केंद्र सरकार ने 21 अक्टूबर को छत्तीसगढ़ के परसा कोयला ब्लॉक में खनन के लिए दूसरे चरण की मंज़ूरी दी. सरकार ने कहा कि यह मंज़ूरी राज्य सरकार की सिफ़ारिशों पर आधारित थी. खनन के ख़िलाफ़ अभियान चला रहे संगठन छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन ने कहा है कि यह स्पष्ट है कि सरकार की प्राथमिकता लोग नहीं, बल्कि कॉरपोरेट मुनाफ़ा है. यह क़दम आदिवासी अधिकारों और पर्यावरण पर हमला है.
रायपुरः छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य के जंगलों में कोयला खनन के विरोध में 300 किलोमीटर पदयात्रा के एक हफ्ते बाद यहां के आदिवासी हैरान और निराश हैं.
केंद्र सरकार ने 21 अक्टूबर को छत्तीसगढ़ के परसा कोयला ब्लॉक में खनन के लिए दूसरे चरण की मंजूरी दी.
परसा आदिवासियों के आंदोलन के बावजूद क्षेत्र में आवंटित छह कोयला ब्लॉकों में से एक है.
परसा पूर्व और कांटा बेसन 15 मिलियन टन प्रति वर्ष निकाल सकने वाला कोयला खदान है, जो अडानी समूह द्वारा संचालित है और राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम (आरआरवीयूएनएल) के स्वामित्व में है. यह वह ब्लॉक भी है, जिसे सबसे अधिक प्रतिरोध का सामना करना पड़ा है.
छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन की ओर से कहा गया है कि केंद्र और राज्य सरकारें अडानी समूह की मदद करने की कोशिश कर रही हैं, जो परसा ब्लॉक के लिए माइन डेवलेपर और ऑपरेटर हैं.आदिवासियों द्वारा उठाए गए मुद्दों को अभी तक स्वीकार नहीं किया गया है. हमारी मांग है कि परसा ब्लॉक में खनन मंजूरी को रद्द किया जाए.
परसा ब्लॉक में खनन मंजूरी को लेकर पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने बीते 21 अक्टूबर को एक पत्र जारी कर कहा कि यह मंजूरी राज्य सरकार की सिफारिशों पर आधारित थी.
मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने आदिवासियों की पदयात्रा के आखिरी दिन आदिवासियों से मुलाकात की थी और उन्हें आश्वासन दिया था कि फैसला उनके पक्ष में होगा.
हालांकि मंत्रालय के पत्र में कहा गया, ‘राज्य सरकार ने जैव विविधता मूल्यांकन रिपोर्ट को आगे बढ़ाया, जिसे मंत्रालय ने अंतिम रिपोर्ट माना.’
छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के आलोक शुक्ला ने द वायर को बताया, ‘यह घटनाक्रम आदिवासियों के दशक भर लंबे आंदोलन और 300 किलोमीटर लंबी यात्रा के मद्देनजर आया है. यह कहने के लिए निराशाजनक है. केंद्र और राज्य सरकारों ने हमें निराश किया है.’
उन्होंने कहा, ‘यह स्पष्ट है कि सरकार की प्राथमिकता लोग नहीं बल्कि कॉरपोरेट मुनाफा है. यह कदम आदिवासी अधिकारों और पर्यावरण पर हमला है. केंद्र और राज्य सरकारें क्षेत्र को नष्ट करने की कोशिश कर रही है.’
हसदेव अरण्य एक घना जंगल है, जो 1,500 किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है. यह क्षेत्र छत्तीसगढ़ के आदिवासी समुदायों का निवास स्थान है. इस घने जंगल के नीचे अनुमानित रूप से पांच अरब टन कोयला दबा है. इलाके में खनन बहुत बड़ा व्यवसाय बन गया है, जिसका स्थानीय लोग विरोध कर रहे हैं.
हसदेव अरण्य जंगल को 2010 में कोयला मंत्रालय एवं पर्यावरण एवं जल मंत्रालय के संयुक्त शोध के आधार पर 2010 में पूरी तरह से ‘नो गो एरिया’ घोषित किया था. ‘’
हालांकि, इस फैसले को कुछ महीनों में ही रद्द कर दिया गया था और खनन के पहले चरण को मंजूरी दे दी गई थी, जिसमें बाद 2013 में खनन शुरू हो गया था.
भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद (आईसीएफआरई) का कहना है कि क्षेत्र के प्रस्तावित 23 कोयला ब्लॉकों में से 14 को मंजूरी नहीं दी जानी चाहिए.
अध्ययन में कहा गया है कि अन्य कोयला ब्लॉक केंटे, परसा पूर्व, कांटा बेसन और तारा ब्लॉक में खनन पर्यावरणीय सुरक्षा और संरक्षण तरीकों के साथ हो सकता है.
भूपेश बघेल सरकार ने इस मामले को लेकर क्षेत्र की सुरक्षा का वादा किया था लेकिन अब सरकार ने केंद्र सरकार की ओर से जारी पत्र पर चुप्पी साध ली है.
भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद (आईसीएफआरई) का कहना है कि क्षेत्र के प्रस्तावित 23 कोयला ब्लॉकों में से 14 को मंजूरी नहीं दी जानी चाहिए.
अध्ययन में कहा गया है कि अन्य कोयला ब्लॉक केंटे, परसा पूर्व, कांटा बेसन और तारा ब्लॉक में खनन पर्यावरणीय सुरक्षा और संरक्षण तरीकों के साथ हो सकता है.
भूपेश बघेल सरकार ने इस मामले को लेकर क्षेत्र की सुरक्षा का वादा किया था, लेकिन अब सरकार ने केंद्र सरकार की ओर से जारी पत्र पर चुप्पी साध ली है.
पहचान उजागर नहीं करने की शर्त पर राज्य के एक कांग्रेस नेता ने द वायर को बताया, ‘अगर क्षेत्र में खनन होता है तो हमने मामले पर संज्ञान लिया है. हमने हाथियों के रिजर्व को आरक्षित भी किया है. केंद्र सरकार अपने दबाव में ही ऑपरेट कर रही है. इस क्षेत्र में कोयला ब्लॉक प्रस्तावित है. अभी तक कोई फैसला नहीं लिया गया है, जब तक फैसला नहीं लिया जाता तब तक कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराना उचित नहीं है.’
क्षेत्र के आदिवासियों के साथ छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन का कहना है कि इन विरोधाभासों और राज्य सरकार की चुप्पी ने संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन किया है.
छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के बयान के मुताबिक, वन अधिकार अधिनियम 2006 के मुताबिक किसी भी परियोजना के लिए मंजूरी से पहले वन अधिकार दावों की प्रक्रिया को पूरा करना और ग्राम सभाओं की लिखित सहमति अनिवार्य है. हालांकि, परसा कोयला ब्लॉक से संबंधित ग्रामीणों के वन अधिकार दावे अभी भी लंबित हैं और हरिहरपुर के लिए 24 जनवरी 2018, सल्ही गांव के लिए 27 जनवरी 2018 और फतेहपुर गांव के लिए 26 अगस्त 2017 की ग्रामसभा की सहमति फर्जी थी.
(इस रिपोर्ट को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)