उत्तर प्रदेश की राजनीति में निषाद वोट अहम हो गए हैं, जिसे लेकर निषाद पार्टी अपने प्रभुत्व का दावा करती रही है. राज्य में 150 से अधिक विधानसभा सीटें निषाद बहुल हैं, ऐसे में यह समुदाय निर्णायक भूमिका में हो सकता है. यही वजह है कि विधानसभा चुनाव की सुगबुगाहट बढ़ते ही निषाद वोटों पर अपने कब्ज़े को लेकर निषाद पार्टी और बिहार की विकासशील इंसान पार्टी के बीच खींचतान शुरू हो गई है.
यूपी विधानसभा चुनाव के पहले निषाद वोटों पर अपने कब्जे को लेकर निषाद पार्टी और बिहार की वीआईपी (विकासशील इंसान पार्टी) के बीच घमासान शुरू हो गया है.
विकासशील इंसान पार्टी के अध्यक्ष मुकेश सहनी ने लखनऊ का दौरा कर प्रदेश की 160 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी है. उधर निषाद पार्टी के अध्यक्ष डॉ. संजय निषाद भाजपा नेतृत्व से मांग कर रहे हैं कि वह उन्हें यूपी में उपमुख्यमंत्री का चेहरा बनाए और केंद्र व यूपी में सरकार में जगह दे.
वह भाजपा से निषाद वोटों की पूरी कीमत वसूलना चाहते हैं जो दो वर्षों में यूपी सरकार के साथ रहने के बावजूद उन्हें नहीं मिली है.केंद्रीय मंत्रिमंडल में उनके बेटे प्रवीण निषाद को जगह न देकर भाजपा ने जता दिया है कि वह उनकी सौदेबाज़ी को ज़्यादा भाव नहीं देना चाहती. डॉ.क्टर संजय निषाद ने मंत्रिमंडल में जगह नहीं मिलने पर अपनी नाराज़गी जता दी है.
अब देखना दिलचस्प होगा कि दोनों दल आखिर में भाजपा के साथ रहते हैं, किसी दूसरे खेमे से जुड़ते हैं या अकेले-अकेले दंगल में उतरते हैं.
निषाद पार्टी यूपी में और वीआईपी बिहार में भाजपा की सहयोगी पार्टी है लेकिन दोनों यूपी के दंगल में साथ नहीं हैं और अलग-अलग दिशा में चल रहे हैं. इससे इस चर्चा को बल मिल रहा है कि भाजपा दोनों दलों को आपस में लड़ाकर दोनों की सौदेबाजी की ताकत को कम करना चाहती है.
मुकेश सहनी जुलाई महीने के पहले हफ़्ते लखनऊ में थे. उन्होंने दो जुलाई को यूपी के सभी अखबारों में फुल पेज का विज्ञापन दिया. इस विज्ञापन में कहा गया था- ‘निषादों ने ललकारा है, बिहार ही नहीं उत्तर प्रदेश में भी सरकार बनाना है.’
अपने को ‘सन ऑफ मल्लाह’ कहने वाले बिहार सरकार में पशुपालन एवं मत्स्य मंत्री एवं मुकेश सहनी दो जुलाई को लखनऊ पहुंचे. वे लखनऊ की सड़कों पर वाहनों के बड़े काफिले के साथ निकले. रास्ते में नारे लग रहे थे- ’22 की तैयारी है, वीआईपी की बारी है’, ‘देखो-देखो कौन आया, शेर आया, शेर आया ‘, ‘न ही चाय वाला, न ही साइकिल वाला, निषादों की नैया पार लगाएगा नाव वाला.’
नाव विकास इंसान पार्टी का चुनाव चिह्न है. मुकेश सहनी ने गोमतीनगर में अपनी पार्टी के प्रदेश कार्यालय का उद्घाटन किया. इसी इलाके में दस दिन पहले डॉ. संजय निषाद ने निषाद पार्टी के डिजिटल ऑफिस का उद्घाटन किया था.
मुकेश साहनी ने 3 जुलाई को लखनऊ के एक बड़े होटल में प्रेस कॉन्फ्रेंस कर घोषणा की है कि वह प्रदेश की 160 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ेंगे. ये सीटें निषाद बहुल हैं. उनका कहना था कि फिलहाल उनका अभी किसी भी दल से गठबंधन का इरादा नहीं है.
उन्होंने कहा कि निषाद आरक्षण को केंद्र सरकार पूरा कर सकती है. इसलिए वह यूपी के जरिये दिल्ली में ताकत बढ़ाना चाहते हैं. दिल्ली का रास्ता लखनऊ से होकर जाता है. इसलिए बिहार में पार्टी को मजबूत करने के बाद वह यूपी में आए हैं.
उन्होंने घोषणा की कि 25 जुलाई को पूरे प्रदेश में उनकी पार्टी पूर्व सांसद फूलन देवी का शहादत दिवस मनाएगी. इसके बाद हर जिले पर रैली करने की योजना है.
निषाद पार्टी के बारे में उन्होंने सवाल पूछे जाने पर कहा कि डॉ. संजय कुमार निषाद और उनका मिशन एक ही है, ‘डॉ. संजय भाई हैं. उनको जहां भी जरूरत होगी, मै साथ दूंगा. वर्ष 2017 में मैंने उनका बहुत साथ दिया था लेकिन अपनी पार्टी होने के बावजूद डॉ. संजय एक सीट के लिए कभी भाजपा तो कभी सपा से समझौता कर लेते हैं. यह ठीक नहीं है. वह पार्टी नहीं चला रहे हैं. यदि वह सही नीति पर चलते तो आज हम साथ रहते.’
मुकेश सहनी अपने साथ बिहार के चारों विधायकों- स्वर्णा सिंह, मिश्रीलाल यादव, मुसाफिर पासवान, राजू सिंह के साथ आए थे. उन्होंने जिस अंदाज में इस बार यूपी की राजनीति में एंट्री की है, उससे लगता है कि इस बार वह यूपी की राजनीति में पैर जमाने के बारे में गंभीर है और वर्ष 2017 की तरह अचानक यूपी की राजनीति से गायब नहीं हो जाएंगे.
मुकेश सहनी ने चौधरी लौटनराम निषाद को वीाईपी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया है. लौटनराम निषाद पढ़े-लिखे जुझारू निषाद नेता हैं. वे सपा के पिछड़ा वर्ग सेल के अध्यक्ष थे. उन्होंने एक बयान में भगवान राम को ‘काल्पनिक पात्र’ कहा था. इसके बाद उन्हें सपा से निकाल दिया गया.
लौटनराम लंबे समय से यूपी की राजनीति में सक्रिय हैं और निषादों के बीच उनकी अच्छी पैठ है. यदि उन्हें खुलकर काम करने की छूट मिली तो वे वीआईपी को लड़ने लायक बनाने में सक्षम हैं.
पत्रकार वार्ता में बिहार में खुद की सीट पर चुनाव हार जाने के सवाल पर मुकेश सहनी का जवाब था, ‘हम ऐसे ‘बाजीगर’ हैं जो हार के जीत गए और आज सरकार में हैं, मंत्री हैं और हमारे सिर पर ताज है. ‘
यह कहते हुए दीवार फिल्म के डायलॉग की तरह मुकेश सहनी मानो डॉ. संजय कुमार निषाद से पूछ रहे थे कि ‘हम मंत्री हैं, सिर पर ताज है, आपके पास क्या है?’
मुकेश साहनी के इस सवाल का जवाब डॉ. संजय निषाद कुशीनगर जिले में दे रहे थे.
जिस वक्त मुकेश सहनी लखनऊ के पंचसितारा होटल में प्रेस कॉन्फ्रेंस कर यूपी में चुनाव लड़ने की घोषणा कर रहे थे, उस वक्त निषाद पार्टी के अध्यक्ष संजय कुमार निषाद कुशीनगर के कार्यकर्ताओं की एक कार्यशाला में थे. वे इस कार्यशाला में अगुवा कार्यकर्ताओं को समझा रहे थे कि निषाद पार्टी को कैसे मजबूत बनाना है और कैसे लखनऊ और फिर दिल्ली की सत्ता पर कब्जा करना है.
डॉ. संजय कुमार निषाद रोचक शैली में कार्यकर्ताओं को बता रहे थे कि ‘पॉलिटिकल पावर इज़ गाॅड पावर यानी राजनीतिक शक्ति ही भगवान की शक्ति है. इसलिए पॉलिटिकल पावर की ‘पूजा करो. पूजा करने का मतलब है पूरी जानकारी रखना. इसलिए अपनी सेना बनाओ. सत्ता पर कब्जा करो. जैसे एक दरवाजा चार ‘कब्जे’ से खड़ा रहता है, उसी तरह तुम राजनीतिक शक्ति के ‘कब्जा ’ बन जाओ ताकि तुम्हारे बिना कोई सत्ता में खड़ा ही न हो सके.’
डॉ. संजय निषाद इस कार्यशाला में निषादों को समझा रहे थे, ‘आरक्षण लेना ही हमारा ध्येय है जिसके लिए सत्ता पर कब्जा जमाना है. आरक्षण से हाकिम पैदा होते हैं, नौकरी मिलती है इसलिए निषादों और उनकी सभी उपजातियों को एससी का आरक्षण जरूरी है. हम यूपी में 18 फीसदी हैं. निषादों के साथ दूसरी जातियों को भी जोड़ो. ऐसी स्थिति बना दो कि जिसको जीतना हो वह हमारे साथ आने को मजबूर हो जाए.’
खुद को ‘पॉलिटिकल गॉडफादर आफ फिशरमैन’ कहने वाले डॉ. संजय कुमार निषाद को बखूबी पता है कि निषाद वोटों पर कब्जे के लिए घमासान मचा हुआ है इसलिए वे बिना लाग लपेट कार्यकर्ताओं को बार-बार एहसास दिला रहे हैं कि वही उनके एकमात्र अगुवा हैं.
कार्यशाला में उनका आह्वानथा, ‘ मेरे साथ आओ. मैं तुम्हारा सेनापति हूं. मैं तुम्हारी लड़ाई दिल्ली तक लड़ रहा हूं. मेरे साथ आ गए तो देश की संसद में 80 मझवार- मल्लाह सांसद पहुंचा दूंगा. राज्यों की विधानसभाओं में 700 विधायक हमारे होंगे. निषादों को आलू की तरह सबकी थाली का सब्जी नहीं बनना है. तुम्हारी अपनी थाली (निषाद पार्टी का चुनाव चिह्न भोजन भरी थाली) बन गई है. आलू नहीं चालू बनो. जिस दिन तुम चालू बन जाओगे, तुम्हारी सरकार बन जाएगी.’
एक ही दिन के ये दो दृश्य यह संकेत दे रहे हैं कि यूपी में निषादों का नेता होने का संघर्ष बड़ा भीषण होगा.
ठीक पांच वर्ष पहले 2017 के विधानसभा चुनाव के पहले भी मुकेश सहनी और डॉ. संजय कुमार निषाद आमने-सामने हुए थे. निषाद पार्टी (निर्बल इंडियन शोषित हमारा आम दल ) 2013 में बन चुकी थी. उधर 2016 के बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा का स्टार प्रचारक बन मुकेश सहनी भी खूब चर्चा बटोर चुके थे.
बिहार विधानसभा चुनाव के बाद वे 2017 के विधानसभा चुनाव के पहले यूपी में सक्रिय हो गए. उन्होंने राष्ट्रीय मछुआरा आयोग गठित करने और मांझी, मल्लाह, केवट और उसकी पर्यायवाची जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने की मांग को लेकर रथ यात्राएं निकालनी शुरू कर दी.
उन्होंने निषाद समाज में पैठ बनाने के लिए गोरखपुर में डेरा डाल दिया. उन्होंने ही 10 जुलाई 2016 को विश्व मछुआरा दिवस पर सम्मेलन कर गोरखपुर के निषाद मंदिर में पूर्व सांसद फूलन देवी की मूर्ति लगाने की घोषणा की. मुकेश साहनी की यह पहल स्थानीय निषाद नेताओं को पसंद नहीं आई.
स्थानीय निषाद नेताओं में यह चर्चा थी कि मुकेश सहनी भाजपा के लिए निषादों को जोड़ने के लिए यह सब कर रहे हैं. निषाद पार्टी ने मौका देखकर उनसे बात की और कहा कि वह मिलजुलकर फूलन देवी की मूर्ति स्थापित करेंगे. इसके बाद निर्णय हुआ कि 25 जुलाई को फूलन देवी की शहादत दिवस पर बाघागाड़ा में उनकी 30 फीट उंची प्रतिमा लगायी जाए. यह विशालकाय मूर्ति मुकेश साहनी ने मुंबई से बनवाकर मंगाई थी. इसी दिन चंपा देवी पार्क में विशाल रैली करने की भी घोषणा की गई.
गोरखपुर जिला प्रशासन ने अनुमति न होने की बात कह कर प्रतिमा स्थापित नहीं होने दी. प्रतिमा तो स्थापित नहीं हुई लेकिन 25 जुलाई 2016 को निषाद पार्टी, राष्ट्रीय निषाद एकता परिषद और राष्ट्रीय निषाद विकास संघ ने रामगढ़ताल किनारे चंपा देवी पार्क में बड़ी रैली की. रैली में 25 हजार से अधिक लोग जुटे. पूरा मैदान मैरून टोपी और झंडे से पट गया और ‘जय निषाद राज’ के नारे से गुंजायमान हो गया.
प्रशासन द्वारा मूर्ति जब्त कर लेने पर रैली स्थल पर फूलन देवी का फ्लैक्स का विशाल कटआउट लगा दिया गया. इस रैली में भीड़ निषाद पार्टी ने ही जुटाई थी. रैली में मुकेश साहनी के चंद समर्थक ही थे. पूरी रैली में डॉ. संजय कुमार निषाद छाये रहे. इस रैली के बाद मुकेश साहनी यूपी में नजर नहीं आए.
पूर्व सांसद फूलन देवी की मूर्ति तो अब तक स्थापित नहीं हो पायी है लेकिन निषाद पार्टी आगे बढ़ गई. फूलन देवी की मूर्ति आज भी बाघागाड़ा के पास सड़क किनारे एक घर के सामने रखी हुई है.
निषाद पार्टी 2017 के विधानसभा चुनाव में डॉ. अयूब की पीस पार्टी से दोस्ती कर 72 सीटों पर चुनाव लड़ी. उसे सिर्फ एक सीट-ज्ञानपुर पर जीत मिली लेकिन कई सीटों पर उसे अच्छे-खासे वोट मिले. निषाद पार्टी को 2017 के विधानसभा चुनाव में कुल 5,40,539 वोट मिले.
डॉ. संजय कुमार निषाद गोरखपुर ग्रामीण सीट से चुनाव लड़े थे. वे चुनाव हारे लेकिन उन्हें 34,869 वोट मिले. एक वर्ष बाद 2018 में निषाद पार्टी और पीस पार्टी ने सपा से हाथ मिला लिया.
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की गोरखपुर लोकसभा सीट पर हुए उपचुनाव में सपा ने डॉ. संजय के बेटे प्रवीण निषाद को उम्मीदवार बना दिया और उन्होंने सभी अनुमान ध्वस्त करते हुए भाजपा उम्मीदवार उपेंद्र दत्त शुक्ल को पराजित कर खलबली मचा दी. लेकिन निषाद पार्टी और सपा का साथ एक वर्ष ही चला.
वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में निषाद पार्टी भाजपा के साथ हो ली. भाजपा ने संत कबीर नगर से प्रवीण निषाद को उम्मीदवार बना दिया और वे सांसद हो गए. बदले में डॉ. संजय निषाद ने पूरे चुनाव में भाजपा का प्रचार किया.
डॉ. संजय को उम्मीद थी कि भाजपा उन्हें राज्यसभा में भेजेगी और केंद्र या प्रदेश सरकार में भी सत्ता में साझेदार बनाएगी लेकिन उनके दोनों अरमान पूरे नहीं हुए. भाजपा ने बसपा से भाजपा में आए पूर्व मंत्री जयप्रकाश निषाद को राज्यसभा में भेज दिया.
जयप्रकाश निषाद गोरखपुर के ही नेता हैं. डॉ. संजय को करारा झटका लगा कि उनके बजाय एक दूसरे निषाद नेता को राज्यसभा में भेजा गया. वह ‘अपमान’ का कड़वा घूंट चुप होकर पी गए. अब बेटे को मंत्रिमंडल में जगह न देकर भाजपा ने उन्हें दूसरी बार ज़ोर का झटका दिया है.
अगले दो वर्ष में निषाद आरक्षण के मुद्दे पर भी योगी-मोदी सरकार ने कुछ नहीं किया. जिला पंचायत चुनाव में भाजपा ने निषाद पार्टी को पूछा तक नहीं जबकि बड़ी संख्या में निषाद पंचायत चुनाव में भागीदारी करना चाहते थे. डॉ.संजय भाजपा के साथ लड़े कि अकेले चुनाव लड़ें, इसी उहापोह में पड़े रहे और पंचाचत चुनाव ठीक से नहीं लड़ सके.
निषाद पार्टी को लेकर भाजपा की कई मुश्किलें हैं. भाजपा जानती है कि यदि उसने निषाद पार्टी की मांग पूरी भी कर दी तो वे यहीं तक रुकने वाले नहीं हैं. ज्यादा राजनीतिक शक्ति पाने के बाद उनकी महत्वाकांक्षा और बढ़ जाएगी जिसे पूरा कर पाना उनके लिए मुश्किल होगा.
साथ ही भाजपा यह भी जानती है कि यदि निषाद जातियां एकजुट होकर अपनी पार्टी के पीछे गोलबंद हो गई तो प्रदेश की राजनीति में सपा, बसपा के बाद एक और नई राजनीतिक ताकत तैयार हो जाएगी जो सत्ता की साझेदारी नहीं दावेदारी करेगी.
भाजपा की तीसरी बड़ी दिक्कत यह है कि डॉ. संजय कुमार निषाद उसी गोरखपुर से आते हैं जहां से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ हैं. योगी आदित्यनाथ कभी नहीं चाहेंगे कि उनके गढ़ में कोई ‘वास्तविक राजनीतिक ताकत’ आगे बढ़े. इस कारण योगी खेमा निषाद पार्टी की मांग को अपनी ताकत से कई गुना बढ़ा-चढ़ाकर बताई जानी वाली मांग बताता है और उसे ज्यादा तवज्जो नहीं देने की वकालत करता है.
अब लगता है कि भाजपा ने इस द्वंद की काट वीआईपी की बिहार के बाहर अपनी ताकत को बढ़ाने की महात्वाकांक्षा को हवा देकर किया है. वीआईपी की यूपी में सक्रियता से निषाद वोटों पर निषाद पार्टी के एकछत्र दावे को चुनौती मिलेगी और उसकी राजनीतिक सौदेबाजी की ताकत को भी कमजोर करेगी. वीआईपी की यूपी की राजनीति में एंट्री को इसी तौर पर देखना चाहिए.
यूपी की राजनीति में निषाद वोट बहुत अहम हो गए हैं. यह सही है कि 150 से अधिक सीटें निषाद बहुल हैं. यहां पर निषाद वोटर हार-जीत के लिए निर्णायक हो सकते हैं.
अब तक निषाद वोटर अब अपनी जाति के प्रत्याशियों को तवज्जो देता रहा है. निषाद वोटों की सर्वाधिक लाभार्थी सपा रही है क्योंकि वह इस समुदाय के लोगों को बड़ी संख्या में टिकट देती रही है. बाद में बसपा ने भी इस पर ध्यान दिया और निषाद बहुल सीटों पर निषाद उम्मीदवार उतारने शुरू किए. इसका फायदा उसे भी हुआ.
वर्ष 2017 से भाजपा भी निषाद वोटों पर अपने को केंद्रित कर रही है. हाल में कांग्रेस ने भी निषाद मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए खूब जतन किए हैं. कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने लोकसभा चुनाव के दौरान ‘नाव यात्रा’ की तो तीन महीने पहले कांग्रेस ने इलाहाबाद में निषादों पर प्रदेश सरकार के अत्याचार को मुद्दा बनाते हुए इलाहाबाद के बसवार से बलिया के माझी घाट तक 400 किलोमीटर की यात्रा निकाली. इस यात्रा में कांग्रेस के नेता निषाद बहुल गांवो से गुजरे.
निषाद पार्टी इस समय बेहद दबाव में है. सभी दलों द्वारा निषाद वोटों को आकर्षित करने के लिए किए जा रहे प्रयासों से वह चिंतित तो थी ही, वीआईपी द्वारा पूरी ताकत से यूपी में खम ठोक खड़े हो जाने से उसे बड़ी चुनौती मिली है.
पहले सपा और फिर भाजपा से गठबंधन करने से निषाद पार्टी के समर्थकों का एक हिस्सा उससे निराश हुआ हैं. इसे हिस्से का मानना है कि निषाद अपने बूते यूपी में ‘निषाद राज’ स्थापित कर सकते हैं, इसलिए निषाद पार्टी को आरक्षण की मांग को लेकर अकेले चलना और लड़ना चाहिए.
पार्टी संगठन और निर्णय प्रक्रिया पर डॉ. संजय निषाद के परिवार के लोगों के ही वर्चस्व ने भी पार्टी स्थापना काल से जुड़े कई नेताओं को दूर कर दिया हैं.
भाजपा ही नहीं मुख्यधारा की सभी राजनीतिक दल जाति आधारित दलों को ज्यादा तवज्जो देते नहीं दिख रहे हैं. वे इन जातियों का वोट तो चाहते हैं लेकिन उन्हें यह मंजूर नहीं कि इन जातियों की कोई पार्टी उनसे राजनीतिक सौदेबाजी करे. इसलिए कभी दूर तो कभी साथ रखते हैं.
यहां तक कि चुनाव भी अपने चुनाव चिह्न पर लड़ने को कहते हैं ताकि संवेदनशील समय में कोई धोखा न हो. इसके साथ ही ऐसे दलों को साथ रखकर उन्हें धीरे-धीरे ‘अप्रासंगिक’ कर देने की कूटनीति भी अपनाई जाती है. निषाद पार्टी भी भाजपा के साथ जाने के बाद इसी ‘कूटनीति’ की शिकार हुई है. देखना होगा कि वह इस घेरेबंदी से कैसे बाहर निकलती है.
(लेखक गोरखपुर न्यूज़लाइन वेबसाइट के संपादक हैं.)