डॉ. कफ़ील ख़ान की किताब ‘द गोरखपुर हॉस्पिटल ट्रेजडी: अ डॉक्टर्स मेमॉयर ऑफ अ डेडली मेडिकल क्राइसिस’ अगस्त 2017 में गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज में ऑक्सीजन की कमी से हुई मौतों के सच को दफ़न करने की कोशिश को बेपर्दा करती है और व्यवस्था द्वारा उसकी नाकामी को छुपाने की साज़िश को सामने लाती है.
बीआरडी मेडिकल कॉलेज की ऑक्सीजन त्रासदी एक अस्पताल में अचानक हुआ हादसा नहीं बल्कि अपने देश में सरकारी अस्पतालों को लापरवाही और संवेदनहीनता के साथ संचालित करने की व्यवस्था की परिणति थी.
यह घटना हमें यह भी बताती है कि सरकार ऐसे भयानक हादसों से कोई सीख लेने के बजाय सच्चाई को दबाने, असली दोषियों को बचाने और सच्चाई को सामने लाने की कोशिश करने वालों को दंडित करने का काम करती है.
बीआरडी मेडिकल कॉलेज का ऑक्सीजन हादसा और वहां बाल रोग विभाग में बतौर असिस्टेंट प्रोफेसर कार्य कर रहे डॉ. कफील खान का नाम एक दूसरे से ऐसे जुड़ गया है जिसे अलग करना नामुमकिन है. डॉ. कफील खान के साथ क्या हुआ, आज सभी जानते हैं लेकिन यह कैसे और क्यों हुआ, ऑक्सीजन हादसे के पीछे असली चेहरे कौन थे और उन्हें बचाने के लिए क्या-क्या किए गए, यह आज भी बहुत कम लोगों को पता है.
जो सच जानते हैं उन्होंने अपने मुंह सिल लिए और जो बहुत कम जानते हैं, वे सरकार द्वारा बहुत करीने से सेट किए गए एक नैरेटिव पर ही आज तक अपनी बहस और चर्चा को केंद्रित किए हुए हैं.
यह नैरेटिव था कि ‘ऑक्सीजन संकट जरूर हुआ लेकिन इससे बच्चों की मौत नहीं हुई’, ‘बच्चों की मौत गंभीर रूप से बीमार होने के कारण हुई’, ‘इंसेफेलाइटिस के सीजन में जुलाई-अगस्त में बच्चों की मौत होती ही है’, ‘सरकार, मंत्री और बड़े अफसर इस हादसे के लिए कतई जिम्मेदार नहीं हैं’, ‘बीआरडी मेडिकल कॉलेज प्रशासन की ओर से जरूर लापरवाही हुई और इस हादसे के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार मेडिकल कॉलेज के बाल रोग विभाग में दो साल पहले नियुक्त हुए सबसे जूनियर असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. कफील खान हैं’, (मानो पूरा मेडिकल कॉलेज वही चलाते थे) ‘क्योंकि उन्होंने ऑक्सीजन संकट की जानकारी वरिष्ठों को नहीं दी, वे प्राइवेट प्रैक्टिस करते थे और उन्होंने चिकित्सकीय लापरवाही की.’
इस नैरेटिव को मुख्यधारा का मीडिया आज तक चलाता रहा है और उसने कभी सच्चाई जानने की कोशिश नहीं की. घटना के चार वर्ष बाद पिछले महीने डॉ. कफील खान को बर्खास्त कर दिया गया. बीआरडी मेडिकल कॉलेज के दो चिकित्सक और चार कर्मचारी जो इस घटना में अभियुक्त बनाए गए थे, वे बहाल हो गए हैं.
तत्कालीन प्रधानाचार्य आरके मिश्र और फार्मासिस्ट गजानंद जायसवाल बहाल होने के बाद रिटायर हो चुके हैं. पुष्पा सेल्स के डायरेक्टर मनीष भंडारी के बारे में किसी को ज्यादा कुछ नहीं पता कि जेल से रिहा होने के बाद वे कहां हैं, और क्या कर रहे हैं.
ऑक्सीजन हादसे में मरने वाले बच्चों के परिजनों को सरकार ने कोई सहायता नहीं दी क्योंकि सरकार का मानना था कि वे ऑक्सीजन की कमी से नहीं मरे. बच्चों के परिजनों का अब कोई हालचाल लेने नहीं जाता. इस भयायनक हादसे की अब कोई चर्चा नहीं करता. यह घटना तभी चर्चा में आती है जब डॉ. कफील खान से जुड़ा कोई समाचार सामने आता है.
अब यह हादसा एक बार फिर चर्चा में है क्योंकि डॉ. कफील खान की इस पर किताब ‘द गोरखपुर हॉस्पिटल ट्रेजडी: अ डॉक्टर्स मेमॉयर ऑफ अ डेडली मेडिकल क्राइसिस’ प्रकाशित हुई है.
पैन मैकमिलन इंडिया से प्रकाशित हुई 300 पन्नों की इस किताब में डॉ. कफील खान ने ऑक्सीजन खत्म हो जाने वाली भयानक रात से लेकर उनकी गिरफ़्तारी, जेल और फिर बर्खास्त किए जाने के चार वर्ष से अधिक के वाक़यात का सिलसिलेवार ब्योरा दिया है.
यह किताब दस अगस्त 2017 की बीआरडी मेडिकल कॉलेज की ऑक्सीजन त्रासदी के तमाम बिखरे सूत्रों को तो आपस में जोड़ती ही है, साथ ही कई ऐसे नए तथ्य सामने लेकर आती है जो अब तक लोगों को मालूम नहीं थे.
बीआरडी मेडिकल कॉलेज की ऑक्सीजन त्रासदी की मीडिया में सर्वाधिक रिपोर्टिंग हुई. इस घटना को अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने भी बहुत तवज्जो दी थी. घटना के बाद काफी समय तक इस बारे में रिपोर्ट आती रही हैं लेकिन इसके साथ यह भी सच है कि तमाम रिपोर्ट-खबरों ने घटना के बारे में धुंधलका और बढ़ाया ही और सच का अनुसंधान पूरी तरह नहीं हो पाया.
यह किताब ‘बहुत ही सुनियोजित ढंग’ से इस घटना के सच को दफन करने की कोशिश को बेपर्दा करती है और व्यवस्था द्वारा अपनी नाकामी को ढंकने-छुपाने के लिए एक डॉक्टर को बलि का बकरा बनाने की साजिश को सामने लाती है.
किताब डॉ. कफील खान की निजी जिंदगी के विभिन्न पहलुओं को भी सामने लाती है. डॉ. कफील खान के पिता सिंचाई विभाग में इंजीनियर थे. डॉ. कफील की परवरिश खुले माहौल में हुई। वे एक ऐसे मोहल्ले में रहे, जहां सभी धर्मों के लोग मिल-जुलकर रहते थे. साथ होली खेली जाती और ईंद मनाई जाती.
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किताब डॉ. कफील और उनके परिवार के बारे में बताती हुई सीधे 10 अगस्त 2017 की घटना पर आती है. उस रात डॉ. कफील को इंसेफेलाइटिस वॉर्ड में ऑक्सीजन खत्म होने का वॉट्सऐप मैसेज मिला. डॉ. कफील छुट्टी पर थे क्योंकि उनकी बहन ओमान से घर पर आई हुई थीं और वे उनके साथ कुछ समय बिताना चाहते थे.
मैसेज मिलने के बाद उन्होंने रात में अस्पताल जाने का निर्णय लिया. कार चलाते हुए वे पूरे रास्ते में मेडिकल कॉलेज के जिम्मेदार वरिष्ठों को फोन मिलाते रहे, पर अधिकतर के फोन नहीं उठे. जिनके उठे उन्होंने इस बेहद संवेदनशील सूचना को गंभीरता से नहीं लिया और एक दूसरे पर जिम्मेदारी टालते हुए डॉ. कफील को उनसे बात करने को कहते रहे.
डॉ. कफील ने वॉर्ड में पहुंचने पर कैसे स्थिति को संभाला उसका पूरी संवेदनशीलता से ब्यौरा दिया है. एक तरफ दम तोड़ रहे बच्चे और आर्तनाद करते उनके माता-पिता थे, तो दूसरी तरफ अपने को पूरी तरह असहाय पा रहे चिकित्सक, नर्स और वॉर्ड बॉय.
उस समय पीआईसीयू और एनआईसीयू में 313 बच्चे भर्ती थे. शाम 7.30 बजे ऑक्सीजन प्लांट से ऑक्सीजन खत्म हो चुकी थी और वेंटिलेटर से बीप-बीप की आवाजें आने लगीं. आकस्मिक इंतजाम के रूप में रिजर्व में रखे 52 जंबो सिलेंडर को लगाया गया लेकिन चार घंटे बाद वे भी खत्म हो गए और इंसेफेलाइटिस वॉर्ड सहित अन्य वॉर्डों में पूरी तरह ऑक्सीजन ठप हो गई थी.
डॉ. कफील के अस्पताल पहुंचने तक आठ बच्चों की मौत हो चुकी थी. डॉ. कफील और उनके सहयोगियों ने तत्काल वेंटिलेटर पर भर्ती बच्चों को अंबू बैग से ऑक्सीजन देना शुरू किया. इसके अलावा कुछ देर में सभी बच्चों की स्थिति देखी गई और जिसको ऑक्सीजन की जरूरत लगी अंबू बैग से ऑक्सीजन दिया जाने लगा. इस दौरान तीन वर्ष की एक बच्ची की तबियत बहुत बिगड़ गई और चिकित्सकों के तमाम कोशिश के बावजूद उसे बचाया नहीं जा सका.
एनआईसीयू के भी हालात इसी तरह के थे. मरीजों के परिजनों को ऑक्सीजन खत्म होने की जानकारी हो चुकी थी. उनमें से कई लोग गुस्से में चिल्ला रहे थे, तो कहीं माएं चिकित्सकों और चिकित्साकर्मियों के हाथ जोड़ते और पैर पकड़ अपने बच्चों की जीवन बचाने की गुहार लगा रही थीं.
ऑक्सीजन के अभाव में गंभीर होते बच्चों की बचाने और जंबो ऑक्सीजन सिलेंडर का इंतजाम करने की दोहरी चुनौती डॉ. कफील के सामने थे. इंपीरियल गैस लिमिटेड फैजाबाद से जंबो सिलेंडर लेकर एक ट्रक चला था लेकिन वह रात एक बजे तक पहुंचा नहीं था. अभी तक बीआरडी मेडिकल कॉलेज का कोई भी जिम्मेदार अधिकारी अस्पताल नहीं पहुंचा.
डॉ. कफील ने खुद जंबो सिलेंडर का इंतजाम करने की ठानी और मेडिकल कॉलेज के पास स्थित एक अस्पताल से निवेदन कर तीन जंबो सिलेंडर अपनी गाड़ी में लेकर आए. इसके बाद वे आठ और अस्पतालों में गए और जहां से जो सिलेंडर मिला ले आए और उसके जरिये ऑक्सीजन सप्लाई शुरू करवाई लेकिन यह पर्याप्त नहीं था.
इंसेफेलाटिस वॉर्ड पौन घंटे में ही 16 जंबो सिलेंडर की खपत कर रहा था. रात दो बजे आईजीएल फैजाबाद से जंबो सिलेंडर आया लेकिन वह सिर्फ 50 जंबो सिलेंडर ही लेकर आया. डॉ. कफील ने सेंट्रल ऑक्सीजन ऑपरेटर बलवंत की मदद से एक ट्रक का इंतजाम किया और अपने एटीएम कार्ड से 20 हजार रुपये देकर एक आउटसोर्स कर्मचारी को खलीलाबाद प्लांट भेजा.
यह ऑक्सीजन प्लांट इस शर्त पर जंबो सिलेंडर देने को तैयार हुआ था कि वह 350 रुपये एक जंबो सिलेंडर का लेगा. गीडा स्थित एक ऑक्सीजन प्लांट ने सारी स्थिति जानने के बावजूद यह कहकर ऑक्सीजन देने से इनकार कर दिया कि वह पहले जंबो सिलेंडर की सप्लाई करता था लेकिन 2017 में उनका कॉन्ट्रैक्ट खत्म कर आईजीएल फैजाबाद को दे दिया गया. अब वह तभी जंबो सिलेंडर देगा जब उसका मेडिकल कॉलेज से कॉन्ट्रैक्ट होगा.
एक-एक सिलेंडर का इंतजाम करते हुए बच्चों की सांस को रुकने से बचाने का संघर्ष डॉ. कफील और उनकी टीम पूरी रात करती रही. इसके बावजूद सुबह दस बजे तक पीआईसीयू और एनआईसीयू में 23 बच्चों और मेडिसिन वॉर्ड में 18 वयस्क मरीजों की मौत हो चुकी थी.
जंबो सिलेंडरों को ढोने के लिए जब वाहन की कमी हुई तो डॉ. कफील 11 अगस्त की सुबह फर्टिलाइजर कैंपस स्थित सशस्त्र सीमा बल (एसएसबी) के पास पहुंचे और डीआईजी से संपर्क कर ट्रक और सिलेंडर की मांग की. एसएसबी के पास जंबो सिलेंडर नहीं थे लेकिन उन्होंने एक ट्रक और 12 जवान भी दिए ताकि सिलेंडरों की प्लांट से मेडिकल कॉलेज तक ढुलाई जल्दी और आसानी से हो सके.
पुस्तक में दिए गए ब्योरे के अनुसार, 11 अगस्त की दोपहर में तत्कालीन डीएम राजीव रौतेला ने डॉ. कफील से संपर्क किया और हालात जानने के बाद ऑक्सीजन उपलब्ध कराने का आश्वासन दिया. उन्होंने गीडा स्थित उस ऑक्सीजन प्लांट को ऑक्सीजन उपलब्ध कराने को कहा जिसने पहले इनकार कर दिया था.
आईजीएल फैजाबाद से बाद में दो ट्रिप में 50-50 जंबो सिलेंडर आए. डॉ. कफील ने सीएमओ, एडी (हेल्थ) से भी संपर्क कर ऑक्सीजन संकट का जिक्र करते हुए मदद करने का अनुरोध किया लेकिन एक अधिकारी ने मीटिंग में होने की बात कही, तो दूसरे ने कहा कि मुख्य चिकित्सा अधीक्षक से संपर्क कर सिलेंडर का इंतजाम कर लें. बाद में इनमें से एक अधिकारी ऑक्सीजन हादसे की जांच के लिए बनी समिति का हिस्सा थे.
दोपहर बाद बाल रोग विभाग की एक प्रोफेसर वॉर्ड में पहुंचीं और इसके बाद विभागाध्यक्ष भी आईं. इसके बाद नेहरू चिकित्सालय के मुख्य चिकित्सा अधीक्षक भी आए और उन लोगों ने एक पत्र बनाकर बीआरडी मेडिकल कॉलेज के प्रधानाचार्य को भेजा, जिसमें मेडिकल ऑक्सीजन उपलब्ध कराने की मांग की गई थी.
11 अगस्त की शाम होते-होते ऑक्सीजन संकट से बच्चों की मौत की खबर आम हो गई और बड़ी संख्या में मीडियाकर्मी बीआरडी मेडिकल कॉलेज पहुंच गए. इसके पूर्व भी कुछ स्थानीय पत्रकार व फोटोग्राफर बीआरडी मेडिकल कॉलेज पहुंचे थे और उन्होंने ऑक्सीजन संकट के बारे में जानने की कोशिश की थी.
डीएम ने शाम साढ़े सात बजे पत्रकार वार्ता में घटना के बारे में पहला आधिकारिक बयान दिया और जांच के लिए एक कमेटी बनाने की घोषणा की. इस कमेटी ने 24 घंटे में अपनी रिपोर्ट देने को कहा गया. इस समय तक सभी ने डॉ. कफील द्वारा ऑक्सीजन सिलिंडर उपलब्ध कराने और बच्चों की जान बचाने के प्रयास की सराहना की.
प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री सिद्धार्थ नाथ सिंह और चिकित्सा शिक्षा मंत्री आशुतोष टंडन 12 अगस्त को बीआरडी मेडिकल कॉलेज पहुंचे. स्वास्थ्य मंत्री सिद्धार्थ नाथ सिंह ने पत्रकार वार्ता में ऑक्सीजन की कमी से किसी भी बच्चे की मौत से इनकार करते हुए ‘अगस्त में हर साल बच्चे मरते हैं’ वाला बयान दे डाला. इसके बाद पहले से आक्रोशित लोगों का गुस्सा फूट पड़ा. चौतरफा कड़ी आलोचना होने लगी.
उधर 13 अगस्त की रात एक बजे लिक्विड ऑक्सीजन का टैंकर आया और आपूर्ति बहाल हो गई. दस अगस्त की रात मेडिकल कॉलेज पहुंचे डॉ. कफील करीब 48 घंटे की लगातार ड्यूटी कर लौटे लेकिन अगली सुबह ही एक दूसरी कहानी बुन दी गई.
इसी दिन केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्ढा और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ बीआरडी मेडिकल कॉलेज आए. डॉ. कफील खान को फिर बीआरडी मेडिकल कॉलेज बुलाया गया. उन्हें लगा कि उन्हें शाबाशी मिलेगी क्योंकि कई अखबारों के जरिये उनके द्वारा ऑक्सीजन सिलेंडर के लिए किए गए इंतेजाम और बच्चों की जान बचाने के लिए किए अथक प्रयास सार्वजनिक हो गए थे, लेकिन जब वह बीआरडी मेडिकल कॉलेज पहुंचे तो माहौल बदला हुआ था.
किताब बताती है कि मुख्यमंत्री और केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री के इंसेफेलाइटिस वॉर्ड पहुंचने के कुछ देर बाद ही डॉ. कफील खान तलब किए गए.
सीएम ने उनके अभिवादन की उपेक्षा करते हुए क्रोधित स्वर में कहा- ‘तो तू है डॉ. कफील.’ ‘हां सर !
‘तूने सिलेंडर का अरेजमेंट किया था?’ ‘हां सर!’
‘ये चार-पांच सिलेंडर के कितनी जिंदगी बचा ली? तू तो सोचता है कि सिलेंडर लाकर तू हीरो बन जाएगा? देखता हूं तूझे.’
डॉ. कफील खान पर आरोप लगाया गया कि उन्होंने ही मीडिया को ऑक्सीजन खत्म होने की जानकारी दी. डॉ. कफील सच बोलना चाहते थे लेकिन बड़े अफसरों ने बोलने से रोका.
मुख्यमंत्री ने पत्रकार वार्ता में ऑक्सीजन की कमी से मौत होने से इनकार किया और इस घटना की जांच के लिए मुख्य सचिव की अध्यक्षता में कमेटी घोषित किए जाने की घोषणा की और कहा कि एक सप्ताह में उनकी रिपोर्ट आ जाएगी.
इधर पत्रकार वार्ता हुई और उधर मीडिया का एक समूह डॉ. कफील खान की पत्नी के अस्पताल पहुंच गया. उसी वक्त वहां कुछ लोग भी पहुंचे जिन्होंने डॉ. कफील खान की पत्नी के अस्पताल और पास में स्थित उनके भाई अदील खान के इलेक्ट्रॉनिक शो रूम पर पथराव व तोड़फोड़ की.
सोशल मीडिया में डॉ. कफील को ‘ऑक्सीजन चोर’, ‘विपक्षी नेताओं से नजदीकी रखने वाला’ बताया जाने लगा. टीवी चैनलों में उन्हें कभी बाल रोग का विभागाध्यक्ष तो कभी उप प्रधानाचार्य, अस्पताल अधीक्षक बताते हुए इस हादसे के लिए जिम्मेदार बताते हुए खबर चलने लगी.
इसी दौरान डॉ. कफील को बवाल शांत होने तक छुट्टी लेने की सलाह दी जाती है. इस बीच 16 अगस्त को डीएम द्वारा गठित की गई कमेटी की रिपोर्ट आती है जिसमें डॉ. कफील को इस घटना के बारे में कोई जिम्मेदारी तय नहीं की जाती है लेकिन इस रिपोर्ट में यह भी जिक्र नहीं होता है कि उन्होंने संकट के समय ऑक्सीजन सिलेंडर का इंतजाम किया और बच्चों की जान बचाने का प्रयास किया.
बाद में 21 अगस्त को मुख्य सचिव की अध्यक्षता वाली कमेटी की रिपोर्ट आती है और फिर डॉ. कफील सहित नौ लोगों के खिलाफ मामला दर्ज किया जाता है और एक-एक कर सबकी गिरफ़्तारी होती है.
डॉ. कफील ने किताब में बताया है कि एफआईआर होने के बाद वह इलाहाबाद अंतरिम जमानत के लिए गए. इस बीच पुलिस उनके घर रोज छापे मारती, घर की तलाशी लेती और घर वालों को उत्पीड़ित करती. उनकी बहन के लखनऊ स्थित घर पर भी छापा मारा गया और भाई को हिरासत में लिया गया.
यह देख उन्होंने सरेंडर करने का फैसला लिया और लखनऊ के एसटीएफ ऑफिस में समर्पण कर दिया. एसटीएफ ने उन्होंने गोरखपुर लाकर गोरखपुर पुलिस को सौंप दिया जो उन्हें जेल लेकर गई.
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इसके आगे डॉ. कफील ने जेल में गुजारे करीब सात महीने की जिंदगी को दर्ज करते हैं. एक ऐसी जेल में जिसकी क्षमता 800 कैदियों की है लेकिन वहां 1,897 कैदी बंद हैं. जेल में उनकी मुलाकात तमाम कैदियों- काका, डी. राम, वी. सिंह, शैलेश, विश्वा से होती है. और ‘मंत्री जी’ से भी जो एक कवयित्री की हत्या में आजीवन कारावास की सजा काट रहे हैं.
उनमें से कई बंदी डॉ. कफील के साथ काफी भलमनसाहत के साथ पेश आते हैं. मीडिया के तमाम दुष्प्रचार के बावजूद अधिकतर कैदी उन्हें बच्चों की जान बचाने वाले एक भले इंसान व अच्छे डॉक्टर के बतौर उन्हें देखते हैं.
डॉ. कफील लिखते हैं कि जेल में बंद अधिकतर विचाराधीन कैदी यही आस लगाए रहते हैं कि उन्हें जल्द ही जमानत मिल जाएगी या वे यहां से आजाद हो जाएंगे लेकिन 99 फीसदी मामलों में वह समय कभी नहीं आता. अगली सुनवाई से अगली सुनवाई तक केस में बिना किसी प्रगति के महीने, साल गुजरते चले जाते हैं.
डॉ. कफील का जेल की अघोषित व्यवस्था से भी साबका पड़ता है. यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें जिसकी दस्तूरी देनी की क्षमता जितनी अधिक है, उसे हर सुविधा उपलब्ध है. ‘कच्ची बैठकी’ और ‘पक्की बैठकी’ (जेल में काम न करने) का रेट तय है तो निश्चित दस्तूरी पर सिगरेट-बीड़ी, सब्जी, अंडे, पानी की बोतल सब उपलब्ध है और सगे संबंधियों से भेंट भी.
यह सब पाने के लिए आपको बाकी नियमों के अलावा अपना दिमाग और मुंह बंद रखना पड़ेगा. जाति, धर्म के साथ-साथ सोर्स और क्राइम के प्रकार पर जेल के अंदर सिस्टम को संचालित करने के लिए कुछ कैदी व्यवस्था के अंग बन जाते हैं.
जेल में जमानत का इंतजार करते हुए डॉ. कफील ऑक्सीजन त्रासदी की कड़ियों को मिलाने की कोशिश करते हैं. वह जेल में बद पुष्पा सेल्स के निदेशक मनीष भंडारी, प्रधानाचार्य आरके मिश्रा, डा. सतीश सहित सभी से बात करते हैं और आखिरकार उनके सामने पूरी तस्वीर साफ होने लगती है.
वह तब समझ पाते हैं कि क्यों मोदी गैस ने ऑक्सीजन की कमी होने से बच्चों की मौत होने की जानकारी होने के बावजूद जंबो सिलेंडर देने से इनकार कर दिया था क्योंकि उसका अप्रैल 2017 में बीआरडी मेडिकल कॉलेज से हुआ कॉन्ट्रैक्ट खत्म कर आईजीएल फैजाबाद को दे दिया गया. उन्हें ये भी पता चलता है कि दोनों ऑक्सीजन प्लांट के सत्तारूढ़ पार्टी के बड़े नेताओं से नजदीकी रिश्ते हैं.
साथ ही यह भी कि पुष्पा सेल्स के बकाए का भुगतान न होने की स्वास्थ्य व प्रशासन के शीर्ष अफसरों तक ही नहीं मंत्रियों तक थी और कई आधिकारिक बैठकों में इसकी चर्चा हुई थी. इसके बावजूद समय रहते किसी ने कुछ नहीं किया और जब यह भयानक त्रासदी घटित हो गई तो इसकी जिम्मेदारी डालने के लिए ‘सही गले’ की तलाश शुरू हुई और यह तलाश उन पर खत्म हुई क्योंकि वे इस हादसे का सच जानते थे और एक सांप्रदायिक सोच वाली सरकार को उनसे अधिक ‘सूटेबल’ और कौन हो सकता था.
किताब में जेल से रिहाई, बहराइच जिला अस्पताल में बच्चों की संभावित इंसेफेलाइटिस से मौत होने का कारण जानने पहुंचने पर फिर गिरफ़्तारी, दुबारा निलंबन, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय गेट पर दिए गए भाषण को नफरत फैलाने वाला भाषण करार देते हुए गिरफ़्तारी व राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लगाने, इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा रासुका को खारिज करने के बाद रिहाई से लेकर विभागीय जांच में दो प्रमुख आरोपों पर क्लीन चिट मिलने के बावजूद बर्खास्त होने की ब्योरे तथ्यों के साथ मौजूद हैं.
एक पूरा चैप्टर सबके लिए स्वास्थ्य अभियान के लिए सड़क पर अभियान चलाने और चमकी बुखार के समय मुजफफरपुर, बिहार और असम में बाढ़ से समय लोगों के लिए हेल्थ कैंप आयोजित करने के बारे में हैं.
असल में यह किताब 10 अगस्त 2017 की भयानक रात की घटनाओं और उसके बाद एक डाक्टर के साथ हुए व्यवहार का ऐसा विवरण है जो पढ़ने वालों को कुछ घटनाओं से जुड़े जवाब तो देगा, लेकिन वर्तमान राजनीति और सांप्रदायिक सड़ांध को लेकर उनके मन में सवाल भी पैदा करेगा.
(लेखक गोरखपुर न्यूज़लाइन वेबसाइट के संपादक हैं.)