मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने कहा कि आज़ादी के 74 साल बाद भी परंपरागत जीवन शैली का पालन कर रहे लोग और कृषि प्रधान समाज अदालतों का दरवाज़ा खटखटाने में झिझक महसूस करते हैं. हमारे न्यायालयों की परंपराएं, प्रक्रियाएं, भाषा उन्हें विदेशी लगती हैं. क़ानूनों की जटिल भाषा और न्याय प्रदायगी की प्रक्रिया के बीच ऐसा लगता है कि आम आदमी अपनी शिकायत को लेकर बहुत आशांवित नहीं होता है.
नई दिल्ली: मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) एनवी रमना ने बीते शनिवार को कहा कि विधायिका को कानूनों पर फिर से विचार करने और उन्हें समय तथा लोगों की जरूरतों के अनुरूप सुधारने की जरूरत है, ताकि वे ‘व्यावहारिक वास्तविकताओं’ से मेल खा सकें.
सीजेआई ने ओडिशा राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण (ओएसएलएसए) के नए भवन का उद्घाटन करते हुए यह भी कहा कि ‘संवैधानिक आकांक्षाओं’ को साकार करने के लिए कार्यपालिका और विधायिका को साथ मिलकर काम करने की जरूरत है.
उन्होंने कहा कि न्यायपालिका ने आगामी सप्ताह में एक देशव्यापी कानूनी जागरूकता मिशन शुरू करने का फैसला किया है.
जस्टिस रमना ने कहा, ‘मैं कहना चाहूंगा कि हमारे कानूनों को हमारी व्यावहारिक वास्तविकताओं से मेल खाना चाहिए. कार्यपालिका को संबंधित नियमों को सरल बनाकर इन प्रयासों का मिलान करना होगा.’
उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि कार्यपालिका और विधायिका के लिए ‘संवैधानिक आकांक्षाओं को साकार करने के लिए मिलकर कार्य करना’ महत्वपूर्ण है, क्योंकि ऐसा करने से न्यायपालिका को कानून-निर्माता के रूप में कदम उठाने के लिए मजबूर नहीं होना पड़ेगा और उसके पास केवल कानूनों को लागू करने तथा व्याख्या करने के कर्तव्य रह जाएंगे.
मुख्य न्यायाधीश ने उल्लेख किया कि भारतीय न्यायिक प्रणाली दोहरी चुनौतियों का सामना कर रही है और सबसे पहले ‘न्याय प्रदायगी प्रणाली का भारतीयकरण’ होना चाहिए.
उन्होंने कहा कि आजादी के 74 साल बाद भी परंपरागत जीवन शैली का पालन कर रहे लोग और कृषि प्रधान समाज ‘अदालतों का दरवाजा खटखटाने में झिझक महसूस’ करते हैं.
जस्टिस रमना ने कहा, ‘हमारे न्यायालयों की परंपराएं, प्रक्रियाएं, भाषा उन्हें विदेशी लगती हैं.’ उन्होंने कहा कि कानूनों की जटिल भाषा और न्याय प्रदायगी की प्रक्रिया के बीच ऐसा लगता है कि आम आदमी अपनी शिकायत को लेकर बहुत आशांवित नहीं होता है.
उन्होंने कहा कि यह एक कठोर वास्तविकता है कि प्राय: भारतीय कानूनी प्रणाली सामाजिक वास्तविकताओं और निहितार्थों को ध्यान में रखने में विफल रहती है.
प्रधान न्यायाधीश ने कहा, ‘दुर्भाग्य से हमारी प्रणाली को इस तरह से बनाया गया है कि जब तक सभी तथ्यों और कानून पर अदालत में मंथन किया जाता है, तब तक बहुत कुछ खत्म हो जाता है.’
जस्टिस रमना ने कहा कि ‘भारत में न्याय तक पहुंच’ की अवधारणा केवल अदालतों के समक्ष एक आरोपी का प्रतिनिधित्व करने के लिए वकील प्रदान करने से कहीं अधिक व्यापक है.
उन्होंने कहा कि भारत में गरीबों और हाशिये पर पड़े लोगों को न्याय दिलाने का काम ओडिशा राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण जैसी कानूनी सेवा संस्थाओं को सौंपा गया है, जिनकी गतिविधियों में उन वर्गों के बीच कानूनी जागरूकता और कानूनी साक्षरता बढ़ाना शामिल है, जो परंपरागत रूप से संबंधित प्रणाली के दायरे से बाहर रहे हैं.
प्रधान न्यायाधीश ने कहा, ‘चाहे मुआवजे की बात हो या बेदखली या शादी और विरासत से जुड़ा कोई पारंपरिक मुद्दा, एक आम आदमी को त्वरित समाधान की जरूरत होती है.’
जस्टिस रमना ने कहा कि लोक अदालत, मध्यस्थता और सुलह जैसे वैकल्पिक विवाद समाधान (एडीआर) तंत्र को बढ़ावा देने की दिशा में कानूनी सेवाओं के अधिकारियों की बड़ी जिम्मेदारी है, ताकि अधिक समावेशी और तेजी से न्याय प्रदान किया जा सके.
उन्होंने कहा, ‘अगर हम लोगों का विश्वास बनाए रखना चाहते हैं, तो हमें न केवल न्यायिक बुनियादी ढांचे को मजबूत करने की जरूरत है, बल्कि हमें अपने संपर्क कार्यक्रमों को भी बढ़ावा देने की जरूरत है.’
प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि चुनौती की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए हमने आगामी सप्ताह में देशव्यापी कानूनी जागरूकता मिशन शुरू करने का निर्णय लिया है. इस प्रयास को दूर-दूर तक ले जाने के लिए आपके सहयोग और समर्थन की अपेक्षा करता हूं.
उन्होंने ओडिशा की स्थिति के बारे में भी विशेष रूप से बात करते हुए कहा कि जिन राज्यों में क्षेत्रीय और आर्थिक असमानता जैसी कई बाधाएं हैं, वहां कानूनी सेवा संस्थानों की भूमिका बहुत महत्व रखती है.
उन्होंने कहा कि ओडिशा में लगभग 83 फीसदी लोग ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं और अक्सर उन्हें औपचारिक न्याय प्रदायगी प्रणाली से बाहर रखा जाता है.
यह दूसरी बार है जब भारत के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने कानूनी व्यवस्था में व्यवहारगत बदलाव लाने की वकालत की है.
इससे पहले एक कार्यक्रम में जस्टिस रमना ने कहा था कि हमारी न्याय व्यवस्था कई बार आम आदमी के लिए कई अवरोध खड़े कर देती है. अदालतों के कामकाज और कार्यशैली भारत की जटिलताओं से मेल नहीं खाते. हमारी प्रणालियां, प्रक्रियाएं और नियम मूल रूप से औपनिवेशिक हैं और ये भारतीय आबादी की जरूरतों से पूरी तरह मेल नहीं खाते हैं.
उन्होंने कहा था कि अदालतों को वादी-केंद्रित बनना होगा और न्याय प्रणाली का सरलीकरण अहम विषय होना चाहिए.
जस्टिस एनवी रमना ने कहा था, ‘जब मैं भारतीयकरण कहता हूं तो मेरा आशय हमारे समाज की व्यावहारिक वास्तविकताओं को स्वीकार करने तथा हमारी न्याय देने की प्रणाली का स्थानीयकरण करने की जरूरत से है. उदाहरण के लिए किसी गांव के पारिवारिक विवाद में उलझे पक्ष अदालत में आमतौर पर ऐसा महसूस करते हैं जैसे कि उनके लिए वहां कुछ हो ही नहीं रहा, वे दलीलें नहीं समझ पाते, जो अधिकतर अंग्रेजी में होती हैं.’
(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)