कमेटी अगेंस्ट असॉल्ट ऑन जर्नलिस्ट्स की एक रिपोर्ट बताती है कि 2017 में यूपी में योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने से लेकर अब तक राज्य में 48 पत्रकारों पर शारीरिक हमले हुए, 66 के ख़िलाफ़ केस दर्ज या उनकी गिरफ़्तारी हुई. इस दौरान 78 फीसदी मामले वर्ष 2020 और 2021 में महामारी के दौरान दर्ज किए गए.
नई दिल्ली: उत्तर प्रदेश में 2017 में जब से योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार बनी है, तब से राज्य में अक्सर ही मीडिया के दमन और पत्रकारों पर हमलों संबंधी आरोप भी लगते रहे हैं.
अब इसी संबंध में एक रिपोर्ट सामने आई है जो पिछले पांच सालों में (2017 से अब तक) यूपी में मीडिया और प्रेस के दमन को आंकड़ों के माध्यम से बयां कर रही है.
कमेटी अगेंस्ट असॉल्ट ऑन जर्नलिस्ट्स (साज) की मीडिया की घेराबंदी’ शीर्षक वाली रिपोर्ट बताती है कि यूपी में 2017 से फरवरी 2022 के बीच पत्रकारों के उत्पीड़न के कुल 138 मामले दर्ज किए हैं.
उत्तर प्रदेश पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (यूपीसीएल) के सहयोग से तैयार की गई रिपोर्ट को लेकर साज का यह भी कहना है कि जो मामले ज़मीनी स्तर पर वेरिफाई हो सके हैं, रिपोर्ट में उन्हीं का विवरण दर्ज किया गया है, इसलिए यह मामले वास्तविक संख्या से काफी कम हो सकते हैं.
12 पत्रकारों की हत्या
रिपोर्ट को हमलों की प्रकृति के आधार पर चार श्रेणियों में बांटा गया है; हत्या, शारीरिक हमले, मुकदमे/गिरफ्तारी और हिरासत/धमकी/जासूसी.
कुल मामलों को श्रेणीवार विभाजित करें तो रिपोर्ट कहती है कि 2017 में यूपी में योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने से लेकर इस रिपोर्ट के प्रकाशन तक राज्य में कुल 12 पत्रकारों की हत्या हुई, 48 पर शारीरिक हमले हुए, 66 के खिलाफ मुकदमा दर्ज हुआ या उनकी गिरफ्तारी हुई और धमकी, हिरासत या जासूसी संबंधी 12 मामले सामने आए.
पांच साल के दौरान 78 फीसदी मामले (109) वर्ष 2020 (52) और 2021 (57) में कोरोना महामारी के दौरान दर्ज किए गए. सबसे ज्यादा सात पत्रकार 2020 में मारे गए.
जिस साल (2017 में) राज्य में भाजपा सरकार आई, दो पत्रकार मारे गए. कानपुर के बिल्हौर में हिंदुस्तान अखबार के नवीन गुप्ता और ग़ाज़ीपुर में दैनिक जागरण के प्रतिनिधि राजेश मिश्रा की गोली मारकर हत्या की गई.
रिपोर्ट के अनुसार, 2018 और 2019 में एक भी पत्रकार की हत्या नहीं हुई. 2020 में कुल सात पत्रकार मारे गए- राकेश सिंह, सूरज पांडे, उदय पासवान, रतन सिंह, विक्रम जोशी, फराज़ असलम और शुभम मणि त्रिपाठी.
राष्ट्रीय स्वरूप अखबार से जुड़े राकेश सिंह को बलरामपुर में उनके घर में ही आग लगाकर मार डाला गया था. आरोप है कि भ्रष्टाचार को उजागर करने के चलते उनकी जान ली गई.
वहीं, उन्नाव के शुभम मणि त्रिपाठी को रेत माफिया के खिलाफ लिखने के चलते धमकियां मिलीं तो उन्होंने पुलिस से सुरक्षा की गुहार लगाई, लेकिन उन्हें गोली मार दी गई.
इसी तरह गाजियाबाद में विक्रम जोशी को भी दिनदहाड़े गोली मारी गई. बलिया में टीवी पत्रकार रतन सिंह को भी गोली मारी गई. सोनभद्र के बरवाडीह गांव में उदय पासवान और उनकी पत्नी की दबंगों द्वारा पीट-पीट कर हत्या की गई.
उन्नाव में अंग्रेजी के पत्रकार सूरज पांडे की लाश रेल की पटरी पर संदिग्ध परिस्थितियों में मिली. पुलिस ने इसे खुदकुशी बताया, लेकिन परिवार ने हत्या बताते हुए एक महिला सब-इंस्पेक्टर और एक पुरुष कांस्टेबल पर आरोप लगाया, जिसके बाद उनकी गिरफ्तारी हुई.
कौशांबी में पैगाम-ए-दिल के संवाददाता फराज़ असलम की हत्या को लेकर आशंका जताई गई कि उनकी हत्या पुलिस मुखबिरी के शक में हुई है, क्योंकि असलम पत्रकार होने के साथ-साथ पुलिस मित्र भी थे.
2021 की बात करें तो इस दौरान राज्य में दो पत्रकारों की हत्या हुई. दोनों मामले चर्चित रहे.
प्रतापगढ़ में सुलभ श्रीवास्तव ने स्थानीय शराब माफिया के भ्रष्टाचार को उजागर किया था. उन्होंने अपनी हत्या से पहले अर्जी देकर आशंका जाहिर की थी कि शराब माफिया उन्हें मरवा सकता है.
पुलिस ने इस पर कार्रवाई करने के बजाय हत्या को सामान्य हादसा ठहरा दिया. इस मसले पर एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने बाकायदा एक बयान जारी करके यूपी पुलिस की कार्यशैली पर सवाल उठाया था.
दूसरी हत्या लखीमपुर खीरी में रमन कश्यप की थी, जिसका आरोप केंद्रीय मंत्री अजय मिश्र टेनी के बेटे आशीष मिश्रा के ऊपर है, जिसने अपनी गाड़ी से कथित रूप से प्रदर्शनरत किसानों को रौंद दिया था.
इस मामले में एक अखिल भारतीय जांच टीम जिसमें पीयूसीएल भी शामिल था, उसने निष्कर्ष दिया कि यह एक सुनियोजित षड्यंत्र के तहत की गई हत्या है.
वहीं, 2022 की बात करें तो इस साल की शुरुआत सहारनपुर में एक पत्रकार सुधीर सैनी की हत्या हुई है. उन्हें कथित तौर पर सरेराह दिनदहाड़े पीट-पीट कर मार डाला गया.
हालांकि, रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि कुल 12 पत्रकारों की हत्याओं का आंकड़ा सामने आया है, लेकिन ये कम हो सकता है, असल संख्या के अधिक होने की संभावना है.
पत्रकारों पर सबसे ज्यादा हमले राज्य और प्रशासन की ओर से
रिपोर्ट कहती है कि पत्रकारों पर सबसे ज्यादा हमले राज्य और प्रशासन की ओर से किए गए हैं. ये हमले कानूनी नोटिस, एफआईआर, गिरफ़्तारी, हिरासत, जासूसी, धमकी और हिंसा के रूप में सामने आए हैं.
वहीं, शारीरिक हमलों की बात करें तो सूची बहुत लंबी है. कम से कम 50 पत्रकारों पर पांच साल के दौरान शारीरिक हमला किया गया. इसमें जानलेवा हमले से लेकर हल्की-फुल्की झड़प भी शामिल हैं. हमलावरों में पुलिस से लेकर नेता और दबंग व सामान्य लोग शामिल हैं. ज्यादातर हमले रिपोर्टिंग के दौरान किए गए.
साज के यूपी प्रभारी विजय विनीत, जो वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन (यूपीडब्लूजेयू) के जिलाध्यक्ष थे, उन पर नवंबर 2019 में कातिलाना हमला हुआ था. हमलावर एक हिस्ट्रीशीटर है जो 110 बार पाबंद हो चुका था.
उसने विजय द्वारा अवैध कब्जे और आपराधिक हरकतों का विरोध करने पर मारपीट कर उनका हाथ तोड़ दिया था. विनीत दैनिक जागरण में रह चुके हैं और हमले के वक्त भाजपा विधायक भूपेश चौबे के मीडिया प्रभारी के रूप में काम कर रहे थे.
रिपोर्ट के मुताबिक, शारीरिक हमलों की संख्या 2020 में काफी बढ़ी और 2021 सबसे ज्यादा हमलों का गवाह रहा.
सबसे चर्चित दो मामले पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के सुरक्षाकर्मियों के साथ पत्रकारों की हुई धक्कामुक्की के रहे.
पहले मामले में दोनों पक्षों की ओर से एफआईआर दर्ज करवाई गई थी. इन हमलों में इकलौता मामला जो महिला पत्रकार से जुड़ा था, वह सितंबर 2021 का है जब लखनऊ में एक दलित महिला पत्रकार मुस्कान कुमारी को चाकू मारा गया था.
गंभीर हमलों में एक मामला सहारनपुर के एक पत्रकार देवेश त्यागी पर दिनदहाड़े सरेराह हमले का है, जिसका आरोप एक स्थानीय भाजपा नेता पर है. उक्त मामले में भाजपा नेता सहित कुल 11 लोगों के खिलाफ एफआइआर दर्ज की गई.
नवंबर 2020 मे सोनभद्र में मनोज कुमार सोनी पर हमला हुआ, जिसमें वे गंभीर रूप से घायल हुए. यह उन पर हुए दूसरा हमला था. इससे पहले 2018 में वे हमले का शिकार हो चुके थे.
दैनिक परफेक्ट मिशन में काम करने वाले मनोज के ऊपर 2020 में लोहे की रॉड से छह लोगों ने हमला किया था जिसमें उनकी कई हड्डियां टूट गईं. अगर पुलिस ने 2018 में उन पर हुए हमले के बाद कार्रवाई की होती तो यह नौबत नहीं आती.
रिपोर्ट के मुताबिक, 2021 में ज्यादातर मामले पुलिस उत्पीड़न से जुड़े हैं. 2022 में अब तक अमेठी, कौशांबी, कुंडा, सीतापुर, गाजियाबाद से पत्रकारों पर शारीरिक हमले के मामले सामने आए हैं.
प्रतिशोध में दर्ज किए गए मुक़दमे
रिपोर्ट कहती है कि 2020 और 2021 के साल खासकर कानूनी मुकदमों और नोटिसों के नाम रहे. यूपी का ऐसा कोई जिला नहीं बचा जहां पत्रकारों को खबर करने के बदले मुकदमा न झेलना पड़ा हो.
सामान्य चिकित्सीय लापरवाही की खबर से लेकर क्वारंटीन सेंटर के कुप्रबंधन और पीपीई किट की अनुपलब्धता जैसे मामूली मामलों पर भी सरकार की ओर से एफआईआर दर्ज की गईं.
मिड डे मील में नमक रोटी परोसे जाने, लॉकडाउन में मुसहर समुदाय के बच्चों के घास खाने से लेकर स्कूल में बच्चों से पोछा लगवाने जैसी खबरों पर बाकायदा प्रतिशोधात्मक रवैया अपनाते हुए मुकदमे दर्ज किए गए.
स्कूली बच्चों को घटिया भोजन परोसे जाने के मामले में पुलिस आंचलिक पत्रकार पवन जायसवाल के पीछे तब तक पड़ी रही, जब तक भारतीय प्रेस काउंसिल ने इस मामले का संज्ञान नहीं लिया.
योगी सरकार की ज्यादती यहीं नहीं रुकी. सरकार ने दैनिक जनसंदेश का विज्ञापन भी रोक दिया जहां यह खबर प्रकाशित हुई थी.
इस घटना के कुछ ही दिन बाद आज़मगढ़ जनपद के आंचलिक पत्रकार संतोष जायसवाल को 7 सितंबर 2019 को एक प्राथमिक विद्यालय में बच्चों से जबरदस्ती परिसर की सफाई कराए जाने का मामला उजागर करने पर गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया.
रिपोर्ट के मुताबिक, कोविड काल में लॉकडाउन के दौरान बिगड़े हुए हालात पर रिपोर्ट करने के कारण उत्तर प्रदेश में कम से कम 55 पत्रकारों और संपादकों के खिलाफ मामला दर्ज हुआ अथवा उन्हें गिरफ्तार किया गया.
इस दौरान केवल आंचलिक और क्षेत्रीय पत्रकारों को ही निशाना नहीं बनाया, बड़े पत्रकार भी लपेटे गए.
स्क्रोल डॉट इन की संपादक सुप्रिया शर्मा के खिलाफ वाराणसी जिला प्रशासन ने दबाव बनाकर एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) कानून 1989 और आइपीसी की विभिन्न धाराओं के तहत केस दर्ज कराया.
वाराणसी के रामनगर थाने में डोमरी गांव की माला देवी से शिकायत दर्ज करवाई गई कि सुप्रिया शर्मा ने अपनी रिपोर्ट में गलत तरीके से बताया है कि कोरोना वायरस के कारण लागू लॉकडाउन से आपातकालीन भोजन की व्यवस्था न होने चे चलते उनकी स्थिति और खराब हुई है.
सुप्रिया ने डोमरी गांव के लोगों की स्थिति की जानकारी दी थी और गांव वालों के हवाले से बताया था कि लॉकडाउन के दौरान किस तरह से उनकी स्थिति और बिगड़ गई है. डोमरी उन गांवों में से एक है जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सांसद आदर्श ग्राम योजना के तहत गोद लिया है.
लॉकडाउन में प्रशासनिक कुप्रबंधन को छुपाने के लिए न केवल मुकदमे किए गए बल्कि वरिष्ठ पत्रकारों के परिवारों को भी निशाना बनाया गया.
एक गंभीर मामला उरई से चलने वाले यंग भारत न्यूज पोर्टल के संपादक संजय श्रीवास्तव से जुड़ा है, जो 35 वर्ष तक बड़े अखबारों में ब्यूरो प्रमुख के पद पर रह चुके हैं. उन्होंने प्रशासन में काफी ऊपर तक अपने साथ हुए अन्याय की गुहार लगाई, लेकिन अब तक न्याय नहीं मिल सका.
रिपोर्ट में संजय श्रीवास्तव के एक पत्र का जिक्र है जिसमें उन्होंने बताया है कि कैसे स्थानीय कलेक्टर ने उनकी एक खबर को अपनी तौहीन मानकर दो दर्जन पुलिसकर्मियों को उनके घर भेज दिया, जिन्होंने उनके परिजनों के साथ मारपीट और लूटपाट की.
फतेहपुर में बिलकुल इसी तरह एक वरिष्ठ पत्रकार और जिला पत्रकार संघ के अध्यक्ष अजय भदौरिया के खिलाफ प्रशासन ने मुकदमा दर्ज कर लिया.
लॉकडाउन के दौरान गरीबों के लिए चलाई जाने वाली कम्युनिटी किचन बंद होने की खबर लिखने के लिए भदौरिया को आपराधिक षड्यंत्र रचने का आरोपी बना दिया. इस घटना से आक्रोशित होकर फतेहपुर के पत्रकार गंगा नदी में जल सत्याग्रह पर बैठ गए.
रिपोर्ट में बताया गया है कि बीबीसी और द हिंदू जैसे बड़े संस्थानों के पत्रकार भी यूपी सरकार की मुकदमेबाजी से बच नहीं सके.
वहीं, सिद्धार्थ वरदराजन, मृणाल पांडे, राणा अयूब, ज़फ़र आगा, सबा नक़वी, विनोद के. जोस, अनंत नाथ जैसे दिल्ली के पत्रकारों को भी योगी सरकार ने अलग-अलग बहानों से मुकदमों में फंसाने की कोशिश की.
रिपोर्ट कहती है कि द वायर को विशेष रूप से निशाना बनाया गया. भारत समाचार और दैनिक भास्कर पर छापे पड़वाए गए.
रिपोर्ट में कहा गया है कि अधिनियम और धारा 188 के तहत उत्तर प्रदेश में इतने पत्रकारों को पुलिस द्वारा नोटिस थमाया जा चुका है कि जिसकी गिनती करना आसान नहीं है.
कोविड के दौर में लगे दो लॉकडाउन के दौरान जिला और प्रखंड स्तर पर पत्रकारों पर हुए मुकदमों के सारे आंकड़े अब तक नहीं प्राप्त हो सके हैं. हमले की सभी श्रेणियों में पांच वर्ष के दौरान जो कुल 138 मामले इस रिपोर्ट में दर्ज हैं, वे वास्तविकता से काफी कम हैं.
इस रिपोर्ट को नीचे दिए गए लिंक पर पूरा पढ़ सकते हैं.
CAAJ Media Ki Gherabandi Report by The Wire on Scribd