मध्य प्रदेश: पर्यावरण दिवस पर वन बचा रहे शिवराज बक्सवाहा के जंगलों की बर्बादी पर मौन क्यों हैं

बुंदेलखंड क्षेत्र में हीरा खनन के लिए छतरपुर ज़िले के बक्सवाहा जंगल के एक बड़े हिस्से में लगे दो लाख से अधिक पेड़ काटे जाने की योजना है, जिसका व्यापक स्तर पर विरोध हो रहा है. विडंबना यह है कि बीते दिनों पर्यावरण बचाने की कसमें खाने वाले सत्ता और विपक्ष के अधिकांश नेता इसे लेकर चुप्पी साधे हुए हैं.

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बक्सवाहा जंगल. (सभी फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट)

बुंदेलखंड क्षेत्र में हीरा खनन के लिए छतरपुर ज़िले के बक्सवाहा जंगल के एक बड़े हिस्से में लगे दो लाख से अधिक पेड़ काटे जाने की योजना है, जिसका व्यापक स्तर पर विरोध हो रहा है. विडंबना यह है कि बीते दिनों पर्यावरण बचाने की कसमें खाने वाले सत्ता और विपक्ष के अधिकांश नेता इसे लेकर चुप्पी साधे हुए हैं.

बक्सवाहा जंगल. (सभी फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट)
बक्सवाहा जंगल. (सभी फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट)

‘बाग-बगीचे, जंगल, हरियाली केवल मनुष्य के लिए ही जीवनदायिनी नहीं है, अपितु जीव-जंतु, पशु-पक्षी आदि के जीवन का आधार है.’

ये शब्द मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के हैं, जो 5 जून 2021 यानी ‘विश्व पर्यावरण दिवस’ के दिन एक अखबार में छपे उनके लेख में लिखे थे. लेकिन, विडंबना देखिए कि पर्यावरण के प्रति इतनी अधिक संवेदनशीलता रखने वाले शिवराज के ही राज्य के एक हिस्से में उसी दिन उनकी ही सरकार के खिलाफ जंगल, हरियाली, जीव-जंतु, पशु-पक्षी आदि को ही बचाने के लिए लोग मुहिम चला रहे थे. क्या शिवराज इससे अनजान थे?

बात हो रही ही छतरपुर जिले के बक्सवाहा जंगल की. बता दें कि इस संरक्षित वन क्षेत्र का एक बड़ा हिस्सा काटने की तैयारी है क्योंकि डेढ़ दशक पुरानी एक पड़ताल के मुताबिक अनुमान है कि यहां लगभग 3.42 करोड़ कैरेट हीरा जमीन में दबा है. इसे देश का सबसे बड़ा हीरा भंडार माना जा रहा है.

मध्य प्रदेश भूविज्ञान एवं खनन निदेशालय (डीजीएमएमपी) की 2017 की एक रिपोर्ट के मुताबिक इस हीरे का अनुमानित बाजार मूल्य करीब 55,000 करोड़ रुपये है. इस परियोजना को ‘बंदर डायमंड प्रोजेक्ट’ नाम मिला है. 2019 में राज्य की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने इस हीरा खदान की नीलामी की थी. जिसके तहत आदित्य बिड़ला ग्रुप की कंपनी एस्सेल माइनिंग एंड इंडस्ट्रीज लिमिटेड (ईएमआईएल) को खनन के लिए जंगल की 382.131 हेक्टेयर वन भूमि 50 साल की लीज पर मिली है.

अभी परियोजना पर काम शुरू नहीं हुआ है क्योंकि कंपनी को केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय की अनुमति का इंतजार है, लेकिन स्थानीय स्तर पर इसका विरोध जरूर शुरू हो गया है.

विरोध इसलिए है क्योंकि इसके शुरू होने पर 382.131 हेक्टेयर जंगल काटा जाएगा. जिसकी बलि 46 प्रजातियों के 2,15,875 भरे-पूरे पेड़ चढ़ेंगे. इनमें सागौन, महुआ, बेल, तेंदूपत्ता, आंवला, बरगद, जामुन, अर्जुन, पीपल जैसे बहुपयोगी पेड़ शामिल हैं.

यह सरकारी आंकड़े हैं. स्थानीय लोगों का दावा है कि कटने वाले पेड़ों की संख्या करीब 4-5 लाख हो सकती है. मुद्दा यह भी है कि खनन कार्य में प्रतिदिन 1.60 करोड़ लीटर पानी प्रयोग होगा, जिसके लिए एक मौसमी नाले का पानी बांध बनाकर डायवर्ट किया जाएगा.

सामाजिक कार्यकर्ता हरिकेश द्विवेदी बताते हैं, ‘यहां पहले से ही भीषण जल संकट है. बक्सवाहा तहसील में हालात ऐसे हैं कि सर्दियों में टैंकर से पानी सप्लाई होता है. गांवों में लोग दो-दो किलोमीटर दूर से पानी लाते हैं. यही नाला/नदी आठ-दस गांवों में सिंचाई का साधन है. वन्यजीव इस पर निर्भर हैं. यह आगे जाकर केन और बेतवा नदी में मिलता है. इन दोनों नदियों पर भी बांध से प्रतिकूल असर पड़ेगा.’

स्थानीय स्तर पर अभियान चला रहे संकल्प जैन बताते हैं, ‘परियोजना के मुताबिक 1,135 फीट की खुदाई करने पर किम्बरलाइट अयस्क मिलेगा. इतनी गहरी खुदाई भूजल स्तर पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगी. भारत सरकार के केंद्रीय भूजल प्राधिकरण के मुताबिक (सीजीडब्ल्यूए) बक्सवाहा तहसील सेमी क्रिटिकल श्रेणी में है. फिर भी करोड़ों लीटर पानी की बर्बादी की तैयारी है.’

उल्लेखनीय है कि इस परियोजना पर 2016 तक एक दूसरी कंपनी ‘रियो टिंटो’ काम कर रही थी. उसी ने यह हीरा खदान खोजी थी. इसके लिए 2002 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने उसे लाइसेंस दिया था. तब सर्वेक्षण स्थल पर भारी तादाद में बंदर दिखे, जिससे इस परियोजना का नाम ‘बंदर डायमंड प्रोजेक्ट’ पड़ा.

हीरा खदान की पुष्टि होने के बाद आगे खोजबीन के लिए कंपनी को राज्य सरकार से 2006 में तीन वर्ष के लिए प्रोस्पेक्टिंग लायसेंस (पीएल) मिला. बाद में इसकी अवधि दो साल बढ़ा दी गई. जिसके खत्म होने पर कंपनी को पीएल रिपोर्ट के आधार पर सरकार ने 954 हेक्टेयर वनभूमि पर खनन की लीज के लिए सैद्धांतिक अनुमति दे दी. तब करीब 5 लाख पेड़ काटे जाने थे.

स्थानीय लोग इसका विरोध करने लगे. मामला हाईकोर्ट पहुंचा. व्यापक विरोध के चलते केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय से रियो टिंटो को पर्यावरणीय मंजूरी नहीं मिली तो उसने 2016 में अपने हाथ पीछे खींच लिए. परियोजना ठंडे बस्ते में चली गई.

2018 में राज्य में सत्ता बदली. 2019 में कांग्रेस सरकार ने परियोजना की फाइल वापस खोली और ई-नीलामी में ईएमआईएल को 50 साल की लीज मिल गई. इस बीच, 2017 में खदान की नीलामी के लिए डीजीएमएमपी ने रियो टिंटो द्वारा सौंपी गई पीएल रिपोर्ट के आधार पर एक पुनर्गठित रिपोर्ट तैयार की.

बक्सवाहा जंगल बचाने की लड़ाई में इस रिपोर्ट के कुछ बिंदु महत्वपूर्ण हो जाते हैं. जैसे कि जंगल में बंदर, भालू, तेंदुआ, बारहसिंघा, बाज, हिरण जैसे वन्यजीव मौजूद हैं. करीब 35 फीसदी आबादी अनुसूचीत जाति और जनजाति से है. लोग आर्थिक रूप से वनोपज पर निर्भर हैं. साल में केवल एक फसल मसूर या सोयाबीन की होती है, उसके बाद लोग जंगल में पनपे महुआ और तेंदूपत्ता पर निर्भर रहते हैं.

महुआ देसी शराब और तेल जबकि तेंदूपत्ता बीड़ी बनाने के काम आता है. बीड़ी बनाना कई परिवारों का रोजगार है. जमीन से लोगों का भावनात्मक जुड़ाव है.

ये सभी बिंदु वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, लोगों के वनाधिकार और जैव विविधता को प्रभावित करते हैं. संकल्प बताते हैं, ‘उस रिपोर्ट के मुताबिक, वन्यजीव अधिनियम की सूची-1 में दर्ज सात संरक्षित वन्यजीव जंगल में थे लेकिन हालिया रिपोर्ट (2019) में प्रस्तावित वनभूमि के आस-पास कोई वन्यजीव नहीं है. ऐसा कैसे संभव है कि ढाई साल में सब विलुप्त हो गए?’

यह तथ्य चौंकाता है और सरकार की मंशा पर सवाल उठाता है कि कहीं राजस्व के लालच में सच छिपाकर वन्यजीवों की जान का सौदा तो नहीं हो रहा? इस पर सफाई देते हुए छतरपुर जिला वनाधिकारी अनुराग कुमार ने द वायर  से कहा, ‘वन्यजीव किसी कैद में नहीं रहते, विचरण करते हैं. कभी दिख जाते हैं, कभी नहीं दिखते. यहां सिर्फ बंदर और खरगोश जैसे बार-बार दिखने वाले जानवर हैं. यह इतना घना जंगल नहीं है कि बाघों का मूवमेंट हो.’

गौरतलब है कि बक्सवाहा जंगल नौरादेही वाइल्डलाइफ सेंचुरी और पन्ना टाइगर रिजर्व के बीच का कॉरिडोर हैं. यहां टाइगर रिजर्व का 19 हेक्टेयर बफर जोन भी है. हालांकि, मध्य प्रदेश के वाइल्डलाइफ एक्टिविस्ट अजय दुबे के मुताबिक इन जंगलों में बाघों की आवाजाही नहीं है. फिर भी महज ढाई साल के भीतर वन्यजीवों के गायब होने पर रहस्य कायम है.

उपरोक्त रिपोर्ट से यह भी स्पष्ट है कि जंगल उजड़ने पर स्थानीय लोगों की आजीविका प्रभावित होगी. बक्सवाहा निवासी आशिक मंसूरी बताते हैं, ‘प्रभावित इलाके में ज्यादातर दलित-आदिवासी हैं. इनकी आजीविका महुआ, तेंदूपत्ता आदि बीनकर चलती है. जंगल कट जाएंगे तो 15 गांव आजीविका संकट से जूझेंगे.’

हालांकि, गांवों के कुछ लोग परियोजना के पक्ष में भी हैं. खनन क्षेत्र के सबसे करीबी गांव कसेरा के अनिकेत सिंह बताते हैं, ‘यहां रोजगार बड़ी चुनौती है. नौकरियां बिल्कुल नहीं हैं. ग्रामीणों को आशा है कि कंपनी आएगी तो रोजगार लाएगी. इसलिए समर्थन में हैं.’

यह सच है कि परियोजना में 400 लोगों के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रोजगार की बात है, लेकिन यह उल्लेख नहीं है कि स्थानीय लोगों को ही प्राथमिकता दी जाएगी. इसलिए ग्रामीणों का कहना है, ‘हमको कोई कंपनी नहीं चाहिए. हम ऐसे ही ठीक हैं. अपना जंगल नहीं कटने देंगे, विरोध करेंगे. अभी महुआ बीनने से पल रहे हैं. जंगल न होने पर क्या करेंगे?’

वे आगे कहते हैं, ‘400 नौकरी मिलेंगी भी तो कुछ सालों तक, उसके बाद सबको ज्यों का त्यों छोड़ देंगे. फिर हमारा पालनहार जंगल भी नहीं होगा. न घर के रहेंगे, न घाट के. यहां खेती के लिए पानी नहीं है, इसलिए खेती संभव नहीं. पेड़ ही हमें पालते हैं. वो भी नहीं बचे तो क्या होगा?’

जंगल बचाने की इसी मुहिम के तहत ‘पर्यावरण दिवस’ के दिन स्थानीय युवाओं ने सोशल मीडिया एवं अन्य माध्यमों से विरोध दर्ज कराया था. जिसे देश भर में समर्थन भी मिला.

हालांकि विरोध तो महीनों से हो रहा है लेकिन ‘पर्यावरण दिवस’ का जिक्र इसलिए जरूरी है क्योंकि इस दिन एक ओर तो मुख्यमंत्री और राज्य के कद्दावर नेता पेड़-पौधों का महत्व, प्रकृति प्रेम, पर्यावरण संरक्षण और जैव विविधता की रक्षा संबंधी उपदेश दे रहे थे, तो दूसरी ओर उन्हीं के संरक्षण में बक्सवाहा के जंगल उजाड़े जा रहे हैं जिसका विरोध उस दिन जनता कर रही थी.

ऐसा नहीं है कि यह विरोध केवल बक्सवाहा तहसील या छतरपुर जिले तक सीमित हो जिसके चलते हुक्मरानों के कानों में इसकी भनक न पड़ी हो. हकीकत तो यह है कि बक्सवाहा जंगल अब राष्ट्रीय चर्चा का विषय हैं.

दिल्ली की सामाजिक कार्यकर्ता नेहा सिंह इन्हें बचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई हैं, तो जबलपुर के ‘नागरिक उपभोक्ता मार्गदर्शक मंच’ से जुड़े डॉ. पीजी नाजपांडे ने खनन अनुमति निरस्त करने की मांग वाली याचिका राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) में लगाई है.

इन याचिकाओं में पर्यावरण, पारिस्थितिकी एवं जैव विविधता पर परियोजना से पड़ने वाले हानिकारक दुष्प्रभावों को लेकर आगाह किया गया है और खनन अनुमति मिलने संबंधी प्रक्रिया पर भी सवाल उठाए गए हैं.

डॉ. नाजपांडे बताते हैं, ‘अनुमति देते वक्त सतत विकास के उन सिद्धांतों की अवहेलना की गई है जो पर्यावरण के साथ तालमेल बैठाकर विकास करने पर जोर देते हैं. एनजीटी और सुप्रीम कोर्ट के आदेशों में भी उल्लेख है कि विकास और पारिस्थितिकी के बीच संतुलन जरूरी है, लेकिन यहां इसकी पालना नहीं हुई. सरकार ने अनुमति देते वक्त वन और पारिस्थितिकी के संरक्षण हेतु जरूरी एहतियात नहीं बरती.’

Buxwaha Forest Story (3)

वे आगे कहते हैं, ‘यह सार्वजनिक नहीं बल्कि निजी परियोजना है क्योंकि इसमें सिर्फ कुछ लोगों का फायदा दिखता है. हजारों लोगों के वनाधिकार अधर में हैं, जो क़ानूनन गलत है. इसलिए विकास की बात संदेहास्पद है. इससे तो पारिस्थितिकीय तंत्र व संतुलन को क्षति पहुंचेगी. भूजल स्तर पर दुष्प्रभाव के चलते जल संकट खड़ा होगा. क्या पक्षियों के नष्ट होने वाले घोंसले दोबारा बनाए जा सकते हैं?’

इस पर बात करने के लिए मध्य प्रदेश के वन मंत्री कुंवर विजय शाह, खनिज मंत्री बृजेंद्र प्रताप सिंह, छतरपुर कलेक्टर शीलेंद्र सिंह, स्थानीय विधायक प्रद्युम्न सिंह लोधी से संपर्क साधा गया, लेकिन किसी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी.

वहीं, डीएफओ अनुराग कुमार का कहना है कि पर्यावरण या नियमों की अनदेखी जैसा कुछ नहीं है. सब वन संरक्षण अधिनियम के तहत हुआ है.

वे कहते हैं, ‘अभी तो पूरी प्रक्रिया शुरुआती चरण में है. पेड़ काटने का अंतिम प्रस्ताव तक पास नहीं हुआ है. यह भारत सरकार के पास विचाराधीन है. इसलिए जंगल काटे जाने की फिलहाल दूर-दूर तक संभावना नहीं है. वन क्षतिपूर्ति के तहत जितनी वनभूमि विकास कार्यों के लिए डायवर्ट होती है, उससे दोगुनी ज़मीन पर कैंपा फंड के तहत वृक्षारोपण होता है. इस परियोजना में भी क्षतिपूर्ति वन के लिए जमीन आवंटित हो चुकी है.’

जंगल काटे जाने की संभावना भले ही फिलहाल दूर-दूर तक न हो लेकिन सरकारी मंशा तो यही है जो मुख्यमंत्री के इस बयान से स्पष्ट होती है, ‘हीरा खदान संबंधी विकास परियोजना में दो लाख वृक्ष कटने का अनुमान है. इनके स्थान पर दस लाख पौधे रोपे जाएं.’

खनिज मंत्री बृजेंद्र प्रताप सिंह ने भी अपनी मंशा जाहिर कर दी है. उन्होंने कहा है, ‘हीरा खदान बिगड़े वन में है. दो लाख पेड़ काटे जा रहे हैं, तो चार लाख लगाए भी जाएंगे.’ हालांकि, पेड़ लगाने संबंधी दावों को लेकर सरकार की विश्वसनीयता पर संदेह है.

हरिकेश कहते हैं, ‘दस साल पहले सतना जिले में जेपी सीमेंट प्लांट को जमीन देने के एवज में क्षतिपूर्ति वन लगाने के लिए जब सतना में जमीन नहीं मिली, तो छतरपुर जिले के बिजावर में जमीन दी गई. इतने सालों में वहां एक पेड़ तक नहीं लगा. सूचना के अधिकार से पता चला कि कैंपा फंड में 10 करोड़ तो जमा हुए, लेकिन पौधे नहीं लगाए. इसलिए सरकार की विश्वसनीयता तो कहीं है ही नहीं.’

अजय दुबे बताते हैं, ‘मध्य प्रदेश नर्मदा परियोजना में डूबी वनभूमि की क्षतिपूर्ति के लिए एक नेशनल पार्क, दो सेंचुरी और एक कंजर्वेशन रिजर्व बनना था. जो अब तक तीस सालों में भी नहीं बने हैं. इस मामले में हर सरकार का ट्रैक रिकॉर्ड खराब है.’

यहां पूर्ववर्ती शिवराज सरकार के नर्मदा किनारे 7 करोड़ पौधे लगाने संबंधी दावे का भी जिक्र जरूरी है. वे पौधे दूरबीन लेकर ढूंढ़े से भी नजर नहीं आते हैं. इसी लिए स्थानीय लोग किसी भी झांसे में आकर जंगल नहीं कटने देना चाहते हैं.

जंगल बचाने के समर्थन में सोशल मीडिया कैंपेन चला रहे अर्पित जैन कहते हैं, ‘मान लें कि पेड़ लगा देंगे लेकिन जंगल कटने पर जो पशु-पक्षी आहुति चढ़ेंगे, वे कैसे वापस आएंगे?’

संकल्प बताते हैं, ‘382 में से केवल 62 हेक्टेयर मुख्य खनन क्षेत्र है. बाकी ज़मीन में खनन प्रक्रिया से निकला मलबा डंप होगा. मलबा उस जमीन पर डंप कर सकते हैं जहां क्षतिपूर्ति वन स्थापित करना है. इससे केवल 62 हेक्टेयर जंगल कटेगा. भरा-पूरा जंगल क्यों उजाड़ें? जंगल एक दिन में खड़ा नहीं होता. 100 पेड़ लगाएंगे, तब 10 जीवित बचेंगे.’

बात सही है. इसकी पुष्टि मध्य प्रदेश वन विभाग के हालिया आंकड़े भी करते हैं. जिनके मुताबिक बीते छह सालों में सरकार द्वारा पौधरोपण पर 1,638 करोड़ रुपये खर्च करने के बावजूद भी 100 वर्ग किलोमीटर जंगल घट गया है.

बीते पांच जून को पर्यावरण दिवस के मौके पर प्रदर्शन करते लोग.
बीते पांच जून को पर्यावरण दिवस के मौके पर प्रदर्शन करते लोग.

‘पर्यावरण संबंधी संवैधानिक अधिकारों को भी ठेंगा दिखाया जा रहा है’

अप्रैल माह में सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाने वाली नेहा सिंह ने द वायर  से बात करते हुए कहा, ‘जहां पर्यावरण संरक्षण कानूनों की अनदेखी करके पर्यावरण को क्षति पहुंचाई जाती है, वहां सार्वजनिक स्वास्थ्य को नुकसान होता है. ऐसा सुप्रीम कोर्ट और एनजीटी का भी मानना है. सुप्रीम कोर्ट ने स्वयं कहा है कि हरित क्षेत्र को बचाने की जरूरत है, पेड़ों को बिना काटे भी रास्ता निकाला जा सकता है, लोग विकल्प तलाशें. संविधान के अनुच्छेद-21 में भी ‘पर्यावरण के अधिकार’ की बात कही गई है.’

महाराष्ट्र के ‘आरे जंगल’ काटे जाने पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा लगाई रोक का उदाहरण देते हुए वे कहती हैं, ‘हीरों की कीमत जंगलों के असंख्य लाभों के बराबर नहीं आंक सकते. जंगल काटने का लाभ उन बड़ी-बड़ी कंपनियों को ज्यादा होता है जिनका पर्यावरण संरक्षण में सबसे कम योगदान होता है और सबसे ज्यादा नुकसान स्थानीय लोगों और वन्यजीवों का होता है.’

लेकिन अफसोस कि इन तथ्यों के बावजूद भी सरकारें विकास के नाम पर बार-बार पर्यावरण की बलि देती नज़र आती हैं जबकि संविधान का अनुच्छेद-21 हमें स्वस्थ वातावरण में जीने का अधिकार देता है, अनुच्छेद 48 (ए) राज्य सरकार को स्पष्ट निर्देश देता है कि वह पर्यावरण की सुरक्षा और उसमें सुधार करे एवं वन और वन्यजीवों की रक्षा करे और अनुच्छेद 51 (ए) नागरिकों को पर्यावरण की रक्षा व संवर्धन करने का कर्तव्यबोध कराता है.

नागरिक तो अपने कर्तव्यों का पालन करते दिख रहे हैं लेकिन सरकारें राजस्व की लालसा में अपने संवैधानिक दायित्वों को ठेंगा दिखा रही हैं.
बक्सवाहा जंगल का मसला तो कुछ ज्यादा ही रोचक है. केवल सत्तापक्ष ही नहीं, विपक्ष भी इस जंगल को काटने का मौन समर्थन कर रहा है.

अजय दुबे कहते हैं, ‘सरकार की निगरानी और उसके फैसलों पर सवाल उठाना विपक्ष का काम है. बक्सवाहा के लिए देशभर से आवाजें उठ रही हैं लेकिन मध्य प्रदेश के नेता प्रतिपक्ष कमलनाथ या राज्य व केंद्र के किसी भी कांग्रेसी नेता ने इस पर जुबां नहीं खोली है. जो भाजपा संगठन पर्यावरण और संस्कृति से जुड़ाव की बात करता है, वह भी चुप है.’

इस संबंध में गौरतलब पहलू है कि मध्य प्रदेश से सांसद और केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने भी पर्यावरण दिवस के दिन एक लेख लिखा था. जिसमें उन्होंने लिखा था, ‘हमारी संस्कृति में धरती, वृक्ष, नदी, पर्वत, पशु-पक्षी इसलिए पूज्य हैं क्योंकि इन्हीं के अस्तित्व पर हमारा भविष्य टिका है. हम अपनी आवश्यकताओं से अधिक का दोहन न करें तो संतुलन बना रहेगा.’

उन्होंने लिखा था, ‘प्रकृति, पर्यावरण और मानव के बीच का साम्य जब भी गड़बड़ाता है तो प्रकृति का प्रकोप ग्लोबल वॉर्मिंग और कोविड-19 जैसी महामारी के रूप में मानव को झेलना पड़ता है. इसके मूल में कहीं न कहीं प्रकृति के साथ किए गए खिलवाड़ ही हैं.’

बक्सवाहा के परिप्रेक्ष्य में इन शब्दों को देखें, तो ठीक उलटा हो रहा है. वृक्षों को काटकर, पशु-पक्षियों की बलि देकर, नदी-नलों का रुख मोड़कर, धरती का गर्भ चीरते हुए हीरे का दोहन करना क्या आवश्यकता से अधिक की श्रेणी में नहीं आता? क्या बक्सवाहा के अस्तित्व पर कुल्हाड़ी चलाने से प्रकृति का संतुलन नहीं बिगड़ेगा और इसे प्रकृति के साथ खिलवाड़ नहीं माना जाएगा?

रियो टिंटो के समय आंदोलन का नेतृत्व करने और परियोजना के खिलाफ हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाने वाले हरिकेश बताते हैं, ‘अथक प्रयास करके रियो टिंटो को कदम वापस खींचने पर मजबूर किया था. हम निश्चिंत थे, लेकिन कांग्रेस ने सरकार बनाते ही फाइल वापस खोल दी और बिड़ला ग्रुप को लाकर यहां बैठा दिया. अब भाजपा भी सौदे पर आगे बढ़ रही है. संसाधनों की लूट में दोनों दल मिले हुए हैं. इसलिए सत्तापक्ष के साथ विपक्ष भी चुप है.’

विपक्ष की चुप्पी ऐसे समझें कि कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष और नेता प्रतिपक्ष कमलनाथ पर्यावरण दिवस पर बधाई देते हुए लिखते हैं, ‘अधिक से अधिक पेड़ लगायें, प्रकृति के संरक्षण का संकल्प लें और पर्यावरण की रक्षा कर जीवन की रक्षा करें.’

लेकिन शायद वे बक्सवाहा जंगल को प्रकृति और पर्यावरण का हिस्सा नहीं मानते इसलिए वे और उनकी पार्टी मुद्दे पर चुप्पी साधे हैं.

वैसे चुप्पी का असल कारण यह है कि इस परियोजना की शुरुआत 2002 में कांग्रेस ने ही की थी और 2019 में आगे बढ़ाने का काम भी उसने ही किया. दूसरी तरफ लोगों से रोज एक वृक्ष लगाने की अपील करने वाले मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की भी कथनी-करनी का विरोधाभास देखिए कि लाखों वृक्षों को काटे जाने की अनुमति दिए बैठे हैं.

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गौरतलब है कि शिवराज ने पर्यावरण दिवस पर अपने लेख में लिखा था, ‘विनाश से बचने के लिए समाज को वृक्षों के साथ जीना सीखना होगा.’ काश कि समाज से पहले वे और उनकी सरकार स्वयं यह सीख लेते!

पर्यावरण के मुद्दे पर राजनीतिक अनदेखी की बानगी यह है कि जब मसले पर राजनीतिक दलों के इस विरोधाभास के संबंध में जब दलों का पक्ष जानने की कोशिश की गई, तो प्रवक्ताओं ने मुद्दे पर टिप्पणी करने से साफ इनकार कर दिया.

अजय दुबे कहते हैं, ‘जब भी प्राकृतिक संपदा को लूटने, जंगलों का विनाश करने या उद्योग जगत को फायदा पहुंचाने की बात होती है तो कांग्रेस-भाजपा साथ हो जाते हैं. वन भूमि इनके लिए सबसे आसान शिकार है क्योंकि पेड़-पौधे और वन्यजीव वोट नहीं डालते. जंगलों पर आश्रित लोग भी चुनाव प्रभावित करने की स्थिति में नहीं होते.’

वे आगे कहते हैं, ‘वैसे एनजीटी या न्यायपालिका से भी उम्मीद न रखें क्योंकि बात जब प्राथमिकता की हो तो विकास की जीत होती है और पर्यावरण की हार.’

अंत में मध्य प्रदेश के ही रायसेन जिले की उस घटना का जिक्र जरूरी हो जाता है जब अप्रैल माह में वन विभाग ने सागौन के दो पेड़ काटने के आरोप में एक व्यक्ति पर 1.21 करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया था. विभाग ने एक पेड़ की औसत आयु 50 साल मानते हुए इस दौरान उससे मिलने वाले लाभों की कीमत 60 लाख रुपये आंकी थी.

बक्सवाहा जंगल में 40 हजार सागौन के पेड़ कटेंगे. 60 लाख रुपये प्रति पेड़ के हिसाब से गणना करें, तो उनकी कीमत 24,000 करोड़ रुपये होती है. बाकी बचे 1,75,000 पेड़ों की कीमत आंकने पर कुल राशि परियोजना में मिलने वाले हीरों से भी अधिक होगी.

आम आदमी पर लागू यही नियम अगर सरकार पर लागू करें तो पर्यावरण बचाने को लेकर की जाने वाली नेताओं की किताबी बातें शायद वास्तविकता में तब्दील हो जाएं.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)

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