व्यंग्य: बीते दिनों आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत ने कहा कि वे शुरू से ही मीडिया को संदेश देते रहे हैं कि निगेटिव ख़बरों को भी पॉज़िटिव तरीके से छापें. देश के एक वरिष्ठ पत्रकार ने उनकी राय पर अमल करते हुए ‘नो निगेटिव न्यूज़’ वाले अख़बार में प्रकाशित एक ख़बर के साथ ऐसा करने की कोशिश की है.
वैसे तो मोहन भागवत जी किसी परिचय के मोहताज नहीं, फिर भी बता देना ठीक होगा कि वह सरसंघचालक हैं. वह अभी दो दिन इंदौर में थे. बुधवार को उन्होंने वहां ‘गणमान्य’ लोगों से मुलाकात की. उनके गणमान्य भी अलग कोटि के रहे होंगे. खैर! उनसे बातचीत के दौरान भागवत जी ने कहा और एक हिंदी अखबार में छापा कि पॉजिटिव खबरों को बढ़ावा देना चाहिए. ‘मैं शुरू से ही मीडिया को संदेश देता रहा हूं कि निगेटिव खबरों को भी पॉजिटिव तरीके से छापें.’
उन्होंने बहुत ही महत्वपूर्ण संदेश नहीं दिया है क्या? दिया है. एक बहुत बड़ी चुनौती फेंकी है उन्होंने खासकर हिंदी पत्रकारिता के सामने,तो पत्रकारिता के पेशे से आजीवन जुड़े रहने के कारण मेरा भी कर्तव्य बन जाता है कि मैं भी कुछ कर दिखाऊं. चुनौती स्वीकार करूं.
उसी क्रम में मैंने सोचा कि कुछ करके दिखाते ही हैं अब. उसी अखबार के उसी पृष्ठ पर, जिसमें भागवत जी की यह चुनौती छपी थी, संयोग से ऐसी एक खबर भी थी, जो निगेटिव की श्रेणी में आती है. उसकी पॉजिटिव बात यह थी कि वह एक कॉलम में छपी थी और अत्यंत संक्षिप्त थी.
‘न्यूज़ ब्रीफ’ स्तंभ के अंतर्गत छपी थी. उसकी निगेटिव बात यह थी कि वह छपी थी. कर्नाटक की खबर थी, नहीं भी छपती तो अखबार का कुछ बिगड़ नहीं जाता. पर छापी गई, जबकि खबर भी आईटी की नहीं, दलित की थी. ऐसी खबरों को बड़े हिंदी अखबारों में डाउन मार्केट माना जाता है. फिर उसमें भी और डाउन मार्केट बात यह थी कि’ शर्मनाक’ जैसे शब्द का प्रयोग भी किया गया था. अब इसे पॉजिटिव रूप देने की गंभीर चुनौती थी.
चलिए, पहले आप उस खबर का अक्षरशः मुलाहिज़ा तो फरमा लें. इसका शीर्षक है-
‘मंदिर में जाने पर दलित पर 36 हजार का जुर्माना’
बेंगलुरु: कर्नाटक के कोप्पल जिले में चार साल का एक दलित बच्चा मंदिर में चला गया. इस पर गांव वालों ने उसके परिजनों पर 25 हजार रुपये का जुर्माना लगा दिया. सफाई के लिए अलग से 11,000 रुपये जमा करने को कहा. मियापुर गांव के इस शर्मनाक मामले में पुलिस ने एससी-एसटी एक्ट में केस दर्ज करके पुजारी सहित पांच लोगों को गिरफ्तार किया है.
आपने देखा होगा कि खबर बेशक छोटी थी मगर कितनी खोटी थी. विडंबना यह थी कि यह उसी अखबार में छपी थी जो हर सोमवार को घोषणा करता है ‘आज नो निगेटिव न्यूज.’ ऐसे अखबार का कोई युवा पत्रकार सोमवार के केवल दो दिन बाद इतनी छोटी-सी खबर को भी पॉजिटिव तरीके से लिखना नहीं जानता था, यह दुर्भाग्यपूर्ण नहीं तो क्या है?
चुनौती स्वीकार करनी चाहिए थी अखबार के पत्रकार को, स्वीकार मैंने की. इसमें असफल होने का खतरा है. इसे उठाकर भी इस खबर का पॉजिटिवकरण करना है. यह काम आसान नहीं है. इसके लिए एक विशेष किस्म का कलेजा चाहिए, जो संघियों के पास होता है. यह चुनौती किसी संघी को स्वीकार करना चाहिए था, मुझे नहीं मगर अब मरता क्या न करता!
मैंने खूब सोच- विचार के बाद अपने एक प्राचीन संघी दोस्त से संपर्क किया. ‘यार तेरी एक मदद चाहिए.’
उसने कहा: ‘बोल साले, तुम वामियों के आइडियाज बहुत खतरनाक होते हैं, फिर भी बोल. तू पहली बार मुझसे मदद मांग रहा है, तो बोल, जल्दी बोल. बता क्या मदद करूं. तेरे लिए तो पट्ठे मेरी जान भी हाजिर है. याद है,तेरी-मेरी दोस्ती, तब की है, तब मैं जो हूं, वह नहीं था. तू भी जो है, वह नहीं था.’
मैंने निवेदन किया कि यार काम देशहित का है इसलिए अपना कलेजा मुझे केवल 10 मिनट के लिए उधार दे दे.
उसने कहा,’ जब तेरे लिए जान तक हाजिर है तो फिर दस मिनट क्यों पूरे दिन के लिए ले जा, पर सुन यार याद आया. आज बहुत से ऐसे काम हैं जो इस कलेजे के बगैर नहीं हो पाएंगे. तो ऐसा कर एक घंटे के लिए ले जा. याद रख उसके बाद वापस करना पड़ेगा. इसके बाद एक मिनट भी अधिक नहीं.
खैर, आखिर में सौदा इस बात पर पटा कि उसने अपना कलेजा मुझे 15 मिनट के लिए उधार दे दिया. उसने यह भी कहा कि अगर पांचेक मिनट अधिक लग गए तो भी कोई बात नहीं. ‘तू यार जो मेरा है.’
अब इस खबर को पॉजिटिव बनाना आसान हो गया. वैसे उसी खबर में थोड़े-से शब्दों की हेराफेरी से मामला दुरुस्त हो सकता था. लग सकता था कि कुछ गलत जैसा कुछ हुआ नहीं. पर अपना शार्टकट में विश्वास रहा नहीं कभी. अपन लॉन्ग रूट से ही चलेंगे. अपन एक- एक बात को समझाएंगे कि खबर कैसी भी हो, उसमें चाहने पर पॉजिटिव तत्व कैसे डाले जा सकते हैं.
माना कि कर्नाटक का चार साल का एक दलित बच्चा मंदिर में चला गया. अच्छा तो नहीं हुआ. ऐसा होना नहीं चाहिए था मगर हुआ. किसी भी मां-बाप की जिम्मेदारी होती है कि इतने छोटे-से बच्चे को ऐसे ही भटकने न दे. भटके तो दो थप्पड़ जड़ दें. ठीक हो जाएगा पर आजकल के मां-बाप जिम्मेदार होते नहीं, कहीं भी देख लो. क्या गरीब, क्या अमीर, क्या सवर्ण, क्या दलित! सब तरफ कुएं में भांग पड़ी हुई है.
फिर भी चलो जो गलती हो गई, हो गई. था तो बच्चा ही. उसे क्या पता कि वह दलित है और उसका मंदिर प्रवेश निषिद्ध है. गांव वालों ने भी कहा कि कोई खास बुरा नहीं माना. उन्होंने बच्चे को दोषी नहीं माना. उसे आराम से पीट सकते थे मगर पीटा नहीं. मां-बाप को धमकाया नहीं. एफआईआर तक नहीं करवाई. मामला गांव स्तर पर ही निबटा दिया.
इस पॉजिटिव बात की ओर संवाददाता ध्यान आकृष्ट नहीं करता. ऐसा उसे नहीं करना चाहिए था. खैर, आप ये देखिए कि गांव वालों ने केवल जुर्माना लगाया. आज के समय में 25,000 रुपये कोई ज्यादा नहीं होते. गांव वालों ने भी दलित की हालत देखकर, सोच-समझकर ही यह अर्थ दंड लगाया है.
कर्नाटक वैसे है भी बहुत समृद्ध प्रदेश. ये पति- पत्नी दोनों एक महीने भी ढंग से काम करेंगे तो 25,000 रुपये तो यूं खड़े हो जाएंगे. अब रही 11,000 रुपये की बात. अब इतना बड़ा मंदिर है तो उसकी पवित्रता की रक्षा भी जरूरी है .इस हेतु मंदिर के कोने- कोने की सफाई करवानी पड़ेगी. केवल यही नहीं उसका पवित्रीकरण भी करवाना पड़ेगा. उस पर भी खर्च आएगा बल्कि यह खर्च अधिक होगा. बहुत बड़ा काम है. बहुत बड़ी जिम्मेदारी है मंदिर पर. अपवित्र को पवित्र करना.
कोई भी ‘निष्पक्ष’ व्यक्ति कहेगा कि इसके लिए 11,000 रुपये जुर्माना अधिक नहीं है. हो सकता है दो -चार हजार बाकी लोगों को भी आखिर में लगाने पड़ जाएं. दलित से तो ये फिर से नहीं कह सकते कि बिल 15,000 का आया है. ला चार हजार और निकाल.
ये भी कितनी बड़ी पॉजिटिव बात है गांव वालों की. पाठकों का ध्यान इस ओर दिलाया जाना चाहिए था.नहीं दिलाया गया. पॉजिटिविटी के प्रति संपादक ईमानदार होते तो ऐसी चूक कभी न होती.
इस बात को कोई मुसलमान भी मानेगा कि किसी भी हालत में मंदिर को पवित्र रहना चाहिए. यह हमारा नागरिक कर्तव्य है. अगर मंदिर ही पवित्र नहीं रहे तो फिर दुनिया से हिंदू धर्म का नाम उठ जाएगा. हिंदू धर्म का नाम उठ गया तो दुनिया में फिर बचेगा क्या?
इसलिए उस मंदिर की तरफ किसी मुसलमान ने कभी झांका तक नहीं होगा, ताकि उसकी नजरों से भी कहीं मंदिर की पवित्रता भंग न हो जाए. यह बात उस बच्चे के दलित मां-बाप को भी याद रखना चाहिए था मगर क्या कहें. किसी से कहो तो ब्राह्मणवादी हो, ऐसा कहने लग जाते हैं. ऐसे में चुप भली.
वैसे पुलिस चाहती तो मामला बिल्कुल बिगड़ता नहीं. उसे एससी-एसटी एक्ट के तहत पांच लोगों को गिरफ्तार नहीं करना चाहिए था. भाई, गांव का मामला था. गांव के स्तर पर इसे शांतिपूर्वक निपटा लिया गया था. कोई हिंसा नहीं, कोई दबंगई नहीं. पुलिस ने ऐसे मामले में दखल देकर स्थानीय को राष्ट्रीय मुद्दा बना दिया पर चलो कानून भी कोई चीज होती है. कम से कम दक्षिण में तो उसका पालन यदाकदा होते रहना चाहिए.
देश के बाहर और भीतर के लोगों को लगना चाहिए कि यहां कानून का राज है. यहां कानून अपना काम करता रहता है. राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं होता. इस दृष्टि से यह कार्रवाई होना भी पॉजिटिव है. इसे भी हाईलाइट करने की जरूरत थी पर कोई सोचे तब न!
पॉजिटिविटी के प्रति गहरी निष्ठा हो तब न यह बात दिखाई दे! भागवत जी ‘पॉजिटिविटी अनलिमिटेड’ पर व्याख्यान देते हैं, वह भी दिल्ली में मगर समाज में पॉजिटिविटी लिमिटेड है न! मोदी जी भी क्या करें! आगे से ध्यान रखा जाएगा, ऐसी अपेक्षा है.
अब ‘शर्मनाक’ शब्द लिख ही दिया है तो तीर तो अखबार के कमान से निकल ही चुका. अच्छा तो यह होता कि अगले दिन अखबार इसके लिए माफी मांग लेता. पाठक माफी दे भी देते. इससे पॉजिटिविटी लिमिटेड से पॉजिटिविटी अनलिमिटेड हो जाती. यह नहीं हुआ.
पॉजिटिव एटीट्यूड ही नहीं है. खबर कैसे पॉजिटिव बनेगी? और केवल निगेटिव खबर को पॉजिटिव बनाने से क्या होगा?
शब्द तो व्याख्या करने के कारण कुछ ज्यादा हो गए मगर आप इस बात की प्रशंसा किए बगैर न रह सकेंगे कि लेखक ने सारे मामले को कैसे पॉजिटिव टर्न दे दिया. अंग्रेजी पत्रकार यह सब कहां कर पाते हैं. कुछ तो निगेटिविटी ही निगेटिविटी ढूंढते रहते हैं, इसलिए उन पर स्वाभाविक है, छापे तो पड़ेंगे ही.जानते-बूझते आग में घी डालोगे तो हाथ जलेंगे ही.
खैर, अंग्रेजी पत्रकारिता अपनी जाने. हिंदी पत्रकारिता सामान्यतया ऐसी नहीं है इसलिए इस हिंदी पत्रकार ने अच्छी तरह स्पष्ट कर दिया है कि निगेटिव से निगेटिव खबर को भी कैसे पॉजिटिव बनाया जा सकता है.
लेखक को बधाई और शुभकामनाएं भागवत जी की ओर से प्रेषित होनी चाहिए. इस लेखक ने वामी होते हुए भी जितनी जल्दी उनकी बात सुनी है, उतनी जल्दी तो क्षमा कीजिए, भगवान भी किसी की बात नहीं सुनते. शेष कुशल है, भागवत जी.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)