सरस्वती को विद्या की देवी कहकर हिंदुओं तक सीमित न रखने की अपील की जाती है. धर्म को संस्कृति का चोला ओढ़ाकर दूसरे धर्मावलंबियों को उसे मानने को बाध्य किया जाता है. ऐसे ही आशय से प्रेमचंद ने लिखा था कि सांप्रदायिकता को अपने असली रूप में निकलने में शर्म आती है, इसलिए वह संस्कृति की खाल ओढ़कर बाहर निकलती है.
‘हमारी आंख आंख/ तुम्हारी आंख लोचन/ हमारे पांव पांव /तुम्हारे पांव चरण/ वाह भैया हरिचरण.’
नागार्जुन की तरह ही भारत के मुसलमान और ईसाई भारतीय जनता पार्टी या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को कह सकते हैं, ‘हमारा धर्म धर्म,तुम्हारा धर्म संस्कृति.’
कर्नाटक के उडुपी में एक कॉलेज में मुसलमान छात्राओं को हिजाब के साथ कक्षा में प्रवेश से रोक दिए जाने के बाद कुछ दूसरे शिक्षा संस्थान भी यही कर रहे हैं. कुंडापुर में दो संस्थानों ने यह पाबंदी लगा दी है. छात्राओं को कहा जा रहा है कि शिक्षा संस्थान धर्मनिरपेक्ष स्थल हैं, छात्राओं को यहां पढ़ने आना चाहिए, अपने धर्म के पालन के लिए नहीं.
जब यह ध्यान दिलाया गया कि वहां सरस्वती पूजा होती है, संस्थान के प्रबंधन बोर्ड के अध्यक्ष, जो उडुपी से भाजपा के विधायक भी हैं, ने कहा कि सरस्वती पूजा तो संस्कृति है, सरस्वती पूजन सांस्कृतिक गतिविधि है. उसे धार्मिक नहीं कहा जा सकता. लेकिन हिजाब धार्मिक चिह्न है. शिक्षा संस्थान में सांस्कृतिक गतिविधि तो हो सकती है, धार्मिक नहीं.
सरस्वती पूजा प्रायः भारत में हर जगह स्कूलों में और अब कई जगह कॉलेज परिसरों में होती रही है. सरस्वती को विद्या की देवी कहकर सिर्फ हिंदुओं तक सीमित न रखने की अपील की जाती है. जिसका मतलब यह है कि अन्य धर्मों के लोगों को इसे चुपचाप संस्कृति और विद्या के नाम पर स्वीकार कर लेना चाहिए.
जो इसे कबूल नहीं करते, सरस्वती वंदना गाने से मना करते हैं, उन्हें संकीर्ण मन और मस्तिष्क का बतलाया जाता है. विडंबना यह है कि जब ये हिजाब या टोपी पहनें तो भी इन्हें संकीर्ण कहा जाता है. यानी एक तरफ संकीर्ण इसलिए कि ये भारतीय संस्कृति की व्यापकता को नहीं मानते और दूसरी तरफ इसलिए कि ये अपने धर्म के चिह्न और रिवाज के पालन की ‘जिद’ करते हैं जो फिर संकीर्णता ही है.
गीता धार्मिक ग्रंथ है या सांस्कृतिक? या भारतीय? हरियाणा सरकार ने पिछले साल स्कूलों में गीता पढ़ाए की घोषणा की. कहा कि गीता में जीवन का सार है, इसलिए उसका अध्ययन हर किसी को करना चाहिए. उससे हरेक के जीवन में परिवर्तन आएगा.
हर किसी के, यानी गैर हिंदुओं के भी. जब यह कहा जाता है तो समझाने की कोशिश की जाती है कि गैर हिंदुओं के भले के लिए उन्हें गीता पढ़ाई जा रही है. वह धार्मिक नहीं, सांस्कृतिक ग्रंथ है.
लेकिन यही बात बाइबिल या क़ुरान के बारे में नहीं कही जा सकती. वे दोनों धार्मिक ग्रंथ ही रहेंगे, कभी भी सांस्कृतिक या भारतीय तो हो नहीं सकते. जब गांधी का प्रिय ‘एबाइड विद मी’ भारतीय न हो सका तो बाइबिल की बात ही क्या?
जो हिंदू है, वह हिंदू नहीं भारतीय है और जो हिंदू आचरण, रिवाज़ हैं या ग्रंथ हैं, वे धार्मिक नहीं सांस्कृतिक हैं, यह तर्क होली, दीवाली और हर मौके पर दिया जाता है.
वर्षों पहले की बात है. मुझसे मिलने एक मुसलमान मित्र आईं. बाहर अलमारी के ऊपर कपड़े के बनाए गणेश लुढ़के पड़े थे. उस मित्र ने गणेश को ध्यान से देखा. वे मुझे इस रूप में जानती रही थीं कि मैं धार्मिक नहीं हूं. गणेश के घर में होने के बारे में उन्होंने सहज जिज्ञासा प्रकट की. मेरी पत्नी पूर्वा भी धार्मिक नहीं हैं, फिर गणेश?
हमने गणेश और नटराज की प्रतिमाओं को सांस्कृतिक प्रतीक कहकर घर में उनका औचित्य साबित करने का प्रयास किया. वे मुस्कुराकर बोलीं, ‘तुम्हारे लिए कितना आसान है और कितना मज़ा! तुम्हारा धर्म भी संस्कृति है और हमारे पास तो धर्म के अलावा कुछ है ही नहीं. वह तो संस्कृति तो कभी ही नहीं सकता!’
धार्मिक घर में गणेश धार्मिक छवि हैं और नास्तिक के घर सांस्कृतिक. और कुछ नहीं तो सरस्वती को संगीत की अधिष्ठात्री, नटराज को नृत्य से जोड़कर नास्तिक घर में सम्मानपूर्वक स्थान दिया जा सकता है. मार्क्सवादी तक दुर्गा पूजा समितियों में उसे सांस्कृतिक आयोजन कहकर शामिल होते रहे हैं.
इसमें कुछ गलत नहीं है. धर्म संस्कृति से अभिन्न होता ही है. सरस्वती वंदना हर शैक्षणिक संस्थान में होती है, कोई आपत्ति नहीं की जाती. लेकिन जामिया मिलिया इस्लामिया या अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में तिलावत होने पर हमारी त्योरियां चढ़ जाती हैं.
मैंने महात्मा गांधी विश्वविद्यालय, वर्धा में एक खंड के उद्घाटन पर अशोक वाजपेयी और तत्कालीन कुलपति विभूति नारायण राय को नारियल फोड़ने की रस्म सहज ही करते देखा. एक तरह से मैं भी वहां रहकर उसमें शामिल था. दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपतियों को छात्रावासों के शिलान्यास या उद्घाटन के समय हवन में शामिल होते और धार्मिक विधान करते देखा है. भूमि पूजन भी धार्मिक नहीं, सांस्कृतिक बतलाया जाता है.
हम सबको मालूम है कि ये सब की सब हिंदू धार्मिक विधियां या आचरण हैं. उस कारण भारतीय भी हैं क्योंकि हिंदू भारतीय भी हैं. लेकिन उसी तर्क से क़ुरान भारतीय क्यों नहीं है, क्यों वह भारतीय सांस्कृतिक ग्रंथ नहीं है, क्यों ईद भारतीय सांस्कृतिक अवसर नहीं है? क्यों बड़ा दिन भारतीय नहीं है? क्यों ये सब सांस्कृतिक नहीं? क्यों वह मात्र धार्मिक है?
उसी तरह 70 साल के बाद भी क्यों ‘एबाइड विद मी’ भारतीय संस्कृति का अंग नहीं हो पाया? क्यों उसे ईसाई और पाश्चात्य धुन कहकर भारतीय संस्कृति से बाहर कर दिया गया?
दूसरा प्रश्न भी है. हिंदू रिवाज़ों को सबसे कबूल करवाने के लिए बार-बार कहा जाता है कि वे धार्मिक नहीं भारतीय हैं, सांस्कृतिक हैं. इसलिए उनके सार्वभौमिक होने में संदेह नहीं करना चाहिए. जैसे गोमांस न खाना या मांसाहार से परहेज. इसे भारतीय जीवन पद्धति कहकर ईसाइयों, दलितों, आदिवासियों, मुसलमानों को उसे मान लेने को कहा जाता है. यह क्या अपने धर्म को लेकर हीनताबोध है या एक तरह की चतुराई है? क्या ऐसा करने पर आप यह नहीं स्वीकार कर लेते कि धर्म संस्कृति से छोटा है, हीन है?
धर्म को संकुचित मान लेने के कारण उसे संस्कृति का लबादा ओढ़ाकर दूसरे धर्मावलंबियों, जो संख्या में कम हैं, को उसे स्वीकार करने को बाध्य किया जाता है. प्रेमचंद ने ठीक ही लिखा था कि सांप्रदायिकता को अपने असली रूप में निकलने में शर्म आती है, इसलिए वह संस्कृति की खाल ओढ़कर बाहर निकलती है.
कर्नाटक में जिस तरह हिजाब को विवाद का विषय बना दिया गया है और उन्हें धर्म और शिक्षा में से एक को चुनने को कहा जा रहा है, उसमें जो बेईमानी है, वह छिपाने पर भी नहीं छिपती. यह प्रश्न कभी हिंदुओं के सामने नहीं आएगा क्योंकि उनका धार्मिक भी सांस्कृतिक बनकर शान से परिसर में विचरण करेगा.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)