खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत पहचान के लिए आधार कार्ड एकमात्र आधार नहींः बॉम्बे हाईकोर्ट

ठाणे के आदिवासी इलाकों के लोगों ने अदालत के समक्ष शिकायत की थी कि प्रशासन ने उन्हें खाद्यान्न देने से इनकार कर दिया है क्योंकि उनके आधार कार्ड आरसीएमएस पोर्टल से जुड़े हुए नहीं हैं. कोर्ट ने एनएफएसए के तहत राशन कार्ड की वैधता बताते हुए कहा कि आधार को अनिवार्य रूप से लागू करना आठ फरवरी 2017 को जारी केंद्र की अधिसूचना का स्पष्ट उल्लंघन है.

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बॉम्बे हाईकोर्ट (फोटो: पीटीआई)

ठाणे के आदिवासी इलाकों के लोगों ने अदालत के समक्ष शिकायत की थी कि प्रशासन ने उन्हें खाद्यान्न देने से इनकार कर दिया है क्योंकि उनके आधार कार्ड आरसीएमएस पोर्टल से जुड़े हुए नहीं हैं. कोर्ट ने एनएफएसए के तहत राशन कार्ड की वैधता बताते हुए कहा कि आधार को अनिवार्य रूप से लागू करना आठ फरवरी 2017 को जारी केंद्र की अधिसूचना का स्पष्ट उल्लंघन है.

बॉम्बे हाईकोर्ट (फोटो: पीटीआई)

नई दिल्लीः बॉम्बे हाईकोर्ट ने 29 अक्टूबर को एक आदेश जारी किया जिसमें कहा गया कि आधार राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (एनएफएसए) के तहत लाभार्थियों की पहचान के लिए आधार कार्ड अनिवार्य नहीं है लेकिन कानून के तहत यह मानदंडों में से एक है.

बार एंड बेंच की रिपोर्ट के मुताबिक, ठाणे के आदिवासी इलाकों के लोगों के अदालत का रुख करने के बाद यह फैसला आया है. दरअसल यहां के स्थानीय लोगों ने अदालत के समक्ष शिकायत में कहा था कि प्रशासन ने उन्हें खाद्यान्न देने से इसलिए इनकार कर दिया है क्योंकि उनके आधार कार्ड आरसीएमएस पोर्टल से जुड़े हुए नहीं हैं.

रिपोर्ट के मुताबिक, जस्टिस पीबी वरले और जस्टिस माधव जामदार की पीठ ने एनएफएसए के तहत राशन कार्ड की वैधता बताते हुए कहा कि आधार को अनिवार्य रूप से लागू करना आठ फरवरी 2017 को जारी केंद्र सरकार की अधिसूचना का स्पष्ट उल्लंघन है.

अदालत ने कहा, अधिसूचना में स्पष्ट कहा गया है कि लाभार्थी की पहचान के लिए आधार कार्ड मानदंडों में से एक है और इस अधिसूचना से पता चलता है कि लाभार्थी की पहचान के लिए आधार कार्ड एकमात्र मानदंड नहीं है. एक अन्य दस्तावेज भी है, जिसके जरिये लाभार्थी योजना का लाभ उठा सकता है और वह राशन कार्ड है.

अदालत ने महाराष्ट्र सरकार और नागरिक अधिकारियों को एनएफएसए और प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के अनुरूप मुर्दबाद के आदिवासी इलाकों के स्थानीय लोगों को खाद्यान्नों का वितरण करने का निर्देश दिया है.

पीठ ने कहा, ‘हम याचिकाकर्ताओं को खाद्यान्नों के वितरण का लाभ देने से इनकार करने का कोई तर्क या कारण ढूंढने में असमर्थ हैं.’

रिपोर्ट के मुताबिक, अदालत ने उस स्थिति को लेकर निराशा जताई, जहां समाज के हाशिये पर मौजूद लोगों को भोजन जैसे अपने बुनियादी अधिकार तक पहुंच हासिल करने के लिए त्योहारी सीजन के दौरान अदालत का रुख करने पर मजबूर होना पड़ा है क्योंकि इस बुनियादी अधिकार को प्रशासन ने तकनीकी आधार पर नकार दिया है.

अदालत ने आदेश में कहा, ‘यह हमारे लिए निराशाजनक स्थिति है, वह भी ऐसी स्थिति में जब हम बेचैनी से त्योहारी सीजन का इंतजार कर रहे हैं. यहां हाशिये पर मौजूद वर्ग से कुछ याचिकाकर्ता हैं, जिनमें विशेष रूप से आदिवासी हैं जिन्होंने अदालत का रुख किया है क्योंकि मानव जीवन के बुनियादी जरूरतों में से एक भोजन से उन्हें वंचित कर दिया गया है.’

अदालत ने केएस पुट्टुस्वामी के फैसले का उल्लेख किया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि सम्मानजनक जीवन जीना संवैधानिक अधिकार है.

रिपोर्ट के मुताबिक, कई विद्वानों ने भी आधार को अनिवार्य रूप से लागू करने के खिलाफ आवाज उठाते हुए कहा है कि यह हाशिये पर मौजूद लोगों के अधिकारों का उल्लंघन करता है.

अविनाश दास चौधरी ने लंबे समय से भूख से 2018 में दम तोड़ चुके झारखंड के एक आदिवासी का उल्लेख करते हुए द वायर  के लिए लिखते हुए कहा था, जीवन जीने का अधिकारी जो सम्मानजनक तरीक से जीने के अधिकार को सुनिश्चित करता है, दरअसल यह राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा 2013 की नींव है, जिसे कुचला जा रहा है.

(इस रिपोर्ट को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)