‘जुमला जयंती पर आनंदित, पुलकित, रोमांचित वैशाखनंदन’ वाक्य में व्यंग्य अवश्य है, घृणा कतई नहीं.
मृणाल पांडे ने हिंदी का एक साफ़ सुथरा वाक्य क्या लिख दिया, कोहराम मच गया.जिस वाक्य को लेकर हंगामा बरपा है, वह है : ‘जुमला जयंती पर आनंदित, पुलकित, रोमांचित वैशाखनंदन.’ वाक्य में व्यंग्य अवश्य है, तिक्तता या घृणा कतई नहीं है.
व्यंग्य भी किंचित स्मित के साथ है. कुटिलभ्रूयुक्त मुख से विष की तरह जो व्यंग्य निकलता है, ऐसा कुछ नहीं है.
अनुप्रास का आनंद है जिसे हिंदी के छात्र सबसे अधिक पहचानते हैं और प्रेमचंद की भाषा की विशेषता पूछने पर भी हरी स्याही से लिख डालते हैं, अनुप्रास का प्रयोग. आनंदित और पुलकित में भी एक तुकांतता है. वाक्य के अंत में प्रकट होनेवाले वैशाखनंदन में नंद पर ध्यान दीजिए और मृणालजी के भाषा कौशल की दाद दीजिए: आनंदित में नंदित से नंदन का जो मेल कराया है उससे वाक्य प्रसन्न हो उठा है.
दीर्घ और ह्रस्व ध्वनियों के संतुलन से इस साधारण से वाक्य में भी एक गरिमा आ गई है, वैसे ही जैसे वैशाखनंदन कह देने से उसमें आ जाती है जिसका चित्र मृणालजी ने वाक्य के नीचे लगाना आवश्यक समझा.
मेरी शिकायत अगर कोई है मृणालजी से तो वह इस वाक्य के एक व्यंजक शब्द का अर्थ स्पष्ट करने की बाध्यता मानकर उसे संज्ञेय बनाने के लिए चित्र लगाने से है.
क्या यह मानें कि हमारी इस वरिष्ठ लेखिका को अपनी बाद की पीढ़ियों के भाषा ज्ञान का भरोसा न रहा! फिर वे न तो प्रेमचंद को पढ़ पाएंगे, न पांडे बेचन शर्मा उग्र को, न परसाईजी को, हजारी प्रसाद द्विवेदी को तो वे दूर से ही नमस्कार करेंगे!
हिंदी का ही वाक्य है, यह जुमलाजयंती शब्द से जाना जा सकता है. जुमला हिंदी से बाहर हो जाएगा यदि शिक्षा बचाओ आन्दोलन का हिंदी शुद्धीकरण अभियान सफल हो जाता है.
भला हो गुजरात का कि उसने इसे राष्ट्रीय शब्द का पद प्रदान कर दिया है. यह पिछले दो वर्ष में नए सिरे से लोकप्रिय हो उठा है क्योंकि मूलतः चुनावी संकल्पों के पर्यायवाची के रूप में इसका सुचिंतित प्रयोग किया गया है.
जुमला गुजराती का ही शब्द है जैसे फिकरा हिंदी का. लेकिन जुमला आया है अरब से. गुजराती में जुमला जैसे जाने कितने अरबी शब्द भरे पड़े हैं.
मद्दाह के उर्दू हिंदी लुगत का सहारा लिया तो शब्द निकला जुमल जिसके मायने हैं, अबजद के अक्षरों का हिसाब. अब यह अबजद क्या बला है? यह है अरबी अक्षरों का वह क्रम जिसमें हर अक्षर का मूल्य 1 से 1000 तक दिया गया है. यह ककहरे या वर्णमाला का पर्याय भी है.
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प्रत्येक अक्षर का एक मूल्य है, इसकी चेतना हर भाषा में थी. इन अक्षरों की सहायता से लोगों के मरने और पैदा होने का साल निकाला जाता है. कुछ लोग अपने बच्चों के नाम ऐसे रखते हैं कि अक्षरों के मूल्य देखकर उनके जन्म का वर्ष मालूम कर लें.
तो जुमला को जो लफ्फाजी मान लिया गया है, तो भाषा प्रयोग के उसी नियम से जिसमें शब्द अपना मूल अर्थ बिसरा बैठता है और ठीक उल्टे अर्थ में ग्रहण किया जाने लगता है.
लेकिन मैं जुमला के साथ जयंती शब्द के मेल की बात करना चाहता हूं. एक अरबी और एक संस्कृत स्रोत से निःसृत. लेकिन दोनों शब्द कैसे मित्रभाव से आसपास जम गए! बल्कि गलबहियां देकर बैठे हों मानो. एक को दूसरे से अलग करना संभव नहीं.
यह है हिंदी का मिज़ाज! यदि इस अभिन्नता को भंग करना हो तो कहना पड़ेगा: जुमले की जयंती. जुमले का जन्मदिन भी कहा जा सकता था, लेकिन उसमें वह उदात्तता या गभीरता न आती जो जयंती के प्रयोग से आ गई है. जन्मदिन तो हम आप जैसों का मना करता है, आपकी जयंती मनाई जा सके, इसके लिए आपको कई कारनामे अंजाम देने होते हैं!
लेकिन जुमले का जन्मदिन कैसे मन सकता है! मृणालजी शब्दशक्तियों से वाकिफ हैं. इस शब्द की (वैसे भारतीय संस्कृति के ध्वजाधारी क्या बता पाएंगे कि इसमें कौन सा समास है!) व्यंजना कहीं और आपका ध्यान खींचती है.
मृणाल पांडे ने अरसा बाद हिंदी को याद दिलाया कि उसके पास एक शब्द हुआ करता था, वैशाखनंदन. दुलार से जैसे हम किसी को बुद्धू कहते हैं वैसे ही जब गधे को बिना अनादर के जब उसकी ‘ख्यात’ मूर्खता का अहसास दिलाना हो तो वैशाखनंदन कहकर पुकारते हैं. जैसे दशरथनंदन या रघुनंदन, वासुदेवनंदन या यशोदानंदन.
इस शब्द में ताड़ना नहीं है, वात्सल्य है, यह समझ पाने के लिए क्या हमें मृणालजी की वय:सिद्ध परिपक्वता की प्रतीक्षा करनी होगी?
थोड़ी खोज की तो 2014 के अगस्त की एक खबर मिली. आप भी पढ़िए:
वैशाखनंदन का हुआ पूजन
खरगोन. शहर के बाकी माता मंदिर में रविवार को श्रावण की सप्तमी पर महिलाओं ने वैशाखनंदन का पूजन किया. पूजन के लिए पहुंची रश्मि खोड़े, ममता परसाई, संगीता जोशी आदि ने बताया इसमें शीतला माता के वाहन का पूजन किया गया. ठंडा खाना खाकर व्रत रखा. परिवार और समाज की मंगलकामनाएं कीं. पंडित कृष्णकांत जोशी रामकृष्ण भट्ट ने व्रत का विधान बताया.
वैशाखनंदन को शीतलामाता के वाहन होने का गौरव प्राप्त है. यदि माता को शांत करना हो या उनका प्रसाद चाहिए तो उनके वाहन को प्रसन्न करना ही उपाय है.
मृणालजी ने अज्ञतावश क्षोभाकुल जन को एक और पर्यायवाची याद दिलाया है वैशाखनंदन का: देवानांप्रिय.
खबर पढ़कर हरिशंकर परसाई की एक रचना याद आ गई. लक्ष्मी उनसे क्यों उदासीन हैं, इसकी व्याख्या करते हुए उन्होंने लिखा कि इसमें उनका कसूर नहीं. आप उन पर यह आरोप नहीं लगा सकते कि वे पात्र को नहीं पहचानतीं!
हर दीवाली में वे उनकी गली के मुहाने पर ठिठक जाती हैं और अपने वाहन से पूछती हैं कि सुना है इधर कोई परसाई रहता है, लेकिन उलूकदेव हर बार उन्हें झांसा देकर अपने साले या बहनोई के घर ले जाते हैं. और इस तरह परसाई ठन-ठन-गोपाल रह गए.
वैशाखनंदन कहने से मूर्खता के गुण का बोध सहज ही होता है. वैशाख में घास सूखी होने पर भी यह सोचकर कि घास अगर नहीं है तो इसीलिए कि मैंने ही खा डाली होगी और इस बोध से निरन्तर पुष्ट होते जाने वाला और पावस में हरी घास का अंत न देख कर इस दुख से भर जाना कि मैं कुछ खा ही न पाया और उसकी कल्पना से क्षीण होते जाना, इसी कथा में छिपी है वैशाखनंदन शब्द की व्यंजना.
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वैसे मेरी पत्नी पूर्वा की इस पर आपत्ति है. उनका कहना है, वैशाखनंदन जिसका पर्याय है, उसे उन्होंने प्रायः दोनों तरफ देखकर सड़क पार करते देखा है. उनके यह बताने पर मैंने ध्यान दिया, मनुष्य के गतिउन्माद का शिकार प्रायः तीव्रबुद्धि श्वान होते हैं. सड़क पर जगह जगह उनके शव दीखते हैं. यानी वैशाखनंदन गतिमूर्खों के शिकार होने से खुद को बचा लेते है.
लेकिन इसका एक कारण यह हो सकता है कि गाय को माता कहकर सड़क पर उसके पुत्र भले छोड़ दें, गधे को नहीं छोड़ा जाता. जतन से रखा जाता है.
फिर भी लोकमान्यता के कारण जो जुमलाजयन्ती पर पुलकित हो वह वैशाखनंदन ही हो सकता है.
प्रश्न सबसे बड़ा है कि आखिर यह जुमला कौन है. जयंती प्राणी की हो सकती है. क्या जुमला व्यक्तिवाचक संज्ञा है? अगर नहीं तो क्या वैशाखनंदन समुदाय ने किसी व्यक्ति को ही जुमला बना डाला है?
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं.)