महिलाएं पितृसत्तात्मक मानसिकता के अधीन हैं, जो उन्हें देखभाल करने वाली, गृहिणी मानती है: कोर्ट

शीर्ष अदालत ने कहा कि सरकार को वास्तविक समानता हासिल करने का सही उद्देश्य कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ होने वाले लगातार भेदभाव के पैटर्न को पहचानकर पूरा करना चाहिए.

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(इलस्ट्रेशन: द वायर/पीटीआई)

शीर्ष अदालत ने कहा कि सरकार को वास्तविक समानता हासिल करने का सही उद्देश्य कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ होने वाले लगातार भेदभाव के पैटर्न को पहचानकर पूरा करना चाहिए.

(इलस्ट्रेशन: द वायर/पीटीआई)

नई दिल्ली: उच्चतम न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) ने कहा है कि महिलाएं पितृसत्तात्मक मानसिकता के अधीन हैं, जो उन्हें प्राथमिक देखभाल करने वाली एवं गृहिणी के रूप में देखती है और इस तरह उन पर पारिवारिक जिम्मेदारियों का एक असमान दायित्व है.

शीर्ष अदालत ने कहा कि सरकार को वास्तविक समानता हासिल करने का सही उद्देश्य कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ होने वाले लगातार भेदभाव के पैटर्न को पहचानकर पूरा करना चाहिए.

न्यायालय ने उल्लेख किया कि पति-पत्नी की पोस्टिंग के लिए जो प्रावधान किया गया है, वह मूल रूप से महिलाओं के लिए विशेष प्रावधानों को अपनाने की आवश्यकता पर आधारित है, जिन्हें संविधान के अनुच्छेद 15 (3) द्वारा मान्यता प्राप्त है.

बीते 10 मार्च को जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस विक्रम नाथ की पीठ ने कहा, ‘सरकार को नीति बनाकर विशेष प्रावधान अपनाने चाहिए, जिन्हें संवैधानिक मूल्यों और प्रशासनिक जरूरतों के बीच तालमेल बैठाकर अमल में लाना चाहिए.’

पीठ ने कहा, ‘राज्य अपनी दोनों भूमिकाएं, एक आदर्श नियोक्ता और नियम बनाने वाली संस्था, निभाते हुए संवैधानिक मानदंडों के अधीन वास्तविक समानता के मूलभूत अधिकारों को ध्यान में रखे.’

पीठ ने केरल उच्च न्यायालय के उस आदेश की पुष्टि की, जिसमें इंंटर कमिश्नरेट ट्रांसफर (आईसीटी) को वापस लेने वाले एक परिपत्र की वैधता को बरकरार रखा गया था. उसमें कहा गया था कि केंद्रीय उत्पाद और सीमा शुल्क आयुक्तालय निरीक्षक के समूह ‘बी’ पदों की भर्ती नियम 2016 में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है.

पीठ ने कहा, ‘महिलाएं पितृसत्तात्मक मानसिकता के अधीन हैं, जो उन्हें देखभाल करने वाली और गृहिणी के रूप में देखती है और इस प्रकार, वे पारिवारिक जिम्मेदारियों के असमान बोझ तले दब जाती हैं.’

पीठ ने कहा कि इस कोर्ट ने कार्यस्थल पर लिंग के कारण व्यवस्थागत भेदभाव के बारे में पहले भी बात की है, जो पितृसत्तात्मक ढांचे में समाहित है. जिसमें महिलाओं से जुड़े हर पहलू, जैसे- प्रजनन, सैक्सुअलिटी और निजी पसंद, एक अन्यायपूर्ण ढांचे के अंदर व्याप्त हैं.

पीठ ने कहा कि कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) द्वारा समय-समय पर जारी किए गए कार्यालयीन ज्ञापनों (ओएम) में दर्ज है कि राज्य के कार्यस्थलों में महिलाओं को समानता और समान अवसर प्रदान करने के लिए सरकार के लिए जरूरी है कि वह ऐसी नीति बनाए जो अवसरों में वास्तविक समानता प्रदान करती हों, न कि औपचारिकता निभाती हों.

जस्टिस चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ के 2021 के एक आदेश का हवाला देते हुए कोर्ट ने कहा कि इस अदालत का इस बात पर जोर है कि प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार का भेदभाव संविधान के अनुच्छेद 14,15 और 16 के तहत वास्तविक समानता की धारणा के विपरीत है.

पीठ ने कहा कि न्यायिक समीक्षा करते हुए यह अदालत, कार्यपालिका को कोई भी विशेष नीति तैयार करने का निर्देश नहीं दे सकती है. फिर भी, संवैधानिक मानकों की कसौटी पर किसी नीति की वैधता का आकलन किया जा सकता है.

(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)