आपातकाल की चर्चा तब तक पूरी नहीं होती जब तक स्वाधीनता संग्राम सेनानी और प्रसिद्ध समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण की चर्चा न की जाए.
जब राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) ने जंतर-मंतर पर धरना प्रदर्शन स्थायी रूप से बंद करने का आदेश दिया तो एक प्रसिद्ध इतिहासकार के मुंह से सहसा निकल पड़ा, ये है तरीका (चालाकी से) काम करने का. जब उन्हें सुझाया गया कि उधर सुप्रीम कोर्ट भी सोशल मीडिया को प्रतिबंधित करने के बारे में सुनवाई कर रहा है और लगता है कि यूपीए-2 के अंतिम दौर जैसी असंतोष की स्थिति आने वाली है तो उनका कहना था कि यह स्थिति 2011-12 जैसी नहीं, 1973 और 1974 जैसी है. इतना कह कर वे चुप हो गए और वहां बैठे लोगों के सामने आपातकाल की भयावह तस्वीर उपस्थित हो गई.
निश्चित तौर पर आज आपातकाल नहीं है और ऐसे ही किसी स्थिति को आपातकाल कह देने का मतलब है उन लोगों का अपमान करना जिन्होंने आपातकाल की यातना और दमघोंटू माहौल को भोगा था. इसके बावजूद जिस व्यापक तौर पर जेएनयू, दिल्ली और हैदराबाद विश्वविद्यालय में छात्रों-युवाओं और गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और कर्नाटक में किसानों, दलितों का असंतोष प्रकट हो रहा है, पत्रकारों और बौद्धिकों की हत्याएं हो रही हैं और विरोधियों पर दमनचक्र चल रहा है, नेतृत्वविहीन विपक्ष ध्वस्त है और मुख्यधारा का मीडिया सरकार का भोंपू बन गया है, ऐसे में स्थितियां उस ओर जाती हुई लगती हैं. लेकिन आपातकाल की चर्चा तब तक पूरी नहीं होती जब तक स्वाधीनता संग्राम सेनानी और प्रसिद्ध समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण की चर्चा न की जाए.
जेपी न होते तो शायद इंदिरा गांधी का वह रूप भी न दिखता और उन्हें रोकने वाला भी कोई नहीं था. अगर जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में युवाओं ने गुजरात और फिर बिहार में आंदोलन न किया होता और पहले बिहार के मुख्यमंत्री अब्दुल गफ्फूर से और बाद में सुप्रीम कोर्ट से चुनाव का मुकदमा हारने वाली प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से इस्तीफा न मांगा गया होता तो शायद इतना टकराव न होता और आपातकाल न लगा होता.
भ्रष्टाचार विरोध से शुरू उस आंदोलन को जेपी ने हिंसा से दूर ले जाकर अहिंसक बनाया और उसे महज सत्ता परिवर्तन की रणनीति के बजाय संपूर्ण क्रांति के सिद्धांत का बाना पहनाने का प्रयास किया. आपातकाल लगने के कारण वह आंदोलन लोकतंत्र वापसी का आंदोलन बनकर रह गया और बाद में विपक्षी दलों की एकता के साथ चुनाव जीतने और सरकार बनाने तक सिमट गया.
हालांकि जेपी के आंदोलन को दूसरी आजादी का आंदोलन कहा गया और उसी की वजह से मुख्यधारा की राजनीति से हाशिये पर जा चुके जेपी एकदम प्रासंगिक हो उठे. कांग्रेस का तंबू स्थायी रूप से उखड़ गया और समाजवादी, गांधीवादी, जनसंघी और कम्युनिस्टों समेत तमाम विपक्षी दलों को यह आत्मविश्वास आया कि वे भी केंद्र में सरकार बना सकते हैं.
उसी आंदोलन के बाद जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का देशव्यापी आधार बना और उसी पर सवार होकर उन्होंने पहले 1996 में और बाद में 2014 में दिल्ली की बागडोर अपने हाथ में ली.
जयप्रकाश नारायण पर यही आरोप भी है कि उन्होंने 1974 के आंदोलन से माध्यम से आरएसएस और जनसंघ को मुख्यधारा की राजनीति में वैधता दिलवाई और आज अगर देश पर हिंदूवाद का खतरा है तो उसकी जड़ में 1974 का वह आंदोलन और 1977 की सरकार में उनके नेताओं की भागीदारी है.
जयप्रकाश नारायण ने एक बार बयान भी दिया था ‘अगर संघ फासीवादी है तो वे भी फासीवादी हैं.’ उनका यह बयान हिंदुत्ववादियों के लिए लोकतांत्रिक प्रमाण पत्र बन गया है और वे इसका इस्तेमाल बार-बार करते हैं. जब भी उन पर किसी तरह की तानाशाही या नफरत फैलाने का आरोप लगता है तो वे कहने लगते हैं कि हमने तो आपातकाल के विरुद्ध लड़ाई लड़ी थी और हमें जेपी ने ऐसा प्रमाणपत्र दिया था.
यही कारण है कि जयप्रकाश के प्रति मार्क्सवादी बौद्धिक खेमों में आदर की कमी है और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के खेमे में उनके प्रति जो आदर है वह सतही है और भ्रम फैलाने के लिए है.
हालांकि संघ पर उनका प्रभाव 1980 तक दिखता है, जब जनता पार्टी से अलग होकर जनसंघ के लोग भारतीय जनता पार्टी का गठन करते हैं और ‘गांधीवादी समाजवाद’ को उसके दर्शन के रूप में स्वीकार करते हैं. लेकिन आज जब दीनदयाल उपाध्याय और गोलवलकर जैसे चिंतकों के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और एकात्म मानववाद जैसे विचारों पर व्यापक चर्चा चल रही है तब जयप्रकाश को सजावटी विचारक और राजनीतिज्ञ बनाने की मनसा स्पष्ट हो जाती है.
भाजपा आज जेपी को सिर्फ कांग्रेस पर हमला करने के लिए इस्तेमाल करना चाहती है और उसके लिए उनके किसी संघर्ष और विचार का कोई उपयोग नहीं है.
दूसरी तरफ स्वार्थ, परिवारवाद और विचारहीनता के कारण निस्तेज हो चुके समाजवादियों में यह क्षमता नहीं है कि वे जयप्रकाश की विरासत को पहचान सकें और न ही उनका कोई नेता इतना साहसी, निश्छल और विचारशील है कि उनकी जगह ले सके.
गांधीवादी आज भी उस स्थिति में नहीं हैं कि वे मठों से बाहर निकल कर नया कुछ कर सकें. गांधी से विनोबा तक की गांधीवादियों की जो यात्रा है उसके शिकार जयप्रकाश भी हुए और 1954 से 1972 तक विनोबा जी के मोहपाश में सर्वोदयी बन गए थे. उन्होंने अपना बहुमूल्य राजनीतिक जीवन सर्वोदय को समर्पित कर दिया था. बाद में उन्होंने इसे समय की बर्बादी माना.
जयप्रकाश नारायण की विरासत क्या है और भारतीय राष्ट्र और इस लोकतंत्र के निर्माण में उनका क्या योगदान है, यही वह विषय है जिसे आज के युवाओं और लोकतांत्रिक नागरिकों को समझाने की जरूरत है. उस विरासत की समझ बनने से सिर्फ सोशल मीडिया की क्रांति में उलझा और व्हाट्सएप विश्वविद्यालय में पंजीकृत युवक अपनी सही भूमिका पहचान सकता है और देश को बचाने और बनाने के काम को संभाल सकता है.
जयप्रकाश कौन थे, इसका एक ओजपूर्ण परिचय रामधारी सिंह दिनकर की उन पंक्तियों से मिलता है जो उन्होंने 1946 में जयप्रकाश नारायण के जेल से रिहा होने के बाद लिखी थी और पटना के गांधी मैदान में जेपी के स्वागत में उमड़ी लाखों लोगों के सामने पढ़ी थी.
कहते हैं उसको जयप्रकाश जो नहीं मरण से डरता है
ज्वाला को बुझते देख, कुंड में स्वयं कूद जो पड़ता है.
है जयप्रकाश वह जो न कभी सीमित रह सकता घेरे में
अपनी मशाल जो जला बांटता फिरता ज्योति अंधेरे में.हां जयप्रकाश है नाम समय की करवट का, अंगड़ाई का
भूचाल, बवंडर, के दावों से, भरी हुई तरुणाई का
है जयप्रकाश वह नाम जिसे इतिहास समादार देता है
बढ़कर जिनके पदचिह्नों को उर पर अंकित कर लेता है.
सन 1946 की यह कविता रची जाने से पहले जयप्रकाश नारायण की युवा अवस्था बेहद तूफानी रही है. अमेरिका में मजदूरी करके वहां के कई विश्वविद्यालयों में बी.ए. और उसके बाद समाजशास्त्र में एम.ए. करने के बाद वे पीएचडी की तैयारी कर रहे थे तभी मां की बीमारी के कारण स्वदेश वापस लौटना पड़ा.
पत्नी प्रभावती गांधी जी के साबरमती आश्रम में रहते हुए उनके प्रभावों में ब्रह्मचर्य का व्रत ले चुकी थीं. वे सामान्य दांपत्य जीवन जीने के जेपी के प्रस्तावों को स्वीकार करने को तैयार नहीं हुईं और उसमें गांधी जी ने हस्तक्षेप करते हुए उन्हें दूसरा विवाह करने की सलाह दे डाली. जेपी ने गांधी के उस तर्क को ‘रूथलेस लाजिक’ कहा.
गांधी और जेपी के इस बिगड़ते संबंधों पर प्रभावती भावुक हो गईं और उन्होंने गांधी को जेपी को और आहत न करने की सलाह दी. इस हस्तक्षेप से जेपी और गांधी के संबंध अच्छे होते हैं लेकिन उनके बीच हिंसा और अहिंसा के मुद्दे पर मतभेद कायम रहते हैं.
जेपी और उनकी पत्नी के बीच उस समय भी गांधी के साधन की पवित्रता आड़े आती है जब देवली कैंप जेल में मिलने गईं प्रभावती को जेपी अपने भूमिगत साथियों के नाम पत्र देते हैं और वे लेने से इनकार कर देती हैं. उस पर जेपी को जेलर की कड़ी फटकार लगती है.
जेपी अमेरिका से मार्क्सवादी बनकर लौटे थे. वे गांधी के अहिंसक सिद्धांत में पूरा यकीन नहीं करते थे. उन्होंने गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की छतरी स्वीकार तो की लेकिन भूमिगत आंदोलन, छापामार युद्ध और वर्ग संघर्ष के सिद्धांत में विश्वास नहीं छोड़ा.
उन्होंने आचार्य नरेंद्र देव, डॉ. राम मनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन, यूसुफ मेहरअली, मीनू मसानी, एसएम जोशी और कई दूसरे नेताओं के साथ मिलकर 1934 में पटना में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की गठन किया.
जयप्रकाश नारायण ने ‘व्हाई सोशलिज्म'(समाजवाद क्यों) नाम से जो पुस्तक लिखी उसे पढ़कर ईएमएस नंबूदिरीपाद कम्युनिस्ट बने. जेपी के समाजवाद के ज्ञान पर गांधीजी ने स्वयं लिखा है कि जयप्रकाश कोई साधारण कार्यकर्ता नहीं हैं. वे समाजवाद के आचार्य हैं और भारत में समाजवाद के बारे में उनसे ज्यादा कोई नहीं जानता.
जयप्रकाश नारायण की विरासत प्रेरणादायक इसलिए है क्योंकि वह सत्ता से दूर सतत संघर्ष की है और मानवीय स्वाधीनता के समाजवादी मूल्यों पर आधारित नया समाज रचने की है. वे दक्षिणपंथी और वामपंथी कटघरे से दूर अपनी राह खुद बनाने वाले लोकनायक हैं और उनका मूल्यांकन भी उसी व्यापक फलक पर होना चाहिए.
उन्हें यकीन था कि वे वामपंथियों और दक्षिणपंथियों का समवेत हृदय परिवर्तन करके उन्हें क्रांतिकारी बना सकते हैं. जयप्रकाश के प्रयोगों में दोष हैं और विफलताएं भी हैं लेकिन भारतीय मानस में वे अपनी लोकप्रिय उपस्थिति दर्ज करा सके तो इसकी वजह यही है कि उन्होंने सारे संघर्ष किसी स्वार्थ के लिए नहीं परमार्थ के लिए किए. वे निश्छल थे और सामने वाले पर सहज विश्वास भी कर लेते थे.
अगर भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान 1942 में चालीस साल की उम्र में गिरफ्तार होकर और फिर हजारीबाग जेल से दीवाली की रात 8 नवंबर, 1942 को भागकर उन्होंने अंग्रेज सरकार की नींद हराम कर दी थी तो 1974 में तिहत्तर साल की उम्र में जेल की यातना झेल कर अधिनायकवाद की ओर जा रहे भारतीय लोकतंत्र की आत्मा को जगा दिया था.
वे भारतीय लोकतंत्र की आत्मा की आवाज थे. इसीलिए 1974 में वे भारतीय लोकतंत्र के सन्नाटे में सत्य की आवाज के रूप में जिस तरह प्रकट होते हैं उसका वर्णन करते हुए धर्मवीर भारती प्रसिद्ध कविता ‘मुनादी’ में लिखते हैं-
खलक खुदा का, मुलुक बाश्शा का
हुकुम शहर कोतवाल का…
हर खासोआम को आगाह किया जाता है
खबरदार रहें
और अपने-अपने किवाड़ों को अंदर से
कुंडी चढ़ाकर बंद कर लें
गिरा लें खिड़कियों के पर्दे
और बच्चों को बाहर सड़क पर न भेजें
क्योंकि एक बहत्तर साल का बूढ़ा आदमी
अपनी कांपती कमजोर आवाज में
सड़कों पर सच बोलता हुआ निकल पड़ा है.
आज ‘पोस्ट ट्रुथ’ के इस दौर में जयप्रकाश नारायण की विरासत के पुनर्मूल्यांकन की जरूरत है और वह काम सिर्फ 1974 के उस आंदोलन के आधार पर नहीं किया जा सकता जिसमें सीपीएम से आंदोलन में शामिल होने के बार-बार आग्रह के बावजूद वे जनसंघ और आरएसएस के लोगों से घिर गए.
माकपा वाले कहते थे कि पहले संघ वालों को आंदोलन से बाहर करो, तब हम आएंगे और जेपी कहते थे, आप आइए साथ वे अपने आप बाहर हो जाएंगे. सन बयालीस की तरह माकपा की 74 की यह झिझक भी भारतीय इतिहास पर भारी पड़ती है. जेपी को इस बात का अफसोस था कि उनके साथ न तो संगठित रूप से समाजवादी आए और न ही गांधीवादी.
समाजवादी बिखर चुके थे और गांधीवादी लोग किसी हद तक विनोबा जी के प्रभाव में थे. इसकी कमी पूरी करने के लिए उन्होंने छात्र युवा संघर्ष वाहिनी नामक संगठन बनाया और उसके माध्यम से परिवर्तन का नैतिक और क्रांतिकारी लक्ष्य रखा. वे लोकतंत्र को एक चुनाव से दूसरे चुनाव का कारोबार बनाने से अलग गैर दलीय लोकतंत्र और नैतिकता पर आधारित समाज की ओर ले जाना चाहते थे.
उन्होंने सारे विपक्षी दलों को मिलाकर जनता पार्टी का गठन किया तो उसमें शामिल होने वालों से शपथ पत्र भरवाया कि वे आरएसएस को छोड़कर उसमे शामिल होंगे. सतहत्तर में तो खैर वे बूढ़े और बीमार हो चले थे लेकिन 1964 में उनके सामने प्रधानमंत्री बनने का भी प्रस्ताव था.
इस बात को जेपी ने अपनी चंडीगढ़ अस्पताल में लिखी कविता में संकेत दिया है और प्रसिद्ध पत्रकार अजित भट्टाचार्जी ने उनकी जीवनी में लिखा है कि नेहरू ने अपने अंतिम दिनों में लाल बहादुर शास्त्री के माध्यम से यह प्रस्ताव भिजवाया था जिसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया था.
आज जेपी की विरासत की याद जातिगत और आर्थिक विषमता की तनावपूर्ण खाई को कम करने के लिए तो जरूरी है ही, उससे भी ज्यादा जरूरी है लोकतंत्र पर बढ़ते खतरे को विफल करने के लिए. यह विरासत देश के लोकतंत्र की रक्षा हेतु विपक्षी एकता के लिए तो आवश्यक है ही अन्याय और झूठ के विरुद्ध युवाओं के अहिंसक प्रतिरोध के लिए भी जरूरी है.
जेपी पीयूसीएल जैसे मानवाधिकार संगठन के संस्थापक थे, वे नगा विद्रोहियों को मुख्यधारा में लाने के लिए प्रयत्नशील थे. वे कश्मीर समस्या के हल के लिए लगन से लगे थे. उनकी विरासत यह बताती है कि स्वतंत्रता, समता, बंधुत्व जैसे मानवीय मूल्यों के लिए कब और किससे लड़ना जरूरी है. इसीलिए उनके बारे में दिनकर ने कहा है कि ‘अब जयप्रकाश है नाम देश की आतुर हठी जवानी का’.