बॉम्बे हाईकोर्ट ने बीते एक दिसंबर को वकील एवं नागरिक अधिकार कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज को तकनीकी ख़ामी के आधार पर ज़मानत दे दी थी और आठ अन्य आरोपियों की इसी आधार पर ज़मानत की अर्जी खारिज़ कर दी थी. आरोपियों ने दावा किया है कि उन्हें ज़मानत से इनकार करने का आदेश ‘तथ्यात्मक त्रुटि’ पर आधारित है.
मुंबई: एल्गार परिषद -माओवादी संबंध मामले में फिलहाल जेल में कैद आठ नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं एवं शिक्षाविदों ने इस महीने की शुरुआत में जमानत से इनकार करने के बॉम्बे हाईकोर्ट के आदेश में सुधार के लिए बीते 21 दिसंबर को उक्त अदालत का रुख किया.
आरोपियों ने हाईकोर्ट का रुख कर दावा किया है कि उन्हें जमानत से इनकार करने का आदेश ‘तथ्यात्मक त्रुटि’ पर आधारित है. इन आरोपियों में सुधीर दावले, वरवरा राव, रोना विल्सन, अधिवक्ता सुरेंद्र गाडलिंग, प्रोफेसर शोमा सेन, महेश राउत, वर्नोन गोंजाल्विस और अरुण फरेरा शामिल हैं.
जस्टिस एसएस शिंदे और जस्टिस एनजे जामदार की पीठ ने अधिवक्ता एवं नागरिक अधिकार कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज को तकनीकी खामी के आधार पर जमानत दे दी. हालांकि, आठ अन्य आरोपियों की इसी आधार पर जमानत की अर्जी खारिज कर दी थी.
रिपोर्ट के मुताबिक, पीठ ने कहा था कि इन आठ लोगों ने समय पर डिफॉल्ट जमानत लेने के अपने अधिकार का प्रयोग नहीं किया, जबकि सुधा भारद्वाज ने पुणे की अदालत के समक्ष एक याचिका दायर की थी, जिसमें आरोप-पत्र दाखिल करने की 90 दिन की अवधि समाप्त होते ही डिफॉल्ट जमानत की मांग की गई थी. इन आठों ने अपने आवेदन दाखिल करने में देरी की थी.
एल्गार परिषद का मामला पहले पुणे पुलिस के पास था और अब इसे राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) देख रही है.
हालांकि, 21 दिसंबर को आठ आरोपियों ने अपने वकील आर. सत्यनारायणन के माध्यम से पीठ को बताया कि उन्हें डिफॉल्ट जमानत से इनकार करने का निर्णय ‘तथ्यात्मक त्रुटि’ पर आधारित था.
उन्होंने कहा कि धवले, विल्सन, गाडलिंग, सेन और राउत ने 26 सितंबर, 2018 को पुणे सत्र अदालत के समक्ष डिफॉल्ट जमानत याचिका दायर की थी, उनकी गिरफ्तारी की 90 दिनों की अवधि समाप्त होने के बाद और आरोप-पत्र दायर किया जाना बाकी था.
उन्होंने कहा कि उन्हें 6 जुलाई, 2018 को गिरफ्तार किया गया था और उनके खिलाफ पहली चार्जशीट 15 नवंबर, 2018 को दायर की गई थी. उन्होंने समय पर अपनी डिफॉल्ट जमानत याचिका दायर की थी, लेकिन सत्र अदालत के समक्ष अभी भी सुनवाई लंबित है.
गोंजाल्विस, राव और फरेरा ने उच्च न्यायालय को बताया कि उन्होंने 30 नवंबर, 2018 को डिफॉल्ट जमानत के लिए आवेदन किया था, जिसके ठीक चार दिन बाद भारद्वाज ने पुणे की अदालत में अपना आवेदन दायर किया था.
उन्होंने हाईकोर्ट को बताया कि पुणे सत्र अदालत ने 6 नवंबर, 2019 को पारित एक सामान्य आदेश के माध्यम से भारद्वाज की इसी तरह की याचिका के साथ उनकी डिफॉल्ट जमानत याचिकाओं को खारिज कर दिया था.
याचिका में कहा गया है, ‘आरोपी (गोंजाल्विस, राव, फरेरा और भारद्वाज) की गिरफ्तारी की तारीख एक ही है और सभी आरोपियों ने डिफॉल्ट जमानत के लिए आवेदन को प्राथमिकता दी थी और इसलिए बराबर हैं. आरोपियों (गोंजाल्विस, राव और फरेरा) को एक तथ्यात्मक त्रुटि के कारण सुधा भारद्वाज को दी गई राहत से वंचित कर दिया गया है.’
कानून के अनुसार, एक बार गिरफ्तारी से अधिकतम अवधि यानी 60, 90 या 180 दिन, मामले में जांच के लिए प्रदान की गई है और कोई आरोप पत्र दायर नहीं किया जाता है, तो आरोपी जमानत पर रिहा होने का हकदार हो जाता है, जिसे डिफॉल्ट जमानत कहा जाता है.
उच्च न्यायालय विषय पर अगली सुनवाई 23 दिसंबर को करेगा.
मालूम हो कि बॉम्बे हाईकोर्ट ने 60 वर्षीय सुधा भारद्वाज को एक दिसंबर को जमानत दी थी और नौ दिसंबर को जेल से रिहा कर दिया था.
(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)