स्मृति शेष: पिछले दिनों उर्दू साहित्यकार और 90 वर्षों से ज़्यादा से छपने वाली पत्रिका ‘शायर’ के संपादक इफ़्तिख़ार इमाम सिद्दीक़ी इस दुनिया से चले गए. ‘शायर’ उन्हें पुरखों से विरसे में मिली थी, जिसे बनाए रखने का सफ़र आसान नहीं था, लेकिन उन्होंने ज़िंदगीभर अपना सब कुछ लगाकर इसे मुमकिन किया.
उम्र-ए-दराज़ मांग के लाई थी चार दिन
दो आरज़ू में कट गए दो इंतिज़ार में
कहावत, लोकोक्ति और मुहावरे की तरह मशहूर इस शेर को हमने बहादुर शाह ज़फ़र के नाम से सुन रखा है. हालांकि ये शेर अल्लामा सीमाब अकबराबादी (सैयद आशिक़ हुसैन) का है.
ये कोई ऐसी जानकारी नहीं, जो आजकल में सामने आई हो. फिर इसकी चर्चा क्यों? दरअसल पिछले दिनों उर्दू साहित्यकार और 90 वर्षों से ज़्यादा से छपने वाली पत्रिका ‘शायर’ के संपादक इफ़्तिख़ार इमाम सिद्दीक़ी इस दुनिया से रुख़्सत हो गए, जिनका पहला परिचय ही ये बनता है कि इस शेर के रचयिता उनके दादा जान हैं.
और दादा ने ही आगरे में इस साहित्यक उर्दू पत्रिका की बुनियाद डाली थी. सीमाब का नाम लेने के बाद कहना ज़रूरी है कि अकबराबाद (आगरा) के इस घराने ने अलग-अलग वक़्तों में उर्दू साहित्य को इस तरह समृद्ध किया कि दुर्लभ से दुर्लभ संदर्भों के लिए इनके साहित्यिक ख़ज़ाने को टटोला जा सकता है.
किताबों में दर्ज है कि दाग़ देहलवी के शिष्य रहे सीमाब के 3 हज़ार से ज़्यादा शागिर्द थे और वो हर घर में पढ़े जाते थे. गद्य और पद्य में उनकी नायाब रचनाओं का सिलसिला है.
उल्लेखनीय है कि सीमाब ने क़ुरान को नज़्म की शैली में अनुवाद किया था. किसी बात को शायरी में ढाल देने की उनकी सलाहियत का अंदाज़ा इससे लगा सकते हैं कि स्कूल के दिनों में भी वो परीक्षा देते हुए फ़ारसी शायरी का अनुवाद उर्दू में शेर कहकर करते थे.
मुग़ल शहज़ादी ज़ैबुन्निसा बेगम मख़्फ़ी पर उनकी किताब दस्तावेज़ी है. संस्कृत और हिंदी तक के जानकार सीमाब के पिता मोहम्मद हुसैन सिद्दीक़ी भी शायर और लेखक थे. हुसैन का एक परिचय ये भी है कि वो अजमेर में टाइम्स आफ इंडिया, प्रेस के शाखा प्रबंधक थे.
चूंकि यहां इफ़्तिख़ार इमाम सिद्दीक़ी और पत्रिका शायर के बहाने समय की गोद में हादिसे की मानिंद पलने वाले उन हौसलों की बात करनी है जिनको मौज-ए-बला के थपेड़े भी तोड़ न पाए, इसलिए सीधे अर्ज़ कर दूं कि सीमाब ने 1923 में आगरा में साहित्यिक और प्रकाशन संस्था ‘क़सर-उल-अदब’ की स्थापना की थी.
इसके यादगार प्रकाशनों पर बात की जा सकती है, लेकिन अभी सिर्फ़ ‘शायर’ के बारे में बता दें कि इसको 1930 में जारी किया गया जो आज भी निकल रहा है. सीमाब और उनके बेटे एजाज़ सिद्दीक़ी से होते हुए ये सिलसिला हमारे ज़माने में इफ़्तिख़ार इमाम सिद्दीक़ी तक पहुंचा.
90 से ज़्यादा बहारें देख चुके इस रिसाले को समकालीन उर्दू साहित्य में इफ़्तिख़ार साहब के नाम से ही पहचाना गया. उनके पिता एजाज़ सिद्दीक़ी का परिचय ये है कि वो न केवल शायर और लेखक थे बल्कि उनके चाहने वालों में पंडित नेहरू जैसे रहनुमा भी थे.
एजाज़ साहब ने भी जहां इस पत्रिका में अपने समय के साहित्य को दिशा दी, वहीं अपनी शायरी से भाषा और कल्चर को मालामाल किया.
ख़ैर, पहले साहित्य प्रेमी नेहरू वाले प्रसंग की तरफ़ आते हैं कि जब पंडित नेहरू ने गुजरात में ‘क़दम मिला के चलो’ का नारा दिया तो एजाज़ साहब ने इससे प्रभावित होकर एक नज़्म लिखी और अपनी पत्रिका में छाप दी.
बाद में यही नज़्म बंबई की एक इनामी प्रतियोगिता में शामिल हुई और लगभग 1800 उर्दू-हिंदी की नज़्मों के बीच इसको एक हज़ार का इनाम मिला. इनाम की वजह से पंडित नेहरू की तस्वीर के साथ ये नज़्म उर्दू-हिंदी की बेशुमार पत्र-पत्रिकाओं में छपी. और जब उर्दू की मासिक पत्रिका नया दौर में छपी तो नेहरू ने भी इसकी तारीफ़ की और फिर दिल्ली में इनकी मुलाक़ात हुई.
इस दौरान मशहूर गुलूकार मन्ना डे ने इसको अपनी आवाज़ देकर अमृत का घूंट पिला दिया, फिर हर साल राष्ट्रीय समारोह में इसका रिकॉर्ड बजने लगा और रेडियो से भी इसको ख़ूब प्रसारित किया गया.
बहरहाल, शायर शुरू से ही साहित्य और समाजवाद के लिए उदारवादी रहा, ख़ास तौर पर गांधी और नेहरू के विचारों को जगह देते हुए इसने लोकतांत्रिक और जम्हूरी मूल्यों पर केंद्रित विशेषांक निकाले.
आगरा के बाद ये सब बंबई से हुआ, हैरत इस पर है कि बंबई में कमाठीपुरा के पास गुलशन टॉकीज के सामने की जर्जर इमारत दीनानाथ की तीसरी मंज़िल पर एक तंग कमरे में रहकर साहित्य की सेवा करने वाले इस घराने को लोग जानते ज़रूर हैं, बस चर्चा नहीं करते.
ज़ेब-ए-दास्तान के लिए याद कर सकते हैं कि इन्हीं बदनाम गलियों में रहकर मंटो ने दुनिया को एक बड़े साहित्य से परिचित करवाया था. और यहीं किसी वक़्त रेलवे ऑडिट ऑफिस टूंडला में क्लर्क और बाद में टिकट कलेक्टर रहे अल्लामा सीमाब की साहित्यिक पत्रिका ‘शायर’ ने लगभग एक सदी का सफ़र तय कर लिया है.
इस यात्रा में हैरतों का सिलसिला है, जिसमें ये भी है कि कभी इस पत्रिका के सिलसिले को टूटने नहीं दिया गया. मगर अब शायद इमाम साहब के बाद इसकी कहानी ही रह जाएगी. मुंबई और आगरा में जिस पत्रिका ने साहित्य को सहेजने का दुर्लभ काम किया उसको 1950 की शुरुआत में इमाम साहब के ‘बाबूजी’ बंबई लेकर आए. इमाम साहब अपने पिता को बाबूजी बुलाते थे.
उन दिनों का क़िस्सा है कि मकान का किराया न दे पाने की वजह से बंबई की सड़कों पर इस घराने को रात गुज़ारने को मजबूर होना पड़ा. इसमें पेट की भूख को भी शामिल कर दें तो हैरत होगी कि आख़िर वो कौन सा जज़्बा रहा होगा जिसने इस पत्रिका को ज़िंदा रखा.
अभी सीमाब के क़ुरान के अनुवाद की चर्चा की गई थी, तो यहां ये जानना भी ज़रूरी है कि वो इसके प्रकाशन के लिए पाकिस्तान गए थे, जहां 1951 में उनका निधन हो गया. इमाम साहब के मुताबिक़, उस वक़्त के हालात की वजह से हिंदुस्तान में उनकी सारी संपत्ति हुकूमत ने ज़ब्त कर ली.
1950 के दंगे के अलावा आगरा में उनको सरकारी दमन का सामना करना पड़ा, उनके छापेख़ाने तक सील कर दिए गए. इसलिए अपने ही मुल्क में विस्थापन जैसा दर्द झेलते हुए उन्हें बंबई आना पड़ा.
अपनी एक नज़्म के हाशिया में एजाज़ साहब ने दर्ज किया है कि; पांच हज़ार किताबें और पत्रिका शोएब मोहम्मदिया कॉलेज को देने की वसीयत के साथ उन्होंने घर छोड़ा, लेकिन जिस शरणार्थी ने मकान पर क़ब्ज़ा किया उसने उसको रद्दी के भाव बेच दिया. इसी तरह बंबई में दो साल तक दरबदरी की वजह से हजारों किताबों को समंदर में बहाना पड़ा.
दीनानाथ बिल्डिंग में आने से पहले इस घराने को 15 बार अपना ठिकाना बदलना पड़ा. ये क़िस्सा किसी एक शख़्स का नहीं बल्कि नौ बच्चों और उनके मां-बाप का है. इमाम साहब के मुताबिक़, उन मुश्किल दिनों में बाबूजी मज़रूह सुल्तानपुरी और जां निसार अख़्तर के साथ मुशायरा पढ़ने लगे थे कि ज़िंदगी आसान हो जाए. .
उन दिनों का दर्द लिए उन्होंने शिकायती लहजे में दर्ज किया कि उस वक़्त सारे प्रगतिशील शायर फ़िल्मों में थे, लेकिन बाबूजी से किसी ने गीत लिखने को नहीं कहा सिवाय शकील बदायूंनी के जो ‘प्रगतिशील’ नहीं थे.
शकील बदायूंनी की मोहब्बत और संगीतकार नौशाद की पैरवी के बावजूद एजाज़ साहब फ़िल्मों में नहीं गए तो समझ सकते हैं कि वो कैसे इंसान रहे होंगे. सरदार जाफ़री इस बारे में लिखते है;
जिन कोठरियों में इंसानों के रहने के लिए जगह नहीं, उन्हीं में उनके (एजाज़) बीवी-बच्चों के साथ शायर की फ़ाइलें और काग़ज़ात और मसविदात रहते थे. मुसलसल अलालत के बावजूद कई बार तीन-चार मंज़िल की सीढ़ियां चढ़ते और उतरते थे. उनकी जिस्मानी ताक़त साथ देने से इनकार करती थी लेकिन वो भरी हुई बसों में सफ़र करने पर मजबूर थे. इलाज के लिए जितनी रक़म की जरूरत थी वो कभी उनकी जेब में नहीं आती थी, लेकिन न तो किसी के सामने दस्त-ए-सवाल दराज़ किया और न शिकायत की बस अंदर ही अंदर घुटते रहते थे.
उनको समझने के लिए ये क़िस्सा भी दिलचस्प है कि एजाज़ साहब ने राही मासूम रज़ा का एक लेख अपनी पत्रिका में सिर्फ़ ‘डेढ़ जुमलों’ की वजह से नहीं छापा. इसलिए राही ने उनको ‘पुरानी शराफ़त के मेयारों का पुजारी’ कहकर याद किया.
राही के शब्दों में,
‘वो बंबई जैसे बेदर्द तेज़ रफ़्तार शहर में भी अकबराबादी ही रहे. जमना के किनारे खड़े हुए एक मक़बरे की तरह अपनी जगह से हिले ही नहीं. वही शेरवानी, वही ज़बान, वही लहजा, वही किसी क़दीम शहर की रिवायतों में रची बसी शख़्सियत.
और शायरी पर राही ने कहा, ‘एजाज़ सिद्दीक़ी की शायरी भी घर से शेरवानी पहनकर निकलती है. सजे हुए मिसरे. तुर्शी हुई बातें…’
जी, ये बातें, घुटन, उसूल और ख़ुद्दारी उस बाप के बेटे की थी, जिनके कलाम और शायरी के दीवाने कुंदन लाल सहगल भी थे, वो उनकी ग़ज़लों के लिए जम्मू से तशरीफ़ लाते और रिकॉर्डिंग करते थे.
एक जगह इमाम साहब ने चर्चा की है कि उनके दादा ने ही सहगल और अकबर इलाहाबादी की मुलाक़ात करवाई थी. बाद में सहगल ने अकबर के इस कलाम को अपनी नायब आवाज़ दी थी.
बहरहाल, ये बातें दरमियान में आ ही गई हैं तो याद करवाता चलूं कि आपने फ़िल्म अर्थ की वो ग़ज़ल तो सुनी ही होगी कि;
तू नहीं तो ज़िंदगी में और क्या रह जाएगा
दूर तक तन्हाइयों का सिलसिला रह जाएगा
इमाम साहब का बयान है कि इस कलाम की शोहरत के बावजूद वो फ़िल्म की तरफ़ नहीं गए. बाबूजी से उनको ऐसी ही तालीम मिली थी, इसलिए सिनेमा के क़रीब रहते हुए भी उसका हिस्सा नहीं बने.
हालांकि जगजीत सिंह, चित्रा सिंह, पंकज उधास के अलावा सुधा मल्होत्रा जैसे गायकों ने उनके कलाम को आवाज़ दी और उन्होंने ख़ुद ज़िंदगी को आसान करने लिए दुनिया भर में मुशायरे पढ़े.
ये भी दिलचस्प है कि शायर घराने के इस चिराग़ ने निदा फाज़ली और बशीर बद्र जैसे शायरों को इंडस्ट्री से परिचित करवाया और अपने समय के बड़े साहित्य को ‘शायर’ में खुले दिल से जगह दी.
हैरत होती है कि ख़ुद तंगहाली में ज़िंदगी बसर करने वाले इस घराने ने कई साहित्यकारों को कई तरह से आसरा दिया और उनका सहारा बने.
अब उनके हौसले पर कोई क्या कह सकता है कि जब उन्होंने पचास पैसे के भुने हुए चने चबाकर ईद की ख़ुशियां मनाई और खैराती अस्पताल में खड़े होकर अपने लिए दवाएं ली हों. एजाज़ साहब की नज़्म का एक मिसरा है; ईद सरमायादारों की नहीं…
ऐसे घराने के योगदान को पेश करते हुए यहां शायर की ज़्यादा चर्चा करना असल में मजबूरी महज़ है कि उनके तमाम कारनामों को दर्ज करने की हिम्मत मुझ में नहीं है.
यूं तो इस पत्रिका को हर ज़माने में पसंद किया गया और बड़ों-बड़ों को इसमें छपने की चाह भी रही. और ये तो कल परसों का क़िस्सा है कि निदा फाज़ली जैसे क़लमकार भी ख़त लिखने को मजबूर हुए कि उनके कलाम को इसमें शामिल किया जाए.
ख़ैर, इस पत्रिका के सिलसिले को क़ायम रखने में इमाम साहब की मां का भी बड़ा रोल था. बाबूजी की मौत के बाद मां के हौसले पर ही वो इस पत्रिका को जारी रखने को राज़ी हुए थे.
ये प्रसंग सुनाया जाता है कि जब बाबूजी के निधन के बाद एसएस (शांति स्वरूप) निशात ने पैसों से भरा बैग उनको देना चाहा तब उनकी मां नसीम बानो ने निशात साहब से कहा, ‘आप हमारे बच्चों को भीख की तरग़ीब दे रहे हैं.’ निशात ये सुनकर सन्नाटे में आ गए, फिर बोले, ‘बताइए हम क्या कर सकते हैं आप लोगों के लिए?’ तो उन्होंने कहा, ‘कुछ ऐसा कर दीजिए कि शायर का सहारा हो जाए, ये जारी रहे.’
बाद का क़िस्सा ये है कि शायर में ‘ख़िज़ाब’ का जो इश्तिहार सालों से छप रहा है वो उन्हीं की कंपनी का है. और ये सिलसिला उनके निधन के बाद भी जारी है. एजाज़ साहब ने कहा था;
औराक़-ए-नज़्म-ओ-नस्र हों एजाज़ का कफ़न
मौत आए भी अगर तो किताबों के बीच आए
बहरहाल, बाबूजी की मौत के बाद 1978 से इमाम साहब ने इस पत्रिका की ज़िम्मेदारी संभाली. वो ज़्यादा पढ़े लिखे नहीं थे लेकिन उनका अध्ययन बहुत व्यापक था. इसलिए उन्होंने उर्दू की नई विधाओं को भी छापने में हिचक महसूस नहीं की. उर्दू की बिलकुल नई विधा ‘हालिया’ को जगह देकर उन्होंने इसके इकलौते रचनाकार तक को भरोसा दिया.
उल्लेखनीय है कि इस पत्रिका ने विशेष तौर पर इफ्तिखार साहब ने स्त्री लेखन को विशेषांक के अलावा भी किसी उर्दू पत्रिका की तुलना में सबसे ज़्यादा जगह दी.
पिछली एक शताब्दी में जाने कितने साहित्यकारों के हस्तलिखित पत्रों की प्रतिलिपियों को सहेजने का काम भी किया गया. ये बड़ी बात है कि संपादक के नाम आए तमाम ख़त आज भी महफूज़ हैं.
ये सफ़र आसान नहीं था, 1979 में इमाम साहब पत्रिका कि लिए दरभंगा जैसे सुदूर इलाक़े तक गए. मशहूर शायर ओवेस अहमद दौरां ने इसको याद करते हुए अपनी बेबसी और उनकी मोहब्बत का क़िस्सा लिखा है कि कैसे ढंग की जगह न होने की वजह से उनको उत्तर बिहार के गुमनाम इतिहासकार शादां साहब के यहां ठहराया गया और एक महीने यहां रहकर उन्होंने ख़रीददार बनाए.
‘चांद ग़ज़ल’ और ‘ये शायरी नहीं’ जैसे काव्य संग्रह के अलावा हज़ारों पन्ने पर फैली उनकी शायरी से अलग बता दें कि उनके गद्य को समकालीन उर्दू साहित्य में ख़ूब नक़ल किया गया. वो शब्दों से खेलते थे और दो आसान लफ़्ज़ों से चित्रकारी कर जाते थे. इस कड़ी में उनका कैरीकेचर लेखन भी ख़ूब था. एक संपादक के तौर पर वो कहते थे कि संपादक का दिल ‘क़ब्रिस्तान’ होना चाहिए, वो डाकिया न हो.
वो नए लेखकों की तलाश को ज़रूरी, दूसरी भाषाओं के साहित्य के पाठक होने को लाज़मी और ‘दोस्त-दारी’ को ग़लत समझते थे. खुले शब्दों में कहते थे संपादक वही है जो अपनी पत्रिका ख़ुद संपादित करता हो.
बहरहाल, वो कैसे संपादक थे इसको समझने के लिए बस एक प्रसंग सामने रखता हूं कि एक बार कुर्रतुलऐन हैदर ने शायर को बंद करवाने की धमकी तक दे डाली थी.
हुआ ये था कि कुर्रतुलऐन हैदर अपने विशेषांक के लिए बड़ी मुश्किल से इंटरव्यू देने को राज़ी हुई थीं और बाद में शर्त लगा दी थी कि मैं एडिट करूंगी फिर छापना.
इस दौरान इमाम साहब ने उनको ये भी बता दिया था कि दो साहित्यकारों ने अपने लेख दे दिए हैं. इसके बाद वो ज़िद पर अड़ गईं कि मैं लेख पढूंगी फिर वो छपेगा, जबकि लिखने वालों ने कह रखा था कि छपने से पहले लेख उनको न दिखाया जाए. इसके बाद उन्होंने धमकियां देनी शुरू कर दीं कि प्रेस और शायर दोनों बंद करवा दूंगी.
हालांकि इमाम साहब ने उनके हुक्म के बोझ तले दबे होने के बावजूद कोई समझौता नहीं किया और अपनी शर्तों पर ही पत्रिका को एडिट किया.
ख़ैर, एजाज़ साहब और बाद में इमाम साहब की आर्थिक तंगी पर चर्चा करते हुए मुशायरा को उनकी मजबूरी बताया गया. ऐसे ही एक मुशायरा के लिए 2002 में इमाम साहब मधेपुरा (बिहार) गए थे जहां से वापसी पर एक ट्रेन दुर्घटना में वो अपना पांव गंवा बैठे. फिर व्हीलचेयर पर भी उन्होंने हार नहीं मानी और शायर को उसी शान से निकालते रहे.
अंतिम समय तक इफ्तिखार साहब को ये दर्द रहा कि, क्या आज भी शायर जैसी ऐतिहासिक पत्रिका को परिचय की जरूरत है? अपने साहित्यकारों को बताने की जरूरत है कि आप शायर पढ़ते हैं या नहीं, आप शायर के बारे में जानते हैं कि नहीं?
शायद ये उनका जुनून ही था जो सरदार जाफ़री ने एजाज़ साहब की मौत के बाद इसके अंकों को देखकर कहा था, ‘ये इस बात की दलील हैं कि एजाज़ साहब ज़िंदा हैं और ज़िंदा रहेंगें.’
काश हम भी आने वाले दिनों में शायर को उसी शान से निकलता देखें और कहें कि इमाम साहब ज़िंदा हैं और ज़िंदा रहेंगें…