असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा शर्मा ने वामपंथी बुद्धिजीवियों, उदारवादियों और मीडिया पर निशाना साधते हुए दावा किया कि देश के बौद्धिक समाज में अब भी वाम.उदारवादियों का वर्चस्व है और मीडिया ने वैकल्पिक आवाजों की अनदेखी करते हुए उन्हें ज़्यादा स्थान दिया है. उन्होंने कहा कि वामपंथी सोच को चुनौती दी जानी चाहिए और अस्तित्व के लिए हमारे लंबे संघर्ष, इतिहास पर आधारित अधिक विचारोत्तेजक पुस्तकों को सही परिप्रेक्ष्य में तैयार किया जाना चाहिए.
गुवाहाटी: असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा शर्मा ने बुधवार को धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा को भारतीय सभ्यता के संदर्भ में परिभाषित करने की आवश्यकता पर जोर दिया. साथ ही, मीडिया पर वाम-उदारवादियों को तरजीह देने का आरोप लगाया.
शर्मा ने वामपंथी बुद्धिजीवियों, उदारवादियों और मीडिया पर निशाना साधते हुए दावा किया कि देश के बौद्धिक समाज में अब भी वाम-उदारवादियों का वर्चस्व है और मीडिया ने वैकल्पिक आवाजों की अनदेखी करते हुए उन्हें ज्यादा स्थान दिया है.
वह एक समारोह को संबोधित कर रहे थे, जिसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) प्रमुख मोहन भागवत ने ‘सिटिजनशिप डिबेट ओवर एनआरसी एंड सीएए-असम एंड द पॉलिटिक्स ऑफ हिस्ट्री’ (एनआरसी और सीसीएए-असम पर नागरिकता को लेकर बहस और इतिहास की राजनीति) शीर्षक वाली पुस्तक का विमोचन किया.
शर्मा ने दावा किया, ‘बौद्धिक आतंकवाद फैलाया गया है और देश के वामपंथी कार्ल मार्क्स से भी अधिक वामपंथी हैं. मीडिया में कोई लोकतंत्र नहीं है. उनके यहां भारतीय सभ्यता के लिए कोई जगह नहीं है, लेकिन कार्ल मार्क्स और लेनिन के लिए जगह है.’
भारत के दक्षिणपंथी लंबे समय से धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा पर सवाल खड़े करते रहे हैं. इस अवधारणा का पश्चिमी देशों के विचारकों और भारतीय बुद्धिजीवियों द्वारा समर्थन किया गया है, जिनका कहना है कि राज्य को सभी धर्मों से समान दूरी रखनी चाहिए.
शर्मा ने आरोप लगाया कि मीडियाकर्मी निजी बातचीत में वैकल्पिक विमर्श पर सहमत हो सकते हैं, लेकिन वे वामपंथी-उदारवादियों को जगह देने को तरजीह देते हैं, क्योंकि यह एक स्वतंत्र दृष्टिकोण को दर्शाता है.
उन्होंने कहा, ‘वामपंथी सोच को चुनौती दी जानी चाहिए और अस्तित्व के लिए हमारे लंबे संघर्ष, इतिहास पर आधारित अधिक विचारोत्तेजक पुस्तकों को सही परिप्रेक्ष्य में तैयार किया जाना चाहिए.’
असम के मुख्यमंत्री ने हालांकि, यह स्पष्ट नहीं किया कि भारतीय सभ्यता के संदर्भ में धर्मनिरपेक्षता को किस प्रकार परिभाषित किया जाए, लेकिन उन्होंने जोर दिया कि भारत ऋग्वैदिक काल से ही धर्मनिरपेक्ष देश रहा है.
उन्होंने कहा, ‘हमने दुनिया को धर्मनिरपेक्षता और मानवता की धारणा दी है. हमारी सभ्यता पांच हजार साल पुरानी है और हमने सदियों से विचार, धर्म और संस्कृति की विविधता को स्वीकार किया है.’
नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) का जिक्र करते हुए शर्मा ने कहा कि इस पर दो विचार हैं- असम के बाहर प्रदर्शनकारियों की मांग है कि सिर्फ हिंदुओं को ही नागरिकता क्यों दी जाए, मुस्लिम प्रवासियों को भी इसके दायरे में लाया जाए. हालांकि असम में अधिनियम के खिलाफ विरोध यह था कि न तो हिंदुओं और न ही अन्य देशों के मुसलमानों को नागरिकता दी जानी चाहिए.
उन्होंने दावा किया कि राष्ट्रीय स्तर पर तथाकथित धर्मनिरपेक्ष प्रदर्शनकारियों ने पूरे प्रदर्शन को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की.
उन्होंने कहा कि सीएए उन लोगों के लिए है जिन्होंने देश के विभाजन का दंश झेला और धर्म के आधार पर बने सांप्रदायिक देश के लोगों के लिए नहीं है.
गौरतलब है कि इसी समारोह में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) का हिंदू-मुसलमान विभाजन से कोई लेना-देना नहीं है और कुछ लोग अपने राजनीतिक हित साधने के लिए इन दोनों मामलों को सांप्रदायिक रंग दे रहे हैं.
बता दें कि, 11 दिसंबर 2019 को संसद से पारित सीएए कानून के तहत हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध, पारसी और ईसाई समुदायों के उन लोगों को भारत की नागरिकता दी जाएगी, जो पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में धार्मिक प्रताड़ता के कारण 31 दिसंबर, 2014 से पहले भारत आए.
वर्ष 2019 में जब सीएए लागू हुआ तो देश के विभिन्न हिस्सों में व्यापक विरोध प्रदर्शन हुआ और इन्हीं विरोध प्रदर्शनों के बीच 2020 की शुरुआत में दिल्ली में दंगे हुए थे.