गौरी की हत्या एक चेतावनी है. हत्यारों को पता है कि वे सुरक्षित हैं. वे बेखौफ़ होकर अपना काम करते रहेंगे.
‘अगर वे कहते हैं कि वे नहीं लिख पा रहे हैं तो पहले उन्हें लिखना बंद करने दीजिए. उसके बाद हम देखेंगे.’ अक्टूबर, 2015 में चलाए गए पुरस्कार वापसी आंदोलन का मखौल उड़ाने वाला यह बयान केंद्रीय संस्कृति राज्य मंत्री महेश शर्मा का है.
उनके इस मखौल के निशाने पर भारत के सर्वश्रेष्ठ लेखक और कलाकार थे, जिन्होंने एमएम कलबुर्गी, गोविंद पानसरे और नरेंद्र दाभोलकर की हत्याओं के ख़िलाफ़, साथ ही असहिष्णुता के माहौल, धमकी और डर की संस्कृति के विरोध में राज्य और राष्ट्रीय पुरस्कारों को लौटाने की घोषणा की थी.
उनमें से अधिकतर ने शर्मा की सलाह पर ध्यान नहीं दिया और लिखना बंद नहीं किया. कइयों ने मुखालफत में और ज़्यादा लिखा. लेकिन, ज़ाहिर तौर पर लेखकों को लिखने से रोकने के और भी दूसरे कारगर तरीके हैं.
गौरी लंकेश को इन्हीं तरीकों से रोक दिया गया. अज्ञात हमलावरों ने ठीक उनके घर के बाहर गोली मारकर उनकी हत्या कर दी. इस हत्या का तरीका इससे पहले की हत्याओं से कई मायनों में मिलता-जुलता था.
‘गौरी लंकेश पत्रिके’ की बेबाक संपादक गौरी लंकेश एक साहसी पत्रकार, तर्कजीवी और लेखका थीं. अब वे नहीं हैं. कई लोगों ने बिल्कुल सही टिप्पणी की है कि हत्या का तरीका पहले की हत्याओं के तरीकों से काफी मिलता-जुलता है. लेकिन, यहां एक इशारा है, जिस पर ध्यान दिया जाना चाहिए: इस हत्या में एक संदेश छिपा है.
हर बार हत्या के एक ही तरीके का इस्तेमाल उस संदेश का हिस्सा है: ‘हां, ये हमारा काम है. हमने फिर यह किया है और हम फिर ऐसा कर सकते हैं. यह आप सबके लिए चेतावनी है.’
शोक और गुस्से की ईमानदार अभिव्यक्तियों के बीच एंटी-सोशल मीडिया (असामाजिक मीडिया) पर सुनाई देने वाली आवाज़ें दंभ और आनंद से भरी हुई हैं, जो ये कहती हैं कि ये (उनकी मौत) उनके कर्मों का ही नतीजा है… कि उनकी हत्या राजनीति के कारण नहीं हुई, बल्कि उनकी हत्या पर राजनीति हो रही है. और ऐसा कहने वालों में कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो ख़ुद को पत्रकार मानते, कहते हैं.
गौरी लंकेश के हत्यारे चाहे जो भी हों, मीडिया के भीतर उनकी विचारधारा वाले कई मित्र हैं. हम में से कितने लोगों ने कभी यह सोचा था कि हम ऐसा वक़्त भी देखेंगे जब हथियारबंद हमलावरों के हाथों अपने ही सहकर्मी पत्रकार की हत्या पर लोग खुश होंगे, यहां तक कि संतोष प्रकट करते देखेंगे?
निश्चित तौर पर ऐसे लोग भी होंगे, जो इसे एक ‘दुखद घटना’ बताएंगे. वे 2002 में गुजरात दंगों में हुई हिंसा पर हमारे प्रधानमंत्री के अनमोल वचनों को याद कर सकते हैं: ‘अगर कोई कुत्ते का पिल्ला भी (गाड़ी के) पहिए के नीचे आ जाए, तो दुख होता है कि नहीं? निश्चित तौर पर होता है.’
लेकिन आज हम जिस हालात से रूबरू हैं, वह बेहद परेशान करने वाला तो है ही, साथ ही हिदायत देने वाला भी है. इन हत्याओं में छिपा संदेश कहता है: ‘हम एक बड़ा जाल डाल रहे हैं.’
लंकेश की हत्या किन लोगों ने की, इसके बारे में अभी हमें जानकारी नहीं है. लेकिन, ऐसी हत्याओं की प्रेरणा देने वाली, असहमति जताने वालों को ‘देशद्रोही’ घोषित करने वाली और ऐसे आलोचकों के ख़िलाफ़ हिंसा को शह देने वाली हिंसा और आतंक की संस्कृति के लिए कौन लोग ज़िम्मेदार हैं, ये हमें मालूम है.
अगर हम लंकेश की मृत्यु को एक तर्कजीवी की हत्या के तौर पर देखें, तो हम इसमें एक पैटर्न देख सकते हैं: दाभोलकर, पानसरे, कलबुर्गी (और अब लंकेश). और भले ही उनकी मृत्यु हिला कर रख देने वाली हो, लेकिन कुछ लोगों के लिए यह पूरी तरह से हैरतअंगेज़ नहीं है.
गौरी लंकेश की मुख्य पहचान एक पत्रकार की थी. अगर हम इसे एक पत्रकार की हत्या के तौर पर देखें, तो इसमें कामकाजी पत्रकारों की हत्या के पैटर्न से थोड़ा सा विचलन दिखता है. वैसे, इससे यह संकेत भी मिलता है कि हत्यारों के हाथ लंबे होते जा रहे हैं.
दिसंबर, 2015 में पानसरे मेमोरियल लेक्चर में मैंने कहा था कि कट्टरपंथियों का मुख्य ज़ोर तर्कजीवियों की हत्या करने पर है. वैसे तो उनके हमलों के निशाने पर पूरा धर्मनिरपेक्ष परिदृश्य है, लेकिन वे अपने सबसे बुरे रूप को तर्कजीवी एक्टिविस्टों के लिए बचाकर रखते हैं. आख़िरकार वही तो हैं, जो अंधविश्वासों पर हमला करते हैं और कट्टरपंथियो के मिथकों की बुनियाद पर हमला करते हैं. वे उन्मादियों को गुस्सा दिलाते हैं.
पत्रकारों की हत्याओं का पैटर्न क्या बतलाता है? 1992 से अब तक 40 से ज़्यादा पत्रकारों की हत्या हुई है, जिनमें से 27 हत्याओं का संबंध साफ तौर पर उनके लेखन और उने पेशे से जोड़ा जा सकता है. इस फेहरिस्त में लंकेश 28वीं होंगी.
लंकेश की हत्या भारत में होने वाली पत्रकारों की हत्याओं से थोड़ी अलग है. लेकिन, फिर भी इसे इस फ्रेम के भीतर शामिल किया जा सकता है. मैंने भारत में मीडियाकर्मियों की हत्याओं पर कमेटी फॉर प्रोटेक्शन ऑफ जर्नलिस्ट रिपोर्ट (2016) की भूमिका लिखी थी.
उस समय मैंने कहा था:
रिपोर्ट में जिन तीन उदाहरणों को केंद्र में रखा गया और 1992 से लेकर अब तक मारे गए 27 पत्रकारों की सीपीजे (कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स) की सूची में, बड़े शहरों के अंग्रेज़ी भाषी पत्रकार को खोजना मुश्किल है. यानी ऐसा पत्रकार जो किसी बड़े कॉर्पोरेट मीडिया घराने के अंग्रेज़ी आउटलेट में काम कर रहा हो और किसी ऐसे विषय पर लिख रहा हो, जो ताकतवरों के हितों को चुनौती देनेवाला हो.
मारे गए लोगों की फेहरिस्त गांवों के या कस्बों के अपेक्षाकृत साधारण, गैर-अंग्रेज़ी भाषी पृष्ठभूमि वाले पत्रकारों से भरी हुई है. इनमें से ज़्यादातर भारतीय भाषाओं में लिखते थे और प्रिंट माध्यम में काम करते थे- हालांकि इसके अपवाद भी हैं.
उदाहरण के लिए कश्मीर में सरकारी प्रसारणकर्ता दूरदर्शन के लिए काम करते हुए मारे गए पत्रकार. या अक्षय सिंह, जो आज तक जैसे लोकप्रिय चैनल के लिए काम कर रहे थे. वे इसके इंवेस्टीगेशन टीम के हिस्सा थे (जिसका मुख्यालय दिल्ली में है). लेकिन, इन्हें अपवाद ही कहा जा सकता है.
लंकेश एक बड़े शहर की पत्रकार थीं (ये अलग बात है कि वे कॉरपोरेट के आज्ञाकारी पत्रकारों के ठीक उलट थीं). हालांकि, हत्याओं के व्यापक पैटर्न की एक शर्त वे पूरी करती थीं- वे मुख्य तौर पर प्रिंट पत्रकार थीं, जो ज़्यादातर भारतीय भाषा- कन्नड़ में लिखा करती थीं, न कि अंग्रेज़ी में.
निश्चित तौर पर बड़े और नामी कॉरपारेट मीडिया घरानों के लिए काम करने वाले पत्रकार अपेक्षाकृत ज़्यादा सुरक्षित रहते हैं. कम से कम अब तक तो ऐसी स्थिति रही है.
उनका वर्ग, जाति, सामाजिक रुतबा और उन्हें नौकरी देने वालों का रसूख, एक तरह से उनके लिए बीमा कवच का काम करता है. मारे गए पत्रकारों की सूची में अभिजात्य या नामी-गिरामी पत्रकारों की लगभग गैरहाज़िरी का मतलब कहीं न कहीं ये जरूर निकलता है कि हम विशेषाधिकार प्राप्त लोग हैं और हमें एक किस्म का सामाजिक-राजनीतिक सुरक्षा कवच हासिल है. लेकिन, इससे यह भी पता चलता है कि हमारे कुछ ऐसा-वैसा करने की संभावना काफी कम है, जो किसी ताकतवर को चुनौती देने वाला हो.
लंकेश के हत्यारों ने इस बात का संकेत दिया है कि यह सुरक्षा कवच और खर्चीला हो गया है. वे किसी भी तरह हत्या कर सकते हैं. इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि पत्रकार के पास बोलने के लिए शक्तिशाली कॉरपोरेट मंच है या नहीं.
इस बात से भी ज़्यादा फर्क नहीं पड़ता कि जिस मंच से वह बोलता/बोलती हो, वह मंच उसके विचारों, यहां तक कि तथ्यों की अभिव्यक्ति पर पाबंदी लगाता है, उसे सेंसर करता हो या उसे कमज़ोर करता हो.
लंकेश की हत्या से और उसके बारे में हमें काफी कुछ जानना बाकी है, जिसमें वास्तविक हत्यारों की शिनाख़्त भी शामिल है, लेकिन एक बात बिल्कुल साफ है. हम अब सुरक्षित प्रजाति नहीं रहे. हमें हासिल सुरक्षा कवच को हटा लिया गया है.
आपको लगता है कि चीजें इससे ज़्यादा ख़राब नहीं हो सकती हैं? यकीन मानिए, आसार ऐसे ही हैं. भले हम उनकी (लंकेश की) हत्या करने वालों की पहचान से हैरत में पड़ जाएं, मगर उन्मादियों द्वारा तैयार की गई नफरत की फेहरिस्त समाप्त होने वाली नहीं है.
जब चीज़ें और बिगड़ जाएंगी तो एक डरपोक और हमजोली मीडिया नेतृत्व क्या करेगा? आख़िर उनसे क्या उम्मीद की जा सकती है, जो सरकारों द्वारा सार्वजनिक संसाधनों के निजीकरण के हर दौर का सबसे ज़्यादा फायदा उठाने वालों में शामिल रहे हैं?
वे हद से हद संपादकीय लिख कर (अगर लिखते हैं) कट्टरपंथी ‘हाशिये’ पर ‘लगाम कसने’ की मांग कर सकते हैं. वे यह स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होंगे कि यह कोई उन्मादी हाशिया नहीं है, बल्कि दक्षिणपंथी कट्टरपंथी राजनीति का पागल केंद्र है.
वे जान-बूझकर इस तथ्य पर आंखें मूंद लेते हैं कि नैतिक शून्यता के इस दौर को शीर्ष स्तर पर चुप्पी, मिलीभगत और शह से ही बरकरार रखा जा सकता है. अपने ‘दुश्मनों’ को फंसाने और बदनाम करने के लिए जाली दस्तावेज बनाने वाले और वीडियो में छेड़छाड़ करने वाले ‘पत्रकारों’ को इनाम देकर वे यही करते हैं.
सरकारी पुरस्कारों को लौटाने वाले लेखकों का मखौल उड़ाकर और उन पर ज़ुबानी हमला करके भी यही किया जाता है. और यह सब करते हुए उन्हें इस बात की पूरी जानकारी होती है कि इससे पहले शायद ही कभी इस देश के शीर्षस्थ पदों पर नैतिकता का ऐसा अभाव देखा गया हो. नेतृत्व की ऐसी संस्कृति समाज के सबसे बुरे को बाहर निकालती है और उसके सर्वश्रेष्ठ का गला घोंटने का काम करती है.
हत्याएं जारी रहेंगी, क्योंकि हत्यारों को पता है कि वे सुरक्षित उप-प्रजातियां हैं. उनके पैदल सिपाहियों में से कुछ लोगों को भले लक्ष्य के लिए कुर्बान कर दिया जाए, मगर यह ‘धर्मयुद्ध’ चलता रहेगा.
साफ तौर पर इन लोगों के हाथों में एक सूची है और वे इस सूची पर अमल करने वाले हैं. वे बेखौफ़ होकर अपना काम करते रहेंगे, क्योंकि उनके हर जुर्म को माफ कर दिया गया है.
उन्हें पता है कि अगर किसी को पकड़ा जाएगा, तो वह उनके बीच का सबसे कम महत्वपूर्ण साथी ही होगा. और यहां तक कि जिनके ख़िलाफ़ मामला दर्ज भी किया जाएगा, जैसा कि पानसरे की हत्या के मामले में हुआ, तो उसे इतना कमज़ोर और खोखला बना दिया जाएगा कि कि यह टिक ही न पाए.
अक्टूबर, 2015 को याद कीजिए. पुरस्कार लौटाने वाले लेखकों पर हमला करने के लिए हमारी संस्कृति के रक्षक महेश शर्मा की प्रधानमंत्री ने किसी तरह से निंदा नहीं की. बल्कि उनकी सरकार ने उन्हें इनाम के तौर पर पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम को रिटायरमेंट के बाद मिला लुटियन दिल्ली में स्थित बंगला दिया, जो राजधानी के सबसे अच्छे बंगलों में से एक है. (दिवंगत राष्ट्रपति के परिवार वालों ने उनके निवास को विज्ञान म्यूजियम में तब्दील करने की अपील की थी)
पिछले हफ्ते ही शर्मा को पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री के पद से नवाज़ा गया है. निश्चित तौर पर देश के सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र की जलवायु में गंभीर परिवर्तन लाने में उनके योगदान से इनकार नहीं किया जा सकता है.
तो, वर्तमान में हमें क्या करना चाहिए? क्या हमें शर्मा की सलाह मान लेनी चाहिए और ‘पहले लिखना बंद कर देना चाहिए’? क्या हमें लंकेश की हत्या के ज़रिये दिए गए संदेश को स्वीकार कर लेना चाहिए. या हमें उनकी और इस देश के लेखकों, कवियों, कलाकारों और छात्रों की निडरता से शिक्षा लेनी चाहिए जो झुके नहीं हैं, लड़ रहे हैं और हमारी आज़ादी को ज़िंदा बचाए हुए हैं? लंकेश हम सबकी तरफ से लड़ रही थीं. हमें उनके लिए खड़ा होना होगा और उस आतंक के ख़िलाफ़ भी खड़ा होना होगा, जिसने उनकी जान ली.
चुप रहना कोई विकल्प नहीं है.
(पी. साईनाथ ‘पीपुल्स आर्काइव ऑफ रूरल इंडिया’ नाम की वेबसाइट के संस्थापक संपादक हैं. उन्होंने दशकों तक ग्रामीण रिपोर्टिंग की है. वे ‘एव्रीबडी लव्स अ गुड ड्रॉट’ किताब के लेखक भी हैं.)
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