एल्गार परिषद मामले में यूएपीए के तहत अक्टूबर 2020 में गिरफ़्तार किए गए 84 वर्षीय आदिवासी अधिकार कार्यकर्ता स्टेन स्वामी का जुलाई 2021 में मेडिकल आधार पर ज़मानत का इंतज़ार करते हुए अस्पताल में निधन हो गया था. ज़मानत याचिका ख़ारिज किए जाने के विशेष अदालत के फ़ैसले के ख़िलाफ़ स्वामी ने हाईकोर्ट में अपील की थी, जिसकी सुनवाई उनके गुज़रने के बाद हो रही है.
मुंबईः मुंबई की तलोजा सेंट्रल जेल में झारखंड के आदिवासी अधिकार कार्यकर्ता फादर स्टेन स्वामी के साथ एक साल बिता चुके एक कैदी का कहना है कि पिछले साल जुलाई में दम तोड़ने से पहले स्वामी लंबे समय तक खराब स्वास्थ्य से जूझ रहे थे.
एक साल तक स्वामी के साथ जेल में रह चुके इकलाख रहीम शेख को मार्च 2019 में गिरफ्तार किया गया था. उन्होंने 14 पेज का पत्र लिखते हुए जेल प्रशासन पर स्वामी के बिगड़ते स्वास्थ्य को नजरअंदाज करने का आरोप लगाते हुए कहा कि प्रशासन ने उन्हें (स्वामी) इलाज से महरूम रखा था.
इस पत्र को तलोजा जेल में उनके एक साथी कैदी के जरिये द वायर को भेजा गया, जिसमें स्वामी द्वारा उठाई गई कठिनाइयों का पूरा विवरण दिया गया है.
शेख के नाम का उल्लेख उनकी सहमति के साथ किया गया है क्योंकि वह चाहते हैं कि पूरी दुनिया को पता चले कि स्वामी और उनके जैसे कई अन्य कैदियों के साथ जेल के भीतर कैसे व्यवहार किया गया.
शेख ने पत्र में कहा कि जब स्वामी को अक्टूबर 2020 में पहली बार जेल लाया गया तो बुजुर्ग होने के बावजूद उनका स्वास्थ्य स्थिर था.
वे पत्र में कहते हैं, ‘उन्हें हालांकि उसके बाद दिल और रीढ़ की हड्डी संबंधी कई दिक्कतें शुरू हो गईं. उन्हें तत्काल मेडिकल देखभाल की जरूरत थी लेकिन उनकी याचिका को तत्कालीन पुलिस अधीक्षक कौस्तुभ कुर्लेकर और जेल डॉक्टर सुनील काले ने खारिज कर दिया.’
इस पत्र को 11 नवंबर को महराष्ट्र के अतिरिक्त जेल महानिदेशक अतुल चंद्र कुलकर्णी को भेजा गया था. द वायर ने कुलकर्णी से संपर्क किया और उनके साथ इस पत्र की कॉपी भी साझा की.
कुलकर्णी ने कहा कि उन्हें आधिकारिक तौर पर अभी तक यह पत्र नहीं मिला है इसलिए वह इस पर कोई टिप्पणी नहीं कर पाएंगे. शेख के आरोपों पर कुलकर्णी का जवाब मिलने पर उसे लेख में जोड़ा जाएगा.
लगभग 60 महीने जेल में बिता चुके शेख कहते हैं कि वे अंडा सेल में बंद रहे. इस सेल में वेंटिलेशन का अभाव है और यहां सिर्फ ‘अत्यधिक जोखिमपूर्ण’ कैदियों को ही रखा जाता है लेकिन कई जेल साक्ष्य बताते हैं कि जेल अधिकारियों की अवहेलना करने वालों को भी सजा के तौर पर यहां रखा जाता है.
स्वामी को आठ अक्टूबर 2020 को गिरफ्तार किया गया था. उन्हें सीधे न्यायिक हिरासत में भेज दिया और एक दिन बाद नौ अक्टूबर को एनआईए ने चार्जशीट दायर कर उन्हें और अन्य पर ‘अर्बन नक्सल’ के रूप में काम करने का आरोप लगाया और प्रतिबंधित सीपीआई (माओवादी) समूह का सक्रिय सदस्य बताया.
स्वामी को जेल ले जाने के बाद उन्होंने पानी पीने के लिए सिपर देने का अनुरोध किया. वह पार्किंसंस बीमारी से जूझ रहे थे जिस वजह से उनके लिए हाथ से गिलास उठाकर पानी पीना मुश्किल था लेकिन उनके अनुरोध को नजरअंदाज कर दिया गया और एक महीने बाद 26 नवंबर को स्वामी को सिपर जैसी बुनियादी चीज के लिए बॉम्बे हाईकोर्ट का रुख करना पड़ा.
शेख का कहना है कि जिस स्थिति में स्वामी को रहने के लिए मजबूर किया गया, उससे ‘लोकतंत्र की नींव हिल जानी चाहिए.’
फादर स्टेन स्वामी लगातार जूझते रहे जबकि प्रभावशाली लोगों को इलाज के लिए निजी अस्पताल भेजा जाता रहा और उन्हें सर्वोत्तम इलाज मुहैया कराया गया. कई अनुरोधों के बाद भी स्वामी को एक भी कोविड-19 टीका नहीं लगाया गया. वे आखिरकार कोरोना संक्रमित हो गए और उन्हें बांद्रा के एक निजी अस्पताल ले जाया गया, जहां उनका निधन हो गया.
हाईकोर्ट में उनकी पैरवी कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता मिहिर देसाई ने एनआईए और जेल प्रशासन पर उदासीनता, लापरवाही और चिकित्सीय सुविधाओं की कमी का आरोप लगाया.
स्वामी के करीबी दोस्त फादर फ्रेजर मास्करेन्हास, सेंट जेवियर कॉलेज के पूर्व प्रिंसिपल, सेंट पीटर चर्च के मौजूदा पैरिश प्रीस्ट द्वारा दायर बॉम्बे हाईकोर्ट में दायर याचिका के साथ उनकी याचिका में एनआईए के आरोपों से स्वामी का नाम हटाने की मांग की गई.
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग भी स्वामी के मानवाधिकार उल्लंघन के आरोपों की जांच कर रहा है.
शेख ने स्वामी की मौत की स्वतंत्र जांच की मांग की है ताकि राज्य में जेल व्यवस्था में व्याप्त सड़न को साबित किया जा सके.
शेख का कहना है कि उनकी जेल की सजा के दौरान ऐसे कई वीआईपी कैदी मिले जो करोड़ों रुपये के बैंक घोटालों में शामिल थे, जिन्हें बिना किसी बीमारी के अदालत ने अस्पताल में भर्ती करने के आदेश दिए.
शेख का दावा है कि ऐसा सिर्फ इन वीआईपी कैदियों के उनके परिवार के सदस्यों और बाहरी दुनिया के बीच बातचीत सुनिश्चित करने के लिए किया जाता है जबकि अन्य कैदियों को इससे महरूम रखा जाता है.
मार्च 2020 में कोविड-19 महामारी के फैलने के साथ ही अधिकतर राज्यों की तरह महाराष्ट्र ने भी कैदियों के परिवार के उनसे मिलने पर रोक लगा दी, जिसके बाद कैदी सिर्फ फोन के जरिये ही अपने परिवार के संपर्क में रह सकते थे.
ये फोन कॉल सिर्फ जेल प्रशासन की इ्च्छा पर ही निर्भर होती थीं और आमतौर पर मनमाने ढंग से उन कैदियों को अपने परिवार के साथ बातचीत नहीं करने दी जाती थी, जिसे जेल प्रशासन को दिक्कत थी. इस संचार प्रणाली के उचित ढंग से कामकाज की मांग को लेकर निचली अदालतों और बॉम्बे हाईकोर्ट के समक्ष कई याचिकाएं दायर की गई हैं.
शेख का आरोप है कि जेल कर्मचारी कैदियों को मूलभूत सुविधाएं मुहैया कराने के लिए उनसे मोटी रकम वसूलते हैं. उन्होंने कहा कि संविधान में प्रदत्त हमारे जीने के अधिकार को जेल में भी बरकरार रखना चाहिए लेकिन ऐसा नहीं है, हमें बुनियादी सुविधाएं तक मुहैया नहीं कराई जाती.
उन्होंने कहा, ‘जेल प्रशासन पर्याप्त संख्या में सुरक्षा कर्मचारियों के नहीं होने का हवाला देकर अधिकतर कैदियों को नियमित तौर पर अदालत नहीं ले जाते, अमीर कैदियों को कभी इस समस्या का सामना नहीं करना पड़ता. जेल प्रशासन गंभीर रूप से बीमार कैदियों को अस्पताल ले जाने के लिए भी इसी तरह का बहाना बनाता है.’
उन्होंने कहा कि जब कोई कैदी जेल के डॉक्टर या अन्य अधिकारी से मदद की गुहार लगाता है तो उन्हें बताया जाता है कि सरकारी अस्पताल कोरोना मरीजों से भरे पड़े हैं और वहां जाने से जान का खतरा है. कैदी ऐसी धमकियों के आगे घुटने टेक देते हैं और चुपचाप पीड़ा सहते रहते हैं.
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के सालाना आंकड़ों से पता चलता है कि लगभग 1,800 कैदियों की जेल में ही मौत हो जाती है. इनमें अधिकत प्री-ट्रायल कैदी होते हैं.
अकेले 202 में ही 1,887 कैदियों की मौत हुई है. इनमें से 102 मौतें महाराष्ट्र की 60 जेलों में हुई हैं. जवाबदेही के अभाव की वजह से इनमें से अधिकतर मौतों को प्राकृतिक मौत करार दे दिया जाता है.
शेख ने अपने इस पत्र में इन प्राकृतिक मौतों की परिभाषा बताते हुए कहा है कि असल में समय पर उचित चिकित्सकीय देखभाल न मिलने और चिकित्सा सुविधा से वंचित लोगों की मौत को प्राकृतिक नहीं कहा जा सकता.
एनसीआरबी ने अपने आंकड़ों में इन प्राकृतिक मौतों का कारण डायरिया, सिजोफ्रेनिया, मिर्गी के दौरे, लीवर संबंधी समस्याएं और हृदय संबंधी बीमारियों को बताया है.
द वायर ने जनवरी 2020 में अपनी विस्तृत रिपोर्ट में बताया था कि किस तह से इनमें से अधिकतर मौतें पर्याप्त चिकित्सकीय देखभाल की कमी की वजह से होती हैं. वहीं, अप्राकृतिक मौतों की श्रेणी में आत्महत्या सबसे आम हैं.
शेख ने पत्र में उन उदाहणों का हवाला दिया है, जहां कैदियों के साथ जेल स्टाफ ने कथित तौर पर दुर्व्यवहार किया, जिसकी वजह से कैदियों को आत्महत्या करने को मजबूर होना पड़ा.
इस पत्र में उन कई कैदियों के नाम का उल्लेख किया गया है, जिन्हें एकांत कारावास में रखा गया और इनमें से एक ने कथित तौर पर 2019 में आत्महत्या कर ली.
शेख ने पत्र में जेल स्टाफ पर कैदियों के साथ नियमित तौर पर छेड़छाड़ करने और उनका यौन उत्पीड़न करने का भी आरोप लगाया है. उन्होंने पत्र में कहा, ‘मैं इस तरह की घटनाओं का पीड़ित हूं.’
उन्होंने कहा कि कैदियों की तलाशी के बहाने पुलिसकर्मी कैदियों का उत्पीड़न कते हैं और इसका कोई समाधान नहीं है.
वह पत्र में कहते हैं, ‘जब किसी कैदी को अन्य जेल में ले जाया जाता है तो उसके साथ मारपीट की जाती है और दुर्व्यवहार किया जाता है.’
वे बताते हैं, ‘कल्याण के अधरवाड़ी जिला जेल के एक कैदी को तलोजा जेल लाया गया था, जहां उसे कथित तौर पर बेरहमी से पीटा गया और सार्वजनिक तौर पर निर्वस्त्र किया गया. जब कैदी ने इसका विरोध किया और आठ से दस दिनों तक भूख हड़ताल की तो उसकी दोबारा पिटाई की गई.’
(इस रिपोर्ट को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)