विशेष रिपोर्ट: महिला क्रिकेट की कम लोकप्रियता के लिए हमेशा व्यूअरशिप यानी उसे कम देखे जाने को ज़िम्मेदार बताया जाता है. इसके बावजूद भारतीय महिला क्रिकेट टीम के पहली बार हो रहे डे-नाइट टेस्ट मैच के दिनों में ही बीसीसीआई ने आईपीएल मैच रखे हैं. आंकड़े दिखाते हैं कि बीसीसीआई में महिला क्रिकेट का विलय होने के बाद से टीम को न सिर्फ खेलने के कम मौके मिले, बल्कि उनके मैच भी ऐसे दिन हुए जब पुरुष टीम भी अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट खेल रही थी.
भारतीय महिला क्रिकेट टीम ऑस्ट्रेलिया दौरे पर है. दौरे की औपचारिक शुरुआत 21 सितंबर से होगी जिसमें तीन एकदिवसीय, एक टेस्ट और तीन ट्वेंटी-20 मैच खेले जाएंगे. दौरे का समापन 11 अक्टूबर को टी20 मैच से होगा.
सीरीज में आकर्षण का केंद्र 30 सितंबर से 3 अक्टूबर के बीच होने वाला डे-नाइट टेस्ट मैच रहेगा. भारतीय महिलाएं पहली बार डे-नाइट टेस्ट खेलेंगी. पिछले सात सालों में भारतीय महिलाओं का यह सिर्फ दूसरा टेस्ट मैच होगा. (इसी वर्ष 16-19 जून के बीच उन्होंने सात सालों बाद कोई टेस्ट खेला था.)
डे-नाइट मैच का आयोजन भारतीय समयानुसार सुबह 11:30 बजे होगा. जो कि करीब शाम 7 बजे तक चलेगा. लेकिन 2-3 अक्टूबर को जब मैच का नतीजा निकलने की संभावना होगी, तब संभव है कि इस मैच को देखने और इस पर चर्चा करने वाला शायद ही कोई हो क्योंकि उस दौरान देश ही नहीं, दुनियाभर की नज़र भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) द्वारा आयोजित विश्व क्रिकेट की सर्वाधिक लोकप्रिय टी-20 लीग इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) पर होगी.
2-3 अक्टूबर को आईपीएल में ‘डबल हेडर डे’ होंगे यानी दिन में दो मैच खेले जाएंगे. पहला मैच दोपहर 3:30 बजे ठीक उसी समय शुरू होगा, जब भारतीय महिलाएं भी ऐतिहासिक डे-नाइट टेस्ट खेल रही होंगी.
यह आईपीएल ग्रुप चरण के लगभग अंतिम दौर के मैच होंगे जो कि प्ले-ऑफ की तस्वीर साफ करेंगे. अत: स्वाभाविक है कि लोग इनमें रुचि ज्यादा लेंगे.
व्यूअरशिप आंकड़े तक बताते हैं कि आईपीएल के समय ही खेले जाने वाले पुरुषों के अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट मैच तक को दर्शक नहीं मिलते हैं. फिर पहले से ही प्रशंसकों की बेरुखी का शिकार महिला क्रिकेट को दर्शक मिलने की संभावना कम है. पहले भी देखा गया है कि जब समान दिन और समान वक्त पर भारतीय पुरुष और महिला क्रिकेट टीम अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट खेलती हैं तो प्रशंसकों की रुचि पुरुष क्रिकेट में ही रहती है.
जून माह में जब सात सालों बाद भारतीय महिलाएं टेस्ट खेलने उतरी थीं, तब भी कुछ ऐसा ही देखा गया. 16-19 जून के बीच खेले गए उस मैच के भी दो दिन 18-19 जून को भारत और न्यूजीलैंड के बीच खेले गए विश्व टेस्ट चैंपियनशिप (डब्ल्यूटीसी) के फाइनल से टकरा रहे थे.
नतीजतन, बेहद ही रोमांचक मोड़ पर खत्म हुए उस मैच को न मैच से पहले, न मैच के दौरान और न ही मैच बाद सुर्खियां मिलीं, जबकि जिस जुझारुपन से भारतीय लड़कियों ने अप्रत्याशित तरीके से उस मैच को ड्रॉ कराया था, रोमांच के मामले में वह डब्ल्यूटीसी के फाइनल पर भी भारी था.
उस मैच के बाद द वायर से बात करते हुए वरिष्ठ खेल पत्रकार अयाज़ मेमन ने कहा था, ‘विश्व टेस्ट चैंपियनशिप जैसे किसी भी बड़े क्रिकेट टूर्नामेंट के फाइनल मुकाबले वाले दिन अगर कोई दूसरा क्रिकेट मैच खेला जा रहा हो तो उस मैच का रंग फीका पड़ना तय है. इसलिए ऐसे टकराव से बचा जाना चाहिए.’
पूर्व भारतीय महिला क्रिकेटर गार्गी बनर्जी ने भी तब ऐसा ही सुझाव दिया था. उन्होंने कहा था, ‘अगर पुरुष और महिला क्रिकेट एक साथ दिखाया जाएगा, तो इससे महिला क्रिकेट की ब्रॉडकास्टिंग पर नकारात्मक असर पड़ना तय है. इसलिए मैच आगे-पीछे हों तो ज्यादा अच्छा है.’
पर लगता है कि फिर भी बीसीसीआई ने पुराने अनुभवों से कोई सीख नहीं ली और कोरोना की दूसरी लहर के चलते बीच में ही स्थगित हुए आईपीएल के बाकी मैच कराने के लिए अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट कैलेंडर तक में सेंध लगाने को तैयार विश्व के इस सबसे धनी क्रिकेट बोर्ड ने राजस्व के लालच में फिर से महिला क्रिकेट को हाशिए पर धकेल दिया.
नवंबर 2006 में जब से बीसीसीआई ने महिला क्रिकेट को अपने अधीन लेने की आधिकारिक घोषणा की है, तब से ऐसा बार-बार हो रहा है.
भारतीय महिलाओं के करीब 30 फीसदी अंतरराष्ट्रीय मैचों का आयोजन ऐसे दिन होता है जब भारतीय पुरुष टीम भी अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट खेल रही हो. नतीजतन, महिलाओं के मैच की चर्चा, उपलब्धियां और खबरें पुरुष क्रिकेट तले दब जाती हैं.
ऐसा भी नहीं है कि इस टकराव का अंदेशा बीसीसीआई को पहले से न हो. बता दें कि जून में इंग्लैंड के खिलाफ भारतीय महिलाओं के टेस्ट मैच की घोषणा 8 मार्च 2021 को बोर्ड सचिव जय शाह ने की थी. जबकि डब्ल्यूटीसी फाइनल में भारतीय पुरुषों के खेलने पर मुहर इससे पहले ही लग चुकी थी. इसलिए महिलाओं का मैच आगे-पीछे खिसकाया जा सकता था.
लेकिन ऐसा न करने के पीछे बीसीसीआई का तर्क हो सकता है कि उस फैसले में इंग्लिश क्रिकेट बोर्ड (ईसीबी) की भी बराबर सहमति थी, इसलिए तारीखें तय करना सिर्फ उसके हाथ में नहीं था.
लेकिन, आगामी डे-नाइट टेस्ट वाले दिनों बीसीसीआई द्वारा आईपीएल मैचों का आयोजन करना उसकी नीयत का खोट उजागर करता है. डे-नाइट टेस्ट महीनों पहले से तय था, इसके बावजूद भी उन्हीं दिनों और समान वक्त पर बीसीसीआई ने आईपीएल मैच रखे.
हालांकि बीसीसीआई चाहता तो अपने प्रभुत्व का इस्तेमाल करके डब्ल्यूटीसी फाइनल से टकरा रहीं भारतीय महिलाओं के मैच की तारीखें ईसीबी से बात करके बदलवा सकता था.
विश्व क्रिकेट में बीसीसीआई का इतना ज्यादा प्रभुत्व है कि आईपीएल के लिए उसने इंग्लैंड के खिलाफ भारतीय पुरुषों के पांचवे टेस्ट तक का आयोजन रद्द करा दिया. फिर तारीखें बदलवाना तो छोटी बात थी. लेकिन, महिला क्रिकेट को लेकर बीसीसीआई का रवैया ही उदासीन है.
द वायर द्वारा किए गए आंकड़ों के विश्लेषण से भी यह पता लगता है.
नवंबर 2006 में भारतीय महिला क्रिकेट संघ (डब्ल्यूसीएआई) के भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) में विलय के बाद से मई 2021 तक यानी करीब 15 सालों में भारतीय महिला क्रिकेट टीम ने कुल 271 दिन क्रिकेट खेला है. इनमें से 23 दिन ऐसे थे जब आईसीसी द्वारा आयोजित वैश्विक प्रतिस्पर्धाओं यानी विश्वकप के मैच खेले गए. मतलब कि इन मैच के आयोजन में बीसीसीआई की भूमिका नहीं थी.
बाकी 248 दिन के आयोजन में कहीं न कहीं बीसीसीआई ही निर्णायक भूमिका में था. इन 248 दिनों में से 72 दिन ऐसे थे जब भारतीय महिला और पुरुष क्रिकेट टीम के मैच समान दिन खेले गए. यानी भारतीय महिला क्रिकेट टीम के 29.03 फीसदी मैच का सीधा टकराव भारतीय पुरुषों के मैच से हुआ.
यहां तर्क दे सकते हैं कि मौसमी परिस्थितियों के चलते विभिन्न देशों में क्रिकेट खेलने के दिन सीमित होते हैं. इन्हीं सीमित दिनों को ध्यान में रखकर अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट कैलेंडर बनाया जाता है. इसलिए महिलाओं और पुरुषों के मैचों के बीच टकराव होना स्वाभाविक है.
लेकिन, जब सबसे ज्यादा क्रिकेट खेलने वाली इंग्लिश महिला टीम की बात करते हैं तो यह तर्क आधारहीन नज़र आता है.
15 सालों के समान समयकाल में इंग्लिश महिला टीम 341 दिन मैदान पर रही. जिसमें 24 दिन ऐसे थे जब आईसीसी द्वारा आयोजित वैश्विक प्रतिस्पर्धाओं के मैच खेले गए (इनका आयोजन आईसीसी कराता है). बचे 317 दिन में से 76 दिन (23.75%) ऐसे थे जब इंग्लैंड की पुरुष और महिला टीम समान दिन क्रिकेट खेल रही थीं.
यानी कि भारतीय महिलाओं के 29.03 फीसदी के मुकाबले इंग्लिश महिलाओं के 23.75 फीसदी मैचों का सीधा टकराव अपनी पुरुष टीम के मैच से था.
प्रतिशत में यह संख्या भले ही कम दिखे लेकिन दिनों की संख्या के लिहाज से समझें तो बड़ा अंतर नज़र आता है. जहां भारतीय महिलाओं के 248 खेल दिवस में से 72 पुरुषों के मैच से टकराव वाले रहे, वहीं इंग्लिश महिलाओं के 317 खेल दिवस में से 76 दिन ऐसे रहे. यानी इंग्लिश महिलाओं ने 69 दिन ज्यादा क्रिकेट खेला, फिर भी टकराव वाले दिनों की संख्या भारत से महज चार दिन अधिक है.
यहां यह बताना भी जरूरी हो जाता है कि इंग्लैंड की पुरुष टीम ने भी इस दौरान भारतीय पुरुषों से 101 दिन ज्यादा क्रिकेट खेला. इन 15 सालों में भारतीय पुरुष और महिलाओं ने क्रमश: 1,255 और 271 दिन क्रिकेट खेला. वहीं, इंग्लैंड की पुरुष और महिला टीम ने क्रमश: 1,356 और 341 दिन क्रिकेट खेला.
स्पष्ट है कि इंग्लैंड का क्रिकेट कैलेंडर अधिक व्यस्त था. टकराव की संभावनाएं वहां ज्यादा अधिक थीं.
उल्लेखनीय है कि बीसीसीआई में डब्ल्यूसीएआई के विलय से पहले तक परिस्थितियां एकदम विपरीत थीं. तब विश्व में भारतीय महिलाएं सबसे ज्यादा क्रिकेट खेलती थीं.
जनवरी 2002 से अक्टूबर 2006 के बीच भारतीय महिलाएं 110 दिन क्रिकेट खेलीं, जिनमें 24 दिन पुरुष क्रिकेट से टकराव वाले थे, यानी 21.81 फीसदी. जबकि इस दौरान इंग्लिश महिलाएं भारत से कम 106 दिन क्रिकेट खेलीं, जिनमें 30 दिन पुरुष क्रिकेट से टकराव वाले थे, यानी 28.30 फीसदी. (टेबल-1)
स्पष्ट है कि जब ईसीबी में इंग्लैंड महिला क्रिकेट संघ (डब्ल्यूसीए) का विलय हुआ तो इंग्लिश महिलाओं को खेलने के न सिर्फ अधिक मौके मिले, बल्कि ऐसे मैचों की संख्या में भी कमी आई जिनका टकराव अपने ही देश की पुरुष क्रिकेट टीम के मैच से हो.
लेकिन भारत में ठीक इसका उलटा हुआ जबकि जरूरत यहां थी कि महिलाओं को खेलने के अधिक मौके मिलें और उनके मैच उस दिन आयोजित न हों जिस दिन पुरुष क्रिकेट खेल रहे हों.
ऐसा इसलिए जरूरी था क्योंकि इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड की तुलना में भारत में महिला क्रिकेट अधिक पिछड़ा, कम लोकप्रिय और गैर बराबरी का दर्जा रखता है.
इस संबंध में भारतीय महिला क्रिकेट टीम की पूर्व कप्तान डायना एडुल्जी ने द वायर से कहा, ‘जब महिला और पुरुष टीम के मैच एक साथ हों तो निश्चित तौर पर उनके प्रसारण पर भी फर्क पड़ता है. महिलाओं के मैच की व्यूअरशिप औंधे मुंह गिर जाती है.’
बता दें कि किसी भी खेल का विकास और लोकप्रियता उसकी व्यूअरशिप से ही तय होते हैं और ‘प्रसारण अधिकार’ आय का सबसे बड़ा स्रोत होते हैं. आय के इसी स्रोत से बीसीसीआई विश्व का सबसे धनी क्रिकेट बोर्ड बना है इसलिए जितने ज्यादा लोग मैच देखेंगे, उतना ही अधिक राजस्व प्राप्त होगा.
यही राजस्व किसी भी खेल की तस्वीर बदलता है. बीसीसीआई केंद्रीय अनुबंध में पुरुष क्रिकेटर्स को महिला क्रिकेटर्स की तुलना में 10 से 15 गुना अधिक भुगतान करता है क्योंकि पुरुष क्रिकेट उसके राजस्व का मुख्य स्रोत है. महिलाओं को कम भुगतान मिलता है क्योंकि बीसीसीआई को उनसे राजस्व नहीं मिलता.
इस संबंध में भारतीय महिला क्रिकेटर स्मृति मंधाना का पिछले दिनों दिया बयान गौरतलब है. उन्होंने कहा था, ‘हमें समझने की जरूरत है कि जो राजस्व मिलता है, वह पुरुष क्रिकेट से मिलता है. जिस दिन महिला क्रिकेट राजस्व पाना शुरू कर देगा, मैं वो पहली इंसान होंगी जो कहेगी कि हमें भी पुरुषों जितना भुगतान हो लेकिन अभी हम ऐसा नहीं कह सकते.’
उन्होंने आगे कहा था, ‘हमारा ध्यान सिर्फ भारत के लिए मैच जीतने और प्रशंसकों को खेल से जोड़कर राजस्व कमाने पर है. अगर ऐसा होता है तो दूसरी चीजें खुद ठीक हो जाएंगी. इसके लिए हमें अच्छा प्रदर्शन करने की जरूरत है. तब तक हमारी तरफ से समान भुगतान मांगना उचित नहीं होगा.’
स्मृति के इन शब्दों से भली-भांति समझा जा सकता है कि महिला क्रिकेट को प्रशंसकों की कितनी सख्त जरूरत है. लेकिन जब पुरुषों और महिलाओं के मैच समान दिन हों तो महिलाएं चाहे कितना भी अच्छा प्रदर्शन कर लें, उनके प्रयासों को पलीता लगना तय है. इन हालात से बीसीसीआई अनजान तो होगा नहीं, फिर भी वह ‘मैच विंडो’ ऐसी नहीं बनाता जिससे कि महिला और पुरुष क्रिकेट का टकराव न हो.
टकराव रहित विंडो बनाना असंभव नहीं है. 2006 से पहले तक भारतीय महिलाएं आज की तुलना में अधिक क्रिकेट खेलती थीं, तब भी उनके मैचों का टकराव पुरुषों के मैच से कम होता था. आज वे तुलनात्मक रूप से कम मैच खेल रही हैं, इसलिए टकराव रहित मैच आयोजित करना बीसीसीआई के लिए और भी आसान होना चाहिए.
हालांकि, ऐसा दावा तो नहीं कर सकते कि सिर्फ इससे ही महिला क्रिकेट की लोकप्रियता में बढ़ोत्तरी होगी लेकिन अयाज़ मेमन के यह शब्द गौर करने लायक हैं, ‘हर छोटी से छोटी चीज जो महिला क्रिकेट को फोकस में लाती है तो उसका फायदा होगा ही. टकराव वाले मैच न हों तो जाहिर सी बात है कि महिला क्रिकेट फायदे में रहेगा. न सिर्फ बीसीसीआई बल्कि दूसरे क्रिकेट बोर्ड को भी समान दिन महिलाओं और पुरुषों के मैच आयोजित करने से बचना चाहिए.’
डायना एडुल्जी बीसीसीआई की प्रशासक समिति की भी पूर्व सदस्य रहीं हैं. वे बताती हैं, ‘2016 तक आईसीसी के महिला और पुरुष टी20 विश्वकप साथ होते थे. महिला-पुरुष एक ही दिन मैच खेलते थे. 2020 में आईसीसी ने महिला विश्वकप का आयोजन अलग किया तो यह क्रिकेट और लोकप्रिय हो गया. भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच खेला गया फाइनल देखने 86,000 लोग मैदान में पहुंचे थे.’
वे आगे बताती हैं, ‘बीसीसीआई में भी यह काफी पहले तय हुआ था कि ऐसे टकराव से बचा जाएगा लेकिन शायद कोविड के कारण सारी योजनाएं ध्वस्त हो गईं.’
हालांकि यह बात सही है कि सर्वाधिक महिला क्रिकेट खेलने वाले तीन देशों क्रमश: इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया और भारत में से ऑस्ट्रेलियाई महिलाएं सबसे अधिक ऐसे मैच खेलती हैं जिनका आयोजन उस दिन होता है जिस दिन ऑस्ट्रेलियाई पुरुषों का भी अंतरराष्ट्रीय मैच हो. लेकिन पिछले 15 सालों में ऐसे मैचों की संख्या में सबसे अधिक वृद्धि भारत में हुई है.
जनवरी 2002 से नवंबर 2006 के बीच (टेबल-1) भारतीय महिलाओं के कुल खेल दिवस में से 21.81 प्रतिशत खेल दिवस ऐसे थे जब भारतीय पुरुष भी क्रिकेट खेल रहे थे. इस मामले में इंग्लैंड 28.30 प्रतिशत के साथ पहले और ऑस्ट्रेलिया 26.02 प्रतिशत के साथ दूसरे नंबर पर था. भारत तीसरे पर था.
वहीं, बीसीसीआई द्वारा महिला क्रिकेट की बागडोर संभालने के बाद वाली अवधि में 7 नवंबर 2006 से 15 जून 2021 के बीच (टेबल-2), भारत के मामले में ‘टकराव वाले खेल दिवस’ की संख्या में 7.22 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई. जबकि ऑस्ट्रेलिया के मामले में सिर्फ 4.59 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई. इंग्लैंड के मामले में तो 4.55 प्रतिशत की कमी आई है.
गौर करने वाला पहलू यह है कि इस अवधि में भारतीय पुरुषों के मुकाबले भारतीय महिलाओं ने 2002-06 की तुलना में 5.71 प्रतिशत कम क्रिकेट खेला, जबकि ऑस्ट्रेलिया की महिलाओं ने 9.86 प्रतिशत अधिक क्रिकेट खेला. तीनों प्रमुख देशों के बीच भारतीय महिलाओं ने सबसे कम क्रिकेट खेला. जबकि ऑस्ट्रेलियाई महिलाओं ने सबसे अधिक. (टेबल-3)
कम क्रिकेट खेलने के बावजूद भी पुरुष क्रिकेट से ‘टकराव वाले खेल दिवस’ की संख्या में सबसे अधिक बढ़ोत्तरी भारत में हुई.
तस्वीर स्पष्ट है कि जब से बीसीसीआई ने महिला क्रिकेट की बागडोर संभाली है तब से न सिर्फ महिलाओं के मैच के आयोजन पुरुषों के मैच वाले दिन हो रहे हैं, बल्कि महिलाओं को खेलने के भी कम मौके मिल रहे हैं.
कम मौके मिलने के संबंध में और अधिक गहराई से विश्लेषण करने पर पाते हैं कि जनवरी 2002-06 के बीच भारतीय पुरुषों ने 403 दिन क्रिकेट खेला, इसके मुकाबले महिलाओं ने 110 दिन, यानी पुरुषों के मुकाबले 27.30 प्रतिशत, जो उस दौरान विश्व में सबसे अधिक था.
दूसरे पायदान पर इंग्लैंड था. वहां पुरुषों ने 432 दिन तो महिलाओं ने 106 दिन क्रिकेट खेला, यानी पुरुषों के मुकाबले 24.54 प्रतिशत. तीसरे पर ऑस्ट्रेलिया का नंबर आता था. ऑस्ट्रेलियाई पुरुषों ने 442 दिन तो महिलाओं ने महज 73 दिन क्रिकेट खेला, यानी पुरुषों के मुकाबले 16.52 प्रतिशत. (टेबल 1)
अगले पंद्रह साल (7 नवंबर 2006 -15 जून 2021) की अवधि में तस्वीर बिल्कुल बदल गई (जब सभी महिला क्रिकेट संघों का विलय पुरुष क्रिकेट संघों में हो गया). पुरुषों के मुकाबले सबसे अधिक क्रिकेट खेलने वाली भारतीय महिलाएं अब सबसे कम खेलने लगीं और सबसे कम खेलने वाली ऑस्ट्रेलियाई महिलाएं सबसे अधिक. (टेबल-3)
इस दौरान भारतीय पुरुषों ने 1255 दिन क्रिकेट खेला, जबकि महिलाओं ने 271 दिन यानी पुरुषों के मुकाबले 21.59 प्रतिशत. वहीं, ऑस्ट्रेलियाई पुरुषों ने 1213 दिन क्रिकेट खेला, जबकि महिलाओं ने 320 दिन यानी पुरुषों के मुकाबले 26.38 प्रतिशत. (टेबल-3)
बहरहाल, भारतीय महिलाओं को खेलने के कम मौके केवल अंतरराष्ट्रीय किक्रेट में ही नहीं मिल रहे, बल्कि घरेलू क्रिकेट में भी ऐसा हो रहा है.
गार्गी बनर्जी बताती हैं, ‘घरेलू क्रिकेट में 2006 से पहले हम एकदिवसीय क्रिकेट खेलते थे. कभी-कभी दो और तीन दिवसीय मैच भी खेलते थे. लेकिन, अब जो टी20 क्रिकेट शुरू हुआ है उससे मैचों की संख्या तो बढ़ी हुई दिख रही है लेकिन हकीकत कुछ और है. संख्या भी जिस हिसाब से बढ़नी चाहिए थी, उस हिसाब से नहीं बढ़ी है.’
बता दें कि भारतीय महिलाओं ने सिर्फ अंतरराष्ट्रीय टेस्ट मैच ही सात सालों बाद नहीं खेला, बल्कि कई सालों से महिलाओं के बहुदिनी (टेस्ट) घरेलू क्रिकेट का टूर्नामेंट तक बीसीसीआई ने नहीं कराया है.
गार्गी आगे कहती हैं, ‘मैच की संख्या और बढ़ाने की जरूरत है. कुछ टूर्नामेंट बंद हो गए हैं, अगर वो भी शुरू हों तो अच्छा होगा. घरेलू क्रिकेट में सुधार के लिए बहुदिनी मैच यानी घरेलू टेस्ट मैच खेलने की जरूरत है. इससे खिलाड़ियों की स्किल्स निखरेंगी और उन्हें समझ आएगा कि हालातों के हिसाब से कैसे ढलना है.’
डायना एडुल्जी भी इस बात से सहमत हैं. वे कहती हैं, ‘निश्चित तौर पर महिलाओं के टूर्नामेंट कम हुए हैं. पहले प्राइज मनी टूर्नामेंट हर स्टेट में होते थे. हां, घरेलू क्रिकेट में पहले से सुधार जरूर हुआ है लेकिन अभी भी बहुत सुधार की जरूरत है.’
अयाज मेमन कहते हैं, ‘अगर बीसीसीआई ने जिम्मेदारी ली है तो मैच खेलने के ज्यादा से ज्यादा मौके भी देना चाहिए. लेकिन हम देखते हैं कि फरवरी-मार्च 2020 के करीब सवा साल बाद भारतीय लड़कियों को कोई मैच खेलने मिला. यहां तक कि इस दरम्यान कोई घरेलू टूर्नामेंट तक नहीं कराया गया.’
अयाज़ पुराना दौर याद करके वर्तमान दौर पर अफसोस जताते हुए कहते हैं, ‘पहले इतना बुरा हाल था कि मैच खेलने और टूर्नामेंट आयोजित करने के लिए पैसे भी लड़कियां खुद इकट्ठे करती थीं. बीसीसीआई से जुड़कर यह सही हुआ कि एडमिनिस्ट्रेशन खुद खिलाड़ियों को नहीं संभालना पड़ता. लेकिन अफसोस की बात है कि पहले लड़कियां खुद मैदान पर मेहनत भी कर रही थीं और एडमिनिस्ट्रेशन संभालकर मैच भी आयोजित कर रही थीं. अब एडमिनिस्ट्रेशन बीसीसीआई के हाथ है, फिर भी इस मामले में हालात बदतर हैं.’
वे आगे कहते हैं, ‘जितनी तेजी से महिला क्रिकेट का विकास होना चाहिए था, वह शायद नहीं हुआ. ऐसा इसलिए क्योंकि बीसीसीआई की माली हालत बहुत अच्छी है और क्रिकेट देश में सर्वाधिक लोकप्रिय खेल भी है.’
अयाज का मानना है कि बात सिर्फ पैसे की नहीं है, मौका देने की है. महिला क्रिकेट को लेकर एक विजन होना चाहिए.
वे बताते हैं, ‘अंतरराष्ट्रीय टेनिस में भी यही हाल था. महिला टेनिस पर पहले कोई इतना ध्यान नहीं देता था, लेकिन फिर उसकी मार्केटिंग की, उसको टीवी पर डाला, टेनिस खिलाड़ियों को स्टार बनाया. ऐसी ही कोशिश चाहिए. बेशक महिला क्रिकेट की व्यूअरशिप बढ़ी है, अगर ज्यादा मैच कराए जाएं तो शायद दर्शक और भी ज्यादा रुझान लें.’
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)