लिंग चयन निषेध अधिनियम के तहत दर्ज मामलों में दोषसिद्धि में देरी पर संसदीय समिति ने चिंता जताई

एक संसदीय समिति ने कहा है कि गर्भधारण पूर्व और प्रसव पूर्व निदान तकनीक लिंग चयन निषेध अधिनियम (पीसीएंडपीएनडीटी) के तहत पिछले 25 वर्षों से दर्ज 3,158 न्यायिक मामलों में से केवल 617 मामलों में दोषसिद्धि हुई. समिति ने सिफ़ारिश की कि मामलों की सुनवाई में तेज़ी लाई जाए और निर्णय लेने में छह महीने से अधिक समय नहीं लगना चाहिए.

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(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)

एक संसदीय समिति ने कहा है कि गर्भधारण पूर्व और प्रसव पूर्व निदान तकनीक लिंग चयन निषेध अधिनियम (पीसीएंडपीएनडीटी) के तहत पिछले 25 वर्षों से दर्ज 3,158 न्यायिक मामलों में से केवल 617 मामलों में दोषसिद्धि हुई. समिति ने सिफ़ारिश की कि मामलों की सुनवाई में तेज़ी लाई जाए और निर्णय लेने में छह महीने से अधिक समय नहीं लगना चाहिए.

(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)

नई दिल्ली: संसद की एक समिति ने गर्भधारण पूर्व और प्रसव पूर्व निदान तकनीक लिंग चयन निषेध अधिनियम (पीसीएंडपीएनडीटी) के तहत पिछले 25 वर्षों के दौरान दर्ज मामलों में दोषसिद्धि में देरी पर चिंता व्यक्त करते हुए सिफारिश की कि मामलों की सुनवाई में तेजी लाई जाए और निर्णय लेने में छह महीने से अधिक समय नहीं लगना चाहिए.

लोकसभा में बृहस्पतिवार को पेश ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ योजना के विशेष संदर्भ में शिक्षा के माध्यम से महिला सशक्तीकरण पर महिलाओं को शक्तियां प्रदान करने संबंधी समिति की रिपोर्ट में यह बात कही गई है.

रिपोर्ट के अनुसार, समिति पाती है कि पिछले 25 वर्षों से पीसीएंडपीएनडीटी अधिनियम के तहत दर्ज 3,158 न्यायिक मामलों में से केवल 617 मामलों में दोषसिद्धि हुई.

इसमें कहा गया है कि राजस्थान तथा महाराष्ट्र जहां 2016-18 में सबसे कम लिंगानुपात क्रमश: 871 और 880 दर्ज किए गए, वहां ऐसे सबसे अधिक संख्या में न्यायिक मामले/पुलिस केस लंबित हैं.

समिति पाती है कि 36 राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में से 18 राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में अब तक कोई मामला दर्ज नहीं हुआ है अथवा कोई दोषसिद्धि नहीं हुई है.

समिति का दृढ़ मत है कि ऐसे न्यायिक मामलों का निपटारा करने में देरी होने से पीसीएंडपीएनडीटी अधिनियम का उद्देश्य पूरा नहीं होगा.

रिपोर्ट के अनुसार, समिति ने कहा कि चूंकि न्यायपालिका की इस अधिनियम के उचित कार्यान्वयन में महती भूमिका होती है, इसलिए वह सिफारिश करती है कि मामलों की सुनवाई में तेजी लाई जाए और निर्णय लेने में छह महीने से अधिक समय नहीं लगना चाहिए.

रिपोर्ट के अनुसार, गर्भधारण पूर्व और प्रसव पूर्व निदान तकनीक लिंग चयन निषेध अधिनियम (पीसीएंडपीएनडीटी) को मादा भ्रूण हत्या रोकने के लिए 1994 में अधिनियमित किया गया था और इसे 1 जनवरी, 1996 से लागू किया गया था. इस अधिनियम को और कठोर एवं व्यापक बनाने क लिए इसे 2003 में और संशोधित किया गया था.

इसमें कहा गया है कि गिरते लिंगानुपात को रोकने के लिए सरकार ने इस अधिनियम के तहत नियमों में कई महत्वपूर्ण संशोधन अधिसूचित किए, जो अपंजीकृत मशीनों को जब्त करने के प्रावधान, पोर्टेबल अल्ट्रासाउंड मशीनों और मोबाइल जेनेटिक क्लिनिकों द्वारा दी जा रही सेवाओं के विनियमन आदि शामिल हैं.

समिति ने बाल लिंगानुपात में गिरावट पर भी चिंता व्यक्त की.