दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर नंदिनी सुंदर लिखती हैं, ‘मेरे लिए महज एक हिंदू होने से ज़्यादा ज़रूरी इंसान होना है. इस साल दीवाली पर मेरे घर में तो अंधेरा रहेगा, लेकिन मेरे मन का कोई कोना ज़रूर रोशन होगा.’
बचपन में किसी साल के कैलेंडर में मेरे लिए केवल दो मौके सबसे ज़रूरी होते थे, एक मेरा जन्मदिन और दूसरा दीवाली.
दीवाली से हफ्तों पहले मेरी मां ब्लाइंड स्कूल के मेले से मोमबत्तियां खरीदकर लातीं. मुझे और मेरी बहन को हमारे जन्मदिन और दीवाली पर नए कपड़े मिलते थे. मुझे आज भी याद है कि जब मां हमारा माप लेकर अख़बार पर रख के कपडा काटतीं, फिर उसे अपनी सिंगर की सिलाई मशीन पर सिलतीं, हम उनके आस-पास मंडराते रहते.
हमारे लिए दीवाली पर पटाखे या रात को होने वाली रोशनी नहीं बल्कि दीवाली की सुबहें ज़्यादा ज़रूरी थीं. हमें सुबह 4 बजे उठना होता और फिर तेल लगाया जाता. मां चांदी की थाली में दिए, चावल और एक सिक्के के साथ नए कपड़े रखतीं. हमें सरस्वती पूजा के लिए इसमें अपनी किताबें रखनी होतीं.
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सूरज निकलने तक हम नहा-धोकर तैयार हो जाते. और फिर जैसा इतवार को होता था, वो होता यानी सिर धुलवाकर हम दोसे का नाश्ता करते और पीछे एमएस सुबालक्ष्मी की आवाज़ में भज गोविंदम और विष्णु सहस्त्रनाम बजता रहता.
इसके बाद आने-जाने का सिलसिला शुरू होता. क्योंकि मेरे माता-पिता में से कोई भी दिल्ली से नहीं थे, इसलिए यहां हमारे परिवार के कम ही लोग थे. हां, मेरे पिता के अंकल के स्वामीनाथन यहां थे. वे नौरोजी नगर में रहते थे. आम तौर पर पहला घर उन्हीं का होता जहां हम जाते थे और लौटते वक़्त हमेशा हमें एक-एक केला मिलता.
फिर हम पापा के तमिल सहकर्मियों के यहां जाते, जिनके बच्चे ज़्यादातर समय हमसे काफी बड़े होते या ज़्यादा पढ़े-लिखे. उनसे घबराये हुए हम चुपचाप घर लौटकर राहत की सांस लेते. फिर दोपहर का खाना होता जो होता पूरन पोली और श्रीखंड या मसाला भात- ये वो अकेला इशारा था जो बताता कि हम आधे मराठी भी हैं.
शाम को मां सामान्य-सी लक्ष्मी पूजा करतीं और चावल के आटे से घर में आते हुए लक्ष्मी के पांव बनातीं. आम लड़कियों की ही तरह हमें कानफोड़ बमों में कोई दिलचस्पी नहीं थी. हम हाथ में सावधानी से फुलझड़ी थामे आस-पास चलते अनार और चकरी की रोशनी देखकर खुश होते. पर सबसे ज़्यादा हमें पसंद था एक छोटी-सी काले रंग की गोली का आग दिखाने पर सांप बन जाना.
मैं जैसे-जैसे बड़ी हुई, ये सब बदलने लगा. भोर में उठना अब छुट्टी के दिन मिलने वाली आराम की नींद में बदल गया. क्योंकि मुझ पर बच्चों को रस्मों और परंपराओं से रूबरू करवाने जैसा कोई दबाव नहीं था, इसलिए मैंने कभी और कुछ भी नहीं किया. मां के बनाए सुंदर लक्ष्मी के पांव मेरे अनाड़ी हाथों किसी राक्षस के पांव सरीखे बन गये. बरसों बीते कि मैंने पटाखों को हाथ भी नहीं लगाया.
लेकिन आज भी मुझे और मेरे पति को घर में रोशनी करना पसंद है. तमाम शोर-शराबे, प्रदूषण के बावजूद दीवाली आज भी साल के ख़ास दिनों में से एक है- दीवाली यानी अपने माता-पिता से मिलना और ढेर सारा खाना.
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इस साल जब मैंने जब एक लोकल ट्रेन में 17 साल के जुनैद पर हमले की ख़बर सुनी, तो मेरे अंदर कुछ टूट गया. ये कुछ नई उम्र के लड़के थे, जो ईद के लिए नए कपड़े खरीदकर वापस गांव लौट रहे थे. वो वही कर रहे जो देश का हर बच्चा करता है… किसी त्योहार के आने से पहले उत्साह से उसकी तैयारी करना.
ऐसे में मैं दीवाली पर कैसे खुश हो सकती हूं- जब जुनैद और उसके जैसे कई परिवार नफरत भरे सांप्रदायिक हमलों के चलते ईद नहीं मना सके? आज जब कुछ लोग गौरी लंकेश की हत्या में ख़ुश हो रहे हैं, तब कोई कैसे किसी त्योहार की ख़ुशी मना सकता है? बचपन के वो छोटे काले सांप अब कालिया नाग में बदल गये हैं और इन्हें काबू में करने के लिए कोई कृष्ण नज़र नहीं आता.
मुझे याद नहीं कि मुझे किसने ये दो कहानियां पढ़ायी थीं, लेकिन स्कूल के दिनों में पढ़ी दो कहानियां हमेशा मेरे दिल के करीब रही हैं. प्रेमचंद की ईदगाह और टैगोर की काबुलीवाला. सालों तक मैं बिना रोये ये कहानियां किसी को सुना नहीं पाती थी. दोनों ही कहानियों में मुख्य किरदार त्योहार (ईद और बेटी की शादी) की ख़ुशी किसी दूसरे को खुश होते देखकर ही मनाते हैं.
अगर अपनी ख़ुशी साझा करने से अपनेपन की भावना का विस्तार होता है, तो किसी का दुख बांटने से भी ये बढ़ती है. मेरे लिए महज एक हिंदू होने से ज़्यादा इंसान होना ज़रूरी है. इस साल दीवाली पर मेरे घर में तो अंधेरा रहेगा, लेकिन मेरे मन का कोई कोना ज़रूर रोशन होगा.
(लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र पढ़ाती हैं)
(यह लेख मूल रूप से 3 अक्टूबर 2017 के टाइम्स ऑफ इंडिया अख़बार में प्रकाशित हुआ था)