दिल्ली हाईकोर्ट में विशेष, हिंदू और विदेशी विवाह क़ानूनों के तहत समलैंगिक विवाहों को मान्यता देने के अनुरोध वाली कई याचिकाएं लंबित हैं, जिन पर 30 नवंबर को अंतिम सुनवाई होगी. इस साल फरवरी में केंद्र ने इन याचिकाओं को ख़ारिज करने की मांग करते हुए अदालत में तर्क दिया था कि भारत में विवाह ‘पुराने रीति-रिवाजों, प्रथाओं, सांस्कृतिक लोकाचार और सामाजिक मूल्यों’ पर निर्भर करता है.
नई दिल्ली: केंद्र सरकार ने बीते सोमवार को दिल्ली हाईकोर्ट के समक्ष तर्क दिया कि इस मामले में कानून स्पष्ट है कि विवाह एक जैविक (बायोलॉजिकल) पुरुष और एक जैविक महिला से जुड़ा शब्द है.
इसके बाद हाईकोर्ट ने समलैंगिक जोड़ों की उन दो याचिकाओं सहित अलग-अलग याचिकाओं को अंतिम सुनवाई के लिए 30 नवंबर को सूचीबद्ध कर दिया, जिनमें विशेष, हिंदू और विदेशी विवाह कानूनों के तहत समलैंगिक विवाहों को मान्यता देने का अनुरोध किया गया है.
मुख्य न्यायाधीश डीएन पटेल और जस्टिस ज्योति सिंह की पीठ ने मामले में पक्षकारों को जवाब और प्रत्युत्तर दाखिल करने के लिए समय दिया और इसे 30 नवंबर को अंतिम सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया.
इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा, ‘सब कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि क्या आप (जज) विवाह और विवाह के पंजीकरण के प्रश्न पर इन दलीलों के आधार पर विचार करेंगे कि यह एक जैविक पुरुष और जैविक महिला के बीच होना चाहिए या नहीं. पूरा मामला इसी पर निर्भर करेगा.’
उन्होंने आगे कहा, ‘इस मामले में कानून स्पष्ट है कि विवाह जैविक पुरुष और महिला के बीच माना जाएगा.’
इसी साल फरवरी महीने में केंद्र ने याचिकाओं को खारिज करने की मांग करते हुए अदालत के समक्ष तर्क दिया था कि भारत में एक विवाह ‘पुराने रीति-रिवाजों, प्रथाओं, सांस्कृतिक लोकाचार और सामाजिक मूल्यों’ पर निर्भर करता है.
सरकार ने कहा था कि समान-लिंग वाले व्यक्तियों द्वारा यौन संबंध बनाना और पार्टनर के रूप में रहने की तुलना पति-पत्नी और बच्चों वाली ‘भारतीय परिवार की इकाई’ से नहीं की जा सकती है. उन्होंने यह भी कहा था कि विवाह की मान्यता को केवल विपरीत लिंग के व्यक्तियों तक सीमित रखना ‘राज्य के हित’ में भी है.
केंद्र ने कहा था कि आईपीसी की धारा 377 को अपराध से मुक्त करने के बावजूद याचिकाकर्ता देश के कानूनों के तहत समलैंगिक विवाह के मौलिक अधिकार का दावा नहीं कर सकते हैं.
उन्होंने कहा कि साल 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले के लिए ‘एक विशेष मानव व्यवहार’ को अपराध की श्रेणी से बाहर किया था, जो आईपीसी की धारा 377 के तहत एक दंडनीय अपराध था.
मालूम हो कि इस मामले में दायर पहली याचिका में अभिजीत अय्यर मित्रा और तीन अन्य ने तर्क दिया है कि उच्चतम न्यायालय के दो वयस्कों के बीच सहमति से संबंध को अपराध की श्रेणी से बाहर किए जाने के बावजूद समलैंगिक विवाह संभव नहीं है.
याचिका में हिंदू विवाह अधिनियम (एचएमए) और विशेष विवाह अधिनियम (एसएमए) के तहत उन्हें मान्यता देने की घोषणा करने का अनुरोध किया गया है.
दो अन्य याचिकाओं में से एक विशेष विवाह कानून के तहत शादी करने के अनुरोध को लेकर दो महिलाओं ने दाखिल की है, जबकि दूसरी याचिका दो पुरुषों की है, जिन्होंने अमेरिका में शादी की लेकिन विदेशी विवाह अधिनियम (एफएमए) के तहत उनकी शादी के पंजीकरण से इनकार कर दिया गया.
एक अन्य याचिका में भारत के प्रवासी नागरिक (ओसीआई) कार्डधारक के विदेशी मूल के पति या पत्नी को लिंग या यौन झुकाव (Sexual Orientation) की परवाह किए बिना ओसीआई पंजीकरण के लिए आवेदन करने की अनुमति देने अनुरोध किया गया है.
याचिकाकर्ता एक विवाहित समलैंगिक जोड़ा हैं- जॉयदीप सेनगुप्ता, एक ओसीआई और रसेल ब्लेन स्टीफंस, एक अमेरिकी नागरिक और मारियो डेपेन्हा, एक भारतीय नागरिक और एक क्वीर राइट्स अकादमिक और कार्यकर्ता है जो रटगर्स विश्वविद्यालय, अमेरिका में पीएचडी कर रहे हैं.
सुनवाई के दौरान, दंपति की ओर से पेश अधिवक्ता करुणा नंदी ने कहा कि उन्होंने न्यूयॉर्क में शादी की और उनके मामले में नागरिकता अधिनियम, विदेशी विवाह कानून और हिंदू विवाह कानून कानून लागू हैं.
केंद्र का प्रतिनिधित्व करने वाले सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने तर्क दिया कि एक ‘जीवनसाथी’ का अर्थ पति या पत्नी है और ‘विवाह’ विषमलैंगिक (हेट्रोसेक्सुअल) जोड़ों से जुड़ा एक शब्द है और नागरिकता अधिनियम के संबंध में एक विशिष्ट उत्तर दाखिल करने की कोई आवश्यकता नहीं है.
समान अधिकार कार्यकर्ता मित्रा, गोपी शंकर एम., गीता थडानी और जी. ऊरवासी की याचिका में कहा गया है कि शीर्ष अदालत ने समलैंगिक यौन संबंधों को अपराध के दायरे से मुक्त कर दिया है लेकिन हिंदू विवाह कानून के प्रावधानों के तहत समलैंगिक विवाह को अभी भी अनुमति नहीं दी जा रही है.
मालूम हो कि सुप्रीम कोर्ट ने छह सितंबर, 2018 को अहम फैसला सुनाते हुए समलैंगिकता को अवैध बताने वाली भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 377 को रद्द कर दिया था.
अदालत ने कहा था कि अब से सहमति से दो वयस्कों के बीच बने समलैंगिक यौन संबंध अपराध के दायरे से बाहर होंगे. हालांकि, उस फैसले में समलैंगिकों की शादी का जिक्र नहीं था.
(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)