हिंदू धर्म आज तक अगर प्राणवान रहा है तो राजाओं, अदालतों और पुलिस या लठैतों के बल पर नहीं. उसकी प्राणवत्ता परस्पर विरोधी स्वरों को सुनने और बोलने देने की उसकी तत्परता में रही है. उसे किसी मध्यस्थ की आवश्यकता नहीं.
रावण का पुतला जलाने का आयोजन करने वाला मोहल्ले का एक लड़का चंदा लेने आया. पहले हम दे देते रहे हैं हालांकि खुद कभी ऐसे आयोजनों में शामिल नहीं हुए.
इस बार मैंने उससे कहा, ‘रावण को अपना मानने वाले भारत में ही मौजूद हैं. उन्हें रावण का पुतला जलाना शायद बुरा लगे!’ लड़के ने बात समझी, चंदे के लिए जिद नहीं की.
मुझसे यह ज़रूर कहा कि यह सब संविधान में तो कहीं नहीं लिखा. मैंने कहा कि हम सब अलग-अलग ढंग से रहते हैं, अलग-अलग देवी-देवता को मानते हैं. एक दूसरे के साथ कैसे रहें कि किसी को चोट न पहुंचे, यह तो हमीं तय करेंगे. वह सहमत था.
दशहरा आते ही इधर कुछ वर्षों से एक कड़वाहट सी फैलने लगती है. दुर्गा के पंडालों में महिषासुर मर्दिनी की प्रतिमा देखकर उनके आगे नमन करने की परंपरा के अभ्यस्त हिंदुओं को उन्हीं के बीच के अनेक लोग कहने लगे हैं कि यह जो आप कर रहे हैं, एक व्यक्ति की हत्या का जश्न जो मना रहे हैं, वह गलत है.
आश्चर्य यह कि इस बात पर कभी ध्यान ही नहीं गया कि विजयादशमी संहार का उत्सव है. भारतीयता के पहले दावेदार हिंदुओं में भारत को लेकर अज्ञान इतना अधिक है कि असुर जनजाति के लोगों को कहना पड़ा कि हम असुर यहां भारत के नागरिकों के सारे अधिकार के साथ आपके बराबर रहते हैं.
आप एक असुर की हत्या का उत्सव करते हुए सोचते भी नहीं कि आपके बारे में हम लोग क्या सोचते होंगे. आपकी सभ्यता और संस्कृति के बारे में?
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दुर्गा और दशहरे को लेकर कई कहानियां हैं. मिथिला और बंगाल में तो ये दस दिन अपने पति के घर से मायके आने वाली बेटी के मान-दान के दिन हैं. पिता हिमालय और मां मेना के पास साल में एक बार आती हैं पार्वती.
पार्वती ही भगवती हैं, वही दुर्गा हैं. प्रेम विवाह कर लिया है. संपन्न मां-बाप का कलेजा छिल जाता है सोच-सोच कर कि अपने फक्कड़ पति शिव के साथ कितने कष्ट में उनकी बेटी रहती होगी.
सो, इन दस दिनों में उसका खूब सत्कार होता है. लेकिन दसवें दिन तो उसे जाना ही है. सो, मिथिला और बंगाल में मां के दुःख भरे और पुत्री के प्रेम वाले गीतों को खूब गाया और सुना जाता है.
दूसरी कथा उस दुर्गा या भगवती की है जो कभी थी ही नहीं. महिषासुर से युद्ध करते करते उसे परास्त करने में असफल देवता अपना अपना तेज एक जगह एकत्र करते हैं. उस पुंजीभूत तेज का नाम ही है दुर्गा. उस दुर्गा पर लुब्ध हो उठता है महिषासुर. प्रणय निवेदन भी करता है. दुर्गा क्रुद्ध हो उठती हैं, उससे युद्ध करती हैं और आखिरकार उसका संहार कर डालती हैं.
दुर्गा शप्तसती का पाठ मां से सुनते हुए बचपन में उस स्थान पर किंचित विस्मय हो उठता था जहां दुर्गा महिषासुर पर वार करने के पहले मदिरा पान करती हैं और उसे उसके अवश्यम्भावी अंत की चेतावनी देती हैं.
दुर्गा को क्यों महिषासुर को मारना चाहिए? और पुरुष देवताओं के पुंज से स्त्री देवता क्योंकर उत्पन्न हुईं? क्या अधिक तार्किक उत्तर यह नहीं कि महिषासुर मवेशियों का पालन करने वाले समुदाय का नेता था. उसकी बढ़ती शक्ति से घबराए देवताओं ने उससे युद्ध किया और उसे हराने में असफल रहे. फिर उन्होंने एक तरकीब निकाली.
एक स्त्री के पीछे से महिषासुर पर वार किया. तो ये दस शस्त्रसज्जित हाथ दरअसल देवी के नहीं, पूर्वपराजित देवताओं के हैं. यह कथा जमती तो है! लेकिन इससे क्रमभंग हो जाता है.
वैसे भी हिंदू मिथकीय कथाओं के इंद्र हों, या अन्य देवता, छल-कपट से प्रायः काम लेते रहे हैं. कर्ण से छलपूर्वक उसके कवच-कुंडल भी देवता ने ही ब्राह्मण वेश धर कर ले लिए थे. बली राजा से वामन का रूप धर कर न सिर्फ उसका साम्राज्य ले लिया बल्कि उसे पाताललोक में रहने को विवश किया.
साल भर में एक दिन अपनी जनता के बीच लौटने पर उसका जो स्वागत लोग ओणम में करते हैं, उससे जाहिर है कि बलि राजा के साथ किए गए छल का जनता समर्थन नहीं करती. इसीलिए पिछले साल जब बलि राजा के उत्सव को वामन के उत्सव में बदलने की कोशिश हुई तो केरल ने लोगों ने उसे दुत्कार दिया.
मिथकीय कहानियों के साथ दिक्कत या ख़ूबसूरती यह है कि वे हर क्यों का जवाब देना नहीं चाहतीं. लेकिन यह समझना कोई बहुत कठिन तो नहीं कि हर कुछ समय पर क्यों देवताओं का किसी न किसी असुर से युद्ध होता ही था.
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क्या यह इसलिए था कि अपना विस्तार करते हुए उन्हें आदिवासियों के प्रतिरोध का सामना करना पड़ता था और उसमें वे अक्सर हारने लगते थे. इसीलिए दौड़कर ब्रह्मा, विष्णु या महेश की शरण में उन्हें जाना पड़ता था?
ऋषि-मुनियों को क्यों जंगलों में जाकर अपना आश्रम बनाकर वहीं यज्ञ करना आवश्यक था? क्यों राक्षस उनकी यज्ञ वेदी का बार-बार ध्वंस करते थे? क्या इसलिए कि वे स्वाभावतः दुष्ट थे और पवित्र कार्य से उन्हें परेशानी होती थी?
या, अधिक तर्कसम्मत उत्तर यह है कि उनके निवास स्थल, जंगल का ऋषि-मुनि अतिक्रमण करते रहते थे जिसका वे विरोध करते थे. ऋषि-मुनि अपनी मदद के लिए राजाओं को ले आते थे या राजाओं के साम्राज्य विस्तार में मदद के लिए ही जगलों में तपस्या करते थे. वन में रहने वालों का इन नगरवासियों के आगमन को लेकर संदेह स्वाभाविक था.
राम और लक्ष्मण को दशरथ से मांग कर आखिरकार मुनिवर क्यों ले गए? क्यों स्वयं उनकी तपस्या में इतना बल न था कि वे वन में रहने वालों का या तो सामना करें या उन्हें अपने पक्ष में कर सकें? जिस संसार से संन्यास लिया, उसी में लौट कर राजा का सहारा लेना क्यों? हर बार राक्षसों का संहार क्यों?
क्या यह संयोग है कि इन कथाओं को मानने वाले आदिवासियों को वनवासी कहने की जिद करते हैं?
ये आदिवासी महिषासुर को अपना पूर्व पुरुष मानकर उसकी पूजा करने का आयोजन करें तो असंगत क्या है? इस प्रश्न से आंख चुराना अब कठिन है. क्योंकि अगर मिथक परतदार होते हैं तो दुर्गा-महिषासुर के मिथक की एक परत यह भी हो सकती है.
फिर जो दुर्गा का तिरस्कार करते हैं, वे इसका ध्यान रखें कि मातृदेवियों की शक्ति का अपहरण करने के लिए कालांतर में उन्हें किसी न किसी पुरुष देवता के साथ जोड़ दिया गया और अनुगत बनाने की कोशिश की गई. फिर उनकी स्वतंत्र सत्ता न रह गई.
इन सारे प्रश्नों पर बहस होगी तो पूर्व मान्यताएं चोटिल होंगी. मुझ जैसे देवघर के पंडा समुदाय के सदस्य को पहली बार सदमा होना स्वाभाविक है.
प्रत्येक वर्ष पूजा में देवी के आगे बलि देखते हुए बड़े होने वाले मुझको देवी की प्रतिमा भग्न होते देख दुःख होना स्वाभाविक है. लेकिन फिर हम याद करें, बिना ऐसे सदमे के हम न तो ज्ञान में और न कल्पना में आगे बढ़ सकते हैं.
जो दुर्गा की प्रचलित कथा पर सवाल उठाने वालों पर मुकदमा चला डालते हैं और उनकी नौकरी खा जाना चाहते हैं, वे ब्रह्मा और अन्य देवताओं के लिए आक्रामक भाषा का प्रयोग करने वाले ज्योतिबा फुले के साथ क्या बर्ताव करेंगे?
जो कांचा इलैया को ख़त्म कर देना चाहते हैं, वे फिर किस मुंह से यह कह पाएंगे कि हिंदू धर्म में एक दूसरे का विरोध करने वालों के लिए बराबर की जगह है. यह कहकर कि हम सहिष्णु धर्मवाले हैं, फिर प्रतिप्रश्न उठाने वाले पर हमला कर देना क्या सहिष्णुता का प्रमाण है?
वे यह भी याद रखें कि हिंदू धर्म आज तक अगर प्राणवान रहा है तो राजाओं और अदालतों और पुलिस या लठैतों के बल पर नहीं. उसकी प्राणवत्ता परस्पर विरोधी स्वरों को सुनने और बोलने देने की उसकी तत्परता में रही है. उसे किसी मध्यस्थ की आवश्यकता नहीं. जितने मुंह, उतनी व्याख्याओं के लिए वह तैयार है.
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लेकिन जिन्होंने अभी सवाल उठाया था, वे भी पहले प्रत्याक्रमण पर अगर माफी मांग लेंगे तो उनका प्रश्न ही संदिग्ध हो जाएगा. वे भी ध्यान रखें परंपरा पर प्रश्न उठाने की कीमत दिए बिना उसे बदला नहीं जा सकता. हम जो सवाल उठा रहे हैं, उसके लिए तर्क देने और हमला झेलने को तैयार हैं या नहीं?
मंटो और इस्मत ने कितनी मौज के साथ अदालतों में अपनी दलीलें दीं, किस तरह प्रेमचंद ने मोटेराम शास्त्री कहानी के चलते एक विप्रवर का मुकदमा झेला, यह सब कुछ पुराना किस्सा नहीं.
ध्यान रखिए, इसी देश में अरुंधति रॉय भी हैं जिन्होंने अदालत से माफी मांगने की जगह सज़ा भुगतना कबूल किया. फिर भी सजा दिलाने को तत्पर लोग भी याद रखें, अभी सत्ता समीकरण उनकी ओर है. लेकिन यही हमेशा नहीं रहेगा.
कई दशकों तक आंबेडकर नाम सुनते ही स्नान करने को भागने वाले आज उनकी पूजा कर रहे हैं. कल क्या महिषासुर के साथ भी ऐसा न होगा, कौन कह सकता है?
प्रत्येक दौर के सत्ता और शक्ति-संबंध इन मिथकीय कथाओं में झलकते हैं. मिथकों को अगर हम बदल डालेंगे तो अलग-अलग समय की समझ का एक स्रोत भी खो बैठेंगे. तो, इस मांग की जगह की यह मिथक बदल दिया जाए, हमें उस मिथक पर आलोचनात्मक चर्चा की जगह बनानी चाहिए.
वे भी जो अभी कथावाचक हैं, ध्यान रखें प्रतिकथा तैयार है. प्रति आख्यान को सुनने वाले जब मुखर होंगे, कथावाचक भी बदल जाएंगे.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं.)