लंबे समय से त्वचा के कैंसर से पीड़ित थे. 67 साल के टॉम आॅल्टर ने शुक्रवार रात मुंबई स्थित अपने घर में अंतिम सांस ली.
थियेटर और फिल्मों में लगातार सक्रिय रहे अभिनेता टॉम आॅल्टर का शुक्रवार रात निधन हो गया. लंबे समय से वह त्वचा के कैंसर से पीड़ित थे. वह 67 साल के थे.
सितंबर महीने की शुरुआत में ही उन्हें मुंबई के एक अस्पताल में भर्ती कराया गया था. कुछ दिन पहले ही वह अस्पताल से घर लौटे थे. उनके परिवार में उनकी पत्नी कैरोल इवांस आॅल्टर, बेटे जेमी आॅल्टर और बेटी अफ़शान हैं.
टॉम के बेटे जेमी आॅल्टर की ओर से जारी आधिकारिक बयान में कहा गया है, ‘दुख के साथ हमें सूचित करना पड़ रहा है कि अभिनेता, लेखक, निर्देशक, पद्मश्री और मेरे पिता टॉम आॅल्टर का निधन हो गया. हमारा आग्रह है कि उनके जाने के बाद उनकी निजता बनी रहेगी.’
अमेरिकी मूल के इस भारतीय कलाकार टॉम आॅल्टर का जन्म उत्तराखंड के मसूरी में 22 जून 1950 को हुआ था. आॅल्टर ने साल 1976 में रामानंद सागर के निर्देशन में बनी फिल्म ‘चरस’ से अभिनय की शुरुआत की. इस फिल्म में धर्मेंद्र और हेमा मालिनी ने मुख्य भूमिकाएं निभाई थीं. इस फिल्म में ऑल्टर मुख्य कस्टम अधिकारी बने थे.
उनकी अगली और सबसे मशहूर फिल्मों में सत्यजीत रे की शतरंज के खिलाड़ी (1977) थी, जो मुंशी प्रेमचंद की इसी नाम की छोटी कहानी पर आधारित थी. इसमें वह वह अंग्रेज़ अधिकारी बने थे.
इसके बाद उन्होंने श्याम बेनेगल की जूनून (1979), मनोज कुमार की क्रांति (1981) और राज कपूर की राम तेरी गंगा मैली (1985) में काम किया. मनोज कुमार की फिल्म क्रांति के ब्रिटिश अफसर के किरदार के लिए उन्हें जाना जाता है.
हालांकि आॅल्टर अपने समय के बेहतरीन अभिनेताओं में से एक थे, लेकिन बॉलीवुड में उन्हें बार-बार ब्रिटिश पुरुष के किरदार के रूप में ही दिखाया गया. हालांकि एक ‘गोरा’ होने का टैग उन्हें ख़ास पसंद नहीं था. एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा भी था कि वह विदेशी नहीं हैं.
1993 में उन्होंने सरदार पटेल की बॉयोपिक फिल्म सरदार में लॉर्ड माउंटबेटन का किरदार निभाया था. इसके अलावा उन्होंने हॉलीवुड की फिल्म वन नाइट विद द किंग में भी काम किया है. उनकी बेहतरीन अभिनय वाली फिल्मों में आशिकी, परिंदा, सरदार पटेल और गांधी शामिल हैं.
हम किसी से कम नहीं, कर्मा, सलीम लंगड़े पर मत रो, दिल विल प्यार व्यार, वीर-ज़ारा, बोस: द फॉरगॉटन हीरो, भेजा फ्राई जैसी फिल्मों में काम कर चुके हैं. उनकी आख़िरी फिल्म सरगोशियां थी, जिसमें उनके साथ आलोकनाथ और फरीदा जलाल ने काम किया था. यह फिल्म इस साल मई में रिलीज़ हुई थी.
1977 में कन्नड़ फिल्म कन्नेश्वर रामा में उन्होंने काम किया था. इसके अलावा उन्होंने बंगाली, असमिया, गुजराती, तमिल और कुमांऊनी फिल्मों में भी काम किया.
उन्होंने बेताल पच्चीसी जुनून, ज़बान संभाल के, भारत एक खोज, शक्तिमान, कैप्टन व्योम और यहां के हम सिकंदर जैसे लोकप्रिय टेलीविजन धारावाहिकों में काम किया था. पंकज कपूर के साथ डीडी मेट्रो पर आने वाले धारावाहिक ज़बान संभाल के से उनकी पहचान घर-घर में बन गई थी.
आख़िरी बार वह इस समय चल रहे धारावाहिक रिश्तों का चक्रव्यूह में दिखाई दिए थे. आॅल्टर अपने करिअर के दौरान रंगमंच से करीब से जुड़े रहे. उन्होंने 1979 में अभिनेता नसीरुद्दीन शाह और गिलानी के साथ मोटली प्रोडक्शंस की स्थापना की थी. कला और सिनेमा के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए 2008 में ऑल्टर को पद्मश्री से सम्मानित किया गया.
इसके अलावा वह पत्रकार भी रह चुके हैं. उन्होंने खेल पत्रकारिता की हुई है. वह स्पोर्ट्स विकली, आउटलुक, क्रिकेट टॉक, संडे आॅब्ज़र्वर और डेबोनायर जैसी पत्रिकाओं में लिखा करते थे. 1989 में सचिन तेंदुल्कर का पहला इंटरव्यू करने वाले खेल पत्रकार टॉम आॅल्टर ही थे.
आॅल्टर की प्रमुख रंगमंच प्रस्तुतियों में करीब ढ़ाई घंटे का एकल उर्दू नाटक मौलाना, बाबर की औलाद, लाल क़िले का आख़िरी मुशायरा, ग़ालिब के खत, तीसवीं शताब्दी, कोपेनहेगन, दिल्ली में ग़ालिब और विलियम डेलरिम्पल के नाटकीय रूपांतरण सिटी ऑफ डिजिन्स शामिल है.
अभिनय के अलावा टॉम आॅल्टर लेखन के क्षेत्र में भी सक्रिय रहे हैं. उन्होंने ‘द लॉन्गेस्ट रेस’, ‘रेरन ऐट रिआल्टो’ और ‘द बेस्ट इन द वर्ल्ड’ जैसी किताबें लिख चुके हैं.
उनका कहना था कि वह राजेश खन्ना की वजह से सिनेमा में आए. 2009 में द हिंदू अख़बार को दिए एक साक्षात्कार में टॉम आॅल्टर ने कहा था, ‘मैं अभी भी राजेश खन्ना बनने का ख़्वाब देखता हूं. 70 के दशक के शुरू में मेरे लिए वह एकमात्र अभिनेता थे जो दिल से रोमांटिक थे और जिनकी ज़िंदगी लार्जन दैन लाइफ नहीं थी, वह पूर्ण रूप से भारतीय थे या वास्तविक भी. वह मेरे हीरो थे, जिस वजह से मैं फिल्मों में आया वह अब भी राजेश खन्ना ही हैं.’
उनके दादा-दादी अमेरिका के ओहियो शहर से 1916 में भारत आए थे. भारत में वह मद्रास पहुंचे थे और कुछ समय बाद पाकिस्तान के लाहौर शहर में बस गए थे. टॉम आॅल्टर के पिता का जन्म पाकिस्तान के सियालकोट में हुआ था.
बंटवारे के बाद उनका परिवार भी दो भागों में बंट गया. उनके दादा के परिवार के कुछ लोग पाकिस्तान में रहे गए और जबकि टॉम के पिता भारत आ गए.
भारत में इलाहाबाद, जबलपुर और सहारनपुर रहने के बाद उनका परिवार उत्तर प्रदेश के राजपुर (अब उत्तराखंड) जो कि देहरादून और मसूरी के बीच स्थित है, में बस गए. मसूरी के वुडस्टॉक स्कूल से उन्होंने हिंदी और दूसरे विषयों में पढ़ाई की. उन्हें नीली ‘आंखों वाला साहब’ कहा जाता था.
उनके पिता इलाहाबाद के यूइंग क्रिस्चियन कॉलेज (ईसीसी) में इतिहास और अंग्रेज़ी पढ़ाया करते थे. इसके बाद वह सहारनपुर आ गए और एक स्कूल में पढ़ाने लगे. फिर टॉम का परिवार राजपुर आकर बस गया और मसीही ज्ञान केंद्र की शुरुआत की जहां लोग पढ़ने और चर्चा के लिए आते थे.
18 साल की उम्र में टॉम अमेरिका के याले विश्वविद्यालय में पढ़ाई करने गए लेकिन एक साल बाद ही लौट कर वापस आ गए. 19 साल की उम्र में वह हरियाणा में जगाधरी के एक स्कूल में पढ़ाने लगे साथ ही बच्चों को क्रिकेट भी सिखाते थे.
यहां वह बस छह महीने रहे. इसके बाद अगले ढाई साल तक उन्होंने कई तरह की नौकरियां की. उन्होंने मसूरी के वुडस्टॉक स्कूल में पढ़ाया, अमेरिका के एक अस्पताल में काम किया फिर भारत आ गए और जगाधरी में वापस काम शुरू कर दिया.
इस बीच वह हिंदी सिनेमा देखने लगे थे और उनका सामना राजेश खन्ना और शर्मिला टैगोर की फिल्म आराधना से हुआ. इसके बाद हिंदी सिनेमा के जादू के प्रभाव में आ गए.
ये प्रभाव कुछ ऐसा था कि उनके और उनके दोस्तों ने एक हफ्ते में इस फिल्म को तीन बार देखा. वह राजेश खन्ना और शर्मिला टैगोर की अदाकारी पर फिदा हो गए.
यह फिल्म उनकी ज़िंदगी का टर्निंग पॉइंट है. इस फिल्म को देखने के बाद उन्होंने अभिनय को ही अपना करिअर बनाने की ठान ली और पुणे के भारतीय फिल्म और टेलीविज़न संस्थान में दाखिला ले लिया. यहां उन्होंने 1972 से 1974 तक उन्होंने अभिनय की पढ़ाई की.
एक दूसरे इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, हरियाणा के जगाधरी के लिए भी कुछ अच्छी बातें हैं. मैं वहां साधारण शिक्षक ही बनकर रह जाता अगर मैंने राजेश खन्ना और शर्मिला के रोमांस को फिल्म आराधना में न देखा होता. सिनेमा के प्रति मेरे लत की यह शुरुआत थी.
पुणे में अपने अभिनय की पढ़ाई का श्रेय वह अपने शिक्षक रोशन तनेजा के अलावा अपने सहपाठी नसीरुद्दीन शाह, बेंजामिन गिलानी और शबाना आज़मी को देते थे.