एल्गार परिषदः डिफॉल्ट ज़मानत के लिए आठ कार्यकर्ताओं ने बॉम्बे हाईकोर्ट का रुख़ किया

एल्गार परिषद मामला 31 दिसंबर, 2017 को पुणे में आयोजित एक सम्मेलन में कथित तौर पर दिए गए भड़काऊ भाषणों से संबंधित है. पुलिस का दावा है कि सम्मेलन के अगले दिन पुणे के बाहरी इलाके में स्थित कोरेगांव-भीमा युद्ध स्मारक के पास हिंसा हुई थी. एनआईए ने इस महीने की शुरुआत में अदालत के समक्ष कहा था कि आरोपी देश के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ना चाहते थे.

एल्गार परिषद मामले के आरोपी (ऊपर बाएं से दाएं) वर्नोन गोन्जाल्विस, सुधीर धवले, महेश राउत, शोमा सेन. (नीचे दाएं से बाएं) अरुण फरेरा, रोना विल्सन, वरवरा राव और सुरेंद्र गाडलिंग.

एल्गार परिषद मामला 31 दिसंबर, 2017 को पुणे में आयोजित एक सम्मेलन में कथित तौर पर दिए गए भड़काऊ भाषणों से संबंधित है. पुलिस का दावा है कि सम्मेलन के अगले दिन पुणे के बाहरी इलाके में स्थित कोरेगांव-भीमा युद्ध स्मारक के पास हिंसा हुई थी. एनआईए ने अदालत के समक्ष मसौदा आरोपों में कहा है कि आरोपी देश के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ना चाहते थे.

एल्गार परिषद मामले के आरोपी (ऊपर बाएं से दाएं) वर्नोन गोन्जाल्विस, सुधीर धवले, महेश राउत, शोमा सेन. (नीचे दाएं से बाएं) अरुण फरेरा, रोना विल्सन, वरवरा राव और सुरेंद्र गाडलिंग.

मुंबईः एल्गार परिषद मामले में आरोपी आठ कार्यकर्ताओं ने सोमवार को बॉम्बे हाईकोर्ट से कहा कि उनकी गिरफ्तारी के बाद उन्हें हिरासत में भेजने वाली और 2019 में पुलिस की चार्जशीट पर संज्ञान लेने वाली पुणे सत्र अदालत को ऐसा करने का कोई अधिकार नहीं था, इसलिए उन्हें डिफॉल्ट जमानत दी जानी चाहिए.

इन याचिकाकर्ताओं में सुधीर धवले, रोना विल्सन, सुरेंद्र गाडलिंग, शोमा सेन, महेश राउत, वरवरा राव, वर्नोन गोन्जाल्विस और अरुण फरेरा शामिल हैं.

बार एंड बेंच की रिपोर्ट के मुताबिक, याचिकाकर्ताओं ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167(2) के तहत डिफॉल्ट जमानत याचिका को खारिज करने वाले पांच सितंबर 2019 के आदेश को चुनौती दी है.

याचिकाकर्ताओं के वकील वरिष्ठ अधिवक्ता सुदीप पासबोला ने हाईकोर्ट को बताया, ‘चूंकि मामले के सभी आरोपियों पर आईपीसी की धाराओं के अलावा गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के तहत अनुसूचित अपराधों के आरोप लगाए गए हैं, ऐसे में कोई विशेष अदालत ही मामले का संज्ञान ले सकती थी, लेकिन उन्हें इसके बजाय सत्र न्यायाधीश आरएम पांडेय के समक्ष पेश किया गया.’

पासबोला ने जस्टिस एसएस शिंदे और जस्टिस एनजे जमादार की पीठ को बताया कि जब जून 2018 में गिरफ्तारी के बाद याचिकाकर्ताओं को पहली बार रिमांड के लिए पुणे की अदालत के समक्ष पेश किया गया था, तब उन्होंने अदालत के अधिकार क्षेत्र पर आपत्ति जताई थी, लेकिन फिर भी सत्र अदालत मामले की सुनवाई करती रही.

उन्होंने कहा, ‘जिस समय मामले में पहली चार्जशीट दाखिल की गई, उस समय पुणे में विशेष अदालतें कार्यरत थीं. इसके अलावा भले ही उस समय कोई विशेष अदालत न हो तब भी क्योंकि यह मामला यूएपीए में निर्धारित अपराधों से संबंधित था, इसलियेए इसे मजिस्ट्रेट की अदालत में जाना चाहिए था. मजिस्ट्रेट अदालत सत्र अदालत को कानून के अनुसार संज्ञान लेने के लिए नामित करती.’

बार एंड बेंच की रिपोर्ट के मुताबिक, सत्र न्यायाधीश के समक्ष याचिकाकर्ताओं की पहली डिफॉल्ट जमानत याचिका में आरोपियों ने महाराष्ट्र सरकार की ओर से जारी की गई तीन अधिसूचनाओं का उल्लेख किया था, जिनमें कहा गया था कि पुणे के लिए एक विशेष अदालत गठित की गई है.

अधिसूचना से पता चलता है कि जज पांडेय को राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) के तहत विशेष जज के तौर पर नामित नहीं किया गया था.

पासबोला ने कहा, ‘अगर अदालत का अधिकार क्षेत्र ही नहीं है तो रिमांड या फिर हिरासत में रखने का आदेश अमान्य है. सिर्फ जमानत के लिए आरोपी के अधिकार को उससे वंचित करने के लिए ये चार्जशीट जल्दबाजी में दायर की गईं, ताकि उसे (जमानत) निष्प्रभावी किया जा सके.’

इस महीने की शुरुआत में जस्टिस शिंदे और जस्टिस जमादार की पीठ ने वकील और कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज की समान आधारों पर डिफॉल्ट जमानत दिए जाने की मांग वाली याचिका पर फैसला सुरक्षित रख लिया था.

वहीं, एनआईए ने इस महीने की शुरुआत में एल्गार परिषद मामले में विशेष अदालत के समक्ष मसौदा आरोपों में कहा है कि आरोपियों का मुख्य उद्देश्य ‘सरकार से सत्ता हथियाने के लिए सशस्त्र संघर्ष करना और क्रांति के जरिए जनता सरकार’ स्थापित करना था. मसौदा में यह भी आरोप लगाया गया है कि आरोपियों ने ‘भारत सरकार और महाराष्ट्र के खिलाफ युद्ध छेड़ने की कोशिश’ की थी.

इस मामले में पुणे पुलिस और एनआईए ने कुल 16 कार्यकर्ताओं, शिक्षाविदों और वकीलों को गिरफ्तार किया था. इनमें सबसे अधिक बुजुर्ग स्टेन स्वामी की इस साल जुलाई में मौत हो गई थी.

सरकार के आलोचकों ने एल्गार परिषद मामले में एनआईए के दावों को खारिज करते हुए सरकार से असहमति जताने वालों और कार्यकर्ताओं के खिलाफ जांच को विचहंट करार दिया था.

एल्गार परिषद मामला 31 दिसंबर, 2017 को पुणे में आयोजित एक सम्मेलन में दिए गए भड़काऊ भाषणों से संबंधित है, जिसके बारे में पुलिस ने दावा किया था कि इस भाषणों के कारण अगले दिन पश्चिमी महाराष्ट्र शहर के बाहरी इलाके में स्थित कोरेगांव-भीमा युद्ध स्मारक के पास हिंसा हुई. अभियोजन पक्ष ने दावा किया था कि इस सम्मेलन को माओवादियों के साथ कथित रूप से संबंध रखने वाले लोगों ने आयोजित किया था.

एनआईए ने आरोप लगाया है कि एल्गार परिषद का आयोजन राज्य भर में दलित और अन्य वर्गों की सांप्रदायिक भावना का भड़काने और उन्हें जाति के नाम पर उकसा कर भीमा-कोरेगांव सहित पुणे जिले के विभिन्न स्थानों और महाराष्ट्र राज्य में हिंसा, अस्थिरता और अराजकता पैदा करने के लिए आयोजित किया गया था.

(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)

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