महिलाओं के ख़िलाफ़ यौन अपराध के केस में समझौता/शादी ज़मानत की शर्त न हो: इलाहाबाद हाईकोर्ट

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि ऐसे मामलों में ज़मानत देते वक्त सर्वोच्च न्यायालय के अपर्णा भट्ट केस के निर्देशों का ध्यान रखना चाहिए, जिसमें कहा गया है कि ज़मानत की ऐसी कोई शर्त नहीं होनी चाहिए, जो कि आरोपी द्वारा पहुंचाए गए नुकसान को धूमिल कर दे और पीड़िता के दुख को और बढ़ा दे.

(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि ऐसे मामलों में ज़मानत देते वक्त सर्वोच्च न्यायालय के अपर्णा भट्ट केस के निर्देशों का ध्यान रखना चाहिए, जिसमें कहा गया है कि ज़मानत की ऐसी कोई शर्त नहीं होनी चाहिए, जो कि आरोपी द्वारा पहुंचाए गए नुकसान को धूमिल कर दे और पीड़िता के दुख को और बढ़ा दे.

(फाइल फोटो: रॉयटर्स)
(फाइल फोटो: रॉयटर्स)

नई दिल्ली: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में जारी अपने एक महत्वपूर्ण आदेश में कहा है कि महिलाओं के खिलाफ यौन अपराध के मामलों में जमानत देते वक्त जमानत की शर्त आरोपी के साथ शादी या किसी भी तरह का समझौता नहीं होना चाहिए.

कोर्ट ने कहा कि इस तरह की शर्तें ‘उचित न्याय’ के सिद्धांत के विपरीत हैं.

लाइव लॉ के मुताबिक, जस्टिस सौरभ श्याम शमशेरी की पीठ ने कहा कि ऐसे मामलों में जमानत देते वक्त न्यायालय सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपर्णा भट्ट एवं अन्य बनाम मध्य प्रदेश मामले में दिए गए निर्देशों का ध्यान रखें.

अपर्णा भट्ट मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि जमानत की ऐसी कोई शर्त नहीं होनी चाहिए जो कि आरोपी द्वारा पहुंचाए गए नुकसान को धूमिल कर दे और पीड़िता के ट्रॉमा (दुख) को और बढ़ा दे.

न्यायालय ने यह भी कहा था कि जमानत के तहत आरोपी को पीड़िता के साथ किसी भी तरह के संबंध स्थापित करने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए. ऐसी शर्तें रखी जानी चाहिए, जो कि पीड़िता को आरोपी से किसी भी उत्पीड़न से सुरक्षित रखे.

मौजूदा मामला इमरान नामक एक व्यक्ति से जुड़ा हुआ है, जिन्होंने फिरोजाबाद के एडिशनल सत्र जज द्वारा जमानत याचिका खारिज होने के बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट का रुख किया था. उन पर आईपीसी की धारा 452, 377 और 506 के तहत मामला दर्ज किया गया है.

उनके वकील ने दलील दी कि याचिकाकर्ता एक ड्राइवर और शादीशुदा व्यक्ति हैं और कथित तौर पर पीड़ित, जो कि ट्रांसजेंडर हैं, उनकी टैक्सी हायर किया करती थीं. इस मामले में उनसे पैसे वसूलने के लिए उन्हें गलत तरीके से फंसाया गया है.

इसे लेकर हाईकोर्ट ने कहा कि जमानत याचिका पर विचार करते वक्त कोर्ट को केस के मेरिट में नहीं जाना चाहिए, क्योंकि मामले की प्रामाणिकता का पता ट्रायल के समय लगाया जाता है.

न्यायालय ने यह भी कहा कि जमानत की शर्तें ऐसी न हो कि उसका पालन ही न किया जा सके और जमानत सिर्फ दिखावा ही बनकर रह जाए.

इन दलीलों को संज्ञान में लेते हुए कोर्ट ने याचिकाकर्ता को जमानत दी और कहा कि महिलाओं के खिलाफ यौन अपराध के मामलों में जमानत की शर्त किसी भी तरह का समझौता या आरोपी से शादी करना इत्यादि नहीं होना चाहिए.

अपर्णा भट्ट मामले के तहत यौन अपराधों में जमानत देने के लिए जारी किए गए निर्देश;

  • जमानत शर्तों में अभियुक्त और पीड़ित के बीच किसी भी तरह के संपर्क का आदेश या अनुमति नहीं दी जानी  चाहिए. ऐसी स्थितियों में शिकायतकर्ता को आरोपी द्वारा किसी और उत्पीड़न से बचाने की कोशिश करनी चाहिए.
  • अगर अदालत को लगे कि पीड़ित के उत्पीड़न का संभावित खतरा हो सकता है या इसकी आशंका व्यक्त की गई है तो पुलिस से रिपोर्ट मांगने के बाद सुरक्षा पर अलग से विचार किया जाना चाहिए और उचित आदेश दिया जाना चाहिए. साथ ही आरोपी को पीड़ित से कोई संपर्क नहीं करने के लिए निर्देश दिया जाना चाहिए.
  • उन सभी मामलों में जहां जमानत दी गई है, शिकायतकर्ता को तुरंत सूचित किया जाना चाहिए कि अभियुक्त को जमानत दे दी गई है और उसे दो दिनों के भीतर जमानत के आदेश की प्रति दी जानी चाहिए.
  • जमानत की शर्तों और आदेशों में समाज में महिलाओं और समाज में उन स्थिति को लेकर रूढ़िवादी या पितृसत्तात्मक धारणाओं को प्रतिबिंबित करने से बचना चाहिए और सीआरपीसी की धाराओं के अनुसार, इनका सख्ती से अनुपालन होना चाहिए. दूसरे शब्दों में जमानत देते समय पीड़ित के कपड़ों, व्यवहार या अतीत के आचरण या उसकी नैतिकता के बारे में जिक्र नहीं किया जाना चाहिए.
  • अदालतों में यौन अपराधों से जुड़े मामलों की सुनवाई करते समय अभियोजन पक्ष और अभियुक्त के बीच विवाह करने, उनके बीच किसी तरह के समझौते के सुझाव या मध्यस्थता के किसी भी कदम को प्रोत्साहित करना नहीं करना चाहिए. किसी भी तरह का समझौता उनकी शक्तियों और अधिकार-क्षेत्र से परे है.
  • हर समय न्यायाधीशों को संवेदनशीलता प्रदर्शित करनी चाहिए, जिन्हें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि कार्यवाही के दौरान अभियोजन पक्ष को किसी तरह का कोई आघात न पहुंचे या ऐसा कुछ भी कहा न जाए.
  • न्यायाधीशों को विशेष रूप से किसी भी ऐसे शब्द का बोलने या लिखने में प्रयोग नहीं करना चाहिए, जो न्यायालय की निष्पक्षता पर पीड़ित के विश्वास को कमजोर करता हो.