राइट टू एजुकेशन फोरम का कहना है कि बजट के आधे-अधूरे और अदूरदर्शी प्रावधान बताते हैं कि सरकार स्कूली शिक्षा को लेकर बिल्कुल संजीदा नहीं है. डिजिटल लर्निंग और ई-विद्या संबंधी प्रस्ताव निराशाजनक हैं, जिनसे वंचित वर्गों समेत अस्सी फीसदी बच्चों के स्कूली शिक्षा के दायरे से बाहर होने का ख़तरा मंडरा रहा है.
नई दिल्ली: शिक्षा के अधिकार (आरटीई) फोरम ने आम बजट 2022-23 को लेकर कहा है कि यह आरटीई कानून की अनदेखी करने वाला, शिक्षा में गैरबराबरी को बढ़ाने वाला और निजीकरण की राह खोलने वाला बजट है.
फोरम के मुताबिक, बजट के डिजिटल लर्निंग और ई-विद्या संबंधी प्रस्ताव निराशाजनक हैं. इससे वंचित वर्गों समेत अस्सी फीसदी बच्चों पर स्कूली शिक्षा के दायरे से बाहर होने का खतरा मंडरा रहा है.
बजट पर निराशा व्यक्त करते हुए फोरम ने कहा है कि तकरीबन डेढ़ साल से स्कूल बंद हैं जिससे छात्रों की पढ़ाई का नुकसान हो रहा है. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने महामारी के गंभीर प्रभावों को तो स्वीकार किया है, लेकिन स्कूलों के सुरक्षित संचालन, उनके बुनियादी ढांचे को दुरुस्त करने की दिशा में और कोविड महामारी में या अन्य आपात स्थिति में सरकारी तैयारी की कोई झलक उनके बजट में नहीं दिखी है.
फोरम ने कहा है कि बजट के आधे-अधूरे और अदूरदर्शी प्रावधान बताते हैं कि सरकार स्कूली शिक्षा को लेकर बिल्कुल संजीदा नहीं है. बजट में बच्चों के बुनियादी हक की अनदेखी की गई है. उनके प्रति असंवेदनशीलता दिखाई गई है और बच्चों के प्रति संवैधानिक दायित्व को लेकर उदासीनता का परिचय दिया गया है.
आरटीई फोरम के समन्वयक मित्ररंजन ने कहा है, ‘कहने को तो समग्र शिक्षा अभियान के आवंटन में 6,333 करोड़ रुपये की वृद्धि का ऐलान किया गया है. 2021-22 वित्तीय वर्ष में 31,050 करोड़ के आवंटन के मुकाबले इस बार 37,383 करोड़ रुपये का आवंटन किया है, लेकिन यह राशि महामारी के पहले 2020-21 में आवंटित बजट (38,860 करोड़) से भी कम है. मिड डे मील योजना का भी आवंटन कम किया गया है. ऐसी स्थिति तब है, जब देश बाल कुपोषण की समस्या से बुरी तरह ग्रस्त है.’
बता दें कि मिड डे मील योजना का नया नामकरण प्रधानमंत्री पोषण शक्ति निर्माण योजना कर दिया गया है. वित्तीय वर्ष 2020-21 में इस योजना में 11,500 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया था, जो कि इस बजट में घटाकर 10,233.75 करोड़ रुपये कर दिया गया है.
मित्ररंजन ने चिंता जताते हुए कहा, ‘यह बजट हर बच्चे के लिए समान अवसर के साथ गुणवत्तापूर्ण, समावेशी और समतामूलक शिक्षा की संवैधानिक प्रतिबद्धता के प्रति सरकार की कमजोर इच्छाशक्ति को प्रदर्शित करता है.’
उन्होंने आगे कहा, ‘कोविड-19 महामारी ने हाशिए के समुदायों के बच्चों, विशेषकर लड़कियों की शिक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है और देश में तकरीबन एक करोड़ लड़कियों के स्कूली शिक्षा से बाहर हो जाने का खतरा है, लेकिन इस संबंध में बनी योजना को (नेशनल स्कीम फॉर इनसेंटिव टू गर्ल्स फॉर सेकंडरी एजुकेशन) को खत्म कर दिया गया है. पिछले बजट में इस योजना की राशि 110 करोड़ रुपये से एक करोड़ रुपये कर दी गई थी, इस बार योजना ही खत्म कर दी गई.’
मित्ररंजन का कहना है कि बजट में न तो नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) में किए गए वादे के मुताबिक लैंगिक समावेशन निधि (जेंडर इंक्लूजन फंड) का कोई जिक्र है और न ही दलितों और आदिवासियों के लिए छात्रवृत्ति योजनाओं में वृद्धि की बहुप्रतीक्षित योजना का कोई नामो-निशान है.
फोरम ने यूनिसेफ की उस रिपोर्ट का भी हवाला दिया है जो बताती है कि 6-13 आयु वर्ग के 42 फीसदी बच्चे स्कूल बंद होने के चलते शिक्षा से पूरी तरह वंचित रहे.
वहीं, एक और शोध का हवाला देते हुए बताया गया है कि महामारी के दौरान ग्रामीण इलाकों के 8 फीसदी बच्चे ही ऑनलाइन पढ़ाई कर पा रहे थे, जबकि 14-18 आयु वर्ग के 80 फीसदी ग्रामीण बच्चों और शहरी गरीब बच्चों पर (जिनमें लड़कियों की बड़ी तादाद है) संसाधनों के अभाव में शिक्षा के दायरे से बाहर होेने का खतरा मंडरा रहा है.
फोरम का कहना है कि इन हालातों में सीखने के नुकसान की भरपाई के लिए शिक्षा मंत्रालय द्वारा डिजिटल समाधान खोजे जा रहे हैं. डिजिटल शिक्षा को प्रोत्साहित करने का साफ मतलब है कि सरकार निजी निवेश यानी पीपीपी के जरिये शिक्षा को बाजार के हवाले करने के बारे में सोच रही है.
फोरम ने शिक्षा की वार्षिक स्थिति रिपोर्ट (असर-2021) का उदाहरण देते हुए कहा है, ‘सरकारी स्कूलों में इस दौरान नामांकन बढ़ा है, जबकि निजी स्कूलों में नामांकन में 8.1 फीसदी की गिरावट देखी गई है. हालिया आर्थिक सर्वेक्षण में सिफारिश की गई है कि सरकारी स्कूलों में बच्चों की बढ़ती संख्या के मद्देनजर स्कूलों को उपयुक्त बुनियादी सुविधाओं से लैस किया जाए. फिर भी बजट इसे लेकर मौन है, जबकि देश के करीब 15 लाख सरकारी स्कूलों में से अधिकांश में आधारभूत ढांचा खस्ताहाल है.’
आरटीई के अनुपालन के संबंध में फोरम ने कहा है कि संसद में सरकार के जवाब और यू डाइस डेटा 2019-20 के मुताबिक, आरटीई के लागू होने के 11 सालों बाद भी इसका अनुपालन 25.5 फीसदी हो सका है. स्कूलों में 11,09,486 शिक्षकों की कमी है. फिर भी बजट में इस पर गंभीरता नहीं दिखाई गई है.
साथ ही फोरम का कहना है कि महामारी के दौरान बढ़े बाल श्रम एवं स्कूल नहीं लौट पाने के जोखिम से जूझ रहे बच्चों (विशेष रूप से दलितों, आदिवासियों, विशेष तौर पर सक्षम, लड़कियों और गरीब तबकों के बच्चों) के लिए शिक्षा- स्वास्थ्य, खाद्य सुरक्षा की गारंटी जैसी कोई राहत इस बजट में नहीं है.
साथ ही फोरम ने यह भी कहा है कि महामारी के दौरान अपने माता-पिता को खोने वाले बच्चों की शिक्षा व सुरक्षा के लिए एक व्यापक योजना का प्रस्ताव बजट में पेश किया जा सकता था, जो सिरे से नदारद है. पहले की तमाम नीतियों और नवीनतम राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में दोहराने के बावजूद भी यह बजट शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के न्यूनतम 6 फीसदी निवेश के सपने से कोसों दूर है.
फोरम का कहना है कि इस सबका सीधा असर समाज के वंचित वर्गों की शिक्षा पर पड़ेगा. इससे शिक्षा के क्षेत्र में असमानता बढ़ेगी और सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) के तहत निर्धारित लक्ष्य बुरी तरह बाधित होंगे.