केंद्र सरकार द्वारा राष्ट्रीय ओवरसीज़ छात्रवृत्ति के दिशानिर्देशों में हाल ही में किए गए बदलावों पर असहमति जताई जा रही है. नए दिशानिर्देशों में वंचित या हाशिये के समुदायों के उन छात्रों को बाहर रखा गया है, जो विदेशों में जाकर भारतीय संस्कृति, विरासत, इतिहास और सामाजिक विज्ञान जैसे विषयों पर विदेशों में जाकर अध्ययन या शोध करना चाहते हैं.
नई दिल्ली: 20 से अधिक अंतरराष्ट्रीय शैक्षणिक संघों, शोध केंद्रों, भारतीय प्रवासी संगठनों और दुनियाभर के 350 शिक्षाविदों ने केंद्र सरकार द्वारा राष्ट्रीय ओवरसीज छात्रवृत्ति (एनओएस) दिशानिर्देशों में हाल ही में किए गए बदलावों पर असहमति जताई है.
एनओएस में इस नए पॉलिसी क्लॉज से वंचित (हाशिये) समुदायों के उन छात्रों को बाहर रखा गया है, जो विदेशों में जाकर भारतीय संस्कृति, विरासत, इतिहास और सामाजिक विज्ञान जैसे विषयों पर विदेशों में जाकर अध्ययन या शोध करना चाहते हैं.
केंद्र सरकार के इस कदम को शैक्षणिक क्षेत्र के लिए प्रतिगामी (पीछे ले जाने वाला) बताते हुए इन संगठनों और विद्वानों ने केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं आधिकारिता मंत्री वीरेंद्र कुमार को खुला पत्र लिखकर इन नए बदलावों को तुरंत वापस लिए जाने की मांग की है.
पत्र में कहा गया है, ‘यह शैक्षणिक आदान-प्रदान के लिए प्रतिगामी कदम है. यह सरकारी छात्रवृत्ति पर विदेश में पढ़ने वाले छात्रों की अकादमिक स्वतंत्रता पर गलत तरीके से लगाया गया प्रतिबंध है. इसके साथ ही अंतरराष्ट्रीय छात्रवृत्ति को सीमित करने का अनुचित प्रयास है.’
इस पत्र में यह भी तर्क दिया गया कि संशोधन से इस समझ की कमी का पता चलता है कि समकालीन समय में बहुविषयक शोध कैसे किया जाता है, जहां छात्रवृत्ति को किसी देश की सीमाओं तक सीमित नहीं किया जा सकता.
इस पत्र पर हस्ताक्षर करने वालों ने कहा कि महिला आवेदकों का पहले से ही वैज्ञानिक और तकनीकी विषयों में कम प्रतिनिधित्व होता है, इसलिए इस नीतिगत बदलाव से महिलाएं सर्वाधिक प्रभावित होंगी. उन्हें सामाजिक विज्ञान और ह्यूमैनिटीज में शोध के लिए योग्यता से वंचित रखा जाएगा.
इस पत्र पर हस्ताक्षर करने वालों में अमेरिकी एंथ्रोपोलॉजिकल एसोसिएशन, अमेरिकी सोशियोलॉजिकल एसोसिएशन, एडिनबर्ग यूनिवर्सिटी का सेंटर फॉर साउथ एशियन स्टडीज, जर्मनी की गॉटिंगेन यूनिवर्सिटी का सेंटर फॉर मॉर्डन इंडियन स्टडीज, आयरलैंड एवं स्कॉटलैंड के शैक्षणिक संघ और लगभग 20 सिविल सोसाइटी डायसपोरा और राष्ट्रीय संगठन शामिल हैं.
इसके साथ ही डेविड हार्डिमन, बारबरा हैरिस व्हाइट, पॉल इसेनबर्ग, जेन्स लेर्चे जैसे अंतरराष्ट्रीय विद्वानों और दुनियाभर के विश्वविद्यालयों में भारतीय शिक्षाविदों ने भी इस पत्र पर हस्ताक्षर किए.
पत्र के मुताबिक, नेशनल ओवरसीज स्कॉलरशिप की स्थापना 1954-55 में जाति व्यवस्था द्वारा लागू किए गए शोषण और बहिष्कार के खिलाफ एक सुधारात्मक न्याय उपाय के रूप में की गई थी, जो कि भारतीय उप-महाद्वीप में और सदियों से अस्तित्व में है. जब पहली बार इसे शुरू किया तो छात्रवृत्ति ने केवल प्राकृतिक विज्ञान को कवर किया गया, लेकिन 2012 में एक महत्वपूर्ण नीति परिवर्तन ने इस अन्य शैक्षणिक माध्यमों के छात्रों के लिए इस छात्रवृत्ति के द्वार खोल दिए गए.
इसके अनुसार, इस योजना ने भारत पर अध्ययन का अंतरराष्ट्रीयकरण करने में मदद की, क्योंकि विद्वान संस्कृतियों और इतिहास में नए संबंध बना सकते थे, जो पहले दिखाई नहीं दे रहे थे. इसने न केवल भारत के बारे में विद्वता को समृद्ध किया, बल्कि यहां सीखे गए पाठों को कहीं और लागू किया जा सकता है और इस प्रकार सामाजिक विज्ञान, कला और मानविकी को अधिक व्यापक रूप से आगे बढ़ाया जा सकता है.
पत्र में कहा गया है, यह तर्क कि भारत का अध्ययन करने के लिए विदेश जाने की आवश्यकता नहीं है, बौद्धिक रूप से त्रुटिपूर्ण है और यह केवल भारतीय छात्रवृत्ति को शेष विश्व से अलग करने का काम करेगा. दुनिया भर के विश्वविद्यालयों में दक्षिण एशिया पर फलते-फूलते विभाग और अनुसंधान केंद्र हैं और यह महत्वपूर्ण है कि भारत में हाशिये की पृष्ठभूमि के विद्वान और शोधकर्ता इन अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क और अनुसंधान केंद्रों में योगदान दें और इसमें भाग लें. वास्तव में भारत की संस्कृतियों और परंपराओं का सारा ज्ञान उन लोगों के दृष्टिकोण का ऋणी है, जो भारत के ऐतिहासिक रूप से उत्पीड़ित समुदायों से संबंधित हैं.
(इस रिपोर्ट को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)