बीते शनिवार को अयोध्या में डॉ. राममनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय में केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर की मौजूदगी वाले कार्यक्रम को लेकर संघ के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के नेतृत्व में छात्रों ने रोष जताते हुए ऑडिटोरियम के सामने प्रदर्शन किया. छात्रों का कहना था कि राजनीतिक कार्यक्रमों के लिए उनकी पढ़ाई नहीं रोकी जानी चाहिए.
अयोध्या स्थित डॉ. राममनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय के स्वामी विवेकानंद प्रेक्षागृह में गत शनिवार को केंद्र व प्रदेश सरकारों के खेल एवं युवा मामलों के मंत्रियों अनुराग ठाकुर व उपेंद्र तिवारी की उपस्थिति में आजादी के अमृत महोत्सव से जोड़कर आयोजित स्वच्छ भारत अभियान संगोष्ठी के विरुद्ध छात्रों का असंतोष जैसे रूप में सामने आया, उससे भारतीय जनता पार्टी व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूसरे आनुषंगिक संगठनों द्वारा विश्वविद्यालयों व दूसरे शैक्षिक परिसरों पर हमलों के लिए दिए जाते रहे ‘तर्क’ औंधे मुंह उन पर ही गिरते दिखाई देने लगे हैं.
जानकारों का कहना है कि अयोध्या को अपने अभेद्य दुर्ग में तब्दील करने की नई तरह की कवायदों में मगन संघ परिवार की जमातों ने इससे सबक नहीं लिया तो अपनी सत्ता की उम्र लंबी करने के लिए उनके द्वारा की जा रही तदवीरें उनकी विपरीत दिशा में जा सकती हैं.
कारण यह कि केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार आने के बाद शैक्षिक परिसरों पर लगातार हमलों से छात्रों में जन्मी खीझ से अब, और तो और, संघ परिवारी छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद भी नहीं बच सका है.
शनिवार को डॉ. राममनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय की उक्त संगोष्ठी में छात्रों को सत्ता की सीढ़ी के तौर पर इस्तेमाल करने के खिलाफ सबसे मुखर होकर इस परिषद ने ही आवाज बुलंद की.
हां, पुलिस व प्रशासन ने उसे यूं आवाज बुलंद करने की सहूलियत प्रदान की तो कह सकते हैं कि संघ परिवार से उसका रिश्ता इसमें उसके काम आया. वरना तो आजकल परंपरा-सी बन गई है कि जब भी मुख्यमंत्री या किसी मंत्री का अयोध्या ‘आगमन’ होता है, जिन राजनीतिक या गैर राजनीतिक खेमों से जरा-से भी असंतोष या विरोध प्रदर्शन का अंदेशा होता है, पुलिस उनके नेताओं को नजरबंद करने पहुंच जाती है.
यहां तक कि उन्हें मुख्यमंत्री या मंत्रियों को ज्ञापन वगैरह देने की इजाजत भी नहीं दी जाती.
अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का यह असंतोष प्रदर्शन इस नियम का अपवाद बन सका तो इसके दो ही कारण हो सकते हैं. पहला यह कि प्रशासन निश्चिंत रहा हो कि परिषद अपने परिवार के लाभ के लिए हो रही संगोष्ठी के खिलाफ आवाज क्यों उठाएगी और उसने उठा दी हो, तो अचानक कुछ करते न बना हो.
दूसरा, यह कि परिषद को ‘अपना’ मानकर उसकी आवाज दबाने की जरूरत न समझी गई हो और तय किया गया हो कि वह इस तरह अपना थोड़ा गुस्सा निकाल भी ले तो कोई हर्ज नहीं. क्योंकि कोई ‘गैर’ या विरोधी छात्र संगठन यह गुस्सा निकालेगा तो उसका क्रेडिट विरोधियों को जाएगा. कौन नहीं जानता कि राजनीति में सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों की भूमिकाएं हथिया ली जाएं तो लाभ ही होता है, नुकसान नहीं.
लेकिन दूसरे पहलू से देखें, तो यह असंतोष प्रदर्शन जताता है कि छात्रों के असंतोष को दबाने के लिए ‘विरोधी’ छात्र संगठनों पर शिकंजा कसने का संघ या सत्ता पक्ष को अब कोई फायदा नहीं मिल पा रहा क्योंकि उमड़ते-घुमड़ते छात्र असंतोष ने अब उनके ही मुंह से मुखर होना आरंभ कर दिया है. सो भी, उनके ही हथियार से.
याद कीजिए, 2014 में मोदी सरकार के सत्ता में आने और भाजपा के लगातार ज्यादा ताकतवर होती जाने के साथ ही जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय जैसे शैक्षिक परिसरों पर प्रायोजित हमलों के पीछे सबसे बड़ा ‘तर्क’ क्या था? यही न कि उनमें शिक्षा-दीक्षा होनी चाहिए, न कि राजनीति.
हमलावरों का वह तर्क तब भी कुतर्क था और अब भी कुतर्क ही है, क्योंकि किसी भी देश में छात्र ही परिवर्तन के वाहक होते हैं और उन्हीं को राजनीति से वंचित कर दिया जाए तो परिवर्तन की राह अवरुद्ध होकर रह जाती है. लेकिन यहां मजे की बात यह है कि अब डॉ. राममनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय के संदर्भ में वही ‘तर्क’ उसका ‘अपना’ छात्र संगठन दे रहा है तो उसे कोई जवाब नहीं सूझ रहा.
यूं, इस सवाल का जवाब भला हो भी क्या सकता है कि मंत्रियों की संगोष्ठी में युवाओं की भीड़ दिखाने के लिए विश्वविद्यालय में पढ़ाई क्यों रोक दी गई और क्यों उसके एक संकाय के निदेशक ने छात्रों को उक्त संगोष्ठी में जाने पर मजबूर किया? क्या खेल एवं युवा मामलों के मंत्रियों को मालूम नहीं है कि विश्वविद्यालय में छात्रों की पहली प्राथमिकता पढ़ाई होती है, किसी मंत्री-संतरी के कार्यक्रम में जाना नहीं? खासकर जब कोरोना के कारण पढ़ाई पहले से ही पिछड़ी हुई हो.
असंतोष जता रहे छात्रों की मानें, तो विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा प्रायः कार्यदिवसों में विवेकानंद प्रेक्षागृह किराये पर देकर उसमें ऐसे कार्यक्रम आयोजित किए जाते रहे हैं, जिनका उसकी शैक्षिक गतिविधियों से कोई लेना-देना नहीं होता. फिर शिक्षकों की ओर से दबाव बनाकर छात्रों को उन्हें ‘सफल’ बनाने के लिए उनमें भेजा जाता है. इसके लिए यह तक कह दिया जाता है कि उस दिन उनकी हाजिरी प्रेक्षागृह में ही ली जाएगी.
वे बताते हैं कि बीते शनिवार की संगोष्ठी में तो हद ही कर दी गई. छात्र प्रेक्षागृह में पहुंचे तो उन्हें स्वच्छता अभियान की टी-शर्ट पहनाई गई और पूरी तरह कार्यक्रम की भीड़ का हिस्सा बना दिया गया. लेकिन बाद में भाजपा के कार्यकर्ता आ गए तो उन्हें सीटें छोड़कर खड़ा करा दिया गया.
जानकारों की मानें, तो इस विश्वविद्यालय में यह स्थिति कोई एक दिन में नहीं पैदा हुई है. इसकी शुरुआत दरअसल, 2017 में ही हो गई थी, जब लखनऊ विश्वविद्यालय के प्रोफेसर मनोज दीक्षित कुलपति बनकर आए और उन्होंने विश्वविद्यालय को संघ परिवार की कवायदों के प्रति इस तरह समर्पित कर दिया कि कई लोग कहने लगे कि अब उसके नाम में भले ही समाजवादी विचारक डॉ. राममनोहर लोहिया का नाम बचा रह गया है, उसके परिसर में समाजवादी विचारों के लिए कोई जगह नहीं रह गई है.
प्रो मनोज दीक्षित यूं भी अपनी वैचारिक पक्षधरता छिपाते नहीं थे और 2018 में उन्होंने विश्वविद्यालय को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ‘एक राष्ट्र, एक संस्कृति, एक समाज और एक रक्त’ जैसे उद्देश्यों को समर्पित समरसता कुंभ का आयोजक बनाकर उसकी बाबत रही-सही अस्पष्टता भी खत्म कर दी थी. फिर उन्होंने उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार द्वारा दीपावली पर आयोजित दीपोत्सव में दीप जलवाने का जिम्मा भी संभाला, जिसमें विश्वविद्यालय और उससे संबद्ध महाविद्यालयों के छात्र-छात्राओं की भरपूर सेवाएं लीं.
उसके बाद उन्होंने विश्वविद्यालय में शिक्षणेतर कवायदों की ऐसी झड़ी लगवाई कि लोग कहने लगे कि इस विश्वविद्यालय में सब कुछ होता है, महज पठन-पाठन को छोड़कर, जिसके लिए उसकी स्थापना हुई है. आचार्य रविशंकर सिंह ने उनकी जगह ली, तो उन्होंने भी उनकी परंपरा को तोड़ने का उत्साह नहीं ही दिखाया. गत अगस्त में वे दिल्ली जाकर राष्ट्रपति को राम मंदिर का मॉडल भेंटकर चर्चा में रहे और अब भव्य दीपोत्सव की तैयारियों में सक्रिय हैं.
विश्वविद्यालय की शनिवार की छात्र असंतोष के प्रदर्शन व हंगामे की घटनाएं दरअसल इसी सब की परिणति हैं. इसलिए बेहतर होगा कि उनके शमन के लिए उनके कारणों को दूर किया जाए और विश्वविद्यालय के माहौल को लोकतांत्रिक बनाकर छात्रों के हितों को तरजीह दी जाए.
कोई नहीं कहता कि वहां राजनीति न हो. लोकतंत्र में राजनीति को तब तक घृणास्पद मानकर नहीं चला जा सकता, जब तक कि वह खुद को एकदम से जनविरोध में न खड़ी कर ले, लेकिन किसी विश्वविद्यालय की राजनीति से इतनी अपेक्षा तो की ही जाती है कि वह सत्तापक्ष के बजाय उसके छात्रों के हितों को समर्पित रहे.
किसी विश्वविद्यालय परिसर को सत्ता दल के अखाड़े में बदल दिया जाएगा और उसके कर्ताधर्ता उस दल के कार्यकर्ताओं का रूप धर लेंगे तो असंतोष के स्वर तो फूटेंगे ही फूटेंगे, अंदर से भी और बाहर से भी. उन्हें खत्म करने का एक ही तरीका है कि उन्हें दबाने के लिए सत्ता की शक्ति का इस्तेमाल करने के बजाय उनके कारणों को खत्म किया जाए.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)