औरतों पर पाबंदियों के लिए तालिबान जिस ‘इस्लाम’ का हवाला देता है, क्या वो असल में ऐसा कहता है

इस्लाम के तमाम विचारक मानते हैं कि ज़माने और समाज में होने वाले बदलावों के साथ शरीयत के क़ानून में भी मुनासिब और ज़रूरी तब्दीलियां होती रहें और वो अपने आस-पास के हालात से भी प्रभावित होते रहें. हालांकि तालिबान ने इस्लाम और शरीयत के नाम पर उनकी सहूलियत के हिसाब से नए अर्थ निकाल लिए हैं.

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An Afghan artist Malina Suliman paints graffiti on a wall in Kandahar city December 30, 2012. Charred bodies lay scattered against blood-stained walls in a recent installation by Afghan artist Malina Suliman. For Afghanistan, the only thing out of place in this gruesome scene is that the blood is not real, but is red paint. Picture taken on December 30, 2012. To match Feature AFGHANISTAN-KANDAHAR/ART REUTERS/ Ahmad Nadeem (AFGHANISTAN - Tags: SOCIETY) - RTR3D3U0

इस्लाम के तमाम विचारक मानते हैं कि ज़माने और समाज में होने वाले बदलावों के साथ शरीयत के क़ानून में भी मुनासिब और ज़रूरी तब्दीलियां होती रहें और वो अपने आस-पास के हालात से भी प्रभावित होते रहें. हालांकि तालिबान ने इस्लाम और शरीयत के नाम पर उनकी सहूलियत के हिसाब से नए अर्थ निकाल लिए हैं.

कंधार शहर की एक दीवार पर ग्राफिटी कलाकार मलिना सुलेमान की एक कृति. (फाइल फोटो: रॉयटर्स)

इस्लाम के बारे में कुछ बातें पहले-पहल नाना जान से सुनी थीं, फिर उन्हीं की जमा की हुई किताबें रहनुमाई करने लगीं.

हां, ये बस एक बात नहीं है. आज मैं उनको इसलिए भी याद कर रहा हूं कि जिस ज़माने में औरतों की शिक्षा या ज़्यादा पढ़ने-लिखने को मायूब समझा जाता था, उन्होंने अपनी बेटियों को इस तरह से पढ़ाया कि वो स्नातकोत्तर से पहले ठहरी नहीं और अपने बाप की चमकती आंखों के सामने पहले कृषि विश्विद्यालय में नौकरी की, फिर पठन-पाठन के पेशे को अपना लिया.

इस तरह की घटनाओं को हमारे ज़माने में कुछ मुसलमान और युवा मुसलमान भी अच्छी निगाह से नहीं देखते, और अगर इस पर किसी तालिबानी की राय तलब की जाए तो आप शायद जानते हैं कि उनका जवाब क्या होगा.

लेकिन क्या यही जवाब इस्लाम का भी है? एक शब्द में कह सकता हूं ‘नहीं.’ इस ‘नहीं’ की व्याख्या विस्तार से करने की कोशिश करूंगा, फ़िलहाल ये याद रखिए कि इतिहास के जिस कालखंड में औरतों को ज़िंदा दफ़न करने का रिवाज था, इस्लाम ने सबसे पहले उनको सोच के इस क़ब्रिस्तान से बाहर निकाला.

और आज जब यही औरतें हर मैदान में आगे बढ़ रही हैं, तालिबान एक बार फिर से उनको दफ़न करने का कोई मौक़ा हाथ से नहीं जाने देता.

जी, मानव समाज के ख़िलाफ़ दहशत, आतंक और हर तरह की क्रूरता के साथ तालिबान औरतों का सबसे बड़ा दुश्मन और अपने जैसे मर्दों का दोस्त है, इसलिए इस्लाम का विरोधी भी है.

इन दिनों सियासी तौर पर अफ़ग़ानिस्तान में जो कुछ हो रहा है और अफ़ग़ान औरतें जिस तरह उस पर बोल रही हैं, संघर्ष कर रही हैं या तालिबान की पिछली सत्ता के ख़ौफ़ को महसूस करने के बाद भी लब खोल रही हैं, इससे तालिबान के लिए एक बात साफ़ है कि ये औरतें बंदूक़ के साये में भी उनके कथित इस्लाम और शरिया के बजाय उस इस्लाम की पैरोकार हैं जिसने उन्हें क़ब्रों से निकालने की पहल की.

यहां तालिबान और इस्लाम की दृष्टि से औरतों के बारे में बात की जाए, उससे पहले आपको मरहूम ज़ीशान साहिल  की नज़्म सुनाता हूं. ये नज़्म उन्होंने अपने मुल्क पाकिस्तान में रहते हुए तालिबान के आतंक को महसूस करने के बाद लिखी थी,

औरतें घर में रहेंगी
लड़कियां छुप जाएंगी
फूल शाख़ों पर खिलेंगे
और वहीं मुरझाएंगे
चांद सूरज और सितारे धुंध में खो जाएंगे
दूर तक उड़ते परिंदे
गीत गाना भूलकर
अपने-अपने आशियां में
ख़ौफ़ से मर जाएंगे
ख़्वाब जैसी ज़िंदगी के
ख़्वाब देखेंगे मगर
सुब्ह जब फैलेगी घर में
रेडियो खोलेंगे लोग
और खिड़की से अचानक
तालिबान आ जाएंगे

‘ख़्वाब जैसी ज़िंदगी के ख़्वाब’ के आगे तालिबान बंदूक़ लेकर खड़ा है, और वो इस्लाम की आड़ में लोकतंत्र का विरोधी भी है. ऐसे में सवाल है कि क्या वो शरिया के ककहरा से भी वाक़िफ़ है?

ये सवाल किसी को बचकाना भी लग सकता है. उसकी वजह भी है कि तालिबानियों में कई बड़े ‘इस्लामी स्कॉलर’ हैं, उनमें से कुछ हर तरह की शिक्षा से मालामाल हैं. इसके बावजूद कहने दीजिए कि वो शरीयत से उसी तरह परिचित हैं जिस तरह एक बलात्कारी को पता होता है कि बलात्कार अपराध और घिनौना कृत्य है.

बात बहुत साफ़ है कि ज़ालिमों की कोई शरीयत नहीं होती इसलिए प्रतीकात्मक रूप से ही सही जब तालिबान के ख़िलाफ़ हथियार लहराते हुए कुछ महिलाओं की तस्वीर सामने आई तो मुझे पैग़ंबर के ज़माने का वो क़िस्सा याद आया जिसमें ख़ुद पैग़ंबर ने पहले ये तय किया था कि मर्द नीचे गलियों में दुश्मन का सामना करेंगे और औरतें छतों से मोर्चा संभालेंगी.

आप चाहें तो यहां इस्लाम के आईने में औरतों की एक तस्वीर देख सकते हैं, और इस बात पर भी चिंता ज़ाहिर कर सकते हैं कि जिस इस्लाम में मानवाधिकारों और महिलाओं के अधिकारों को लेकर साफ़-साफ़ बातें कहीं गईं हैं, तालिबान की की मौजूदगी से सबसे ज़्यादा ख़तरा उन्हीं अधिकारों को क्यों है.

इस बार वो सियासी तौर पर शायद ये कहने की कोशिश भी कर रहे हैं कि औरतों को शिक्षा और काम करने की छूट होगी.

कुछ लोगों को इसमें उम्मीद की किरण भी नज़र आ रही है, वो गुड-तालिबान और बैड-तालिबान की बहस के साथ उनके अंग्रेजी बोलने और मीडिया से बात करने को भी सियासी हथकंडे के तौर पर नहीं देखना चाहते.

मैं राजनीति शास्त्र ज़्यादा नहीं समझता, इसलिए मुझे लगता है कि सॉफ्ट कार्नर रखना शायद अच्छी बात होगी जबकि उनकी क्रूरता आज भी ज्यों की त्यों है.

ख़ैर, यहां याद-दहानी के लिए उस रिपोर्ट की चर्चा कर दूं, जिसमें ‘द तालिबान्स रूल एंड पनिशमेंट’ के शीर्षक से दर्ज है कि औरतें टीचिंग, इंजीनियरिंग और डॉक्टरी समेत घर से बाहर कोई काम नहीं कर सकतीं, किसी गतिविधि में हिस्सा नहीं ले सकतीं. दुकानदारों से मामला नहीं कर सकतीं. मर्द डॉक्टर से इलाज नहीं करवा सकतीं. स्कूल-यूनिवर्सिटी आदि में पढ़ नहीं सकतीं.

उनको सिर से पैर की उंगलियों तक लंबा घूंघट डालकर पर्दा करना होगा, अगर वो ऐसा नहीं करतीं तो उनको पीटा जाएगा और खुले आम उनके साथ दुर्व्यवहार किया जाएगा.

अगर टख़ने (Ankle) दिखाई दिए तो चाबुक से मारा जाएगा. व्यभिचार की दोषी महिलाओं को संगसार कर दिया जाएगा. वो कॉस्मेटिक्स का उपयोग नहीं करेंगी. परिवार के बाहर ग़ैर-मर्दों से बात नहीं करेंगीं, हाथ नहीं मिलाएंगी. अजनबी के सामने ज़ोर से हंस नहीं सकतीं. ऊंची एड़ी के जूते नहीं पहन सकतीं, मर्दों को उनके क़दमो की चाप भी नहीं सुनाई देनी चाहिए.

परिवार के पुरुष सदस्यों के बिना टैक्सी नहीं ले सकतीं. रेडियो-टेलीविजन या किसी भी प्रकार के सार्वजनिक समारोह में नहीं जा सकतीं.

वो खेल नहीं सकतीं. सवारी नहीं कर सकतीं. चमकीले कपड़े नहीं पहन सकतीं. ईद के लिए भी इकट्ठा नहीं हो सकतीं.

नदियों के किनारे या सार्वजनिक स्थानों पर कपड़े नहीं धो सकतीं.

किसी भी चीज़ का नाम उनके नाम पर नहीं हो सकता.

वो अपने अपार्टमेंट या बालकनियों में नहीं दिख सकतीं.

घरों की खिड़कियों को पेंट किया जाना चाहिए, ताकि महिलाओं को उनके घरों के बाहर से न देखा जा सके.

मर्द दर्जी उनका माप नहीं ले सकता.

महिला और पुरुष एक ही बस में यात्रा नहीं कर सकते.

बुर्क़ा के नीचे भी महिलाएं फ्लेयर्ड या वाइड-लेग (चौड़ी मोहरी की) पैंट नहीं पहन सकतीं.

म्यूजिक, मूवी, टेलीविजन या वीडियो पर सबके लिए पाबंदी होगी. कोई नया साल नहीं मना सकता क्योंकि ये ‘गैर-इस्लामिक’ है. मज़दूर दिवस नहीं मना सकते क्योंकि ये ‘कम्युनिस्ट अवकाश’ है.

किसी भी नागरिक का ग़ैर-इस्लामिक नाम नहीं हो सकता.

युवाओं के बाल छोटे होने चाहिए.

मर्दों के लिए इस्लामी कपड़े और टोपी ज़रूरी हैं.

पुरुष अपनी दाढ़ी को ट्रिम नहीं कर सकते.

अफ़ग़ानों को रोज़ाना पांच बार मस्जिदों में नमाज़ अदा करना होगा.

कबूतर या किसी अन्य पक्षी को पालतू जानवर के रूप में नहीं रख सकते.

पतंग नहीं उड़ा सकते.

खेल के दौरान दर्शक ताली नहीं बजा सकते.

‘आपत्तिजनक साहित्य’ रखने वाले को फांसी दी जाएगी.

जो कोई भी इस्लाम से किसी अन्य धर्म में परिवर्तित होगा उसे क़त्ल कर दिया जाएगा.

ग़ैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों को अलग दिखने के लिए अपनी पोशाक पर एक पीला कपड़ा लगाना होगा.

इंटरनेट का उपयोग नहीं कर सकते.

शादियों में नाच नहीं सकते.

जुआ नहीं खेल सकते.

तालिबान द्वारा मारे गए व्यक्ति को इसलिए दफ़न नहीं किया जाएगा कि उसे दूसरे उदाहरण के रूप में लें.

तालिबान के बारे में ऐसी तमाम बातों से दुनिया परिचित है. ऐसी ही कुछ बातें उस साहित्य और सोच में भी मिल जाती हैं जिन्हें भारत जैसे मुल्क में दर्ज गया है.

बहरहाल आज भी कथित तालिबान-2 के इरादे जगज़ाहिर हैं, इसके बावजूद कि वहां की तमाम ख़बरें बाहर नहीं आ रहीं.

एक लोकतांत्रिक सत्ता पर बंदूक़ तान देने के कृत्य और उनके कथित शरिया क़ानून की निंदा करते हुए मैं यहां इस्लाम के कुछ संदर्भ प्रस्तुत करने की कोशिश करता हूं.

तो सबसे पहले जाबिर बिन अब्दुल्लाह का बयान: उनकी मौसी तलाक़ के बाद इस्लामी क़ानून के मुताबिक़ इद्दत, वो ख़ास अवधि जिसमें औरतों को घर में रहना होता है.

इद्दत के दौरान ही उन्होंने अपने खजूर के पेड़ काटने और उसको बेचने की बात कही तो उन्हें सख़्ती से मना किया गया.

लेकिन पैगंबर मुहम्मद ने कहा, खेत जाओ, अपने खजूर के पेड़ काटो और उन्हें बेचो. इस पैसे से बहुत मुमकिन है कि तुम सदक़ा-खैरात या और कोई भलाई का काम कर सको.

इससे क्या पता चलता है?

इद्दत के दौरान भी ख़ुद पैगंबर ने उनको बाहर जाने और काम करने की इजाज़त क्यों दी?

इसी तरह हज़रत आइशा (पैगंबर की पत्नी) का बयान कि; जब औरतों के लिए हिजाब/पर्दा का हुक्म हो गया था तब हज़रत उमर ने हज़रत सौदा (पैगंबर की पत्नी) को बाहर देखकर उनकी आलोचना की. वो ख़ामोशी से घर लौट गईं और पैगंबर से इसकी चर्चा की.

पैगंबर ने कहा, बेशक अल्लाह ने तुम्हें अपनी ज़रूरियात के लिए घर से बाहर निकलने की इजाज़त दी है.

फिर से वही सवाल कि पैगंबर ने अपनी पत्नी को क्यों रोका नहीं होगा?

और इस्लाम में पर्दा क्या है? सिर से पैर की उंगलियों तक लंबा घूंघट? बिल्कुल नहीं, हथेली और चेहरे का पर्दा तो है ही नहीं. हां नीची निगाह रखने का हुक्म मर्द-औरत दोनों के लिए है.

और अगर औरतों के बाहर निकलने पर पाबंदी है/थी तो उसी ज़माने की एक औरत का ये क़िस्सा क्यों मिलता है कि वो ख़ुद खेती करती थी और शुक्रवार को सहाबा (पैगंबर के साथियों) को चुक़ंदर और आटे से तैयार किया हुआ हलवा खिलाती थीं.

एक बयान ये भी कि हज़रत अबू बक़र की बेटी हज़रत अस्मा खेत से खजूर की गुठलियां लाया करती थीं. और एक दिन तो पैगंबर ने उनको रास्ते में देखकर अपनी सवारी के पीछे बिठाने के लिए पास भी बुलाया.

दूसरे बयानों से पता चलता है कि पैगंबर के ज़माने में औरतें सब्ज़ियां बेचने से लेकर इत्र तक का कारोबार करती थीं.

ऐसी ही एक औरत जो कारीगर थी और अपने शौहर-बच्चों ख़र्च भी उठाती थीं,  एक दिन पैगंबर के पास आई और कहा, ‘मैं कारीगर हूं, चीज़ें तैयार करके बेचती हूं. मेरे शौहर-बच्चों की आमदनी का कोई ज़रिया नहीं है. क्या मैं अपने पैसे उनपर ख़र्च कर सकती हूं?’

जानते हैं पैगंबर ने क्या जवाब दिया? सिर्फ़, हां…

मैं यहां जिस ‘नहीं’ की व्याख्या करना चाहता हूं, उसका जवाब शायद यही ‘हां’ है.

चलिए आगे बढ़ते हैं कि एक औरत ने पैगंबर से कहा कि उसकी शादी उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ हुई है.

पैगंबर ने कहा अगर तुझे ये पसंद नहीं हैं तो तू आज़ाद है.

मतलब बाप के फ़ैसले के ख़िलाफ़ भी औरतों को अधिकार? आख़िर पैगंबर ने ये क्यों किया होगा?

संपत्ति में औरतों के हिस्से पर कई मौक़े से बातें की गई हैं और आप शायद जानते हैं कि पैगंबर के ज़माने में औरतें मस्जिद आती थीं. नमाज़ अदा करती थीं. इसके बावजूद हज़रत उमर को अपनी पत्नी का मस्जिद जाना पसंद नहीं था.

पैगंबर की तरफ़ से इसकी इजाजत थी, इसलिए वो क़ानूनी तौर पर पाबंदी नहीं लगा सकते थे.

ऐसे में जब उन्होंने अपनी पत्नी से कहा मुझे ये पसंद नहीं तो पत्नी ने जवाब दिया जब तक आप मुझे हुक्म देकर नहीं रोकेंगे, मैं जाना बंद नहीं करूंगी.

यहां भी एक औरत अपने अधिकार के साथ खड़ी कैसे नज़र आ रही है.

ये मिसाल भी मिलती है कि औरतों को तलाक़ के बाद उनकी ख़्वाहिश पर बच्चे की कस्टडी तक दी जाती थी.

इसके आगे जुमा और ईद की प्रार्थना में भी औरतों की शिरकत का सबूत मिलता है. जहां कहा गया कि औरतों को मासिक धर्म  के दिनों में भी वहां आने की मनाही नहीं थी, हां ये निर्देश था कि वो नमाज़ की जगह से ज़रा अलग रहें और दुआओं में शामिल हों.

यक़ीन कीजिए, यहां इस्लाम की ही बात हो रही है और अगर आपको यक़ीन नहीं तो शरीयत, फ़ल्सफ़ा-ए-शरीयत, इस्लामी क़वानीन और तमाम मोटी-मोटी किताबों को शेल्फ से निकालने का वक़्त आ गया है.

उन्हीं किताबों में औरतों के युद्ध में शामिल होने के क़िस्से भी दर्ज हैं.

इस्लाम के उदय और विकास के दौरान ही औरतों को बता दिया गया था कि अगर किसी मसले की जानकारी उनके पति न दे पाएं तो पति की इजाज़त के बिना भी वो ऐसी जगहों पर जा सकती हैं जहां उनको जानकारी मिल सकती है.

ये सही है कि बहुत से मामलों में औरतों को शौहर से इजाज़त लेने को कहा गया, लेकिन कई अवसर पर पैगंबर का फ़रमान है कि अपनी औरतों को इजाज़त दे दिया करो.

इन बातों से अलग ईद के अवसर पर ख़ुद पैगंबर का अपनी पत्नी के साथ तमाशा देखने की मिसाल मौजूद है.

इसी तरह हज़रत आइशा के बारे में पता चलता है कि वो साहित्य का इल्म रखती थीं और अपनी बातों में शायरी का हवाला भी देती थीं. वो तिब (चिकित्साशास्त्र)  की भी किसी क़दर जानकार थीं. उनको गणित भी आती थी, और वो हिसाब लिखा भी करती थीं.

इन बातों से इतर शायद ही कोई इस बात से इनकार करे कि मानव सभ्यता के क्रमिक विकास में ही क़ानून का विकास हुआ है.

इसलिए जब दुनिया भर में क़ानून के इतिहास को देखेंगे तो पता चलेगा की अलग-अलग वक़्तों में इस्लाम ने भी संशोधन किए हैं.

मिसाल के तौर पर, क़वानीन-ए-उस्मानिया में देखिए कि यूरोप के मॉडर्न क़ानून को सामने रखकर क़ानून बनाए गए और संशोधन किए गए. इसलिए यहां व्यावसायिक क़ानून से लेकर फौजदारी के क़ानून तक में नए ज़माने के तक़ाज़े नज़र आते हैं.

और हमें यहां ये तक देखने को मिलता है कि चोर का हाथ काटना या कोड़े लगाना जैसी सज़ा को ख़त्म कर दिया गया था. इसी तरह का संशोधन सूद के क़ानून के सिलसिले में भी नज़र आता है.

यहां याद दिला दें कि इब्न-ए-क़य्यिम जो इस्लाम के न्यायशास्त्र और धर्मशास्त्र के बड़े स्कॉलर थे, उन्होंने शरीयत के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए कहा कि:

‘शरीयत की बुनियाद हिकमत (Wisdom) और लोगों के कल्याण पर है, और इसका मतलब इंसाफ़ है. और जिस मसले में इंसाफ़ के बजाय ज़ुल्म हो, रहमत के बजाय ज़हमत हो, फ़ायदे के बजाय नुकसान हो और अक़्ल के बजाय बे-अक़्ली हो. वो शरीयत का मसला नहीं है, हालांकि उसे व्याख्या के ज़रिए शुरू में दाख़िल कर लिया गया हो इसलिए शरीयत ख़ुदा के बंदों में उसका इंसाफ़ है और उसकी मख़लूक़ में उसकी रहमत है.’

इसी तरह इस्लाम के विचारकों ने इब्न-ए-ख़लदून जैसे विद्वान और इतिहासकार को संदर्भित करते हुए जहां अलग-अलग समय और जगहों में मानव समाज के मानकों के बदल जाने की बात को स्वीकार किया वहीं इंसान की बेहतरी को क़ानून की बुनियाद बताते हुए तर्क दिया कि:

अक़्ल का फ़तवा यही है कि ज़माने और सोसायटी की तब्दीलियों के साथ-साथ शरीयत के क़ानून में भी मुनासिब और ज़रूरी तब्दीलियां होती रहें और वो अपने आस-पास के हालात से भी प्रभावित होते रहें.

और ये कोई ज़बानी जमाख़र्च नहीं है. ऐसी तब्दीलियां ख़ूब हुई हैं.

जैसा कि अभी कहा गया कि शरीयत में चोरी की सज़ा हाथ काटना है. बहुत साफ़ शब्दों में कहा गया कि, चोरी करने वाले मर्द और चोरी करने वाली औरत के हाथ काट दो. लेकिन हज़रत उमर बिन ख़त्ताब, जो पैगंबर मुहम्मद के क़रीबी साथियों (सहाबा) में थे, उन्होंने अकाल के समय इस सज़ा को ख़त्म कर दिया था.

सोच सकते हैं कि उन्होंने हालात के मुताबिक़ फ़ैसला क्यों किया होगा?

इसी तरह ग़ैर-शादीशुदा बलात्कारी को सौ कोड़े मारने और एक साल के लिए निर्वासन की सज़ा का हुक्म है, हज़रत उमर बिन ख़त्ताब ने ही हालात के मद्देनज़र निर्वासन की सज़ा को समाप्त क्यों किया होगा.

हमें ऐसी मिसालें भी मिलती हैं कि कुछ चीज़ों को पैगंबर मुहम्मद के ज़माने की सच्चाई बताते हुए बाद में रद्द कर दिया गया.

मिसाल के तौर पर, पैगंबर मुहम्मद के समय में हदिया (तोहफ़ा) क़ुबूल किया जाता था, लेकिन बाद में हज़रत उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ ने इसको लेने से मना ही नहीं किया बल्कि इसको एक तरह की रिश्वत का नाम भी दिया.

ये सब जानते हैं कि पैगंबर के ज़माने में जौ और गेहूं नापकर बेचा जाता था, लेकिन बाद में वज़न करके बेचा जाने लगा. इस पर सवाल उठाया गया कि क्या ये ठीक है तो कहा गया कि हां नई ज़रूरत के हिसाब से यही ठीक है.

चलते-चलते एक दो बातें और कि एक जगह चंद लोग शराब पी रहे थे, लोगों ने रोकना चाहा तो कहा गया कि अल्लाह ने शराब सिर्फ़ इसलिए हराम की है कि वो नमाज़ से रोकती है. और इन्हें अभी शराब लोगों का सामान लूटने और उनका क़त्ल करने से रोक रही है. इसलिए इनको अपने हाल पर छोड़ दो.

इस्लाम में तो ये दोनों बुरे काम हैं, लेकिन यहां उस समाज के मिज़ाज को समझते हुए शराब पीने दिया गया. सिर्फ़ इसलिए कि वो लूटपाट और हत्या न करें.

तो क्या ये कह सकते हैं कि शरीयत हालात के मुताबिक़ फ़ैसला लेने से रोकती है?

इस्लाम के अनुसार शरीयत भलाई के लिए है. और भलाई ये है कि एक बार पैगंबर के कहे मुताबिक़ खजूर की खेती की गई, खेती अच्छी नहीं हुई और नुक़सान हो गया. तब पैगंबर ने कहा: ‘मैं भी इंसान हूं, और तुम अपने दुनियावी मामले मुझसे बेहतर समझते हो.’

अब आप तालिबान का इस्लाम देख लीजिए और अबुल आला मौदूदी की बातें भी सुन लीजिए जो पाकिस्तान में शरीयत लागू करने के समर्थक थे;

‘इस्लामी क़ानून चोरी पर हाथ काटने की सज़ा देता है, मगर ये हुक्म हर समाज में जारी होने के लिए नहीं दिया गया है, बल्कि इसे इस्लाम की उस सोसाइटी में जारी करना मक़सूद था जिसके मालदारों से ज़कात ली जा रही हो, जिसका बैतुलमाल हर हाजतमंद की इमदाद के लिए खुला हो, जिसकी हर बस्ती पर मुसाफ़िरों की तीन दिन ज़ियाफ़त लाज़िम की गई हो, जिसके निज़ाम-ए-शरीयत में सब लोगों के लिए बिल्कुल यकसां हक़ूक़ (समान अधिकार) और बराबर के मवाक़े (अवसर) हों.

जिसके माशी निज़ाम (आर्थिक व्यवस्था) में तबक़ों की इजारा-दारी (ठेकेदारी) के लिए कोई जगह न हो और जायज़ कसब-ए-माश (रोज़गार) के दरवाज़े सबके लिए खुले हों. जिसके बच्चे-बच्चे को ये सबक़ दिया गया हो कि तू मोमिन नहीं है अगर तेरा हमसाया भूखा हो और तू ख़ुद पेट भरकर खाना खा बैठे. ये हुक्म आपकी मौजूदा सोसाइटी के लिए नहीं दिया गया था जिसमें कोई शख्स किसी को क़र्ज़ भी सूद के बग़ैर नहीं देता.’

उनका ये भी कहना था कि ऐसे हालात में हाथ काट देना तो दूर की बात, कई बार कोई सज़ा ही नहीं देनी चाहिए.

इसी तरह वो बलात्कार पर कोड़े की सज़ा के बारे में कहते हैं कि ये भी इस सोसाइटी में मुमकिन नहीं. उनके मुताबिक़ इस्लाम के आदर्श समाज में ही ये मुमकिन है, इस समाज में अगर कोई ख़ुद को इससे बचा लेता हैं तो उसको इनाम मिलना चाहिए.

वो बहुत से विद्वानों की तरह इस्लामी क़ानून के विकास और संशोधन की भी बात करते हैं.

बहरहाल मुमकिन है कि यहां कई सवालों के जवाब न मिलें हों और मैं ये मानता भी नहीं कि इस्लाम की व्याख्या नए हालात के हिसाब से नहीं की जानी चाहिए. मैं बस इतना मानता हूं कि अगर शरीयत भलाई के लिए है तो औरतों पर पाबंदी लगाकर या किसी की हत्या करके इसके मक़सद को पूरा नहीं किया जा सकता, हां शायद सत्ता पर क़ब्ज़ा किया जा सकता है.