मणिपुर चुनाव: राज्य के इतिहास में पहली बार जीतीं पांच महिला प्रत्याशी

भाजपा की उम्मीदवार नेमचा किपगेन ने एक बार फिर कांगपोकपी निर्वाचन क्षेत्र से जीत दर्ज की. इसके अलावा चार अन्य महिलाओं ने जीत दर्ज की, जिनमें चंदेल से एसएस ओलीश (भाजपा), सैकुल से किमनेओ हाओकिप हांगसिंह (कुकी पीपुल्स अलायंस), ओइनम से इरेंगबाम नलिनी देवी (नेशनल पीपुल्स पार्टी) और नौरिया पखांगलाक्पा से सगोलशेम केबी देवी (भाजपा) शामिल हैं.

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भाजपा के नेमचा किपगेन (फोटो साभारः फेसबुक)

भाजपा की उम्मीदवार नेमचा किपगेन ने एक बार फिर कांगपोकपी निर्वाचन क्षेत्र से जीत दर्ज की. इसके अलावा चार अन्य महिलाओं ने जीत दर्ज की, जिनमें चंदेल से एसएस ओलीश (भाजपा), सैकुल से किमनेओ हाओकिप हांगसिंह (कुकी पीपुल्स अलायंस), ओइनम से इरेंगबाम नलिनी देवी (नेशनल पीपुल्स पार्टी) और नौरिया पखांगलाक्पा से सगोलशेम केबी देवी (भाजपा) शामिल हैं.

भाजपा की नेमचा किपगेन. (फोटो साभारः फेसबुक)

नई दिल्लीः मणिपुर में दो चरणों में हुए विधानसभा चुनाव में महिलाओं की राजनीति में भागीदारी और चुनाव में उनकी जीत के मामले में एक नया इतिहास लिखा गया है.

मणिपुर विधानसभा चुनाव में इस बार पांच महिलाओं ने जीत दर्ज की है, जो राज्य की राजनीति के इतिहास में पहली बार हुआ है.

राज्य में 2017 में हुए चुनाव के बाद 60 सदस्यीय विधानसभा में सिर्फ दो महिला विधायक थीं. इनमें से एक नेमचा किपगेन कांगपोकपी निर्वाचन क्षेत्र से भाजपा की टिकट पर चुनाव जीती थीं जबकि कांग्रेस विधायक अकोइजम मीराबाई देवी ने पटसोई से जीत दर्ज की थी.

किपगेन 2017 में एन. बीरेन सिंह की अगुवाई वाली सरकार में एकमात्र महिला मंत्री थीं.

2017 विधानसभा चुनाव की बात करें, तो इन चुनावों में इरोम शर्मिला को थौबल निर्वाचन क्षेत्र से हार का सामना करना पड़ा था. सशस्त्रबल (विशेष शक्तियां) अधिनियम को हटाए जाने की मांग के साथ लंबे समय तक अनशन कर चुकीं इरोम शर्मिला को 2017 विधानसभा चुनाव में 100 वोट भी नहीं मिले थे.

2022 विधानसभा चुनाव में मीराबाई देवी को पटसोई सीट पर भाजपा के प्रतिद्वंद्वी से हार का सामना करना पड़ा जबकि किपगेन कांगपोकपी से एक बार फिर जीत दर्ज करने में कामयाब रहीं.

उनके अलावा चार अन्य महिलाओं ने जीत दर्ज की, जिनमें चंदेल से एसएस ओलीश (भाजपा), सैकुल से किमनेओ हाओकिप हांगसिंह (कुकी पीपुल्स अलायंस), ओइनम से इरेंगबाम नलिनी देवी (नेशनल पीपुल्स पार्टी) और नौरिया पखांगलाक्पा से सगोलशेम केबी देवी (भाजपा) शामिल हैं.

इनमें से पहली बार जीत दर्ज करने वाली दो महिलाएं राज्य के आदिवासी समुदाय से हैं जबकि दो अन्य (पहली बार जीतने वाली) बहुसंख्यक मेईतेई समुदाय से ताल्लुक रखती हैं.

कुल मिलाकर राज्य की 12वीं विधानसभा में पांच महिलाएं होंगी, जिनमें से तीन पहाड़ी क्षेत्रों से जबकि दो घाटी इलाकों से हैं.

मणिपुर विधानसभा में लैंगिक प्रतिनिधित्व के संबंध में इस उल्लेखनीय बदलाव के बारे में पूछने पर इम्फाल के वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक टिप्पणीकार लाबा याम्बेम ने द वायर  को बताया, ‘इन चुनावी जीत के पीछ कई कारण हो सकते हैं, जिनमें से एक उम्मीदवार का जनता का विश्वास जीतने की क्षमता के साथ उनका समर्थन हासिल करना है लेकिन सामान्य तौर पर हम कह सकते हैं कि आदिवासी और नगा उम्मीदवारों की तुलना में कुकी समुदाय के पास कहीं अधिक समतावादी मूल्य हैं, जिस वजह से कुकी समुदाय की कुछ महिलाओं को जीत मिली है.’

यह बताते हुए कि नगालैंड विधानसभा में अभी तक नगाओं ने किसी महिला विधायक का चुनाव नहीं किया है, उन्होंने कहा, ‘हमने जो सुना है, वह यह है कि जीत दर्ज करने वाली भाजपा की उम्मीदवार ओलिशा (नगा) को आशीर्वाद लेने के लिए नगालैंड में एनएससीएन (आई-एम) के मुख्यालय जाकर पार्टी प्रमुख टी. मुइवाह से मुलाकात करनी पड़ी थी. मुइवाह ने उन्हें आशीर्वाद दिया, जिससे उन्हें चुनाव में जीत मिली.’

हालांकि, मणिपुर विधानसभा पहुंचनी वाली पहली महिला विधायक तंगखुल नगा हनागमिला शाइजा थी, जिन्होंने 1990 में उखरुल निर्वाचन क्षेत्र से जीत दर्ज की थी. वे राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री यांगमासो शाइजा (1923-1984) की पत्नी थीं.

2017 के विधानसभा चुनाव से तुलना करें तो राजनीतिक दलों ने 2022 के चुनाव में महिला उम्मीदवारों की संख्या में मामूली वृद्धि की है.
2017 चुनाव में यह संख्या 11 थी जबकि इस बार 17 महिलाएं चुनावी मैदान में थीं.

हालांकि, अगर राजनीतिक दलों के कुल उम्मीदवारों और निर्दलीय उम्मीदवारों का अनुपात देखा जाए तो इसमें अंतर है. इस बार नामांकन पत्र दाखिल करने वाले कुल 265 उम्मीदवारों में से सिर्फ 17 महिलाएं थीं, जो कुल संख्या का महज 6.42 फीसदी है.

चुनाव में महिला उम्मीदवारों को टिकट देकर कांग्रेस शीर्ष पर रही जबकि भाजपा-एनपीपी ने तीन-तीन महिलाओं को टिकट दिए.

नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी ने दो महिलाओं को टिकट दिए जबकि जनता दल (यूनाइटेड), माकपा और कुकी पीपुल्स अलायंस ने एक-एक महिला उम्मीदवार को टिकट दिया था. दो महिलाओं ने निर्दलीय के तौर पर चुनाव लड़ा था.

महिला मतदाताओं की संख्या भी राज्य में कम है. राज्य में 9,90,833 पुरुष मतदाता जबकि 10,57,336 महिला मतदाता हैं.

विधानसभा में निर्वाचित महिला सदस्यों की संख्या अब बढ़ गई है. इस तरह अब महिलाओं को पहले की तुलना में अब अधिक गंभीर राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी के तौर पर देखा जाता है.

पत्रकार निंगुल हंगल ने सहमति जताई कि राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी के रूप में महिलाओं की स्वीकार्यता, विशेष रूप से आदिवासी इलाकों में बढ़ रही है.

उन्होंने कहा, ‘राज्य के आदिवासी पहाड़ी इलाकों से अब अधिक से अधिक महिलाएं राजनीतिक कार्यों या राजनीतिक दल से जुड़ी गतिविधियों में खुद को शामिल करती देखी जा सकती हैं. इस बार राजनीतिक दलों द्वारा महिलाओं को अधिक संख्या में टिकट दिए जाने से भी फर्क पड़ा है. इससे पता चला है कि राजनीतिक दलों द्वारा अब महिलाओं को अधिक गंभीरता से लिया जा रहा है. यह कहूं कि यह जीतने की संभावना, पार्टी या जनता को यह दिखाने कि वे भी चुनाव जीत सकती हैं, इस पर भी निर्भर करता है.’

उन्होंने यह भी बताया कि 10 मार्च को चुनावी नतीजे के ऐलान के बाद जैसे ही उन्होंने सोशल मीडिया पर यह पोस्ट किया कि आदिवासी समूहों से तीन महिला उम्मीदवारों ने जीतकर इतिहास रचा है, उन्होंने देखा कि उनकी पोस्ट पर कई लोगों ने इन महिलाओं के बारे में आपत्तिजनक टिप्पणियां की थीं.

वह बताती हैं, ‘इस तरह की टिप्पणियां आ रही थीं कि वे कठपुतलियां होंगी, उनकी जीत के पीछे कुछ विद्रोही समूह रहे होंगे या फिर इनका कुछ शक्तिशाली नेताओं के साथ कथित तौर पर कोई संबंध होगा या फिर ये महिलाएं किसी रसूखदार शख्स की पत्नियां होंगी. मैं यहां कहना चाहूंगी कि इन टिप्पणियों को सार्वजनिक तौर पर इसलिए कहा गया क्योंकि जीतने वाली उम्मीदवार महिलाएं थीं. किसी भी पुरुष उम्मीदवार की जीत पर इस तरह सार्वजनिक तौर पर विद्रोही समूहों से समर्थन मिलने का आरोप नहीं लगाया जाएगा.’

उन्होंने बताया, ‘चुनाव से पहले एक आदिवासी महिला उम्मीदवार के बारे में कुछ जेंडर आधारित चुटकुले फॉरवर्ड किए जा रहे थे कि उन्हें चुनाव लड़ने के बजाय किसी सौंदर्य प्रतियोगिता में हिस्सा लेना चाहिए.’

वहीं, मणिपुर चुनाव 2022 हारने वाली एक अन्य महिला उम्मीदवार टी. बृंदा रहीं. राज्य में ड्रग्स के खिलाफ सफल अभियान चलाने वाली और ड्रग्स डीलर्स को संरक्षण देने के लिए मुख्यमंत्री तक पर आरोप लगाने वाली बृंदा ने जनता दल (यूनाइटेड) के टिकट पर यास्कुल निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ा था.

थोउनाओजम बृंदा.

उन्हें एनपीपी और भाजपा के उम्मीदवारों के साथ त्रिकोणीय मुकाबले में 4,574 वोट मिले. इस सीट से भाजपा के उम्मीदवार सत्यब्रत सिंह ने जीत दर्ज की.

लाबा याम्बेम ने कहा, ‘उन्होंने (बृंदा) कड़ी टक्कर दी, वह अच्छे खासे वोटों के साथ तीसरे स्थान पर रहीं. पहली बार चुनाव लड़ने वाले किसी महिला उम्मीदवार के लिए यह प्रभावशाली है. मैं ऐसा इसलिए नहीं कह रही हूं कि वह मेरी भतीजी हैं बल्किन सामान्य तौर पर मणिपुर की राजनीति में वह उम्मीदवार के तौर पर एक नई समझ लेकर आई हैं, उन्होंने नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के बारे में बात की, लोगों से मुद्दों और सरकार की नीतियों पर वोट देने को कहा. उन्हें बिना धन और बाहुबल से इतने वोट मिले. मैं कहूंगी कि वह लड़ाई हार गई है लेकिन युद्ध नहीं हारी है. अगर मैं उन्हें जानती हूं तो वह यह लड़ाई जारी रखेगी.’

याम्बेम ने कहा, ‘उसे (बृंदा) अपने प्रभुत्वशाली ससुर (यूनाइटेड नेशनल लिबरेशन फ्रंट के पूर्व प्रमुख आरके मेघन) से समर्थन नहीं मिला, यह भी उनकी हार का एक कारण रहा.’

बता दें कि ऐसी खबरे थी कि बृंदा के ससुर ने उन्हें चुनाव न लड़ने को कहा था. राजनीतिक गलियारों में यह अफवाह थी कि भाजपा की ओर से उन पर ऐसा दबाव बनाया जा रहा था लेकिन बात नहीं मानने पर बृंदा को मेघन के घर से निकाल दिया गया था.

निंगुल ने कहा, ‘यह सच है कि बृंदा जैसी फायरब्रांड उम्मीदवार पर चुनावों में बहू जैसा टैग लगा था. उनकी यह छवि उनकी अन्य पहचान से अधिक महत्वपूर्ण हो गई, यहां तक कि उनकी सुपर कॉप की पहचान भी उसके आगे धूमिल पड़ गई. यकीनन, किसी चुनाव में अन्य कारक भी होते हैं, जैसे सही पार्टी का चुनाव करना, चुनाव प्रचार के लिए संसाधन, जीतने की रणनीति, वोटों की गणना आदि. बृंदा के मामले में वह राजनीतिक कार्यकर्ता नहीं हैं, उनका चुनावी राजनीति का कोई अनुभव नहीं है और उनके परिवार का कोई भी सदस्य सक्रिय राजनीति में नहीं है, ये सभी कारक यकीनन उनकी हार के लिए जिम्मेदार रहे होंगे.’

उन्होंने कहा, ‘आमतौर पर मैंने जो देखा है, वह यह है कि हमारे समाज के अधिकतर मतदाता भी राजनीति को अच्छी नजर से नहीं देखते और जब महिलाएं राजनीति में शामिल होती हैं तो उसे सहजता से मंजूरी नहीं दी जाती. देखिए, इरोम शर्मिला के मामले में क्या हुआ. गंदी राजनीति से जुड़ने को अक्सर मर्दों का काम माना जाता है. समाज मानता है कि महिलाओं को सिर्फ अच्छे कामों से ही जुड़ना चाहिए. उन्हें एक फाइटर, समाज के लिए बलिदान करने वाला और राजनीति के क्षेत्र के बाहर से ही नेताओं का मुकाबाल करने वाला माना जाता है.’

(इस रिपोर्ट को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

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