग के शिकार न हों. …इसीलिए मैंने हर उस चीज़ से नामंजूर करना तय किया है जो सीधे या परोक्ष रूप से लोगों को मारती है या दूसरों को जायज़ ठहराती है जब वे लोगों को मारते हैं.’
प्लेग का शिकार होने से इनकार करना, हत्या के हर उपाय का विरोध करना ही भद्रता है. इसके लिए दृढ़ भाषा की ज़रूरत है, आडंबरपूर्ण भाषा की नहीं.
मैं नवल जी से कहना चाहता हूं कि आपकी नतिनी को भी वह भाषा मिले जो मानवता से आर्द्र हो और उसकी रक्षा के लिए पर्याप्त दृढ़ भी. वही हमें इस महामारी से बचा सकेगी.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)